गुरुवार, 31 जुलाई 2014

'माँ' जैसी

माँ अक़्सर ही अपनी रोटियाँ जल्दी में बनाया करतीं थीं. सबको गरमागरम, मुलायम, घी लगी रोटियाँ परोसने के बाद कभी अधसिकी, कभी जली हुई, कभी दो तो कभी उतने ही आटे से बनी एक मोटी रोटी पास ही तश्तरी में रख दी जाती. उसके बाद चूल्हा साफ किया जाता, फिर प्लेटफॉर्म. उसके बाद आँचल से हाथ पोंछते हुए उसी तश्तरी में सब्ज़ी, चटनी, सलाद सारी घिचपिच करके और एक कटोरी में दाल ले, जैसे-तैसे खाना निबटाया जाता. पापड़ अपने लिए तो कभी सेका ही नहीं, किसी-न-किसी का बचा हुआ, ढीला, सीला खाकर ही संतुष्ट हो जातीं. बहुत चिढ़ हुआ करती थी, मुझे. कितनी बार गुस्सा भी किया, कई बार उठकर उनके लिए दूसरी रोटी बना लाती. पर वो हमेशा यही कहतीं, "अरे..मेरा तो चलता है, स्वाद तो वही है ना". मैं पलटकर कहती.."अगर स्वाद वही है, तो कल से हम सभी को भी वैसी ही रोटी बनाकर दो". वो निरुत्तर हो हँसने लगतीं. कभी-कभी मुस्कुराकर कह भी देतीं थीं, ...."जब माँ बनोगी, तब समझोगी". मैं झुंझला जाती और चिल्लाकर कहती, ..."जाओ, मैं शादी ही नहीं करूँगी कभी".

पर कहने से क्या होता है...शादी हुई, ससुराल आई. आम भारतीय नारी की तरह जीवन चलने लगा. पूज्य ससुर जी के निधन के बाद सासू-माँ के साथ हमारे शहर में रहने लगे. एक दिन अचानक ही कुछ बात चली और उन्होंनें मुझे कहा..." तू मेरे लिए कुछ स्पेशल न बनाया कर, मैं तो सुबह का बचा भी खा लेती हूँ " उस दिन बहुत जी दुखा मेरा, और मैंनें उन्हें कहा..."आप घर की सबसे बड़ी हैं, और विशिष्ट भी..आपके लिए कुछ करना मुझे अच्छा लगता है, करने दीजिए". वो हैरान हो मेरा चेहरा देख रहीं थीं, पर उन्हें ये सुनकर कहीं प्रसन्नता भी हुई थी, उनकी आँखों की नम कोरें इसका प्रमाण थीं. उन्हीं दिनों मेरी भाभी जी (जेठानी जी) के यहाँ भी जाना हुआ. वहाँ भी मिलता-जुलता दृश्य...भाभी बच्चों की प्लेट में ही अपना खाना लगा लिया करतीं और उनके बचे-खुचे के साथ थोडा और परोसकर भोजन शुरू कर देतीं. कई बार ऐसा भी होता कि कुछ बचा होता...तो बच्चों को कहतीं.."प्लेट इधर दे जाओ, मैं खा लूँगी". मुझसे रहा नहीं गया और मैंनें तुरंत ही कहा.."भाभी, आपका खाना तो हो गया था, फिर आपने क्यों लिया?" उनका जवाब था...."अरे, फिंकता, बेकार जाता, सो..खा लिया". मैंनें सवाल किया.."आप डस्ट-बिन हो, जो सबका बचा-खुचा आपको ही समेटना है, आपके स्वास्थ्य की परवाह नहीं?" वो सोच में पड़ गयीं थीं. पर एक वर्ष बाद जब हम मिले, तो उन्होने कहा कि.."मैंनें कभी ध्यान ही नहीं दिया था, इस बात पर. मेरे बढ़ते हुए वजन का एक कारण ये भी था. उन्हें खुश देख मैं और भी खुश हो गई थी. समय बीतता गया.

पर आज कुछ ऐसा हुआ, कि ये सभी यादें एक साथ ताज़ा हो गयीं. मैं खाना लेकर बैठी ही थी, बेटी ज़िद पर थी, कि आपके ही साथ खाऊंगी. मेरे आते ही उसने रोटियाँ बदल लीं. मैंनें उसके हाथों से छीनने की बहुत कोशिश की पर वो नहीं मानीं. उसके चेहरे पर वही चिढ़ थी और आँखों में वैसा ही दुख ! सच में बहुत ही बुरा लगा मुझे ! आँखें नम हैं, वक़्त के साथ पता ही नहीं चला, कि कब मेरी बेटी बड़ी हो गई और मैं 'माँ' जैसी !

