मंगलवार, 28 अगस्त 2018

भुजरियाँ

मध्यप्रदेश में रक्षाबंधन के अगले दिन एक बड़ा प्यारा पर्व मनाया जाता है, भुजरिया। इसे भुजरियाँ या कजलिया भी कहा जाता है। संभवतः यह अन्य प्रान्तों में भी किसी न किसी रूप में मनाया जाता होगा पर मैंने इसे भिंड में ही देखा-समझा।
इसमें अन्न के दानों (गेहूँ, धान, जौ इत्यादि) को छोटे-छोटे गमलों, टोकरी में बो देते हैं, प्रतिदिन स्त्रियाँ इन्हें पानी देकर देखभाल करती और पूजती हैं। जब इनसे पौधे निकलते हैं तो गीत गाये जाते हैं और यह सब एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। इसे सिराने के लिए नदी-तालाबों तक लोग समूह में बड़े उत्साह के साथ पहुँचते हैं। यह अच्छी फसल की कामना का प्रतीकात्मक त्योहार तो है ही पर इसमें भी लोग होली-ईद की तरह गले लगते हैं और सारी कटुता भुलाकर मित्र बन जाते हैं। 

मुझे इतना ही याद है कि इस दिन घर में बहुत आना-जाना लगा रहता था। सब आते, भुजरियाँ देते और बदले में हम भी उन्हें अपनी भुजरियाँ देते। आने वाले लोग या तो पैर छूते या भुजरियाँ कान के पास लगाते, यह उम्र के हिसाब से तय होता था। हम भी ऐसा ही करते थे। 
बच्चों में इस पर्व को लेकर ख़ास ख़ुशी होती थी एक तो छुट्टी मिलती, उस पर सारे दिन घूमने का मामला भी सेट रहता। हाँ, बारिश बहुत हुआ करती थी इस दिन, पर लोगों का उत्साह सदैव ही इस पर भारी रहा करता था।

'नदिया के पार' के एक गीत 'कौन दिसा में लेके चला रे बटुहिया' का एक रीमिक्स भी बनाया था मैंने, जिसका मुखड़ा था -
कौन दिसा में लेके चलारे भुजरियाँ
ओये चटर-पटर, ये सुहानी सी मटर 
ज़रा खावन दे, खाआवन दे
मन भरमाये बड़ी तेज ये दुपरिया 
कहीं खाई जो मटर, दिन जायेगा गुज़र
भैंसा हाँकन दे, हाँकन देएए
हाँ, एक बात और! मैं छोटी थी और उस समय इस एक बात पर मुझे बहुत हँसी आती थी कि जब भी भुजरियों का लेन- देन होता; दोनों पक्ष हाथ जोड़कर एक-दूसरे से 'नमस्ते' जरुर कहते। मुझे ये औपचारिकता बहुत अजीब लगती और मैं नमस्ते कहने के साथ ही ठिलठिल कर खूब हँसती थी।
यूँ मैं तो बेवज़ह भी जमकर हँसती हूँ। 
अच्छा, नमस्ते 😎🙏
- प्रीति 'अज्ञात'
* पक्की बात है कि अब कुछ लोगों को यह गीत गुनगुनाने की इच्छा हो रही होगी। ल्यो, लिंक दे रहे -
https://www.youtube.com/watch?v=x3iVHlSoJAs

सोमवार, 20 अगस्त 2018

Wish List

मुझे हर विषय में रुचि है, सिवाय भूगोल के. यूँ हमेशा से पढ़ाकू और अच्छी विद्यार्थी रही हूँ पर न जाने क्यों ये भूगोल गोल ही हो जाता है. मुझे न दिशाएँ समझ आतीं हैं और न रास्ते. पर फिर भी मैं नई राहों से गुज़रने की हिम्मत जुटा पाती हूँ. मुझे जंगलनुमा स्थानों में भटकना पसंद है क्योंकि यहाँ सारे पेड़ किसी बातूनी दोस्त की तरह बकबक करते गले मिलते हैं. उन पर फुदकते पक्षी कुछ इस तरह से मस्ती और उल्लास से भरे लगते हैं जैसे मायके आकर लड़कियाँ चहकती, इतराती घूमती हैं. कभी-कभी तो यूँ भी महसूस होता है कि किस्से-कहानियों से निकल वो अलादीन का जिन्न या कोई सुन्दर सी परी भी अभी सामने आ खड़ी होगी और मेरा हाथ थाम मुझे वहाँ की सबसे अनोखी मीठी झील के पास छोड़ आएगी. डाल पर अकेला कुछ सोचता हुआ बैठा पक्षी मुझे अपने पूर्वजन्म का कोई प्रेमी सा लगता है जिसका मेरा साथ कभी लकीरों ने लिखा ही नहीं! मैं उसके गले लग जी भर रोना चाहती हूँ या इस दूरी के लिए झगड़ना.....यह कभी तय ही न कर सकी! बस हम दोनों ख़ामोशी से एकदूसरे को एकटक देख आगे बढ़ जाते हैं. मैं चाहती हूँ वो जिस भी दुनिया में हो, मेरा सारा प्रेम महसूस कर सके! मुझसे शिक़ायतें न रखे कि उसके जाते समय मैं उसे रोकने के लिए अनुपस्थित क्यों थी! क्योंकि ये नाराज़गी तो उससे कहीं ज्यादा मुझे ख़ुद अपने-आप से भी है.
उसके हिस्से का प्यार मुझे मिले न मिले, पर मेरी हर ख़ुशी उसके नाम लिख देना चाहती हूँ और यह दुआ भी कि उसे किसी को मिस न करना पड़े कभी! मैं यह बात भी उसको समझाना चाहती हूँ कि उसे थोड़ा ठहरना चाहिए था क्योंकि कहकर ली गई विदाई, बिन कहे सदा के लिए अचानक चले जाने से कहीं बेहतर होती है!

