शनिवार, 29 अगस्त 2020

मुद्रित पत्रिकाओं की विदाई दुखद है!

 

'नंदन और कादम्बिनी अब प्रकाशित नहीं होंगी', ये जानकर एक झटका सा लगा! यूँ मैंने वर्षों से नंदन पत्रिका नहीं देखी लेकिन मेरे अवचेतन मन का अटूट हिस्सा यह सदा ही रही है. एक रिश्ता होता है न जैसे दिल का! जहाँ साथ न होकर भी हर समय साथ चलता है कोई! बस,वही समझ लीजिए. नंदन का बंद होना यूँ लग रहा, जैसे आज उन्हीं मधुर स्मृतियों में से किसी ने कोई सुनहरा पन्ना अचानक ही खींच लिया हो! इसके साथ ही बाल साहित्य का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो चुका है.

दरअसल बुक रीडिंग की लत वाली एक पूरी पीढ़ी है जिसके साथी रहे हैं, चम्पक, लोटपोट, चंदामामा, नंदन, पराग, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और कादम्बिनी. मैं भी उसी पीढ़ी का हिस्सा हूँ. बचपन से लेकर अब तक उम्र के प्रत्येक पड़ाव पर पत्रिकाओं से गहरा रिश्ता रहा है. यही कारण है कि जब भी बीते समय के बियावान में भटकती हूँ, सुनहरे पन्ने फड़फड़ाते हैं और कागज़ों की ख़ुश्बू स्वतः ही साथ चलने लगती है. यूँ बचपन की सूची में सुमन-सौरभ, क्रिकेट सम्राट, राजन-इक़बाल का भी बोलबाला रहा. बाद में प्रतियोगिता दर्पण, रीडर्स डाइजेस्ट भी जुड़ गए. फिर कुछ स्त्री प्रधान पत्रिकाएँ भीं. पापा हमेशा कहते कि "अच्छी भाषा सीखनी है तो कादम्बिनी पढ़ा करो." प्रारम्भ में ये मुझे उतनी पसंद नहीं थी पर जैसे-जैसे आयु बढ़ी, उसके साथ-साथ सोच भी परिष्कृत होती गई. परिणाम यह हुआ कि कादम्बिनी का लम्बा साथ बीते वर्ष तक रहा जबकि नंदन किशोरावस्था को पार करते-करते छूट गई थी. कादम्बिनी में चित्र को देखकर चार पंक्तियाँ रचना मुझे बहुत अच्छा लगता था. बड़ी हुई तो इसके साथ और कई पत्रिकाओं में प्रकाशित होने का सुखद अहसास भी जिया है मैंने. उस समय यह सुख अलग ही लेवल का हुआ करता था.

बच्चों के बीच नंदन की लोकप्रियता का कारण इसके पाठकों की पसंद का पूरा-पूरा ख्याल रखा जाना था. संपादकीय भी अपनत्व भरा होता था.  कुल मिलाकर इसमें प्रत्येक बच्चे के लिए रुचिकर सामग्री थी. स्थाई स्तम्भ 'तेनालीराम', 'चीटू-नीटू' और 'आप कितने बुद्धिमान हैं' सबसे पहले पढ़े जाते. चित्र में कमियाँ ढूँढ स्वयं को बुद्धिमान मान लेना बहुत आनंद देता था. उसके बाद इसकी कहानियों का नंबर आता. बाल-समाचार भी होते थे.
नंदन की एक टैग लाइन हुआ करती थी. न जाने अभी उसमें थी या नहीं लेकिन बचपन में पढ़ी ये पंक्तियाँ मुझे अब तक याद हैं, "जो बच्चे नंदन पढ़ते हैं, जीवन में आगे बढ़ते हैं." ये न भी लिखा गया होता, तब भी ये पत्रिका प्रिय थी मुझे. हाँ, इन पंक्तियों का भाव मुझे अत्यधिक प्रेरणा देता था. 

उस समय पुस्तकों से श्रेष्ठ साथ कुछ लगा ही नहीं कभी! पढ़ने की ग़ज़ब भूख थी!. पत्रिकाएँ आतीं और हम बहिन-भाई उस पर झपट पड़ते. किसको कौन सी पत्रिका पहले मिलेगी, इस बात पर ही कुत्ते-बिल्ली सा लड़ बैठते. अधिकतम दो दिनों में सारी पत्रिकाएँ चट हो जातीं. इसके बाद तृप्ति हेतु प्रतिदिन, किराए से पच्चीस पैसे के दो-तीन कॉमिक्स लाए जाते. बचपन की बहुत प्यारी साथी थीं पत्रिकाएं. उनकी ऐसी प्रतीक्षा और ललक अब नहीं दिखती क्योंकि इनसे कहीं अधिक विकल्प उपस्थित हैं.

समय के साथ परिवर्तन होना अवश्यंभावी है. मुद्रित पत्रिकाओं का पाठक वर्ग पुराना है जिसका कागज़ से मोह छूटता ही नहीं! नई पीढ़ी विकास का इंटरनेट संस्करण है. ये ई.बुक/ किंडल को प्राथमिकता देती है या फिर अंग्रेज़ी की पुस्तकों को. इसमें उनका कोई दोष नहीं. जब कक्षाओं का स्वरुप बदल चुका है, परीक्षाएँ ऑनलाइन हो रहीं, ऐसे में इन्हें पुस्तकें भी डिजिटल ही पसंद आएंगी. 
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों को बचपन में तो हम हिन्दी की ख़ूब पुस्तकें पढ़ने को देते हैं, बेडटाइम स्टोरीज भी सुनाते हैं लेकिन उसके बाद बच्चे अपनी पसंद स्वयं तय कर लेते हैं. उनके पास विकल्प बहुतायत में हैं. यद्यपि ये  पौराणिक कथाएं भी पढ़ते हैं और हैरी पॉटर भी. इनके लिए दसियों तरह के कार्टून चैनल उपलब्ध हुए, फिर वीडियो गेम्स आ गए. उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स का प्रचलन बढ़ा. अब मोबाइल है, ज्ञान बाँटने को व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी है. एक तो इंटरनेट की विशाल दुनिया, उस पर हॉबी क्लास के चक्कर! इन सबके आगे हिंदी पत्रिकाओं का महत्व गौण होता चला गया. प्राथमिकताएँ बदलती रहीं. इन परिस्थितियों में पत्रिकाएँ बंद न हों तो क्या हों फिर!  फिर भी कहूँगी कि इनके ऑनलाइन संस्करण पर विचार करना चाहिए. 

कितना कुछ है जो पीछे रह गया, कितना कुछ है जो बदल चुका. कभी-कभी तो लगता है कि एक दिन केवल यादें ही शेष रह जाएंगी और दिखाने को कुछ भी साथ न होगा! बीतता जा रहा समय शनै: शनै: इन यादों की तस्वीर भी धुँधली कर देगा! बस, एक गैजेट भर बचेगा हाथ में, वही दुनिया से जोड़े रखेगा! इस यात्रा और ऐसे कई अवसान के साक्षी हमें ही होना है. मुद्रित पत्रिकाओं की समाप्ति की प्रक्रिया इसी का दुखद पक्ष है. इसे स्वीकारने के सिवाय अब और उपाय भी क्या है!
- प्रीति 'अज्ञात'
#नंदन #कादम्बिनी  #प्रीतिअज्ञात

बुधवार, 26 अगस्त 2020

#Women's Equality Day 2020

 'फेमिनिज्म' शब्द का प्रयोग हर युग में, हर तबके में, हर ओहदे पर बैठे लोगों द्वारा अलग-अलग विधियों से अलग-अलग प्रयोजनों के लिए किया जाता रहा है. 'स्त्रीत्व' के नाम पर खुद की महानता के गुणगान और हर बात में पुरुषों को दोषी ठहरा देना निहायत ही गलत है. हमारी और आपकी दुनिया में बहुत अच्छे और सुलझी सोच वाले पुरुष भी हैं, ये तो हम सभी मानते हैं. यह भी एक कटु सत्य है कि अत्याचार पुरुषों पर भी होते हैं, जिन्हें वो कह नहीं पाते! ‘स्त्री-सशक्तिकरण’ को बवाल समझने वालों के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह संघर्ष पुरुष वर्ग के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है. इस पर कुंठा नहीं, विमर्श की आवश्यकता है. पुरुष हो या स्त्री, क्या फ़र्क़ पड़ता है. बस, दोनों में मानवता बची रहनी चाहिए!

पहले और अब की परम्पराओं में फ़र्क़ आ चुका है और सोच में भी. परिवर्तन गर हुआ है तो यही, कि अब स्त्री को अपनी समस्याओं पर बोलना आ गया है, झिझक खुलती जा रही है,वो multitasking करना भी जान गई है. लेकिन हर बात में झंडा फहराते हुए मोर्चा निकाल देना और बेफिजूल की नारेबाज़ी सही नहीं लगती! अबला, असहाय, निरीह अब पुराने गीत हैं. 'स्त्री-सशक्तिकरण' माने ये नहीं कि हमें हर वक़्त ‘युद्ध मोड’ में रहना है. अपने कर्त्तव्यों के पूर्ण निर्वहन के साथ, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक एवं सचेत रहकर सत्य के पक्ष में खड़े हो, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना ही 'feminism' है. नारी आंदोलन, नारी अधिकारवाद, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्रीत्व ज़िंदाबाद के नाम पर हो रही तमाम रैलियों और टिमटिमाती मोमबत्तियों को मैं खारिज़ करती हूँ.  

हम जिस समाज का हिस्सा हैं, वहां नारी ने शोषित, उपेक्षित होना अपनी नियति मान लिया है. हृदय से वह उन्मुक्त, स्वतन्त्र रहना चाहती है, खुली हवा में विचरण करते हुए साँस लेना उसे भी खूब सुहाता है. अपनी शक्ति, अपनी सत्ता का भी बखूबी अहसास है उसे पर वो अंदर से भयभीत है, इसे अपने संस्कारों का दुरुपयोग समझती है. आसमाँ को छूकर लौट आने के बावज़ूद भी वो अपने पैर अपने मूल्यों की ज़मीन पर ही जमाए हुए है.
नारी की महत्ता में न जाने कितने ग्रन्थ लिखे गए लेकिन सच यह भी है कि आज के प्रगतिशील समाज में नारी कितनी ही ऊँचाइयाँ क्यों न छू ले, उसका शोषण बदस्तूर जारी है. हर क़दम पर उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है. दु:खद ये भी है कि इस लड़ाई की शुरुआत, प्राय: घर से ही होती है.
 