- प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 19 जुलाई 2014

'मैगी' साहित्य

हम वही खाते हैं, जो परोसा जाता है. हिन्दी सिनेमा में द्विअर्थी संवाद या गानों के लिए आजकल यही तर्क़ दिया जाता रहा है. दर्शक फिल्मकारों पर सामाजिक पतन का दोष मढ़ते हैं और फिल्मकार इसे अपनी मजबूरी और 'यही चलता है', कहकर टाल देने का प्रयत्न करते हैं. ठीक यही स्थिति हिन्दी साहित्य की भी होती जा रही है. कुछ भी, कैसी भी, ऊल-जलूल भाषा में लिख देना और फिर उसका छप जाना बेहद प्रचलित हो गया है. ऐसे में भाषा के स्तर से ज़्यादा ध्यान मार्केटिंग पर दिया जाता है. जितना अच्छा प्रचार, उसी के अनुपात में बिकना तय होता है. साहित्यकार अब व्यापारी होता जा रहा है. अब पहले वह ये पता लगाता है कि मार्केट में चल क्या रहा है ? फिर उसी के हिसाब से सब तय होता है. प्रकाशक और उसके बीच गठबंधन-सा होने लगा है. भाषा, मुखपृष्ठ श्लील हो या अश्लील, इससे किसी को इतना फ़र्क़ नहीं पड़ता, बिकना प्राथमिकता है. बल्कि कुछ लोग तो इसे अपनी आधुनिक सोच का तमगा पहनाने में भी नहीं हिचकते. एक सच ये भी है कि अच्छे साहित्य के लेखकों, पाठकों और प्रकाशकों की आज भी कमी नही, कमी उन्हें पूछने वालों की है और कई तो इसी कुंठा में आलोचक बन बैठे हैं. साहित्यकार बनना अब २ मिनिट मैगी जैसा है, १ किताब बाज़ार में आई नहीं, कि सारे पुरस्कारों के साथ लेखक / लेखिका / कवि ( तथाकथित पढ़ें ), सब इठलाए घूमते हैं.

प्रेमचंद जी की 'ईदगाह' में जब हामिद, अमीना को चिमटा देते हुए अपराधी-भाव से कहता है..- "तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।"... तब कैसे हम सबका मन हामिद को सब कुछ ख़रीदकर देने का हो जाता था. बचपन में पढ़ी उस कहानी के नन्हे हामिद की यह भावना आज तक दूसरों के लिए पहले सोचने को विवश कर देती है. निराला जी की 'वह तोड़ती पत्थर' ने हमें मेहनत और लगन से काम करने की प्रेरणा स्कूल के दिनों से ही दी है. सुभद्रा कुमारी चौहान जी की 'खूब लड़ी मर्दानी' आज भी नस-नस में देशभक्ति और वीर रस का संचार कर देती है. कहने का तात्पर्य यही है कि साहित्य का हमारे चरित्र और सोच पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है. हमारी इच्छा शक्ति, दृढ़ता, देश के लिए मर-मिटने की भावना और आत्म निर्माण में साहित्य गहरी भूमिका निभाता है. अच्छे विचार, अच्छा लेखन ऊर्जा-संचारक और प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में कार्य करते है. कहा ही गया है.."पुस्तक सच्ची मित्र होती है".....ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है, कि लिखी जाने वाली भाषा पठनीय व स्तरीय हो. क्योंकि अश्लील साहित्य से उत्थान संभव नहीं, हाँ ये पतन का कारण अवश्य बन सकता है.

- प्रीति 'अज्ञात'
* इस विषय पर हुई परिचर्चा के लिए इस लिंक पर जाएँ -
http://www.sahityaragini.com/rachna.php?id=444

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

जज़्बाती-संक्रमण :)

बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ, कि न्यूज़ देखने के बाद मूड और भी अच्छा हो गया ! NDTV वालों ने बताया कि FACEBOOK ने ये जो चुपचाप Research की थी ना, अब उसका परिणाम सामने आया है. और इसे 'जज़्बाती-संक्रमण' के नाम से नवाज़ा गया है ! हाईला :P ... कैसा लगेगा, जब हम लोग सरदर्द, तनाव, नींद न आना और भूख न लगने की परेशानियाँ लेकर डॉक्टर के पास जाएँगे और Report में लिखा आएगा...." आप जज़्बाती रूप से संक्रमित हैं ". :D

निदान के तरीके -
*अपने नज़दीकी सिनेमाघर में जाकर फुल्टू मस्ती-हँसी की मूवी देखें. समोसा-पॉपकॉर्न खाएँ और महँगाई को न रोएँ. भले ही यहाँ ८० रु. के २ समोसे और १२० रु. के पॉपकॉर्न आएँ पर चर्चा सिर्फ़ प्याज के बढ़ते दामों की ही करनी है. 
*रोज आधा घंटा दौड़ें, पसीने के साथ ये संक्रमण निकल जाएगा..फिर भूख भी जोरों की लगेगी.
*दिन में ४ घंटे सोना बंद करें, देखो कैसे नींद नहीं आती फिर ! :/
*कम बोलें, इससे आप ही नहीं., आपके आसपास के लोग भी सरदर्द की परेशानी से बच जाएँगे ! :)

MORAL : मुझे शक़ है,  कहीं ये 'डिप्रेशन' का ही प्यार वाला नाम तो नहीं ? :D :P
- प्रीति 'अज्ञात'