पहाड़ की ऊँची चोटी मुझे उतनी प्रभावित नहीं करती जितनी कि वहाँ पहुँचने से पहले की यात्रा सुहाती है. वहाँ मैं कई मर्तबा रुक-रुककर न केवल अपनी श्वाँस को सामान्य करती हूँ बल्कि उस पल भर के ठहराव को भी खुलकर महसूस करती हूँ और अपने कैमरे में क़ैद भी. यहाँ रोज चढ़ने-उतरने वाले लोग जब डग भरते हुए आगे निकल जाते हैं तो मेरा मन उनके प्रति आदर से भर उठता है और उनके होठों के इर्दगिर्द उभरती दो लक़ीरें मुझमें अपार ऊर्जा का संचार कर देती हैं. रोज चढ़ने-उतरने वाले इन लोगों के मन में कभी भी इस काम को लेकर उबाऊपन नहीं दिखता. ये खुश हैं अपने-आपसे.
समंदर के साथ-साथ मीलों चलना चाहती हूँ ये जाने बिना कि न जाने उस आख़िरी छोर पर क्या होगा, कुछ होगा भी या नहीं! पर मैं उस तक पहुँचना चाहती हूँ. मछुआरे जाल फेंकते हैं, उनका समूह एक साथ गाते हुए एक-दूसरे का उत्साह बढ़ाता है. कभी नाव को किनारे लगाते समय सब पंक्तिबद्ध खड़े होकर रस्सी खींचते हैं. मैं ठिठककर उनके पास खड़ी हो सहायता करने की सोचती हूँ, ये जानते हुए भी कि इस रस्सी को थाम लेने भर से मैं इसे खींच नहीं पाऊँगी और यह प्रयास भी बेहद बचकाना है..... पर ऐसा करना अच्छा लगता है मुझे.
रेगिस्तान की भी अपनी अलग ही अदा है! यहाँ रेत के सुनहरे टीले जैसे 'आओ' कहकर अपनी ओर बुलाते हैं और दूर तक पसरी मृगतृष्णा किसी नटखट बच्चे-सा खेल खेलने लगती है. एक नन्हा पौधा भी अपार प्राण वायु का अनुभव करा जाता है और उसी के नीचे खेलता वो गोल मटोल लाल-काला सा कीड़ा किसी पुष्प की तरह मन को खिला देता है. रेगिस्तान के जहाज तसल्ली से लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं. बबलू, राजू, जेम्स बांड जैसे नाम धर ये झट से पर्यटकों से उम्र भर का रिश्ता जोड़ लेते हैं जिसे वो अपनी यात्रा की कहानियों में बार-बार दोहराते हैं.

कई बार सोचती हूँ कि बिना उठापटक, बिना राजनीति और लड़ाई-झगड़ों से दूर इन जंगलों, पहाड़ों, नदियों और रेगिस्तान की दुनिया में कितना प्रेम भरा है, कितनी सच्चाई है, कितनी एकता है. अपेक्षाएँ कम हैं, सो दुःख भी कम ही होंगे तभी तो इनकी औसत आयु हमसे ज्यादा है. तो फिर ये हमारे शहरों को ही क्या हो गया है कि इनकी भूख ही नहीं मिटती? रोज ही ये धरती का सीना क्यों चीर देते हैं? आख़िर कौन लील रहा है हमें? क्या हम स्वयं ही??
न जाने क्यों....मैं अब भी उस परी के मिलने की उम्मीद लिए अपनी Wish List रोज दोहरा लेती हूँ. 
- प्रीति 'अज्ञात'
#Wish List #प्रकृति 

सोमवार, 13 अगस्त 2018

मुल्क


जब स्कूल में पढ़ते थे तो कभी-कभार बच्चों को फ़िल्म भी दिखाई जाती थी. 'मुल्क' ऐसी ही फ़िल्म है जो अगर स्कूल न दिखाए तो आप अपने बच्चों के साथ जाएँ क्योंकि उन तक इसकी सोच और गहराई का पहुँचना बेहद जरुरी है.
फ़िल्म में ऋषि कपूर जी के लाज़वाब अभिनय ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि 102 नॉट आउट के बाद वे अपनी दूसरी पारी भी फुल फॉर्म में खेलने वाले हैं. तापसी पन्नू, प्रतीक बब्बर, आशुतोष राणा, रजत कपूर, नीना गुप्ता ने भी बेहतरीन अदाकारी की है. बिलाल के रोल को मनोज पाहवा जी ने इतनी शिद्दत से निभाया है कि थिएटर से बाहर आने के बाद भी उनके शब्द दिमाग़ में गूँजते रहते हैं, "मेरा नाम बिलाल है....." पुलिसिया जाँच के समय एक निर्दोष इंसान  के रूप में उनका अभिनय रोंगटे खड़े कर देने वाला है.