प्राय: हर घर में ही होता है कि छोटी-से-छोटी बात के लिए भी हम पुरुषों का मुँह देखते हैं. यहाँ तक कि कोई बच्चा यदि मेले में गुब्बारा माँग रहा है तो हम तुरंत उसे न दिलाकर पहले पूछते हैं सुनो, दिला दूँ क्या? ज्यादातर प्रश्नों के उत्तर में हम यही कहते हैं कि इनसे पूछकर बताऊँगी, या पापा से बात करती हूँ, भैया नाराज़ हो जाएँगे. हाँ, परिवार है, हमारे अपने संस्कार और सभ्यता है पर अरे, छोटी सी बात का निर्णय भी नहीं ले सकते क्या हम? सच कहूँ तो पुरुषों को इन सब बातों की परवाह ही नहीं होती. कभी उनसे पूछकर देखिये, कि खाने में क्या बना लूँ? जवाब आएगा, अरे कुछ भी बना लो! हम सबको यहाँ से शुरुआत करनी है, निर्णय लेने की स्वतंत्रता की. यहाँ से ही हमारे आत्मविश्वास का प्रारम्भ होगा.

हमारे आसपास की दुनिया पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि अशिक्षित वर्ग की स्त्रियाँ भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. कोई सब्जी बेचकर, कोई घर-घर काम करकर, मजदूरी करके पैसे कमा रही हैं, अपने परिवार का पेट भरती हैं. मैं मानती हूँ कि हमारा सामाजिक ढाँचा ऐसा है कि हर स्त्री घर के बाहर निकल काम नहीं कर सकती, सबकी जिम्मेदारियाँ और प्राथमिकताएँ अलग-अलग होती हैं. स्त्रियों के पास समय का अभाव हो सकता है लेकिन उनकी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता पर किसी को संदेह नहीं है. यदि आपमें कोई कला है तो यही समय है अपना हुनर दिखाने का. घर बैठे हुए भी हॉबी क्लास चला सकती हैं. इसके लिए सरकार द्वारा बनाई गई विभिन्न योजनाओं का लाभ लिया जा सकता है. वैसे भी पैसे की आवश्यकता न भी हो पर आत्म संतुष्टि जरूर मिलेगी. हमें उम्र भर यह कहते हुए कुंठित क्यों होना कि मेरी पढ़ाई तो चौके-चूल्हे में ही झोंक दी गई. आप उसके साथ भी बहुत कुछ कर सकती हैं बशर्ते आप अपने आप को भी प्राथमिकता सूची में स्थान दें. याद कीजिए, आखिरी बार कब आपका नाम लिया गया था? मम्मी, चाची, बुआ, मौसी, दीदी के रिश्तों से होते हुए कब ज़िन्दगी गुज़र जाती है पता भी नहीं चलता और एक दिन आपका नाम मात्र प्रमाणपत्र तक ही सीमित रह जाता है.

किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार होता है. कोई उस पर बुरी नज़र रखता है. कोई उसकी इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ करता है. आदि काल से यह सब किसी-न-किसी रूप में होता ही आ रहा है. प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप में हर युद्ध, कलह और विद्वेष का कारण स्त्री को ही बताया जाता रहा है. स्त्री देह को समाज और परिवार की नाक मानने की प्रथा भी संभवतः प्राचीन काल से ही रही होगी और उसका अपमान होते ही पूरे वंश की संवेदनाएँ आहत होना भी स्वाभाविक है. तभी तो बदनामी से तंग आकर और इन परिस्थितियों से छुटकारा पाने के लिए स्त्री आत्महत्या को एकमात्र विकल्प मानने लगी थी कि उसके परिजन का सम्मान बना रहे, भले ही उसे यह शरीर त्यागना पड़े!

लेकिन सवाल यह है कि आग में वो ही क्यों कूदे? सती-प्रथा हो या जौहर, एक नारी के लिए ये समाज की कुदृष्टि से बचने के लिए चुना गया अंतिम विकल्प है जो दुर्भाग्य से सामूहिक भी होता आया है. कितने दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण  होते होंगे वो पल, जहाँ उसे इस बात का पूरा भरोसा हो जाता है कि उसके मान-सम्मान की रक्षा करने वाला कोई नहीं! और लोग इसे महानता कहकर अपनी शर्मिंदगी पर पर्दा डाल देते हैं! हाँ, वो सचमुच महान है पर पुरुष समाज से निराश भी!

कभी सुना है कि किसी स्त्री पर कुदृष्टि डालने वाले, उसका शारीरिक शोषण करने वाले किसी पुरुष ने आत्महत्या कर ली हो? या कोई सिर्फ़ इसलिए ही आग में जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गया क्योंकि वो अपनी पत्नी /प्रेमिका को बचा न सका?
समाज, परिवार और खानदान की इज़्ज़त के नाम पर स्त्रियों के मन-मस्तिष्क को सदियों से खोखला किया जाता रहा है. कितने आश्चर्य की बात है कि जिस स्त्री पर संदेह हुआ या जिसकी अस्मत लुटी, उसे ही दोषी ठहरा बाहर किया जाता रहा या फिर उसे आत्महत्या के लिए उकसाया गया. उस पर हम ऐसे लोगों को पूजते भी रहे हैं. वहीँ पुरुष की शानोशौकत में तो कोई कमी नहीं दिखती!

ऐसा क्यों है कि पीड़िता को ही जीने की जद्दोज़हद करनी पड़ती है और गुनहगार आसान ज़िन्दगी जीता है?
क्यों स्त्री को अपने अधिकारों के लिए पुरुष का मुंह ताकना पड़ता है?
दोषी पुरुष क्यों आसानी से समाज में स्वीकारा जाता है?
क्या है इज़्ज़त की परिभाषा? जो कपड़े उतारने वाले इंसान से ज्यादा, पीड़िता से छीन ली जाती है. क्या ये कोई सामान है कि कोई लूटकर चला गया? ग़र है तो दोषी लूटने वाला हुआ या कि लुटने वाला?
धिक्कार है, इस तथाकथित सभ्य समाज पर जो पीड़िता के दर्द को समझने की बजाय, उसके ज़ख्मों को और भी नोच देता है.
लानत है उन अपनों पर भी, जो उसके साथ खड़े होने के बदले सदा के लिए उससे नाता तोड़ लेते हैं.
स्त्री की शक्ति का  स्त्रियों को स्वयं भी अनुमान नहीं होता पर वो हर दर्दनाक हादसे से उबर सकती हैं अगर बाद में उसका मानसिक बलात्कार न किया जाए.

आपके शब्द किसी को आगे बढ़ने का हौसला दे सकते हैं, किसी की ज़िंदगी संवार सकते हैं. दर्द कम हो, न हो पर ये विश्वास भी प्राणवायु की तरह काम करता है कि "जिस पर बीती, वो तिरस्कृत नहीं किया जा सकता. एक भयावह हादसा, किसी वर्तमान रिश्ते को ख़त्म करने की वजह नहीं बन सकता. पीड़िता भी एक आम इंसान की तरह जीने की, हँसने की उतनी ही हक़दार है जितनी कि पहले हुआ करती थी."
 
हमारा समाज और इसकी सीखें ही कुछ ऐसी हैं कि उम्र के किसी भी मोड़ पर हममें से कई लोग कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं शारीरिक शोषण, मानसिक उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का शिकार होते रहे हैं! अकेलेपन का भय, असुरक्षा की भावना और सामाजिक नियम स्त्रियों को चुप रहने और अत्याचार के विरुद्ध न बोलने को मजबूर करते रहे हैं! पर कभी सोचा है कि उन बच्चों का क्या, जो आप से सीख रहे हैं! आने वाली पीढ़ियों को हम क्या देकर जाएंगे? चुप्पी???
- प्रीति 'अज्ञात'
#repost #Women's Equality Day 2020 #Feminism



#UnmaskingtheMASK3 #TheMASK_Story3 हम तो अब तक सीट बेल्ट और हेलमेट की क़शमक़श से भी नहीं निकल पाए थे कि मुआ 'मास्क' आ गया!

आपको ऐसे लोगों के दर्शन का सौभाग्य अवश्य प्राप्त हुआ होगा जो दुपहिया वाहन चलाते समय हेलमेट को कहीं-न-कहीं अटका लेते हैं. जी, ये सिर के स्थान पर उन सारी जगहों पर दिखाई देगा जहाँ इसका होना-न -होना एक बराबर है. कभी यह हाथ में कंगन की तरह लटका  मिलेगा, कभी बैग वाले हुक में झूल रहा होगा तो कभी पीछे वाली सीट पर बैठे इंसान के हाथ में नज़र आएगा. 

यदि सिग्नल पर ट्रैफिक मैन नहीं हैं तब तो फ़िक़र नॉट और यदि है तो उसके दर्शन की उपलब्धि प्राप्त होने के ठीक तीन सेकंड पहले, पीछे बैठा दोस्त हँसते हुए वीर पुरुष को हेलमेट पहना देता है. यदि पहनने से चूक गए और हाथ में थामे हुए पकडे गए तो मातमी चेहरा बनाकर बोल देंगे, "सर, वो थोड़ा वोमिट टाइप फ़ील हो रहा था. बस बिल्कुल अभी ही हटाया है." वोमिट सुनते ही कर्तव्यनिष्ठ बंदा वैसे ही उछलकर तीन फुट दूर जा खड़ा होता है.
यही स्थिति कार में सीट बेल्ट न पहनने वालों की है. सिग्नल आते ही 'मि./मिस इंडिया के पट्टे की तरह लगा लिया और क्रॉस करते ही मुक्ति की वादियों में साँस ली.
इस चर्चा का सार यह है कि हम स्वयं की सुरक्षा से कहीं अधिक पकड़े जाने के भय से चिंतित हैं. बेइज़्ज़ती न हो जाए. खोपड़ी फट जाए भले पर फ़ाइन न लग जाए! जान-वान का क्या है! आनी-जानी है! अपन तो शेर का जिगरा रखते हैं.

बताइए भला! ये भी कोई बात हुई! अब तक हम सीट बेल्ट और हेलमेट की क़शमक़श से निकल भी नहीं पाए हैं कि 'मास्क महोदय' ने दस्तक दे दी. आपको क्या लगता है कि हम भारतीय इसका तोड़ न निकाल पाएंगे? हज़ूर, तो फिर अभी आपने हमें और हमारे टशन को जाना ही कितना है? डोंट अंडर एस्टीमेट द पॉवर ऑफ़ इंडियन ब्रेन!

हम सब ट्रैफिक मैन की कर्तव्यपरायणता को ध्यान में रखते हुए मास्क सदा ही अपने साथ रखते हैं. जो सूखे मुँह अर्थात बेमास्क बाज़ार जाते हैं वे जाहिल, निकम्मे लोग, पाँच सौ और हज़ार की क़द्र करना नहीं जानते. ईश्वर इन्हें भी देख रहा है. यद्यपि मनुष्यों में इनकी मान्यता रद्द कर दी गई है.

