गुरुवार, 28 जनवरी 2016

सफ़र में....

ट्रेन की खिड़की से सर को टिकाये बैठी मैं झांकती हूँ बंद खिड़कियों से. वही खेत-खलिहान, कुछ कच्चे मकान, सदियों पुराने उन्हीं विज्ञापनों से रंगी हुई दीवारें उन घरों की ईंटों की दरारों को ढांपने की नाकाम कोशिश आज भी उतनी ही शिद्दत से कर रहीं हैं. ट्रेन की गति जीवन की तरह ही तो है, सब कुछ पीछे छूटता जा रहा, जैसे हाथ छुड़ाकर भाग रहा हो कोई. ये नीम-हक़ीम के नाम आज भी नहीं बदले, इतने ज्यादा हैं कि दौड़ती हुई ट्रेन के साथ भी इन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है. हम्म्म, याद भी तो हो गए हैं.

क्रॉसिंग पर रुके अधीर लोग अब भी माथे पर वही शिकन लिए खड़े हैं. इनकी फ़िक्र इनके साथ ही जाएगी. वहीँ कुछ बच्चे उल्लास-में, हाथ को जोरों से हिलाते हुए वैसे ही कूदते हैं और चिल्लाकर हँसते हुए "बाय-बाय, फिर मिलेंगे" कुछ इस तरह कहते हैं कि पूरा यक़ीन हो जाता है, दुनिया जीवित है अभी. एक मुस्कान चेहरे पर तैरने लगती है, मैं भी जोरों से हाथ हिलाकर अपने इस आश्वासन को पुख़्ता करती हूँ.

तभी ऊपर की सीट पर बैठे प्रेमी जोड़े की फुसफुसाहट असहज कर देती है.
लड़का, लड़की से पूछ रहा है, "मुझसे बियाह रचाएगी?"
मैं कानों को स्कार्फ़ से बाँध अनजान होने की कोशिश करती हूँ कि उनकी बातों में कोई व्यवधान न उत्पन्न हो, पर ये सामने सीट पर बैठी दोनों लड़कियाँ मुँह को हाथों से छुपा, अपनी बेताब हंसी इतनी बुरी तरह दबा रहीं हैं, कि मन घबराने लगा....कहीं उन दोनों की बात अधूरी न रह जाए!  
दूसरी तरफ बैठे अंकल जी ने भी कनखियों से अभी ही ऊपर देखा. न जाने क्यूँ बगल में बैठी उस महिला का चेहरा अचानक उतर गया. जैसे उन उदास आँखों ने भीतर की नमी को और भी सहेज लिया हो. शायद उसे याद आ गया कोई!

मैं अचानक उनसे अपनी सीट बदल लेती हूँ. जानती हूँ अकेले सफ़र में, ये खिड़कियाँ बड़ा सहारा हैं. बाहर देखने का भ्रम पालते हुए चुपचाप यादों के पन्ने कुछ इस तरह उलट दिया करतीं हैं कि वक़्त का अहसास ही नहीं होता. ट्रेन की मानिंद, ज़िन्दगी भी रफ़्तार पकड़ एक दिन अचानक किसी स्टेशन पर रुक ही जाने वाली है.
मैं अपने स्टेशन के इंतज़ार में फिर से घड़ी चेक़ करती हूँ....
- प्रीति 'अज्ञात'
* एक यात्रा के दौरान 

सोमवार, 4 जनवरी 2016

लेखन मेरी प्राणवायु

शब्द ही शब्द मंडराते हैं हर तरफ, सहेजना चाहती हूँ उन्हें, गागर में सागर की तरह, वक़्त की धूल कभी आँखों में किरकिरी बन नमी ला देती है, तो कभी इस धूल को एक ही झटके में झाड़ फटाक से खड़ा हो उठता है मन, जरा-सी ख़ुशी मिली नहीं कि बावलों-सा मीलों दूर नंगे पाँव दौड़ने लगता है, रेत में फूलों की ख़ुश्बू ढूंढ लेता है, घनघोर अन्धकार में भी यादों की मोमबत्तियाँ जला उजास भर देता है! पर उदासी में अपने ही खोदे कुँए में नीचे गहराई तक उतर जाता है, बीता हर दर्द टटोलता है, सहलाता है, भयभीत हो चीखता-चिल्लाता है! पुकार बाहरी द्वारों  से टकराकर और भी भीषण ध्वनि के साथ वापिस आ मुंह चिढ़ाने लगती है! दोनों हाथों को कानों से चिपकाकर, चढ़ने की कोशिश आसान नहीं होती। घिसटना किसे मंज़ूर है भला? चाहे हिरणी-सी मीलों दूर की दौड़ हो या जमीन के भीतर धंसी दुःख की खाई, दोनों ही जगहों से लौटना आसान नहीं होता, पर फिर भी, जिम्मेदारियों की रस्सी गले में फंदा बाँध ऊपर खींच ही लेती है! एक गहरी ख़राश, कुछ पलों का मौन, चीखता सन्नाटा और हारी कोशिशों का खिसियाता मुंह लिए लौट आता है तन, पुरानी दिनचर्या में शामिल होने के लिए! ठीक तभी मैं, स्वयं को भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिशों में जुटा पाती हूँ! मैं की-बोर्ड को अपना सबसे करीबी मित्र मान, अपनी हर बात उसके कानों में डाल थोड़ा मुक्त-सा महसूस करने लगती हूँ!

