सोमवार, 7 सितंबर 2015

'सच' तो ये.... 'सच' कुछ भी नहीं !

क्या मैं हमेशा सच बोलती हूँ ? या बोल पाती हूँ ? यह बात ही सच की सच्चाई को बयां कर रही है. हाँ, मैं सच बोलना पसंद करती हूँ, पर हर बार सत्य ही बोल सकूँ, यह संभव नहीं हो पाता, क्योंकि उसमें किसी को आहत कर देने का भय भी समाहित होता है. और यदि मेरे बोले सच से किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचे तो मैं असत्य का सहारा लेने की बजाय मौन हो जाना ज़्यादा पसंद करती हूँ. पर यदि न्याय और अन्याय के बीच जंग छिड़ी हो, तो मैं बेझिझक सच का दामन थाम लेती हूँ, फिर चाहे सामने वाला इंसान कितना ही प्रतिष्ठित और ताक़तवर क्यूँ न हो !

'सच' की सबसे बड़ी सुंदरता यह है, कि वो एक ही होता है और स्थाई भी, उसके साथ कहानियाँ गढ़ने का परिश्रम नहीं करना पड़ता, उसे याद नहीं रखना होता ! 'झूठ' को हमेशा संभालना होता है, किन परिस्थितियों में किससे, कब, क्या और क्यों कहा था, इन सभी बातों से मस्तिष्क इतना ज़्यादा बेचैन हो जाता है कि झूठ बोलने वाला व्यक्ति खुद भूल जाता है और आसानी से पकड़ में आ जाता है.

'सच' के साथ हमेशा रह पाना उतना आसान भी नहीं, मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूँ जो बड़े ही गर्व से खुद को 'सत्यवादी' कहलाना पसंद करते हैं. पर जब कोई और उनका सच कहे तो, तिलमिला उठते हैं. मेरी नज़रों में असली सत्यवादी वही है जो दूसरों का सच बोलने के साथ-साथ अपनी सच्चाई भी नि:संकोच स्वीकार कर सके. वरना वो 'सत्यवादी' नहीं 'आलोचक' ही कहलाएगा ! ध्यान रखने योग्य बात यह भी है, कि सच बोलने के पहले उसके होने की पुष्टि ज़रूर की जाए और जब यह तय हो जाए कि वही सामने वाले का सच है, उसे तभी ही बोला जाए ! कई बार लोग आधी-अधूरी बात से या पूर्वाग्रह से वशीभूत हो स्वयं ही पूरी कथा बुन लेते हैं, इससे बचना चाहिए. 'आधा सच' भी 'आधा झूठ' ही होता है !

सत्य की एक विडंबना यही है कि ये अक़्सर ही अकेला होता है, जबकि झूठ के साथ पूरा मेला होता है. सच बहुधा उदास हो, कोने में छुपा अकेला सूबकता है जब लोग झूठ की तलाश में व्यस्त रहते हैं ! सत्य कायर नहीं है ,ये ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही आशावादी हैं, तभी तो चुप हो बैठ जाता है, और झूठ की प्रतिरोधक-क्षमता इससे कहीं ज़्यादा दिखाई पड़ती है. जो दिखता है, उसे ही दुनिया भी सच मान लेती है, क्योंकि असली मज़ा तो उन्हें झूठ ही देता है. एक सरल, सच के साथ चलने वाला जीवन 'झूठ' की छत्रछाया में हताश और उम्र-भर संघर्षरत रहता है. आजकल 'झूठ' ज़्यादा बेबाक और 'इन' है, और 'सच' अकेला ही अपने अस्तित्व की तलाश में खिसियाता-सा हाथ-पाँव मारता दिखाई देता है. लेकिन मैंनें न हार मानी है और न मानूँगी, 'सच' के साथ, बिना किसी के सहारे, नि:स्वार्थ आगे बढ़ना है, जिसे जो सोचना है सोचे....वो उनकी स्वतंत्रता है. मैं लोगों के बार-बार झूठ से व्यथित अवश्य होती हूँ और बेहद विचलित भी, पर यही तो जीवन है !
वर्तमान परिवेश, समाज और व्यवस्था को देखते हुए यही कहना चाहूँगी कि - 

झूठ, झूठ और सिर्फ़ झूठ ! 
सारे रिश्ते-नाते...झूठ ! 
दोस्ती के वादे....झूठ ! 
अपनेपन के दिखावे..झूठ ! 
प्यार की वो बातें....झूठ ! 
सारे ख़्वाब सुनहरे....झूठ ! 
खुशियों के वो पल भी कृत्रिम, 
चेहरे की मुस्कानें......झूठ ! 
झूठी बस्ती, झूठा जमघट, 
ये लगता, रिश्तों का मरघट ! 
मायावी इंसान यहाँ पर, 
एहसासों की बातें.....झूठ ! 
स्वार्थ भरा, अब हर धड़कन में, 
दिल ना समझे, इनकी चाल ! 
कब तक गिनता, अपनी साँसें, 
ज़ज़्बातों का ये कंकाल ! 
झूठ ही सब पर हावी है,अब 
सच क्या है, मालूम नहीं, 
शब्दकोष का हिस्सा है, बस 
'सच' तो ये.... 'सच' कुछ भी नहीं !

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