खैर! अभी तो हमारा पूरा फोकस उन रचनात्मक (Creative) महानुभावों पर है जिनके दिमाग़ की तेज़तर्रार कोशिकाओं से बिल गेट्स से लेकर अपने जुक्कू भैया भी अत्यधिक घबराहट महसूस करते हैं. तो ज़नाब, हाल ही की एक महत्वपूर्ण शोध के अनुसार हमारी संस्कृति की विविधता की तरह मास्क को धारण करने के तरीक़े भी विविध प्रकार के होते हैं. प्रांतीयता और भेदभाव की निकृष्ट भावना से ऊपर उठकर सर्वसम्मति से इन पाँच मास्क पहनावों की मान्यता मन ही मन इनके धारकों द्वारा स्वीकृत कर ली गई है -

नासिकास्क- इसे अर्धास्क अथवा नास्क भी कह सकते हैं क्योंकि यह केवल नासिका द्वार की रक्षा करता है. इसे पहनने वालों की यह धारणा है कि Covid वायरस केवल नासिका के दायें-बाएं छिद्रों से ही प्रवेश करता है. अपने संकोची स्वभाव के कारण यह मुँह खुला देखकर हतप्रभ हो लौट जाता है.

दोलनास्क- कुछ स्थानों पर इसे ही दोलन मास्क कहा जाता है. प्रायः यह कान पर लटका हुआ पाया जाता है तथा वायु के तेज प्रवाह में किसी पेंडुलम की तरह झूलने लगता है. आप इसे सहजता से पहचान सकते हैं. अंचलों में इसे ईयर रिंग/ झुमका मास्क तथा कानास्क भी कहते हैं.

मुखास्क- इसमें केवल मुँह को ढकते हुए ही मास्क (मुआस्क) पहना जाता है. इसके समर्थन में अपहरणकर्ताओं से जुड़ी कई दलीलें दी जाती हैं कि वे भी मुँह दबोचकर ही पकड़ना उचित समझते हैं अतः कोरोना वायरस भी इसी मार्ग से हम पर आक्रमण करता है. जी, यह नासिकास्क का विपरीत नियम है.

ठुड्डास्क - यह तब पहना जाता है जब प्राणवायु ऑक्सीजन को नासिका से ग्रहण कर दूषित कार्बनडाईऑक्साइड को मुख के माध्यम से वातावरण में विसर्जित किया जाता है. चूँकि यह एक निरंतर प्रक्रिया है अतएव विवश होकर मनुष्य को मास्क अपनी ठुड्डी/दाढ़ी/ हनु पर रख इस महामारी से स्वयं को सुरक्षित करना पड़ता है. इसी कारण इसे स्नेहवश हनुमास्क भी पुकारा गया है.

हेयरबैंडास्क - यह पहनावा स्त्रियों में अधिक प्रचलित है. मान्यता है चूँकि उन्हें बाल्यकाल से ही हेयर बैंड पहनने की आदत रही है अतः म्यूटेशन के कारण उनमें यह गुण स्वतः ही विकसित हो गया है. जब उन्हें यह लगने लगता है कि विषाणु (Virus) बस दो सेंटीमीटर दूर है तब वे स्थिति को भांपते हुए तुरंत ही इसे नीचे खिसका लेती है. उनकी इस प्रत्युत्पन्नमति की विश्वभर में सराहना हुई है. बुद्धि के योगदान को नज़रंदाज़ न करते हुए कुछ वैज्ञानिक इसे  कपोलमास्क कहना उचित समझते हैं.

इनके अलावा एक पॉकेटास्क भी होता है जिसमें मास्क जेब में ही रखा तिरस्कृत अनुभव करता है. बिना प्रयोग किये मशीन में अनवरत धुलाई के कारण इसे महास्वच्छास्क भी मानते हैं. लेकिन इसके अनुचित एवं अनुपयोगी व्यवहार के कारण इसे मुख्य श्रेणियों में सम्मिलित नहीं किया जा सका है.
इसके अतिरिक्त भी कोई और प्रकार की खोज हुई हो तो कृपया जनता का ज्ञानवर्धन कीजिए.
चलिए, हम तो बस जनसेवा में लीन हैं. आप अपना-अपना समझ लीजिए. नारायण-नारायण.
- प्रीति 'अज्ञात'

इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है-

https://www.ichowk.in/humour/wearing-mask-in-coronavirus-pandemic-is-a-new-worry-for-indians-who-are-still-struggling-with-seat-belt-and-helmet/story/1/18341.html

#TheMASK_Story3 #Mask #Covid19 #coronavirus #UnmaskingtheMASK3  #मास्कगाथा3  #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात #iChowk

Photo Credit: Google



मंगलवार, 25 अगस्त 2020

क्या हमारे रोल बदल गए हैं?

 चलिए, चैनलों की ख़ातिर...झूठ को ही सही पर किसी गणितीय व्युत्पत्ति की तरह एक बार मान लीजिए कि रिया चक्रवर्ती निर्दोष साबित हो जाती हैं. फिर???

ये जो मानसिक लिंचिंग चल रही है उसकी भरपाई कौन करेगा?
आख़िर किसने चैनलों को ये हक़ दिया कि वे दिन रात बाल की खाल निकालते रहें! क्या उन्हें देश की न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं? या उन्हें ऐसा लगने लगा है कि सीबीआई के पास उन जैसी महान बुद्धि नहीं और वह उनके दिए प्रमाणों के आधार पर ही चलेगी? यदि ऐसा है तो फिर ये चीखपुकार बलात्कारी नेताओं और बाबाओं के विरोध में क्यों नहीं सुनाई देती? मानती हूँ कि सुशांत की हत्या की जाँच होनी चाहिए लेकिन काश! आपने दिशा की हत्या/ आत्महत्या पर ये बिगुल बजाया होता तो आज सुशांत जीवित भी हो सकते थे! यह बात केवल उदाहरण भर के लिए कह रही हूँ, सन्दर्भ व्यापक है.
दरअसल परेशानी यह है कि चर्चा का विषय किसी राजनीतिक लाभ के लिए ही बनता है, उसी आधार पर चुना जाता है. अन्यथा सरेआम आँखों देखी हत्याओं पर भी कोई चूं तक नहीं करता!

इसी बात का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि क्या उन्हीं को न्याय मिलेगा जिनके लिए देश चीखेगा? हमारी पुलिस और न्याय-तंत्र का यह दायित्व नहीं कि वे हर केस को उतनी ही गंभीरता से लें, जितना किसी व्यक्ति विशेष को लिया जाता है? निर्भया के लिए पूरा देश एकजुट हो गया तो सालों खींचने के बाद अंततः उसे मरणोपरांत न्याय मिला लेकिन बाक़ी रेप केसेस का क्या हुआ? हुआ ये कि हम चीखे-चिल्लाये नहीं तो कुछ कैसे होता भई? अपराधी मौज में हैं.  लेकिन क्या हर समस्या पर ध्यान आकर्षित करवाना जनता की जिम्मेदारी है? सम्बंधित विभाग का स्वतः ही, अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता?

बारिश है, बाढ़ है या कोई भी आपदा...जब तक जनता सिर पटक-पटककर रोएगी नहीं, कोई पलटकर नहीं देखता! कहीं वर्षों से स्ट्रीट लाइट ख़राब है तो कहीं गड्ढों के मध्य सड़क का भान होता है. गटर के ढक्कन खुले पड़े हैं. यदि कोई गिर जाये तो उसका दोष! क्योंकि उसे तो पता होना चाहिए था न कि इस डूबी हुई सड़क के बायीं ओर बीस कदम चलते ही एक गटर था और वो खुला भी हो सकता है! अब चूँकि किसी भलेमानुष ने उसमें पेड़ की डाल फंसाकर जनता को सचेत नहीं कर पाया था तो इसमें विभाग की क्या गलती!

तात्पर्य यह है कि यदि सब अपना-अपना काम पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से करें तो तनाव और सिरदर्द से पूरा देश बच सकता है. जबकि हो ये रहा है कि हम अपना छोड़ दूसरों को उनके काम याद दिलाने में अपना समय अधिक जाया कर रहे हैं. विपक्ष सत्ता को कोसता है और सत्ता उन्हें दोषी ठहराने का सुख प्राप्त करती है. अधिकांश चैनल, देश की अन्य समस्याओं को भुला, पुलिसिया कार्यवाही में लगे हुए हैं. पुलिस, व्यवस्था को दोष देने लगती है. लेखक, निष्पक्षता छोड़ राजनीति में घुस अपने-अपने पालों को चमकाने में लगे हैं. पत्रकार सब कुछ भूल नौकरी बचाने की जद्दोज़हद में है. तथाकथित साधु/ बाबा सांसारिक मोह में तर बैठे हैं और शिष्य उनके पाँव पकड़ कर इस उम्मीद में हैं कि एक दिन बिना कुछ करे वो भी मालामाल हो जाएंगे! जनता, नित न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठ अपना फ़ैसला सुनाने लगी है. झूठ को तोड़ मरोड़कर, सच की तरह पेश किया जा रहा और सच दबा दिया जाता है. 

तालियाँ हर दृश्य में बजती है, हर बार बजती हैं. आख़िर हम सब बंदर ही तो हैं! एक डुगडुगी बजी और सब कुछ एक तरफ़ रख देश का नाचना शुरू! हमारे रोल बदल गए हैं और इस समाज के उत्थान में हमारी भूमिका क्या है वो भूले से भी याद नहीं आ रहा है!
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 24 अगस्त 2020

Unmasking the MASK- 2 (The MASK Story-2) यदि सुरक्षित रहना है तो अब हमें आँखों की भाषा समझनी होगी!

यदि सुरक्षित रहना है तो अब हमें आँखों की भाषा समझनी होगी!


पूर्ण लॉकडाउन हटने के पश्चात् देखने में आया है कि कोरोना महामारी को लेकर इंसानों में अब पहले-सा डर नहीं रह गया है. वे पिछले महीनों की अपेक्षा कुछ कम तनाव में हैं. कभी-कभार हँस भी लिया करते हैं. प्रसन्न रहना अच्छा है परन्तु बीमारी के प्रति लापरवाह न रहा जाए!
बिना मास्क पहने लोगों का सडकों पर दिखाई देना चिंता का विषय है. शायद इन्होंने बीमारी की गंभीरता को भुलाकर यह मान लिया है कि जैसे धूप है, सर्दी-गर्मी है, बारिश है...वैसे ही कोरोना भी है. एक तरह से यह दिनचर्या का हिस्सा बन गया है. लगता है, तमाम मुसीबतों के बीच रहने तथा प्राकृतिक आपदा से जूझने को अभ्यस्त हम भारतीयों ने कोरोना के साथ भी सहज हो जीना सीख लिया है.