लेखन मेरी प्राणवायु है, ये कभी समाज की कुरीतियों और अपराधों के प्रति निकली हुई झुंझलाहट है तो कभी धर्मजाल के खेल में उलझते लोगों के लिए कुछ न कर पाने की बेबसी! ये घुटन को दूर करने की व्याकुलता है और नम आँखों पर हँसी बिखेर देने की ज़िद भी! कभी ये छोटे-छोटे पलों को जीने का अहसास बन एक मासूम बच्चे-सा मेरे काँधे पर झूलता हुआ बचपन है तो कभी खुशियों को कागज़ पर समेट देने की असीम उत्कंठा! पर इन सबके पीछे 'परिवर्तन' की एक उम्मीद आज भी कहीं जीवित है! लेखन मेरे लिए आत्म-संतुष्टि से कहीं ज्यादा 'प्रयास' है कि समाज में एक सकारात्मक और आशावादी सोच भी उत्पन्न कर सकूँ! संघर्षों से हारना मैंने सीखा ही नहीं, इसलिए यह यात्रा अब तक अनवरत जारी है क्योंकि जीवित हूँ अभी!
- प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 3 जनवरी 2016

साँसों की पतवार

अहमियत 'साथ' की उतनी नहीं होती जितनी कि साथ होने के अहसास की होती है! 'मैं हूँ न' की आश्वस्ति से अधिक किसी को कुछ नहीं चाहिए होता.....क्या ये इतना मुश्किल है ????  
पर सवाल ये है कि  साँसों की पतवार को खेते रहने के लिए उम्मीद के सागर की तलाश क्यों है? वही क्यों चाहिये, जिसे आपकी जरुरत नहीं! खुद को परखा है कभी? अपने पीछे भागनेवालों को मन वितृष्णा से क्यों देखने लगता है? क्या फ़र्क़ है, उनमें और तुममें! सबको तलाश है किसी और की, जो सामने है उपलब्ध है, उस पर नज़र जाती ही नहीं और असंभव को पाने की जद्दोज़हद में ज़िन्दगी फिसलती जाती है!

मन खुद ही टूटता है, बिखरता है और तिनका-तिनका हो हवाओं में विलीन हो जाता है कहीं! ये भी मन ही है जो बोझिल हाथों से खुद को समेट फिर उठ खड़ा होता है! बार-बार लड़खड़ाना, चोट खाना, एक सहारे के लिए गिड़गिड़ाना और फिर खिसियाकर खुद ही उठ जाना.... ये नियति भी तो मन की स्वयं की ही चुनी है. क्यों नहीं, ये हर बार एक ही झटके में मजबूती से उठ खड़ा होता है, कभी न गिरने के लिए. आत्मसम्मान को बेचकर, उम्र भर का अहसान लेते हुए, भिक्षा-पात्र में गिरता रिश्ता कब तक टिक सकता है? भिक्षुक कभी सम्मान के पात्र हुए हैं भला? एक टूटी आस, खुद से ज्यादा इंसान को तोड़ देती है. उम्मीद नहीं, ख्वाब नहीं , उन्हें पूरा करने की ज़द्दोजहद भी नहीं.... …पर फिर भी जीवन बाकी है. सामने नीला खुला आकाश बाहें फैलाये खड़ा रोज दिखता है और याद आता है एक दिन उसने पूछा था....."कितना प्यार करती हो मुझे?" और मैंने हंसकर कहा था "आसमान से भी ज्यादा". उसे इस बात पर कभी यकीं न हुआ था और मुझे तो वो आसमान भी कम जान पड़ा था. पर आज जब उस ओर देखती हूँ , तो लगने लगता है कि उसे भी आश्चर्य नहीं हुआ था तब, शायद कम ही लगा होगा ये पैमाना! तभी तो कितनी बार इस पैमाने की खिल्ली उड़ाते हुए चला जाता था और मैं खिसियाती हुई अपने को ही दोष देने लगती थी.  आज मेघों का गर्जन मुझे मखौल बनाता लगता है, बारिश की बूँदें तेज़ाब सा गिरकर मेरे चेहरे का  रंग उड़ा देती हैं. मैं जान गई हूँ, ये आसमाँ मेरा न था! मेरे हिस्से की जमीं भी अपनी न रही... जिसके लिए मैंने अपनी हर चीज़ दाँव पर लगा दी, वो मुझे ही गुनहगार ठहरा गया. आज मेरा हर भ्रम चकनाचूर है और उससे जुड़ा हर घमंड भी. फ़िज़ूल था वो यक़ीन कि कोई मेरा भी हो सकता है. अधूरे इंसान का कौन, कब, कहाँ हुआ है? सदियों से उसका मजाक ही बनाया जाता रहा है. अधर में हूँ , पर शिक़ायत नहीं कोई! क्योंकि उसे मेरा यही होना मंज़ूर है!

'सौदामिनी, जीवन के आखिरी पन्नों से' का एक अंश