मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

ईश्वर आज भी हड़ताल पर था!

उनके घर पर हुई यह पहली मुलाक़ात थी पर इतना परिचय तो रहा है कि एक संस्था की मीटिंग्स में परस्पर अभिवादन होता था। उनके शब्द हमेशा भीगे हुए से लगते पर वो अपनी बात कह शांत हो जाते। मैं और जानना चाहती थी पर कभी हिम्मत ही न हुई। उम्र का लिहाज़ और फिर किसी की ज़िंदगी में झांकना उचित भी नहीं लगता।

संयोग कुछ ऐसा कि उन्होंने मेरी एक मित्र के साथ मुझे भी चाय पर आमंत्रित किया। वैसे इस समय, मेरे जाने का मूल उद्देश्य उनके बगीचे को देखना था। जाते ही उन्होंने बाहर आकर स्वागत किया। आलीशान घर.... कुछ ऐसा जो हम फिल्मों में देखते हैं। बगीचा.....इतना सुंदर कि वहाँ से उठने का मन ही न करे और वो इंसान भी इतने नेकदिल कि आपके हाथ ख़ुद उनके लिए दुआ को उठने लगें। वो न बहुत बड़े लेखक हैं, न कोई सेलिब्रिटी.....किसी मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ी पोस्ट से चार वर्ष पूर्व ही रिटायर हुए हैं। मैं उनका परिचय नहीं देना चाहती, इसलिए इससे ज्यादा जानकारी भी नहीं दूंगी।

पंद्रह वर्ष पूर्व अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी को खो चुके हैं। घर वालों की ज़िद के बाद भी पुनर्विवाह नहीं किया। जरूरतमंद लोगों की हर संभव मदद करते हैं। सिर्फ आर्थिक सहायता ही नहीं, स्वयं जाकर भी ढेरों काम करते हैं। हम जब पहुंचे तब, घर पर सिर्फ हेल्पर था और हर तरफ सन्नाटा पसरा पड़ा था। पूछने पर उन्होंने बताया कि उनका एक पुत्र है जो अच्छे जॉब में है। उसे भी कैंसर हुआ और आखिरी स्टेज में है। प्रेम-विवाह किया है उसने। बहू इस दुःख से अवसाद में डूबती जा रही थी तो अब वो भी व्यस्त रहने के लिए नौकरी करने लगी है। चार वर्ष का एक पोता है। उसके बारे में बात करते हुए उनकी आँखों में नमी थी और चमक भी। हम बातें कर ही रहे थे कि वो तीनों भी बाहर से आ गए। वही मुस्कान का आदान-प्रदान हुआ। थोड़ी देर बाद हमने उन सबसे विदा ली।

अँधेरा धीरे-धीरे अपने पाँव पसार रहा था और उस विशाल गेट के दोनों ओर लगे लैम्पों में से झांकती सफ़ेद रौशनी सामने का लंबा रास्ता दिखा रही थी। शाम को खूबसूरत दिखते बड़े-बड़े वृक्ष अब भयावह लगने लगे थे। मन भारी था, शब्द मौन। क़ाश, कोई टूटता तारा इसी वक़्त मेरी झोली में आ गिरे!
कैसे गिरता!
ईश्वर आज भी हड़ताल पर था!
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इतना सब लिखने का मेरा क्या उद्देश्य है, ये तो मैं भी अभी नहीं समझ सकी हूँ। 
बस, एक बात कहना चाहती हूँ....अमीरों के लिए जो एक तरह का भ्रम या सोच हमारे समाज में बनी है। उससे थोड़ा ऊपर उठना चाहिए। अमीर और गरीब के बीच कोई गहरी खाई नहीं, ये सदा बुरे और अच्छे इंसान के बीच ही रही है। हर पैसे वाला अय्याश नहीं होता, बेईमान भी नहीं। न उसके बच्चे नशे में धुत होकर महँगी गाड़ियाँ चला फुटपाथ के लोगों को कुचलते हैं और न ही उनकी बीवियाँ किटी पार्टी और फैशन परेड में व्यस्त रहती हैं। वो सुखी ही हो, ये भी तय नहीं! एक बार अपनी मानसिकता से ऊपर उठकर इन घरों में भी झांकना बेहद आवश्यक है क्योंकि ये सामान्य लोगों जैसे ही हैं और आज जहाँ हैं अपनी मेहनत और लगन के दम पर पहुंचे हैं। इस बीच उन्होंने इतना कुछ खोया है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती! दुर्भाग्य ही तो है कि सब पैसा देखते हैं, संघर्ष की कहानी कोई नहीं सुनना चाहता!
- प्रीति 'अज्ञात'
(अगस्त'2016 की एक उदास शाम की असल कहानी)