लौट रही है बाज़ार की खोई चमक
कहते हैं 'आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है' एक ओर तो कोरोना महामारी ने मौत का तांडव मचा रखा है, वहीं दूसरी ओर इसने सुरक्षा कवच 'मास्क' का एक अच्छा-खासा बाज़ार भी खड़ा करवा दिया है. यही नहीं, सैनिटाइज़र और साबुन के विक्रय में भी वृद्धि हुई है. अन्य उत्पादों में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए 'कोरोना फ्री' लेबल संजीवनी का कार्य कर रहा है तथा इस लेबल के साथ सजी वस्तुएँ हाथों-हाथ बिक रही हैं. महीनों से निराश विक्रेताओं के चेहरों की खोई चमक धीरे-धीरे लौटने लगी है.
सुपर स्टोर चालू हो चुके, अन्य दुकानें भी चलने लगी हैं. जहाँ काउंटर हैं, वहाँ दुकानदारों ने अपनी-अपनी दुकान के आगे टेबल लगाकर सीमा-रेखा खींच दी है. जहाँ नहीं हैं, वहाँ रस्सी बाँधकर सोशल डिस्टेंसिंग बना ली गयी है. सुपर स्टोर में अधिक भीड़ न हो अतः लाइन में लगकर अपनी बारी की प्रतीक्षा धैर्य के साथ की जाती है. रेस्टोरेंट में 'डाइन इन' भले ही न्यूनतम हो पर 'टेक-अवे' धड़ल्ले से चल रहा है.  
 
जहाँ जाइएगा, हमें पाइयेगा  

मास्क, केवल केमिस्ट के यहाँ ही मिलेगा और एक विशेष प्रकार का ही, ये बीती बात हुई. सच तो यह है कि जैसे होली के समय रंग, पिचकारी या फिर दीवाली पर दीये, रंगोली के ठेलों से सड़कों के किनारे रौनकें सजती हैं, कुछ ऐसा ही नज़ारा इनका भी है. 'जहाँ जाइएगा, हमें पाइयेगा' की तर्ज़ पर यह अब ठेलों से लेकर स्टेशनरी तक की दुकानों में उपलब्ध है. यह चप्पल के ठेले और चाय की किटली पर है. कुछेक सब्जी वालों ने भी इसे लटका रखा है. छोटी-मोटी दुकानों पर तो खैर है ही! कहीं प्लास्टिक में पैक है तो कहीं खुला ही लटका हुआ है, जिसे हर आने-जाने वाला पलटकर देख सकता है! कपड़े के बने इस रंगीन मास्क का रेट ऐसा है कि कोई भी खरीद लेगा लेकिन खुला मिलने के कारण यह भी संक्रमित हो सकता है, यह बात ग्राहकों को समझनी होगी.

क्या जीवन पटरी पर लौट आया है?  
अप्रैल-मई के मध्य एक ऐसा कठिन समय आया था, जब लगने लगा था कि न जाने अब जीवन कभी पटरियों पर लौटेगा भी या नहीं! फ़िलहाल यह पूर्णतः तो नहीं पर एक सीमा तक लौटता प्रतीत हो रहा है. स्थिति सामान्य न होते हुए भी सामान्य होने का भरम देने लगी है. अब इसे लापरवाही मानिए या अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर अत्यधिक विश्वास कि एक तरफ तो लोग अपना बहुत ध्यान रख रहे हैं तथा पूरी सुरक्षा के साथ ही बाहर निकलते हैं वहीं कुछ लोग बिना मास्क पहने  'आत्मनिर्भर' बने घूमते हुए भी देखे जा सकते हैं. आप इन्हें फ़ाइन या सुरक्षा की बात कहेंगे तो ये लड़ने पर उतारू हो जाते हैं.

अब आप कुछ ख़ास महसूस करते होंगे
स्टोर में प्रवेश करते ही, कहीं-कहीं वीआईपी फ़ील भी मिल जाता है. जहाँ एक व्यक्ति द्वार खोलता है और दूसरा सैनिटाइज़र स्प्रे कर आपके हाथ के कीटाणुओं को नष्ट करता है. उसके बाद ही आप वस्तुओं को स्पर्श कर सकते हैं. दुकानदार पहले की अपेक्षा अधिक विनम्र और मृदुभाषी भी हो गए हैं.
हवाई यात्रा आपको एस्ट्रोनॉट का लुक अलाइक बना देती है. इसी से याद आया कि अभी पिछले हफ़्ते एक मित्र के परिवार के दो सदस्यों को आकस्मिक यात्रा करनी पड़ी. वो बोली कि मैंने तो कह दिया है पूरी किट संभालकर ले आना. बाद में आने वाली पीढ़ियों को बताएंगे कि 'देखो! कोरोना काल में ऐसे जीते थे!' यह सुनकर एक पल को मुझे यह विचार भी आया कि कुछ तस्वीरों में जिन्हें हम 'एलियन' कहते हैं कहीं वो भी हमारी तरह किसी 'कोरोना महामारी' के शिकार सामान्य मनुष्य ही तो नहीं थे? इस समय हमारी तस्वीरें कहीं दूसरे ग्रह के लोग देख लें तो उन्हें भी यही लगेगा कि अरे! पृथ्वी की तो जेनेटिक कोडिंग ही बदल गई! हाहाहा.

याद रहे कि इस लड़ाई में हमारा सुनिश्चित हथियार 'मास्क' है, जिसका साथ अभी लम्बा चलेगा. ये तय है. थोड़ी असुविधा होगी. 'लुक' ख़राब लगेगा लेकिन यदि सुरक्षित रहना है तो अब हमें इसी मास्क के साथ जीना सीखना होगा और आँखों की भाषा समझनी होगी!
- प्रीति ‘अज्ञात’  
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है-
https://www.ichowk.in/society/covid-19-mask-significance-of-mask-in-post-coronavirus-era-important-hygiene-tips-for-wearing-mask/story/1/18342.html
#TheMASK_Story2 #Mask #Covid19 #coronavirus #UnmaskingtheMASK2  #मास्कगाथा2 #preetiagyaat #प्रीतिअज्ञात #iChowk

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मंगलवार, 18 अगस्त 2020

Unmasking the MASK- 1 (The MASK Story-1) #मुखौटा ( मास्क) परम्परा: कल भी, आज भी, कल भी

मुखौटा ( मास्क) परम्परा: कल भी, आज भी, कल भी 
उन दिनों जब Covid-19 का प्रकोप चीन से प्रारम्भ हो यूरोपीय देशों में अपना असर दिखा रहा था, हम भारतवासी स्वयं के लिए कुछ हद तक निश्चिन्त थे. हमारा जीवन सामान्य था. देश भर में आवाजाही जारी थी. न जाने कब यह वायरस हवाई रास्ते से हमारे देश आ पहुँचा और अब तक लाखों लोग इसके शिकंजे में फँस चुके हैं. ठीक होने वालों का अनुपात भले ही अधिक है लेकिन मृत्यु के आँकड़े बेहद भयावह हैं. उस पर WHO से मिलने वाली सूचनाएँ हर बार एक नए संशय को जन्म दे रही हैं. 
बहरहाल, इतना तो तय हो चुका है कि हमें अपनी सुरक्षा के लिए किसी के भरोसे नहीं बैठना है! हमारी सलामती के लिए इस समय मास्क (मुखौटा)और सोशल डिस्टेंसिंग की एकमात्र उपाय है. हाँ, स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए घर में साबुन से हाथ धोना और बाहर सैनिटाइज़र का उपयोग भी अब अनिवार्य ही समझ लीजिए. 
वैसे आपको भले ही विश्वास न हो पर मास्क की परम्परा तो सदियों पुरानी है.

राजाओं का भी आभूषण रहा है 
जब हम किसी प्राचीन किले या महल को देखने जाते हैं तो उससे सटा एक म्यूज़ियम जरुर होता है. इसमें सम्बंधित राजा की तमाम वस्तुओं के साथ वह पोशाक भी होती है जो उसने युद्ध के समय पहनी थी. भारी-भरकम पोशाक के साथ ढाल, तलवार और मुकुट जाने कैसे संभालते होंगे! उसके बाद लड़ना भी होता था इन्हें. हाँ, मुकुट पर आगे धातु की पांच छः पतली डोरियाँ और लटकी रहती थीं जैसे कि कई बार दूल्हे के सेहरे पर गेंदे की माला लटकी होती है. 
बताइए इतना सब तो कोई हमारी जान ले ले तो भी पहनने को तैयार नहीं होंगे. लेकिन अभी तो मखाने सा हल्का-फुल्का मास्क भर है जो हमारी रक्षा करेगा.

दो चेहरों की तो हमें आदत है!
कहते हैं कि इस दुनिया में प्रत्येक इंसान के दो चेहरे होते हैं. एक वह जो दुनिया के सामने है और दूसरा वह जो व्यक्ति स्वयं है. लोगों के सामने हम अपने पूरे व्यक्तित्व को प्रदर्शित नहीं करते. इसे यूँ समझिये कि हम हरेक से एक सा व्यवहार नहीं करते. जिससे जैसा रिश्ता, वैसी ही भाषा! औपचारिक और अनौपचारिकता से बंधे सभी रिश्तों में हमारा अलग-अलग पक्ष बाहर निकलकर आता है.
कुछ ऐसे स्वार्थी और धोखेबाज़ भी होते हैं जिनका असल चेहरा बाद में नज़र आता है. यही दुनिया की रीत है. खैर! बात मास्क की है अभी!

मास्क और बच्चे
मास्क से कई बच्चों का बचपन जुड़ा है. स्कूल की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में तरह-तरह के रूप धरकर, हँसते-खिलखिलाते हुए जाने कितनी बार गए हैं. बहुधा मेले से ज़िद कर खरीद भी लाते थे और फिर खेल-खेल में एक-दूसरे को ख़ूब डराया करते थे.
सर्कस के जोकर का मास्क भी हमें ख़ूब याद है जिसे पहन वो तमाम उल्टी-सीधी हरक़तें करते हुए दर्शकों को हँसाता था. उस दौर का वह आनंद भी अद्भुत था.
जिम कैरी की मूवी भी हम कहाँ भूले हैं! इसमें 'मास्क' हम सबका चहेता बन बैठा था.

इसकी आड़ में हुए अपराधों को भी नहीं भूलना चाहिए 
ये नया समय है जहाँ सरेआम अपराध होते हैं. कैमरे के होते हुए भी अपराधियों के मन में पकड़े जाने का भय नहीं रहा. एक वो दौर था जब डाकू लूटने आते थे तो उनके मुँह पर गमछा बंधा होता था. शायद अपराध करते हुए थोड़ी शर्म जीवित रहा करती थी तब!
यूरोप के इतिहास में 'वाइकिंग' की अलग ही भूमिका रही है. ये जलदस्यु, मास्क पहनकर लूटपाट, अपहरण की घटनाओं को अंजाम देते थे.  
हमारी फ़िल्मों में भी मास्क का बहुत उपयोग किया गया है. कई बार तो नायक का चेहरा लगा नायिका को धोखा दिया जाता है तो कभी अँधेरी रातों में, सुनसान राहों पर इसे पहने एक शहंशाह मदद करने निकलता है.
बैंक लूटते समय अपराधी नक़ाब अवश्य ही पहनते हैं. तभी तो अगले दिन के अखबार में 'दो नक़ाबपोश लुटेरों ने बैंक को लूटा' की सनसनीखेज़ ख़बर बनती है. वैसे आजकल उतनी सनसनी होती ही नहीं! अपराध जीवन में घुल गए हैं और हम इसे आसानी से गटक भी लेते हैं.