फ़िल्म के संवाद कट्टरपंथियों के गाल पर तमाचे की तरह पड़ते हैं -
"मेरे घर में मेरा स्वागत करने का हक़ उन्हें किसने दिया? ये मेरा भी उतना ही घर है जितना कि आपका!"
"ये वो घर है, जिसमें वो परिवार रहता है जिसने 1947 में मज़हब और मुल्क में से मुल्क को चुना था."

इसमें कोई शक़ नहीं कि अनुभव सिन्हा की यह फ़िल्म उन्हें कई ऊँचाइयों पर ले जायेगी. राजनीति जहाँ तोड़ने में यक़ीन रखती है वहीं कला जोड़ने का काम करती है. कला का क्षेत्र और असल कलाकारों का ह्रदय ऐसा ही होता है जो सारे भेदभाव से दूर रह साथ रहने को अहमियत देता है, उसका समर्थन करता है. 'मुल्क' इसी भावना का बुलंद स्वरों में आह्वान करती है. वे लोग जो हर बात में केवल ख़ुद को ज़िंदाबाद और ये कहते नहीं अघाते कि "गर्व से कहो... फलाना ढिमका हूँ." उन्हें तो यह मूवी दो-तीन बार देखना चाहिए क्योंकि एक बार में तो अक़ल आने से रही! 😃
- प्रीति 'अज्ञात'
@chintskap @anubhavsinha #मुल्क #Mulk


शनिवार, 11 अगस्त 2018

#अंडमान_डायरी

अंडमान जाकर आप एक क़सक के साथ न लौटें, यह तो संभव ही नहीं क्योंकि एक ओर जहाँ इसके द्वीपों का अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य आपको मंत्रमुग्ध कर देता है और आपका मन प्रसन्न हो झूमने लगता है तो वहीं cellular jail की यात्रा भीतर तक बेचैन कर देती है। दशकों तक चली अमानवीय यातना की लम्बी कहानी रात भर सोने नहीं देती। आँख भर आती है और इस पावन धरा को चूमने को ह्रदय लालायित हो उठता है  जिसे स्वतंत्र कराने के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने क्या-क्या कष्ट नहीं झेले!

अंडमान में घूमने को बहुत कुछ है। उस पर लिखने बैठूँ तो एक पुस्तक ही रच जाए। बस इतना जान लीजिये कि जब भी यहाँ आयें तो कम-से-कम पाँच दिन ठहरने का समय अवश्य रखें। यह भी याद रहे कि हम उस भाग्यशाली समय में यहाँ हैं जहाँ हम गले में कैमरा लटकाये स्वतंत्र घूम सकते हैं और इसकी सुंदरता को क़ैद कर सकते हैं।
अंडमान के लोग अच्छे और ईमानदार हैं। लगता तो नहीं कि यहाँ चोरी-चकारी टाइप घटनाएँ कभी होती भी होंगीं। धरना और हड़ताल का नाम भी इन्होंने शायद ही सुना हो। अपनी धुन में मस्तमौला इन लोगों के बीच जाकर लगता है कि दुनिया आज भी कितनी भोली और मासूम है। प्रकृति की सुंदरता के बीच बसे लोगों को अपराध से क्या वास्ता! अति महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या से कोसों दूर रहने वाले इस द्वीप के लोग बिना किसी शिक़ायत खुश रहना जानते हैं। 
'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई पोस्टर तो यहाँ नहीं दिखा पर स्वच्छता को देख दिल बेहद खुश हो गया। सच तो यही है कि इन सब आडम्बरों की आवश्यकता ही नहीं होती; समझ स्वयं ही विकसित करनी पड़ती है। अत्यधिक भाग्यवान हैं वे सभी, जिनका जन्म आज़ादी के बाद हुआ। लेकिन इस अमूल्य आज़ादी को किन-किन भीषण कष्टों और अमानवीयतापूर्ण व्यवहार को झेलते हुए प्राप्त किया गया, कितने लोग शहीद हुए, कितने घर उजड़े; उन सब सच्ची घटनाओं को बार-बार सुनाना, उन पर लिखा जाना अत्यधिक आवश्यक है कि हमें इस स्वतंत्रता की विलक्षणता का अहसास हो और हम अपने भारतीय होने पर गौरवान्वित महसूस करें। देशप्रेम, सहृदयता और संवेदनाओं का झरना  हर दिल से फूटे और हम आपसी भेदभाव, कट्टरता को भूल अपनी मातृभूमि को एक साथ नमन करें।
यहाँ गाइड एवं स्थानीय लोगों द्वारा जो जानकारियाँ प्राप्त हुईं, उन्हें साझा कर रही हूँ। जो अंडमान नहीं गए हैं, वे समय निकालकर अवश्य पढ़ें। 