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

मिट्टी के रंग



एक समय था, जब दिए सुनते ही मिट्टी की कटोरी से निकलती रौशनी बिखेरती बाती की तस्वीर आँखों में चमक भर देती थी। दीवाली से दिए का और कुम्हार से माटी का ये रिश्ता भी कितना अद्भुत है। पहले सड़क किनारे लगी दीवारविहीन दुकानों में घड़े, सुराही, चिड़ियों के पानी का सकोरा, कुल्हड़ बस गिनी-चुनी वस्तुएँ ही दिखाई देतीं थीं। भीषण गर्मी और दीपावली के समय पर इनका व्यवसाय चला करता था या यूँ कहिये कि उस समय की कमाई से ही पूरा वर्ष गुजारना होता था। 
लेकिन अब समय बदल चुका है। न जाने कितने आईडियाज़ यहाँ साकार होते हैं। मिट्टी अब रंगीन होकर हर सांचे में ढलने लगी है। घर हो या बगिया, सबकी सजावट के सामान यहाँ मिल जाएँगे। मैं गई तो थी डिजाईन और वर्क का आईडिया लेने.....पर न जाने क्या-क्या बटोर लाई और उस पर उन काका का आशीर्वाद, दीवाली के एडवांस बोनस की तरह मुझे ख़ुद ही नसीब हो गया। 

कालू भाई प्रजापति जी (काका) 40 वर्षों से यही कर रहे हैं, उनके पिता भी यही काम करते थे और अब काका के तीनों बेटों ने यह विरासत संभाल ली है। बारहवीं तक पढ़ चुका उनका पोता आकाश भी हँसता हुआ दिन भर साथ लगा रहता है। मिट्टी से बनी वस्तुएँ, तो नुक़सान होना भी तय है। मेरे इसी सवाल पर काका ने बड़ी सहजता से बताया कि पहले बहुत परेशानी थी पर अब हम एडवांस ले लेते हैं। महंगाई बढ़ रही और बनाने में भी बहुत खर्च होता है। मकान भी बनाना है उन्हें।
मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि उनके ग्राहक ट्रक भर सामान ले जाते हैं। कुछ इनकी पूरी टीम बनाती है और कुछ कच्चा माल  दिल्ली, गोरखपुर, कलकत्ता से आता है। जिसका रंगरोगन यहाँ होता है। कुल मिलाकर हमारे आपके घरों की रोशनी की पहली किरण यहीं से निकलती है। 

तमाम परेशानियों, स्वप्नों और अथक परिश्रम के बीच झलकती इनके चेहरे की तसल्ली ज़िंदगी की ख़ूबसूरती की आश्वस्ति देती प्रतीत होती है। अब और भला इस दुनिया में रक्खा ही क्या है। थोड़े सपने, थोड़ी उम्मीदें और फिर कुछ ईमानदार कोशिशें.....हो जायेगी सबकी दुनिया ज़िंदाबाद! 
-प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

एक क्लिक और खेल ख़त्म



जबसे महसूस करना शुरू किया, तभी से लेखनी साथी बनी हुई है। अच्छे-बुरे, सुंदर-बदसूरत, यादगार, यहां तक कि आत्मा की गहराईयों तक चीरकर रख देने वाले हर पल को भी लिखकर संजो लेने की ये अजीब-सी आदत कब पड़ गई; मैं भी नहीं जानती। जिगरी दोस्त की तरह कैमरा भी हर जगह साथ चलता रहा। घर-परिवार, स्कूल, मित्र, बच्चों के जन्म से लेकर उनका पहला क़दम, पहला जन्मदिन, स्कूल का पहला दिन, ईनाम, नटखट शरारतें, त्यौहारों की मस्ती, अलग-अलग स्थानों की यात्रा, पशु, पक्षी, नदी, समुद्र, रेत, प्रकृति की गोद में समाये अनगिनत खूबसूरत सजीव-निर्जीव लम्हों को हर क्लिक के साथ मन की और काग़जी एलबम पर तीन दशकों से चस्पा करती रही हूँ।
   