दुपहिया वाहनों में आपका हमसफ़र
कुछ पल के लिए कोरोना को भूल मई-जून की भीषण गर्मी या नौतपा याद कीजिए. कैसे हम लोग अपनी स्कूटी या बाइक पर ममी की तरह पैक होकर जाते हैं. यदि वाहन का नंबर न याद हो तो माँ, अपने बच्चे तक को न पहचान सकती! घर की सफ़ाई करते समय जाले वगैरह हटाने हों तब भी हम चेहरा और बाल ढक लेते हैं. कुल मिलाकर धूप/ एलर्जी से स्वयं की सुरक्षा का ख़ूब भान है हमें.

ख़ूबसूरती बनाए रखता है 
हल्दी-बेसन के उबटन की परम्परा हमारे देश में सदियों से है. अब इसका स्थान फेस मास्क ने ले लिया है जो इन्हीं तत्वों का प्रयोग करते हैं. चॉकलेट, मिट्टी, फल हर चीज़ का पैक में इस्तेमाल होने लगा है. पहले तो केवल स्त्रियाँ ही इसे लगाती थीं लेकिन अब पुरुष भी इसका जमकर उपयोग करने लगे हैं. आख़िर सुंदर, स्निग्ध त्वचा का मोह किसे नहीं होता!

नक़ाब भी एक तरह का मास्क ही है
मुस्लिम समाज में स्त्रियाँ प्रायः नक़ाब में ही रहती आई हैं. पर्दानशीं नायिकाओं पर शायरों ने ख़ूब लिखा है. अनगिनत शानदार गीत बने हैं जिसमें इश्क़ की कहानी आँखों से ही परवान चढ़ी है. इन गीतों को हम आज भी गुनगुनाते हैं. याद है न "मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम', 'रुख से जरा नक़ाब हटा दो मेरे हुज़ूर' और वो 'परदा है परदा' वाली मशहूर क़व्वाली. आज भी कैसा दिल खिल जाता है न अक़बर इलाहाबादी की ज़िद को देखकर!

यह नज़रबट्टू भी है
बच्चे को नज़र न लगे, यह सोच माँ काला टीका लगा देती है लेकिन जब नया घर लेते हैं तो अपने सपनों के महल को बुरी नज़र से बचाने के लिए लोग उस पर एक मुखौटा टांग देते हैं. प्रायः यह काले रंग का अथवा कोई राक्षसी चेहरा होता है. सोच यही कि शुभ काम में अमंगल न हो, कोई विघ्न न हो. अब दकियानूसी भले ही लगे पर यह किया जाता है.

कुल मिलाकर यह समझ लीजिए कि मास्क की अपनी एक विशाल दुनिया और समृद्ध इतिहास रहा है और यह किसी न किसी रूप में हमारे जीवन का अटूट हिस्सा रहा है. पूरी कथा का सार यह है कि अब जब ये इतने वर्षों से है ही तो बाहर निकलते समय पहन लिया कीजिए. क्या दिक्क़त है?
'जान है तो जहान है'. अपना और अपनों का ख्याल हमें ही तो रखना है. इसके लिए बस, SMS (सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, सैनिटाइज़र) का त्रिदेव मंत्र याद रहे.
- प्रीति ‘अज्ञात’
इसे यहाँ भी पढ़ा जा सकता है-
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सोमवार, 17 अगस्त 2020

खुद को बदलो! शायद आपको देख दुनिया भी बदल जाए!

  

कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गुंजन सक्सेना' एक लड़की के आसमान छूने के स्वप्न को यथार्थ में बदलने की कहानी है. 
परन्तु क्या यह इतना आसान है? जिस समाज में हम रह रहे हैं वहाँ तो लड़की के सपने देखने पर ही प्रतिबंध है. समझ जाइए कि फिर उसे साकार करने में प्रत्येक स्तर पर लड़कियों को किन-किन कठिनाइयों से जूझना पड़ता होगा! 'लड़की होकर' किसी पुरुष प्रधान क्षेत्र में प्रवेश करने की कल्पना ही कई लोगों के मस्तिष्क में प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती है. कुछ इसे कोरी मूर्खता से अधिक कुछ नहीं समझते तो एक बड़ी संख्या यह मानकर व्यंग्य कसने से नहीं चूकती कि 'ये काम इनके बस का है ही नहीं! देखना, ख़ुद ही लौट आएंगीं!' 

इस संदर्भ में एक बात याद आ रही है. आपको पता ही है कि पहले कैरियर के अधिक विकल्प नहीं हुआ करते थे और व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी इतने प्रचलन में नहीं थे. तो उस समय बारहवीं के बाद बीएससी चुनने वाली लड़कियाँ प्रायः मुख्य विषय के रूप में जीव विज्ञान (बायोलॉजी) लेती थीं और लड़के गणित (मैथ्स). कई बार उन्हें चिकित्सक (डॉक्टर) या अभियंता (इंजीनियर) बनते देखना उनके माता-पिता का सपना भी हुआ करता था. बिना किसी संशय के इस प्रस्ताव का अंतिम लक्ष्य शादी होता था. खैर! तो हुआ यह कि मेरी एक सहेली ने गणित चुन लिया. ओह्होहो! बस, ये समझ लीजिये जैसे क्रांति ही आ गई. सैकड़ों प्रश्न उठ खड़े हुए. यह सच है कि कक्षा और प्रयोगशाला (लैब) में उसे कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ा. पर उसे गणित पसंद था और उसने अपने दिल की सुनी. सफ़लतापूर्वक डिग्री हासिल की. इस पूरे कोर्स के दौरान उसके इस निर्णय पर कई प्रश्न उठे, बातें बनाई गईं. वो परेशान तो हुई पर डटी रही.

क्षेत्र विशेष में पुरुष वर्चस्व या एकाधिकार की सोच कब बदलेगी, कह नहीं सकते! पर बदलेगी ज़रूर, इस बात का पूरा यक़ीन है. अब इसे 'महिला सशक्तिकरण' से जोड़कर मत देखिएगा. बात सपनों की है, उसे हासिल करने की है. यदि उन्हें पूरा करने का जज़्बा साथ हो तो इसमें क्या स्त्री और क्या पुरुष! कोई फ़र्क नहीं पड़ता! फ़र्क यदि पड़ता है तो इस बात में कि लड़कियों पर टीका-टिप्पणी करने वाले, उन्हें कमतर आँकने वाले, उसके आत्मविश्वास को कहीं-न-कहीं डगमगाने की कोशिश ज़रूर करते हैं. इसलिए वो कभी सहमी नज़र आती है तो कभी आँखों में आँसू भर लिया करती है. यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है क्योंकि लड़कियाँ हर क़दम पर इसी मानसिकता से रूबरू होती हैं. लेकिन हर लड़की इससे टूट जाया नहीं करती! ख़त्म नहीं हो जाती! कुछ की इच्छाशक्ति और भी प्रबल होती जाती है. हाँ, ये सच है कि उसका संघर्ष मात्र बाहरी ही नहीं होता! भीतर भी एक लड़ाई चला करती है कहीं. हर रोज़ चलती है. दिन-रात चलती है.

गुंजन ने पायलट बनने का सपना देखा क्योंकि उसे बादलों के ऊपर उड़ना था. जब उसका चयन भारतीय वायु सेना के लिए हुआ तो वह स्वयं से एक मासूम प्रश्न कर विचलित भी होती है कि 'क्या वह देशभक्त है?' बड़ी ही ईमानदारी दर्शाया यह प्रसंग मन को छू लेता है. 
मुख्य चरित्र की भूमिका में जाह्नवी कपूर का अभिनय ठीकठाक है. इससे बेहतर हो सकता था.  ख़ासतौर से उन दृश्यों में जहाँ जोश दिखाने की आवश्यकता थी लेकिन उनकी जो उम्र और अनुभव है, उस आधार पर अभी उन पर अपनी अपेक्षाओं का अधिक बोझ रखना उचित नहीं लगता. बोलती आँखें हैं उनकी और वे ख़ूबसूरत भी हैं. समय के साथ अभिनय निखरेगा ही.  

जहाँ तक पंकज त्रिपाठी की बात है तो वे इस फ़िल्म के मुख्य नायक  के रूप में उभरते हैं. हर दृश्य में उनकी उपस्थिति प्रभावी रही है. उनकी अभिनय क्षमता पर तो यूँ भी कोई संदेह कभी रहा ही नहीं. हर अगली फ़िल्म में वे एक नया कीर्तिमान स्थापित करते चलते हैं. कई बार तो लगता है जैसे कि उनकी होड़ स्वयं अपने-आप से ही है. 
उनके कहे संवाद गहरा असर छोड़ते हैं -
" जब प्लेन को फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसे कौन उड़ा रहा है तो तुमको क्यों पड़ता है?"
"जो लोग मेहनत का साथ नहीं छोड़ते, क़िस्मत कभी उनका हाथ नहीं छोड़ती!"
"खुद को बदलो! शायद आपको देख दुनिया भी बदल जाए!"

यह फ़िल्म कहीं-न-कहीं पारिवारिक रिश्तों और मानवीय संवेदनाओं को भी समानांतर रूप से स्पर्श करती चलती है. गुंजन के लिए जहाँ उसके पिता लौह स्तंभ की तरह उसके साथ खड़े मिलते हैं तो माँ और भाई के मन में ढेरों चिंताएं हैं जो कभी कटाक्ष या क्रोध के रूप में दर्शाई गई हैं. भाई-बहिन का रिश्ता ही ऐसा है जहाँ परवाह बहुत होती है पर सामने लड़ाइयाँ और ताने ही दृष्टमान होते हैं. भाई(अंगद बेदी) प्रारम्भ में बहुत हतोत्साहित करता है. वह पुरुष मन की सच्चाई को भलीभांति समझता है, इसलिए अपनी बहिन के प्रति एक भय है उसके मन में. पर स्नेह की यह डोर सचमुच अनमोल है. 
हम भारतीय माँएं बच्चों के प्रति जरुरत से अधिक रक्षात्मक और तमाम शंकाओं से भरी होती हैं. इस भाव का भी अच्छा चित्रण हुआ है फ़िल्म में. सफ़लता के बाद परिवार कैसा फूले नहीं समाता! इस तथ्य से हम और आप भलीभांति परिचित हैं ही. फ़िल्म में भी अच्छा लगता है. 