अंडमान को काला पानी क्यों कहा जाता है?
यह 'काल' और 'पानी' दो शब्दों से मिलकर बना है। 'काल' अर्थात मृत्यु, जहाँ से कोई ज़िंदा वापिस नहीं आ सकता। तात्पर्य यह कि यदि कोई अंडमान आ गया तो समझिए काल का ग्रास बन गया। 'पानी' तो स्पष्ट ही है, अंडमान निकोबार द्वीप समूह के चारों ओर हजारों मील तक पानी ही पानी है कोई क़ैदी भागे भी तो कहाँ तक! भागकर आसपास के जंगलों में पहुँचते तो आदिवासी देखते ही मार डालते थे। जंगल में खाने को कुछ नहीं था, इन आदिवासियों से बचते तो भूख से मरना तय था या फिर उन दिनों मलेरिया से उनकी मृत्यु हो जाती थी।

सेनानियों को यहाँ लाने का उद्देश्य -
जेल के गाइड की मानें तो किसी भी राजनीतिज्ञ/नेता को अंडमान में फाँसी नहीं दी गई। उन्हें भारत के अन्य जेलों में फाँसी दी जाती थी। यहाँ स्वतंत्रता सेनानी, आजीवन कारावास के लिए भेजे जाते थे। भीषण यंत्रणा, बीमारी और जबरन भोजन खाने से उनकी मृत्यु हुआ करती थी। जबरदस्ती खाना तब खिलाया जाता था जब क़ैदी भूख हड़ताल करते थे। वे मुँह से नहीं खाते या इंकार करते, तो हड़ताल तोड़ने के लिए उनके हाथ-पाँव बाँधकर नाक में नली डालकर द्रव्य पदार्थ पिलाया जाता था, जैसे - चावल का मांड या दूध। इस कारण महावीर सिंह, मोहित मोइत्रा आदि की मृत्यु हुई। फाँसी केवल उन्हीं लोगों को दी जाती थी जो अंडमान में आने के बाद दोबारा कोई अपराध करते थे। cellular jail के फाँसी घर में कम लोगों को फाँसी दी गई पर कितनों को दी गई, इसका कोई रिकॉर्ड भी उपलब्ध नहीं है। 
ब्रिटिशर्स द्वारा क्रांतिकारियों को अंडमान लाने का मुख्य उद्देश्य उन्हें शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देना और किसी से संपर्क न करने देना था। तात्पर्य यह कि एक बार जो यहाँ आ गया तो उसके पास किसी की कोई जानकारी न रहे और न ही कोई उसके बारे में कुछ जान सके। 

क़ैदी और अत्याचारी में भेद -
क़ैदियों की सामान्य यूनिफॉर्म में कुर्ता और हाफ पेंट हुआ करते थी, गले में लोहे का छल्ला, लोहे की प्लेट उनकी पहचान थी, उस पर जेल का नंबर और दंड की अवधि लिखी होती थी। उनके पाँव में कड़ा, हाथ में हथकड़ी बाँधकर उन पर शारीरिक अत्याचार किये जाते थे जिससे मारते समय क़ैदी हिल भी न पाए। यह सजा बाक़ी कैदियों में भय उत्पन्न करने के लिए किसी एक कैदी को दी जाती थी। दुर्भाग्य यह कि मारने वाला भी भारतीय ही होता था। स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा वहाँ असल अपराधी भी आते थे। इन अपराधियों में से जो हट्टा कट्टा, दिमाग से कमजोर पर अत्याचारी प्रवृत्ति का होता था, ऐसे लोगों को पहचानकर ब्रिटिशर्स काम पर रखते थे। इनमें से ही अटेंडेंट, जमादार, वार्डन बनाये जाते थे। इनको कैदियों से काम करवाने तथा उन पर शारीरिक अत्यचार करने को कहा जाता था। बदले में इन्हें अच्छा खाना मिलता था और साथ ही यह सुविधा भी कि न तो कभी इन्हें इस तरह का कठिन परिश्रम करना पड़ता और न ही इन्हें कोई मारपीट ही सकता था। यही इनकी तनख्वाह भी थी। 

फ़ाँसी घर -
यहाँ जब बाहर खड़े होते हैं तो पता ही नहीं चलता कि यह सुन्दर सा दिखने वाला कक्ष 'फाँसीघर' है। आसपास की हरियाली और टूरिस्ट के बीच यह चित्र देखने में बहुत सुंदर लगता है लेकिन इसके भीतर की कहानी उतनी ही भयावह एवं दुखदायी है। पहले खुले में फाँसी दी जाती थी, वुडन बीम और प्लेटफॉर्म उस समय के ही हैं एवं रस्सी नई है। यहाँ तीन लोगों को एक साथ फाँसी दी जाने की व्यवस्था थी। बायीं तरफ़ लोहे का lever है। गले में फंदा डालने के बाद इस lever को pull करते ही प्लेटफार्म नीचे की तरफ़ खुल जाता था, नीचे आठ फ़ीट गहरा कमरा है। फाँसी पर झूलते ही क़ैदी की मृत्यु हो जाती थी। शव को साइड के गेट से बाहर ले जाकर अंतिम संस्कार करते थे।

टॉर्चर फैक्ट्री (प्रताड़ित करने का कारखाना) -
प्रताड़ना का कोई एक तरीक़ा तो था नहीं, अंग्रेज़ों ने हमारे सेनानियों को कष्ट देने के लिए वीभत्सता की सारी हदें पार कर ली थीं। यह 'टॉर्चर फैक्ट्री' उनकी इसी घृणित सोच का जीता-जागता उदाहरण है। यहाँ पहुँचते ही आपका ह्रदय उन जालिमों के प्रति नफ़रत से भर जाता है और आप उन्हें कोसे बिना रह ही नहीं सकते।

