मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

ईश्वर आज भी हड़ताल पर था!

उनके घर पर हुई यह पहली मुलाक़ात थी पर इतना परिचय तो रहा है कि एक संस्था की मीटिंग्स में परस्पर अभिवादन होता था। उनके शब्द हमेशा भीगे हुए से लगते पर वो अपनी बात कह शांत हो जाते। मैं और जानना चाहती थी पर कभी हिम्मत ही न हुई। उम्र का लिहाज़ और फिर किसी की ज़िंदगी में झांकना उचित भी नहीं लगता।

संयोग कुछ ऐसा कि उन्होंने मेरी एक मित्र के साथ मुझे भी चाय पर आमंत्रित किया। वैसे इस समय, मेरे जाने का मूल उद्देश्य उनके बगीचे को देखना था। जाते ही उन्होंने बाहर आकर स्वागत किया। आलीशान घर.... कुछ ऐसा जो हम फिल्मों में देखते हैं। बगीचा.....इतना सुंदर कि वहाँ से उठने का मन ही न करे और वो इंसान भी इतने नेकदिल कि आपके हाथ ख़ुद उनके लिए दुआ को उठने लगें। वो न बहुत बड़े लेखक हैं, न कोई सेलिब्रिटी.....किसी मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ी पोस्ट से चार वर्ष पूर्व ही रिटायर हुए हैं। मैं उनका परिचय नहीं देना चाहती, इसलिए इससे ज्यादा जानकारी भी नहीं दूंगी।

पंद्रह वर्ष पूर्व अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी को खो चुके हैं। घर वालों की ज़िद के बाद भी पुनर्विवाह नहीं किया। जरूरतमंद लोगों की हर संभव मदद करते हैं। सिर्फ आर्थिक सहायता ही नहीं, स्वयं जाकर भी ढेरों काम करते हैं। हम जब पहुंचे तब, घर पर सिर्फ हेल्पर था और हर तरफ सन्नाटा पसरा पड़ा था। पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका एक पुत्र है जो अच्छे जॉब में है। उसे भी कैंसर हुआ और आखिरी स्टेज में है। प्रेम-विवाह किया है उसने। बहू इस दुःख से अवसाद में डूबती जा रही थी तो अब वो भी व्यस्त रहने के लिए नौकरी करने लगी है। चार वर्ष का एक पोता है। उसके बारे में बात करते हुए उनकी आँखों में नमी थी और चमक भी। हम बातें कर ही रहे थे कि वो तीनों भी बाहर से आ गए। वही मुस्कान का आदान-प्रदान हुआ। थोड़ी देर बाद हमने उन सबसे विदा ली।

अँधेरा धीरे-धीरे अपने पाँव पसार रहा था और उस विशाल गेट के दोनों ओर लगे लैम्पों में से झांकती सफ़ेद रौशनी सामने का लंबा रास्ता दिखा रही थी। शाम को खूबसूरत दिखते बड़े-बड़े वृक्ष अब भयावह लगने लगे थे। मन भारी था, शब्द मौन। क़ाश, कोई टूटता तारा इसी वक़्त मेरी झोली में आ गिरे!
कैसे गिरता!
ईश्वर आज भी हड़ताल पर था!
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इतना सब लिखने का मेरा क्या उद्देश्य है, ये तो मैं भी अभी नहीं समझ सकी हूँ। 
बस, एक बात कहना चाहती हूँ....अमीरों के लिए जो एक तरह का भ्रम या सोच हमारे समाज में बनी है। उससे थोड़ा ऊपर उठना चाहिए। अमीर और गरीब के बीच कोई गहरी खाई नहीं, ये सदा बुरे और अच्छे इंसान के बीच ही रही है। हर पैसे वाला अय्याश नहीं होता, बेईमान भी नहीं। न उसके बच्चे नशे में धुत होकर महँगी गाड़ियाँ चला फुटपाथ के लोगों को कुचलते हैं और न ही उनकी बीवियाँ किटी पार्टी और फैशन परेड में व्यस्त रहती हैं। वो सुखी ही हो, ये भी तय नहीं! एक बार अपनी मानसिकता से ऊपर उठकर इन घरों में भी झांकना बेहद आवश्यक है क्योंकि ये सामान्य लोगों जैसे ही हैं और आज जहाँ हैं अपनी मेहनत और लगन के दम पर पहुंचे हैं। इस बीच उन्होंने इतना कुछ खोया है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती! दुर्भाग्य ही तो है कि सब पैसा देखते हैं, संघर्ष की कहानी कोई नहीं सुनना चाहता!
- प्रीति 'अज्ञात'
(अगस्त'2016 की एक उदास शाम की असल कहानी)