फ़िल्म अच्छी है पर कहते हैं न कि हिंदी सिनेमा को देखते समय अपना दिमाग़ पहले खूँटी पर टांग देना चाहिए. यदि आप ऐसा करना भूल गए हैं तो इस फ़िल्म में गुंजन की दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाने के लिए रचा गया एक दृश्य जबरन ठूंसा हुआ एवं अतार्किक लगने वाला है. इसमें वह पायलट बनने के लिए दसवीं, बारहवीं और स्नातक के बाद बार-बार आवेदन करती दिखाई गई है. अचरज़ की बात है कि एक लड़की जो अपने लक्ष्य के प्रति इस हद तक दीवानी है. उसका पिता हर क़दम पर उसके मार्गदर्शन के लिए तैयार है. क्या वह न्यूनतम अर्हताओं को जाने बिना ही आवेदन कर देगी? हम लोग तो थैला भर कागजात ले जाने वाले प्राणियों में से हैं. क्या पता बाबू कब क्या मांग ले!

बहरहाल 'गुंजन सक्सेना' के कई दृश्य ऐसे हैं जिसमें लड़कियां स्वयं की छवि देखेंगीं, उदास भी हो जाएंगी, कुछ पल को क्रोध या फिर नैराश्य भाव भी घेर लेगा पर मेरा दावा है कि अंत में नम आँखों के साथ एक मुस्कान उनके चेहरे पर अवश्य खिलेगी और वे जीवन को एक नए नज़रिए से देख पुनर्जीवित हो उठेंगीं. उनकी प्रतिबद्धता भी बढ़ेगी. एक फ़िल्म यदि इतना असर छोड़ जाती है तो फिर देख ही लेनी चाहिए न! 
- प्रीति 'अज्ञात'

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रविवार, 16 अगस्त 2020

सोशल मीडिया वाली 'भक्ति' के लिए रिश्तों को दाँव पर लगाने वाले और कितना गिरेंगे?

 

इन दिनों, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म लोगों को धीरे-धीरे डसने लगे हैं. 'उसकी शर्ट मेरी शर्ट से सफ़ेद कैसे' के दिन अब लद चुके हैं. बीते एक दशक से अब इसके स्थान पर 'उसके लाइक, कमेंट, फॉलोवर मेरे से अधिक कैसे' ट्रेंड कर रहा है.  प्रेमी-प्रेमिका से नाराज़ हो उठता है कि 'मेरी पोस्ट छोड़ तूने उसकी पोस्ट पर दिल क्यूँ बनाया!' शक़ को दूर करने के लिए पासवर्ड भी रख लेता है. कई पति भी अपनी पत्नी का पासवर्ड रखते हैं कि 'ये तो भोली है, मुझे ही इसका ध्यान रखना पड़ेगा'. जबकि उसका उद्देश्य नज़र रखने का रहता है. कहीं मित्र, रिश्तेदार भी मुँह फुलाये घूमते कि 'देखो! कितने भाव बढ़ गए, हम भी उसकी पोस्ट पर नहीं जाएंगे अब!' ऐसे कई किस्से आप  रोज़मर्रा सुनते ही होंगे. ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा का ये आलम तब है जबकि इससे कोई आर्थिक लाभ ही नहीं! कोई न गिनने वाला!

बस मन को संतुष्टि मिलती है कि इतने लोग हमें जानते हैं. चाल में एक ठसका आ जाता है. मुस्कान डेढ़ के बजाय दो इंच हो जाती है. अब उसके बाद क्या? वही तुम वही हम! जब मुसीबत में होंगे तो इनमें से कोई भी न आएगा. गिने-चुने करीबियों को छोड़ दिया जाए तो ये हजारों, लाखों की संख्या अचानक ही एक बड़े खोखले शून्य में परिवर्तित होती दिखेगी. आप फिर एक बार वहीं खड़े होंगे, जहाँ से ये सफ़र शुरू किया था!

बीते सालों से एक नया नाटक और प्रारम्भ हो चुका है. वो है भक्त और अभक्त में बहस का. बहस तो अत्यंत शालीन शब्द है, असल में तो बात जूतमपैज़ार तक पहुँचती है. अब यदि कोई सच में अपने आराध्य की भक्ति की बात करे, तब भी सामने वाले की नज़र में मोदी जी का चेहरा ही चमक उठेगा. ये ईश्वर की महिमा समझें या माननीय का प्रताप, ये आप पर निर्भर है. आप किसी को फेंकू कहें तो वह तुरंत आपको पप्पू कह देगा. संकेत दोनों पक्ष समझते हैं. देश की डिक्शनरी बिना ऑक्सफ़ोर्ड हस्तक्षेप के, अपने-आप ही बदल चुकी है. 'भक्त' का अर्थ बना 'किसी की धुन में इतना अंधा हो जाना कि आँखों के सामने रखे सच को भी अपने कुतर्कों से नकारने लगें'. कुछ कट्टरों ने तुरंत एक तोड़ निकाला और 'सेक्युलर' को गाली की तरह परोस दिया. इसी दौरान 'देशद्रोही' शब्द का भी पुनर्जन्म हुआ और एक नई क़िस्म की नफ़रत अँगड़ाई लेने लगी. देश स्वतः ही दो खेमों में बँट गया. कल जो मित्र साथ हँसते-बोलते थे, वे अब अपने-अपने पालों में खड़े होकर नित हर शब्द का अनुवाद बनाते हैं, गोया हमारी रसोई मोदी जी या राहुल जी ही चला रहे. 

पति-पत्नी की लड़ाई के बीच अब बच्चे या घर-खर्च नहीं आता, मोदी जी आते हैं! क्योंकि एक समर्थक और दूसरा घोर विरोधी. अब बताइए, जिसके लिए लड़ रहे उसे तो पता तक नहीं और इधर आपने रिश्ते ही दाँव पर लगा दिए. रिश्तेदारों के मुँह भी आपको देख टेढ़े होने लगे हैं या वो खुन्नस भरी नज़र से देखते हैं. काहे को? क्योंकि तुम्हें वो पसंद हैं और इन्हें कोई और. इतना तो कॉलेज के लड़के भी अपनी प्रेमिका के लिए नहीं लड़ते होंगे जितना युद्ध आजकल लोगों की पोस्ट पर दिख जाता है. देश में विकास की ये लहर सचमुच अजीब और ख़तरनाक है. ऐसा राजनीतिकरण सदियों बाद देखने को मिला है जहाँ आम लोग बेवज़ह भिड़ रहे. 

लोगों को राजनीति जैसे नीरस विषय में अचानक ही दिलचस्पी होने लगी है, ऐसा भी नहीं! दरअसल सोशल मीडिया की अंधाधुंध दौड़ में हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा, किसी एक को चुनने के सिवाय. अगर चुना नहीं तो आप ढोंगी कहलाये जाएंगे. व्हाट्स एप्प, टीवी, रेडियो, अख़बार सब जगह इन्हीं के जोक्स...! अब इंसान हैं तो कभी-कभार हँसी निकल भी जाती है. बस, इधर आप हँसे, उधर आप पर भाजपाई या कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. विरोधी हो तभी तो फॉरवर्ड किया तुमने! ऐसे-कैसे हँस सकते हो जी! पिछली बार जब हमने चुटकुला सुनाया, तब तो ऐसी खींसें नहीं निपोरी थीं तुमने? ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह! आप सिर पीटते रहें (अपना ही) पर आक्षेप का ये दौर अंतहीन ही रहेगा. आप कोई भी एक वाक्य बोलें, उसे किसी एक खेमे का ही माना जाएगा. 

इस सबमें वे लोग टूटते रिश्ते या ख़ुद अपनी ही मौत मारे जाते हैं जिन्हें केवल 'देश' से मतलब. जो किसी भी क़िस्म की कट्टरता को देश पर हावी नहीं होने देना चाहते, जो 'हत्या' में धर्म नहीं टटोलते, जिनके लिए 'एक भारत' ही 'श्रेष्ठ भारत' है. ये इस देश का दुर्भाग्य है कि इन चंद लोगों पर ही सबसे ज्यादा प्रश्न उठते हैं. और वे हर वक़्त अपनी सफ़ाई देते नज़र आते हैं. उन्हें बिन पेंदी का लोटा, धर्मनिरपेक्षता की पूँछ और कई निम्नस्तरीय अपशब्दों से भी नवाज़ा जाता है. भारत के इस रूप की कल्पना हमने कभी नहीं की थी. आख़िर ये राजनीतिक दल हमें भिड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने के सिवाय और कर ही क्या रहे हैं? उस पर दिक़्क़त ये कि लोग उल्लू बनने को नतमस्तक हैं. उन्हें अपने आक़ा को खुश करके ईनाम जो लूटना है! आज लूट लीजिए और बाद में अपने भाग्य पर बुक्का फाड् रोइएगा. पर उससे पहले एक सूची भी बनाते चलिए कि इन निर्मोही, स्वार्थी नेताओं के समर्थन के चक्कर में आपने कितने अपने खो दिए हैं. अब इसकी भरपाई कौन करेगा? ये long distance से वोट बैंक भरने वाले निष्ठुर आक़ा?? जिन्हें आपका नाम तक पता नहीं!
- प्रीति 'अज्ञात ' (26 जून)
13 अगस्त 2020 को iChowk में प्रकाशित 
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शनिवार, 15 अगस्त 2020

स्वतंत्रता की एक और सुबह मुबारक़!

 

सैंतालीस से लेकर अब तक यदि हम पीछे पलटकर देखें तो भारत ने हर क्षेत्र में उन्नति की है चाहे वह शिक्षा हो, चिकित्सा हो, उद्योग, विज्ञान, सुरक्षा या कोई भी क्षेत्र; हमारी विकास की कहानी हर सफ़हे पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ है. हाँ एक बात अवश्य है कि इसके लिए कोई भी दल जब श्रेय लेने या दूसरे के काम में कमी निकालने पर आमादा हो जाता है तो वह दृश्य बड़ा ही वीभत्स एवं अमानवीय लगता है. जनता पूरे विश्वास के साथ अपने नेताओं को चुनती ही इस उम्मीद के साथ है कि वे देश की प्रगति में योगदान देंगे साथ ही उनके लिए भी कुछ सकारात्मक करेंगे. लेकिन  न जाने क्यों राजनीति उसे सदा ही अहसान की तरह परोसती आई है.

दुनिया के सामने हमारी प्रगति तो बहुत हुई है और इस हद तक हुई है कि हम अपनी भारतीयता पर गर्व कर नित इस धरती का माथा चूम सकते हैं. दुःख यह है कि एक तरफ़ जहाँ हम भौतिक विकास यात्रा की ओर बढ़ते जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर हमारी मानसिकता अत्यंत ही दूषित हो चुकी है. जिस स्वतंत्रता ने हमें पंख दिए और बाँहें फैलाए आसमान तक पहुँचने की उड़ान भरने का हौसला दिया, हमने उससे दूसरों को घायल करना पहले सीख लिया.
हम अपनी लक़ीर बड़ी करने के स्थान पर दूसरों की छोटी करने और उसे मिटाने पर अधिक जोर देने लगे हैं.
हमने इतिहास को पढ़ तो लिया पर उसे ठीक से समझा नहीं और न ही उसकी गलतियों से कोई सीख ही ली. यही दशा(दु) कट्टरपंथियों की भी है जो समय के साथ आगे बढ़ना ही नहीं चाहते. इन्हें हर बात पर आग उगलना आता है. भले ही उसकी लपेट में मानवता त्राहिमाम कर उठे!