कोल्हू -  इसका भार 150 किलो है। इससे एक कैदी को एक दिन में 30 पौंड नारियल तेल निकालना होता था। जो बैल भी सारा दिन जुतकर नहीं निकाल सकते थे; तो इंसान कहाँ से निकाल पाते! जब हमारे सेनानी कोल्हू चलाते-चलाते थक जाते और इंकार करने लगते थे तब अंग्रेज़ उनका हाथ पकड़कर जबरन चलवाते और पीछे से हंटर भी मारते थे। कुछ क़ैदी इसी कोल्हू को चलाते-चलाते बीमार पड़ जाते और कुछ की मृत्यु हो जाती थी। जो जीवित शेष रहते तो उनका जीवन नर्क़ से भी बदतर बना दिया जाता और उन्हें भयावह यातना और अथाह पीड़ा के विभिन्न चक्रों से गुजरना पड़ता था। 

सेलुलर जेल में यातना के कई प्रकार थे -
*जो क़ैदी अपना काम पूरा नहीं करते थे, एक हफ्ते के लिए उन्हें कोठरी के बाहर हथकड़ी में रखा जाता था। पहली बार एक दिन में 8 घंटे हथकड़ी लगाई जाती। उसके बाद दो दिन बोरे की बनी ड्रेस पहननी होती थी, जिससे उन्हें गर्मी ज़्यादा लगे और पूरे शरीर में खुजली होती रहे। बँधे हुए हाथों से कोई कैसे खुजा सकता था! हमारे सेनानी इस अपार वेदना को सहते रहे।

तीन तरह के punishment chain fetters थे। इन्हें एक वर्ष पहनाते थे, पहले में हाथ फ्री है और क़ैदी चल सकता था। पर पैरों में वजन बंधा होता था। 
Bar fetters, छह माह पहनाते थे। चलते समय इन्हें पकड़कर चलना पड़ता था और काम करते समय छोड़ देते थे।
Danger cross में पाँव के नीचे लोहे की छड़ होती थी।  जिससे सबके पैरों में घाव हो जाते थे क्योंकि चलते वक़्त ये rod उनके पाँव से घिसती जाती थी।

क़ैदियों की दिनचर्या -
खाना खाने के लिये लोहे की प्लेट होती थी जिसमें दाल, चावल, रोटी सब्ज़ी, उतना ही दिया जाता था जितना कि जीवित रहने को आवश्यक है पर उतना नहीं कि पेट भर सके। पीने के लिए दिन में दो बार गंदा पानी ही मिलता था। रात में बिजली नहीं होती थी । बस सुरक्षाकर्मी एक लालटेन लिए बाहर घूमा करता था। और वे उसी घुप्प अंधेरे में सोया करते थे। बेड, लकड़ी के बने थे।
दिन भर क़ैदी बाहर काम करते थे। ग्राउंड में उनके लिए कॉमन toilets थे। कुछ कैदियों को कोठरी के अंदर ही काम देते थे, उनके लिए नियम यह था कि वे दिन में 3 बार बाहर जाकर टॉयलेट्स का इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन ब्रिटिशर्स के तय किये समय पर ही। शाम 6 से सुबह 6 तक सब लॉकअप में ही रखे जाते थे जहाँ उन्हें मिट्टी का कटोरा दिया जाता था, जिसे हम सकोरा कहते हैं। जो भी करना इसी सकोरे में,रात में उन्हें इसी का प्रयोग कर उसी दुर्गंध में सोना होता था। सुबह स्वीपर आकर ले जाता था।

काल कोठरी
एक cell में एक ही व्यक्ति रहता था जिससे वह मानसिक रूप से भी प्रताड़ित हो, बातचीत न कर सके और शोषकों के विरुद्ध कोई योजना न बना पाए।
बात करना तो दूर, एक विंग का क़ैदी, दूसरे विंग के क़ैदी को देख भी नहीं सकता था। लॉक भी इस तरह के कि खोल पाना असंभव क्योंकि कुंडा दूर लगा हुआ था और वहाँ हाथ पहुंच ही नहीं सकता था।
इस समय 7 में से 3 ही विंग शेष हैं। जो हिस्सा रहने लायक नहीं वहाँ हॉस्पिटल बना दिया गया है। विंग के टूटे हुए हिस्सों के स्थान पर हॉस्पिटल है जहाँ दवा, उपचार, एक्सरे, स्कैन सारे परीक्षण निशुल्क होते हैं। विंग में एक जगह प्रदेश के आधार पर क्रांतिकारियों की सूची लगी हैं। गाइड की मानें तो सबसे अधिक बंगाल और फिर पंजाब के क्रांतिकारी यहां रहे थे।