हमें विचार करना होगा कि
1. अभिव्यक्ति के नाम पर हम कहीं अपने ही अधिकारों का दुरूपयोग तो नहीं करने लगे हैं?
2. कहीं हम स्वयं ही अपने देश की प्रगति में रोड़ा तो नहीं बनते जा रहे?
3. दुनिया के समक्ष देश की तस्वीर को कहीं हमारे कुकृत्य ही तो बदरंग नहीं कर रहे?
4. कहीं हमसे जाने-अनजाने में ऐसा कुछ तो लिखा-कहा नहीं जा रहा जिस पर हमारी पीढ़ियाँ भी शर्मिंदा हों?
5.देश की उन्नति के स्वप्न को मन में सँजोए कहीं हम अपने कर्तव्य-पथ से भटक तो नहीं रहे हैं?
यदि इस सब का उत्तर ‘न’ है तो हमें न केवल हमारी स्वतंत्रता के मूल्यों का ज्ञान है बल्कि हम दूसरों का भी मार्गदर्शन कर सकते हैं. करना ही होगा! इस पावन मातृभूमि के अनगिनत वीरों के त्याग और बलिदान से मिली स्वतंत्रता अमूल्य है, इसे हम किसी भी नासमझी से जाया नहीं होने दे सकते हैं.

स्वतंत्रता दिवस के इस पावन पर्व पर आइये हम सब प्रण लें कि हमें स्वतंत्रता मिले-
उन विचारों से जो हमारी भावनाओं को हिंसक बनाने की कुचेष्टा करते हैं.
अधिकारों की उस माँग से जो अपने कर्तव्य भुला देश की संपत्ति को नष्ट करने पर आमादा है.
उस सोच से जो हमारी संस्कृति और सभ्यता को अपमानित करने से नहीं चूकती.
उस अंधभक्ति से जहाँ धर्म की आड़ में हजारों युवाओं के मन मस्तिष्क में ज़हर भरा जा रहा है.
उस भेदभाव से जहाँ हजारों निर्धन और विवश इंसानों की मृत्यु से किसी को अंतर नहीं पड़ता, उनकी चर्चा नहीं होती. उन्हें उनके हिस्से का सम्मान तक नहीं मिलता. उनके जीवन का मोल बस एक निश्चित धनराशि तय कर दिया गया है.
जहाँ पैसा ही रिश्तों की धुरी बन जाता है और भावनाओं की क़द्र नहीं होती.
जहाँ स्वार्थसिद्धि के लिए झूठ और मनगढ़ंत आरोप का सहारा ले किसी को मृत्यु द्वार तक पहुंचा नित झूठी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं.
जहाँ स्त्रियों के प्रति हुए अपराध में दोषी को पकड़ने के पहले स्त्रियों की ही गलती ढूंढी जाती है. उनके वस्त्रों की चर्चा होती है. चरित्र हनन किया जाता है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश को ही दुनिया के सामने उछाला जाता है.
जहाँ प्रेम से कहीं अधिक घृणा, ईर्ष्या और वैमनस्यता के भावों को खाद पानी दिया जाता है.
जहाँ बच्चों के कोमल हृदय में भय भर दिया गया है. उनके बचपन पर तमाम बोझ लाद दिया जाता है और उन्हें खिलने नहीं दिया जाता.
राजनीति के उस छिछले दरिया से जिसके लिए जनता एक प्यादा भर है.
उन नेताओं से जो अपने लिए सम्मान की अपेक्षा रखते हुए नित दूसरों को अपमानित करने का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ते.
उस मानसिकता से जिसने हमारी आंखों पर पट्टी बांध नेताओं को हमारा ख़ुदा बना दिया.
समाज को भ्रमजाल में लपेटने के लिए बने उन समस्त फर्जी एकाउंट्स से जो झूठ के पहाड़ पर खड़े हो सच का थोथा आह्वान करते हैं.

गर्व से कहो कि हम भातीय हैं 

हम मानते हैं कि प्रत्येक नागरिक को शिक्षा चाहिए, रोज़गार चाहिए और सम्मान से जीने का हक़ भी. लेकिन हमें उस दिन की भी प्रतीक्षा है; जब हमारे भारत का निर्धन, अशिक्षित, शोषित, पीड़ित और बेरोज़गार वर्ग भी पूरी शक्ति के साथ स्वयं की उन्नति हेतु हर संभव प्रयास करे. इस प्रक्रिया में आरोप-प्रत्यारोप की कीचड़ से अपने-आप को दूर रख न केवल सरकार बल्कि प्रत्येक भारतवासी उनके साथ हो और हम सब हृदय से यह भाव महसूस कर पूरे जोशोल्लास के साथ सम्पूर्ण विश्व के सामने यह नारा गुंजायमान कर दें कि “भारत हमको जान से प्यारा है, सबसे प्यारा हिन्दोस्तां हमारा है!”


इस जन्मभूमि पर सौ-सौ जीवन क़ुर्बान!
शहीदों को नमन करते हुए, स्वतंत्रता की एक और सुबह हम सबको मुबारक़!
जय हिंद!

-प्रीति 'अज्ञात' #iChowk

https://www.ichowk.in/politics/independence-day-from-1947-when-india-got-freedom-till-today-how-india-improved-in-each-and-every-sector-showed-essence-of-development/story/1/18221.html

#Independenceday #15August #स्वतंत्रतादिवस #जयभारत #जयहिंद

Photo: Google

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

#संस्कृत पर हमला?

अपने एक वीडियो को लेकर प्रेरक वक्ता (Motivational speaker) संदीप महेश्वरी ट्विटर पर ट्रेंड करने लगे हैं. यह वीडियो अक्टूबर 2019 का है जिसमें वे संस्कृत भाषा को बड़े ही हल्के में लेते दिख रहे हैं. अब हमारे देश की सबसे बड़ी परेशानी यही है कि सच बात को जब पचा नहीं पाते तो आहत होने की शरण में चले जाते हैं. अब चूँकि सत्य था तो कटु भी होना ही था. स्पष्ट है कि ये वाली सच्चाई लोगों को सहन नहीं हुई. 

सोशल मीडिया पर संस्कृत को लेकर अकस्मात् जो प्रेम छाया है, वह देखते ही बनता है. उसे देख किसी भी संस्कृत प्रेमी की आँखें भर आएं. मैं तो कहती हूँ यही शुभ अवसर है. सरकार को इन सबके हस्ताक्षर लेकर संस्कृत को अनिवार्य विषय कर ही देना चाहिए. 

जहाँ तक वीडियो की बात है तो उसमें विरोध जैसा कुछ भी नहीं है. लेकिन जैसा कि होता आया है कि सनसनीखेज़ बनाने के फेर में बजाय पूरे वीडियो के मात्र एक टुकड़ा डाला जाता है. यदि पूरा वीडियो देखा जाए तो उसमें संदीप किसी स्कूल के बच्चों को 'शिक्षा पद्यति को रुचिकर कैसे बनाया जाए' विषय पर सम्बोधित कर रहे हैं. इसमें बच्चे उन्हें अपनी नापसंदगी के विषय बता रहे हैं. संस्कृत का ज़िक्र आने पर वे बच्चों का मूड देखते हुए इसकी व्याख्या करते हैं (वायरल वीडियो में उतना ही हिस्सा है) जो कि उन्होंने बड़े ही मज़ाकिया ढंग से और देश में जो इस देवभाषा का हाल है, उसके अनुसार ही किया है. मैं इसका समर्थन किसी हाल में नहीं करती लेकिन आगे वे संस्कृत को वैकल्पिक विषय के रूप में रखने की बात भी कहते हैं जिसका वायरल वीडियो में कोई ज़िक्र ही नहीं!  निस्संदेह उस एक टुकड़े में संदीप के शब्द ग़लत थे पर इरादे नहीं! 

शतप्रतिशत सहमत हूँ कि भाषा का अपमान सहन नहीं करना चाहिए लेकिन उसी समय अपने गिरेबान में भी झाँक लेना चाहिए कि हमने इसके सम्मान में अब तक क्या योगदान दिया है? स्वयं सीखने की कोशिश की? इसके प्रचार-प्रसार में बढ़ावा दिया? किसी को इसे सीखने के लिए प्रेरित किया? यदि नहीं तो आपका विरोध ख़ालिस ढोंग के अलावा कुछ भी नहीं! 
डालिए सरकार पर दबाव कि संस्कृत, स्पोर्ट्स और योग इन तीनों को अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल करे. भाषा ही क्यों, स्वास्थ्य और खेलकूद क्षेत्र में भी हमारी प्रगति होगी और देश की क़िस्मत चमकेगी. 
विरोध कीजिए, दृढ़तापूर्वक अपनी असहमति भी दर्ज़ कराइये लेकिन केवल विरोध के नाम पर बात को पूरा समझे बिना, किसी भेड़चाल में शामिल होना नितांत मूर्खता ही मानी जाएगी!

अब आप  #क्षमा_मांगो_संदीप_माहेश्वरी का हैशटैग चलाएंगे तो स्पीकर क्षमा माँग भी लेंगे क्योंकि किसी भ्रम या अफ़वाह से लबरेज़ सोशल मीडिया के मायावी दरबार में उलझने से कहीं बेहतर है नतमस्तक हो क्षमा माँग लेना! आप गुनहग़ार है भी या नहीं, इसका स्पष्टीकरण जानने में किसी की रुचि नहीं होती! कभी नहीं होती!
-प्रीति 'अज्ञात'
#संदीप_माहेश्वरी #SandeepSeminars  #संस्कृत

#टीवी #बहस

आप जब तक एक विशिष्ट पक्ष के सुर में सुर मिला रहे हैं, आप सही हैं. उसके विरोध में बोलते ही आप झूठे, मक़्क़ार, धोखेबाज़ या जयचंद मान लिए जाते हैं. असहमति का स्थान अब कोरा ढोंग भर है. न्यायाधीश एंकर्स के द्वारा आपको बुलाया जाना भी एक तरह से अपमान रणनीति का हिस्सा ही है. आप नहीं जाएंगे तो कह दिया जाएगा कि "हिम्मत ही नहीं कि हमारे प्रश्नों का सामना करें". ग़र चले गए तो शाब्दिक हिंसा से आपका पूरा व्यक्तित्व छलनी कर दिया जाता है और विरोधी कुटिल हँसी हँसते नज़र आते हैं. आप मरें या जियें, उनकी बला से! आपके  परिवार का मातम उनकी TRP को एक नई उछाल देता है.

मीडिया जिस तरह से चाटुकारिता की समस्त सीमाओं को लांघ चुकी है वह सर्वविदित है. चर्चा उन्हीं विषयों पर होगी, उन्हीं किस्सों को लंबा खींचा जाएगा जिससे आक़ाओं का हित सधता हो. अन्यथा आपकी मृत्यु 20 सेकंड की ख़बर से अधिक कोई मायने नहीं रखती. हाँ, मानसिक लिंचिंग के दोषी घड़ियाली आँसू बहाते अवश्य दिख जाएंगे जिसे देख अचानक ही एक बड़ा समूह, उनके संवेदनशील और भावुक हृदय की बलैयाँ लेने को आतुर हो उठेगा. 

नियम यही है कि जो राजनीति में जीवित रहना है तो पत्थर या बेशर्म बन जाइये! बहुत से लोग हैं उधर, जिन्हें देख प्रेरणा ली जा सकती है. चैनल्स पर हो रही चीख-पुकार तो थमने से रही. गाली-गलौज़, मारकुटाई का सीधा प्रसारण आने ही लगा है. बचा ही क्या है!
हाँ, जहाँ तक आम दर्शकों का सवाल है तो अब टीवी को स्थायी रूप से विदाई देने का उचित समय आ चुका है वरना ये हमारे आपसी रिश्तों को भी एक दिन लील लेगा.

ये काल ही कुछ ऐसा है कि या तो हम अपने प्रियजनों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए, जो कुछ भी घट रहा उससे आँखें मूँद लें या फिर किसी दिन चुपचाप इस धरती में समा जाएँ! 
चुप्पियाँ भीतर ही भीतर अब तोड़ने लगी हैं. लेकिन यदि आप भयभीत हैं तो अपने नाम के साथ जुड़ा लेखक शब्द हटा दीजिए. 
- प्रीति 'अज्ञात'
#टीवी #बहस 

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

आज भी क्यों जरुरी हैं कृष्ण?

 

हम आस्थाओं से तरबतर देश के नागरिक हैं. संस्कृति के रक्षक कहलाते हैं और इसे बचाने के लिए कट्टर कहलाये जाने से भी तनिक गुरेज़ नहीं करते! सनातन परम्पराओं की रक्षा हेतु हम अपने प्राण तजने को भी आतुर हैं (ऐसा बहुत से लोग कहते हैं). 

प्रश्न यह है कि जिस ईश्वर की हम शपथ लेते हैं, जिसे दिन-रात पूजते हैं, जिसकी छवि अपने हृदय में बसाए रखने का भरम पालते हैं फिर उस ईश्वर के आदर्शों को कैसे भूल जाते हैं?

मैं बहुत धार्मिक तो नहीं हूँ पर किसी अदृश्य, अनाम शक्ति के प्रति आस्था अवश्य रखती हूँ. प्रकृति की अपार सुन्दरता को जब-जब निहारती हूँ तो सदैव ही उस चेहरे को खोजती हूँ जिसने जल को इतनी निर्मलता दी. वृक्षों को हरियाली देकर उनकी गोदी फल-फूलों से लबालब कर दी, साथ ही उन्हें छाया का हुनर देकर अपनी पूँजी को बाँटना भी सिखा दिया. नदियों को तमाम झंझावात के मध्य भी कलकल करते हुए बहना सिखाया.  पर्वतों को हमारा प्रहरी बनाया और सूर्य में जीवन तत्व भर दिया. उसके बाद इन सभी की आपस में ऐसी मित्रता कराई कि सृष्टि के निर्माण से लेकर अब तक ये समस्त तत्व हम सबका जीवन सुरक्षित रखे हुए हैं. बिना किसी बैरभाव के इनका एक ही लक्ष्य है, हमारे अस्तित्व को बचाए रखना. बदले में हमने इन्हें क्या दिया, यह सोचने मात्र से ही हमारा हृदय अपराध-बोध से भर जाता है.

खैर! मनुष्य को तो जीवन मूल्य भी सीखने थे परन्तु वह प्रकृति से कोई ज्ञान नहीं ले सका. स्वभावतः उस पर अपना अधिकार ही समझ बैठा! इन्हीं नासमझ मानवों के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए. मुझ जैसा सतही तौर पर धार्मिक जानकारी रखने वाला इंसान भी इतना तो समझता ही है कि उन्होंने जन-जन को प्रेम के मायने सिखाए. मित्रता कैसी होती है, यह बतलाया. श्रीकृष्ण ने न केवल स्त्रियों की कोमल भावनाओं को महत्त्व दिया बल्कि उन्हें सशक्त करने में भी अपार योगदान दिया. उन्हें सम्मानपूर्वक देखा, उनकी भक्ति का मान रखा. विष को अमृत में बदल दिया. करुणा के भाव का जनमानस में संचार किया. धनवान और निर्धन के मध्य कोई अंतर न रखा और सारे उदाहरणों को प्रस्तुत कर मानव जाति को भेदभाव से ऊपर उठ जीवन जीने का सन्देश दिया. 

 कृष्ण, स्त्रियों को इसीलिए सर्वाधिक प्रिय हैं क्योंकि वे उन सा साथी चाहती हैं, जो प्रेम करे तो ऐसा जो उन्होंने राधा से किया. वो दोस्त बने तो गोपियों के सखा जैसा या फिर ऐसा जो सुदामा के प्रति था. भाई हो तो ऐसा जो सुभद्रा ने पाया. एक रक्षक हो तो ऐसा जो द्रौपदी के लिए था. नायक हो तो ऐसा जिसके होंठों पर मुरली सज प्रेमधुन गुनगुनाती है और सब उसकी ओर खिंचे चले आते हैं. एक ऐसा प्यारा साथी जो अवसर मिलते ही मीठी शैतानियों से भी बाज़ नहीं आता! 

कृष्ण के हर रूप में प्रेम है. उनके व्यवहार में प्रेम है. उनकी आँखों से प्रेम घटा बरसती है और उनकी मुरली जब कोई मीठी धुन छेड़ती  है तो सम्पूर्ण वातावरण प्रेममय हो जाता है. राधा-कृष्ण का प्रेम अमर है तो इसलिए क्योंकि उन्हें एक दूसरे का सम्मान करना आता था, परस्पर भावनाओं की क़द्र थी, प्रेम इतना कि दूर होकर भी रत्ती भर कम न हुआ. दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे थे. प्रेम वही सच्चा होता है जो अनकंडीशनल हो, जिसमें हम दूसरे पक्ष को जस का तस स्वीकार करें, जिसमें आकर्षण  से परे आत्माओं का मिलन पहली प्राथमिकता हो. यही वह प्रेम है जो बिछोह के बाद भी रहता है. युगों- युगों तक रहता है.

जब ईश्वर ने हमें प्रेम के हर रूप से मिलवाया है तो उसके पूजक ईर्ष्या, वैमनस्य, अपराध कहाँ से सीख गए? हम जिस मुरलीधर का गुणगान करते नहीं थकते, जिसका रूप हमें मोह लेता है. उसके जीवन मूल्यों को क्यों नहीं अपना पाते? हम तो प्रेम के दुश्मन अधिक बन बैठे हैं. परिवारों को ख़त्म कर देने को तैयार हैं! हमें प्रेम कहानियाँ पसंद तो हैं पर फ़िल्मी! असल जीवन में तो तलवारें खिंच जाती हैं, इज़्ज़त दाँव पर लगती नज़र आती है, समाज में नाक कट जाने का भय खाने दौड़ता है. 

जो हम कृष्ण के सच्चे साधक हैं तो हमें उन्हें  पूजने के साथ ही, इस वर्तमान समाज का प्रहरी मान उनसे सीख लेनी चाहिए. श्रीकृष्ण का सांस्कृतिक और सामाजिक स्वरुप हमारी संस्कृति और सभ्यता के लिए आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना सदियों पूर्व रहा होगा.

- प्रीति 'अज्ञात'  

#श्रीकृष्ण #राधाकिशन #प्रेम 

 #Photo Credit: Google

शनिवार, 8 अगस्त 2020

#बातें बेवज़ह

 कई बार हम बहुत सी बातों पर दुनिया को ज्ञान बाँट रहे होते हैं पर ऐसा संभव है कि उन्हीं मुद्दों पर हम स्वयं हार चुके हों!

कई बार हम तमाम हारे हुए लोगों को जीतने का तरीक़ा सिखाते हैं भले ही वो सभी तरीक़े अपनाकर हमने स्वयं कुछ भी नहीं जीता होता है। 
कई बार जीतने के बाद भी कोई प्रसन्नता नहीं होती है क्योंकि उसे बाँटने वाला कोई नहीं होता पर हम सबको पूरे विश्वास से कहते हैं, 'एकला चलो रे!'
अकेले चल पाना मुश्क़िल भले न हो पर ये अकेलापन उदास रातों में काट खाने को दौड़ता है। उस समय हम सबको चाँद से बातें करना सिखाते हैं और आसमान के तारों में खोए हुए अपनों को ढूँढ लेने की बातें करने लगते हैं। \

हम अपने धराशायी स्वप्नों से रोज एक नया महल खड़ा करते हैं। हम ये भी जानते-समझते हैं कि सबका जीवन एक सा नहीं होता!
ये उम्मीद भी अजीब है, कई बार निरर्थक प्रतीत होती है और कभी लगता है कि हमारी कोशिशें क़ामयाब न हुईं तो क्या, किसी की तो होंगी!
अगर हम हार गए तो क्या! कोई तो जीतेगा न!
अगर हम अकेले हैं तो क्या! औरों का तो साथी है न!

हर बार ही हमें दूसरों के लिए खुश होते रहना चाहिए। जितना हो सके, सबकी मदद करना चाहिए। सबके आनंद में हमारा मन भी प्रफुल्लित होना ही चाहिए। 
जब हम नियमित रूप से ऐसा करते हैं तो एक दिन कोई देवदूत बन हमारे दरवाज़े पर भी दस्तक़ देता है। हमारी हर पराजय को एक ही झटके में भुलाकर हमें हर पल विजयी होने का अहसास कराता है। हमारा साथी बन धड़कनों के साथ चलता है और हमारी आँखों में अपनी सूरत धर बेवज़ह मुस्कुराता है। 
ग़र एक अच्छा और सच्चा इंसान साथ हो तो दुनिया इतनी बुरी भी नहीं लगती! बुरी भूल ही जाइये, ख़ूबसूरत लगने लगती है। 
बस हमें हर हाल में सबका साथ देना है। यक़ीन कीजिए फिर एक दिन ये दुनिया आपके साथ होगी।

रोज ही स्वयं को एक दिलासा देना जरुरी है कि कल ही सुबह इस उदासी का पटाक्षेप होगा।
ये अलग बात है कि कई बार पूरा जीवन बस इसी उम्मीद के सहारे ही कट जाता है।
- प्रीति 'अज्ञात'