वीर सावरकर जी की कोठरी
वीर सावरकर जी की कोठरी में दो दरवाजे लगे हैं। इनमें खतरनाक क़ैदी को रखा जाता है। उन्हें 10 वर्षों तक यहां रखा गया। सावरकर जी को जब इंग्लैंड से गिरफ्तार कर भारत लाया जा रहा था तब वे जहाज के टॉयलेट का glass तोड़ वहाँ से कूदे और तैरते हुए दूसरे बंदरगाह पहुंचे। जहाँ फ्रांसीसी गार्ड ने उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद उन्हें ब्रिटिश गार्ड्स ने अपने कब्जे में ले लिया। भारत लाकर उन पर केस चला। 6 माह बाद उन्हें अंडमान भेजना तय किया गया। ब्रिटिशर्स डरते थे कि ये दोबारा न भागें, इसलिये उन्हें कड़े पहरे में रखा गया। उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर जी उनसे पहले से ही यहाँ थे, पर दो वर्ष तक दोनों आपस में मिल भी न सके। जब बड़े भाई बीमार हुए तब पहली बार वीर सावरकर जी से उनकी अस्पताल में मुलाकात हुई। उसके बाद 1921 में उन्हें cellular jail से  रत्नागिरी महाराष्ट्र ट्रांसफर करवा दिया गया। 3 साल बाद वहां नज़रबंद रख फिर उन्हें छोड़ा गया। 
सोचकर भी रूह काँप जाती है कि जिस स्थान पर हमारा 10 मिनट खड़े रहना भी मुश्क़िल है वहां उन्होंने दस वर्ष गुजारे।
आज अंडमान एयरपोर्ट उन्हीं के नाम पर है।

जापानी कब्ज़ा -
सेलुलर जेल को ब्रिटिशर्स ने 1938 में खाली कर दिया था एवं सभी क़ैदियों को भारत की जेलों में ट्रांसफर करवा दिया था। इस तरह 1858 से 1938 तक चली कालापानी की अमानवीय सज़ा का पटाक्षेप हुआ। उसके बाद अंग्रेजों का राज रहा पर यह अत्याचार बंद हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान ने अंडमान पर कब्ज़ा कर लिया था । साढ़े तीन साल उनका कब्ज़ा रहा। जो इंडियन यहाँ बसे हुए थे, उनमें से कुछ शिक्षित और कुछ इंडियन इंडिपेंडेंट लीग से जुड़े लोग थे। जापानीज को संदेह होता था कि वे अंगेज़ों के लिए जासूसी कर रहे हैं। जिसके प्रति भी ब्रिटिशर्स के प्रति सहानुभूति का शक होता, वे उसे जेल में लाकर प्रताड़ित करते थे। जापानियों के अत्याचार और भी भयावह थे।
यदि अंग्रेजी बम न गिरते तो आज अपना अंडमान जापानी कब्ज़े में होता।

भारतीय झंडा-
उसी दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी का अंडमान आना हुआ था। 30 दिसंबर 1943 को वे सेलुलर जेल आये और उन्होंने पहली बार यहाँ भारतीय झंडा फहराया था। उसके बाद उन्होंने इस द्वीप समूह को दो नाम भी दिए। अंडमान को 'शहीद द्वीप' और निकोबार को 'स्वराज द्वीप'। 
ब्रिटिशर्स के रॉयल एयर फोर्स ने अंडमान में जापानियों के ऊपर बहुत बम गिराए उसके बाद जापनियों ने सरेन्डर कर दिया। और कुछ समय बाद 1945 में वे अंडमान छोड़कर चले गए। डेढ़ साल पुनः अंग्रेजों का राज़ रहा। चूँकि यहां भारतीय अधिक थे अतः स्वतन्त्रता के समय उन्होंने  यह हमें सौंप दिया और इंग्लैंड लौट गए। 

भारतीय यहाँ इसलिये अधिक थे क्योंकि जब अंडमान में क़ैदियों को भेजना शुरू किया गया था तो जो क़ैदी एक बार यहाँ आ गया उसे तब वापिस ही नहीं भेजते थे, चाहे सजा पूरी हो गई हो या उसमें छूट भी हो। एक बार जो आ गया वो वापिस जा नहीं सकता था। उन्हें यहीं बसाते थे। जमीन देते थे, खेती बाड़ी करो या अंग्रेजों के पास काम कर जीविकोपार्जन करो। कहते हैं, आज अंडमान में जो लोग हैं वे उन्हीं के वंशज हैं।
- प्रीति 'अज्ञात'
#अंडमान_डायरी

सोमवार, 6 अगस्त 2018

प्रकृति, विभाजन में विश्वास नहीं रखती!

सूरज कभी भी अपने नाम की तख़्ती लिए नहीं घूमता और न ही चाँद अपनी सूरत को देख स्वयं आहें भरा करता है। जीवनदायिनी प्राणवायु सरसराती हुई किसी तप्त मौसम में शीतलता ओढ़ाती और शीत ऋतु में जमकर ठिठुराती है पर आज तक उसने हौले-से भी कभी कानों के पास आकर यह नहीं कहा कि "सुनो, मैं हवा हूँ"....सागर, नदियाँ, ताल-तलैया कभी अपनी पहचान की माँग नहीं करते। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ तक अपनी जगह मौन, स्थिर खड़े हैं किसी ने हरियाली की चादर ओढ़ी हुई है तो कोई सर्द बर्फ़ की मोटी रजाई में आसरा लिए पड़ा है, कोई पत्थरों से क्षत-विक्षत। पर अपनी-अपनी ऊँचाई के घमंड से चूर हो या दूसरे से घृणा/ईर्ष्या कर ये सब एक-दूसरे को आहत करते कभी नहीं पाए गए। वृक्षों ने भी अपने छायादार, फलदार, कँटीले, लघु-वृहद स्वरुप को लेकर कोई प्रश्न नहीं उठाये। पुष्प सदियों से मुफ़्त में ही अपनी सुगंध फैलाते आ रहे हैं। प्रत्येक देश-प्रदेश की माटी का रंग अलग-अलग पर फिर भी सभी वनस्पतियों को एक-सा प्रेम देती है। जीव-जंतुओं का आसरा भी यह भूमि ही है, जो अपने नाम का उल्लेख तक नहीं करती।

तात्पर्य यह कि जो देना जानता है, वह न तो अपने गुण कभी गिनाता है और न ही श्रेय लेने का प्रयास करता है। सब कुछ उसे स्वतः मिलता है। प्रकृति विभाजन में विश्वास नहीं रखती। अच्छाई स्वयं अपनी पहचान बनाती है और सद्कर्मों को गिनाये जाने की कोई आवश्यकता नहीं होती। सूरज की रोशनी ने हम में जीवन भरा, हमने बिन मांगे उसे सरताज बना दिया। चाँद की शीतलता को प्रेम से जोड़ हमने उसे पवित्र प्रेम के सर्वोच्च शिखर पर बिठा दिया। हवाओं के आगे सर झुकाया और ऋतुओं के गुणगान किये। देश-प्रदेश, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को उनके गुणधर्मों के आधार पर विभाजित कर संवाद हेतु सुविधाजनक मार्ग बनाया। बात यहीं पर रुक जानी चाहिए थी। परेशानी ने अपने पाँव तब पसारने प्रारम्भ कर दिए जब हमने मनुष्यों को बाँटना शुरू किया। किसी को उत्कृष्ट और किसी को निकृष्ट मानना तय कर लिया गया। किसी को सारे अधिकार मिले तो कोई युगों तक वंचित रहा। पाने का अर्थ छीनना और जीतने की परिभाषा दमन हो गई। धर्म के पक्ष में खड़े होना तो स्वाभाविक है पर अधर्म को भी सबल का आश्रय मिलता रहा। इंसानियत ने अपने अर्थ खोये। अधिक बुद्धि और तकनीक के ग़लत प्रयोगों ने न केवल अपराध को बढ़ावा दिया बल्कि इंसानों से उनके दिन-रात छीन लिए। अब हम विज्ञान और तकनीक के उपभोक्ता नहीं; ग़ुलाम बन चुके हैं। यह एक ऐसा मुश्किल समय है कि अब एक क़दम आगे बढ़ाने से बेहतर है कि दो क़दम पीछे खींच कुछ पल ठहरा जाए, विचार किया जाए कि सर्वश्रेष्ठ हो जाने की दौड़ में कितना कुछ छूट रहा है। कितनी ऐसी घटनाएँ हैं, जिनका घटित होना या उन पर हमारी चुप्पी हमें पशुओं की श्रेणी में सम्मिलित कर रही है। हम सच के साथ खड़े होने में हिचकते क्यों हैं? अन्याय का विरोध करने की शक्ति इतनी क्षीण क्यों हो गई है? हमारे भीतर की इंसानियत हमें झिंझोड़ती, धिक्कारती क्यों नहीं?
जैसे-जैसे मनुष्य बँटते गए, मनुष्यता क्यों सरकती जा रही है?

यहाँ यह स्वीकारोक्ति भी आवश्यक है कि निश्चित तौर पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर अब तक बहुत कुछ बदला है और विश्व के मानचित्र पर हमारी उपस्थिति हमें गौरवान्वित करती है। परेशानी जो है, वो घर के भीतर ही है और अब दुनिया की नज़र में आने लगी है। इससे स्वतंत्र होना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए-
गली, मोहल्ले, गाँव, शहर के स्नेह को हृदय में सजाये हुए इस देश के प्रत्येक नागरिक को सबसे पहले स्वयं को भारतीय स्वीकारना होगा। तभी वह अपने-अपने प्रदेश की वाह-वाही और दूसरे पर आक्षेप की मानसिकता से स्वतंत्र हो सकेगा। हर घटना के हिंदू-मुस्लिम मुलम्मे ने देशवासियों को सिवाय पीड़ा के और कुछ भी नहीं दिया, हमें इस पीड़ा से स्वतंत्रता चाहिए।

ग़रीब बचपन चीखकर रोता है, एक बेबस पिता कहीं बोझा ढोता है, इधर रोटी की प्रतीक्षा में तीन भूखे पेट दरवाज़े पर आँखें रख हमेशा-हमेशा के लिए वहीं गहरी नींद सो जाते हैं। जो रोटी न दे सके, वे उन्हीं भूखे पेटों को चीरकर मृत्यु के कारण तलाशने की कोशिशों में जुटे हैं। यह भूख का दोष ही रहा होगा कि वह कुछ नहीं कह पाती। सूखे हलक और आँतों से चिपककर सुन्न हो बैठ जाती है। हमें इस ग़रीबी और लाचारी से स्वतंत्रता चाहिए।

हमें भ्रष्टाचार, शोषण, अशिक्षा और अपराधमुक्त भारत चाहिए। हमें वह आज़ादी भी चाहिए, जिसमें हमारे बच्चों और प्रियजनों को घर से बाहर भेजते समय, यात्रा के समय हमारा मन सशंकित न हो और हम उनकी सुरक्षा के प्रति कोई घबराहट न महसूस करें। अंग्रेज़ों से मिली आज़ादी की क़ीमत भले ही हम ठीक से न समझ सके हों, पर फिर भी हमने इसे भरपूर जिया है। अब यह आवश्यक है कि बच्चों को भी उनके हिस्से की स्वतंत्रता मिले-

बहुत समय हुआ जबसे मैंने 
इन आँखों में कुछ स्वप्न पाले हैं
ज़्यादा कुछ नहीं बस इनमें 
वो हँसते-खेलते बच्चे हैं 
जो अब भी पड़ोस में खेलकर 
माँ के बुलाने पर ही घर लौटते हैं 
जिन्हें आनंद मिलता है छुट्टी की घोषणा का 
और जो हो-हो कर तालियाँ पीट 
बैग उठा गलियों में सरपट दौड़ पड़ते हैं 
बच्चे, जो बारिश में रेनकोट लिए बिना
जब चाहे घर से निकलते हैं 
छपाक-छपाक कर कहीं भी कूद पड़ते हैं
और मस्ती के किस्से सुनाते एक पल भी नहीं अघाते
जो झूलते हैं बेझिझक दादा-दादी के कन्धों पर 
और अपनी मीठी बोली से नाना-नानी तक 
दुनिया भर की तमाम शिकायतें पहुँचाते हैं
बच्चे जो भयभीत नहीं
जिन पर स्कूल और पढ़ाई का 
अंतहीन भार नहीं 
जो अब भी मिट्टी में खेलते हैं 
चहककर बाग़ में तितलियाँ पकड़ते हैं
- प्रीति 'अज्ञात'
#हस्ताक्षर #प्रकृति #स्वतंत्रता #बच्चे 

http://hastaksher.com/rachna.php?id=1552

रविवार, 5 अगस्त 2018

मित्रता दिवस

'मित्रता दिवस' के मनाये जाने से उन लोगों के पेट में एक बार फिर से जबरदस्त मरोड़ उठ सकती है जो वैलेंटाइन डे को मातृ-पितृ दिवस और क्रिसमस को तुलसी पूजन दिवस के रूप में मनाये जाने की वक़ालत किया करते हैं. मजेदार बात यह है कि फादर्स डे और मदर्स डे पर भी इनका यही सुर रहता है एवं तब इनकी सरगम से वही घिसी-पिटी धुन निकलती है कि "हम विदेशी दिवस क्यों मनायें जी, हमारे यहाँ तो सदा से माता-पिता पूजनीय रहे हैं." उसके बाद इनके द्वारा उदाहरण स्वरुप सदाबहार श्रवण कुमार जी की कहानी दोहराई जाती है जिसे सुन-सुनकर अब श्रवण कुमार की श्रवणेन्द्रियाँ भी असहज महसूस करती होंगी. मैं कभी यह सोच परेशान होती हूँ कि इनके पास और कोई उदाहरण क्यों नहीं होता! तो कभी तमाम वृद्धाश्रमों की तस्वीर आँखों में चुभने लगती है.  पर उस समय मेरा यह यक़ीन कि 'अच्छाई आज भी जीवित है', मुझे किसी निरर्थक बहस में पड़ने से रोक देता है. 
बहरहाल, बात चाहे जो भी हो पर मेरा मानना है कि 'जो अच्छा है उसका विरोध नहीं होना चाहिए.' ख़ासतौर पर तब जबकि वातावरण को दूषित करने के लिए कुछ लोग कटिबद्ध हो आपसी वैमनस्यता बढ़ाने की साज़िशें रच रहे हों. लोगों को तो इमरान ख़ान की इस बात से भी तक़लीफ़ हो गई है कि उन्होंने कपिल देव, गावस्कर और सिद्धू (siddhu) साहब को क्यों न्योता! यक़ीनन ऐसी सोच वाले दोस्ती का 'द' भी नहीं समझते.  

सकारात्मकता कभी बुरी नहीं होती इसलिए 'मित्रता दिवस' मुझे ईद, होली सरीख़ा लगता है क्योंकि यह तोड़ने नहीं, जोड़ने की बात करता है. जहाँ आप अपने मित्रों के गले लग पुराने गिले-शिक़वे दूर कर सकते हैं. जी चाहे तो उनकी पीठ पर मुक्का भी मार सकते हैं, लड़ सकते हैं और दुनिया-जहान की सारी परेशानियाँ उनसे साझा कर एक दर्ज़न गालियाँ खा अपने बेवकूफ़ होने का प्रमाणपत्र निःशुल्क प्राप्त कर सकते हैं. दोस्तों का कुछ बुरा नहीं लगता, उनकी नाराज़गी में स्नेह बरसता है. बस जब वो हमें नज़रअंदाज़ कर कहीं और भटकने लगें तब जरूर दिल गोलगप्पे सा फूलकर धचाक से टूट जाता है. पर जबसे सल्लू मियाँ ने बताया है कि 'दोस्ती की है तो निभानी तो पड़ेगी!' हम तुरंत ही मान भी जाते हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'
* ये फोटो दो साल पुराना है, पर विचार अब भी वही हैं.
#मित्रता दिवस