कम्प्यूटर क्रांति के उद्भव के साथ मेरी सोच में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया था और मैं अपने इस देसीपन से कभी लज्जित भी नहीं होती थी। बल्कि हरेक को टोकती, कि डिजिटल न बनो, इसमें वो फील नहीं आता। बहुत चिढ़ होती थी, जब कहीं लिखकर रखने के बजाय सबको उसे मोबाइल या कम्प्यूटर में 'सेव' करते देखती। तुरंत गुस्से में बोलती, "आलसीपन की हद है, लाओ मैं ही लिखे देती हूँ। मोबाइल खो गया तो!" हर तरफ मशीनी दुनिया में डूबते इंसानों को देखना अब अवसाद के करीब पहुंचने लगा था। न चिट्ठियों के उत्तर मिलते, न फोन पर पहले-सी लम्बी बातें होतीं। डिजिटल दुःख, डिजिटल हँसी, पसंद-नापसंद एक अंगूठे की मोहताज़, चार किताबों को पढ़ नया सीखने की जगह अब गूगल सब खोजने लगा था। संवेदनाओं का जैसे मशीनीकरण हो गया हो।
आश्चर्य इस बात का भी हुआ करता कि हर सुख-सुविधा के बीच रहते हुए समय का रोना अब और भी अधिक क्यों बढ़ता जा रहा है। लेकिन इन्हीं सबसे खीजते हुए मेरा स्वयं कब इस दुनिया में प्रवेश हो गया, पता ही न चला। शुरू-शुरू में यहाँ रहते हुए भी मैंनें पुरानी आदतें छोड़ीं न थीं। यही कहती,"जब इंसानियत से भरोसा उठ चुका तो इस मुई मशीन पे भरोसा काहे करूं?" पर कहते हैं न परिस्थितियों के आगे सिर झुकाना ही पड़ता है। मैंनें भी जल्दी ही झुका दिया था। यही व्यस्तता और समय न मिलने की जानी-पहचानी दुहाई देकर। 

धीरे-धीरे वही सब बातें जिनके लिए दूसरों को टोका करती थी, मैं भी करने लगी। सारे फोटोज कम्प्यूटर में अलग-अलग फोल्डर बना डाल दिए, पिछले दस वर्षों में कोई भी फोटो डेवेलप नहीं करवाया, सिवाय बच्चों के स्कूल में भेजे जाने वाले फैमिली फोटो के, क्योंकि ये तो मजबूरी था। फोटो को ट्रांसफर करते ही , कैमरा से डिलीट करना भी सीख गई, कि स्पेस बना रहे। एक अधूरा उपन्यास, कुछ कहानियाँ और सैकड़ों कविताओं की फाइल बनाकर सारे ड्राफ्ट भी ट्रैश में डाल सदा के लिए विलुप्त कर दिए। व्यवस्थित रहने और सफाई की ये बुरी आदत भी बचपन से ही है।

तमाम जिम्मेदारी, दुनियादारी, सुख-दुःख की छाँव तले कम-से-कम ये सब सुरक्षित बने थे और अब कुछ क़दम आगे बढ़ना था कि परसों ही सब उम्मीदों पर एक ही झटके में पानी फिर गया। दवाई का डिब्बा और पानी का गिलास बस अभी मेज पर रखा ही था, कि न जाने कैसे हाथ लगा और पूरा एक गिलास पानी, प्यासे की-बोर्ड ने एक ही झटके में गटक डाला। तुरंत ऑफ किया, न्यूज़पेपर से सुखाया, धूप में रखा, ड्रायर भी चलाया। बैटरी और हार्ड डिस्क को निकाल चावल में डाला...लेकिन हर एक कोशिश व्यर्थ ही गई। एक टूटते रिश्ते की तरह बेवफ़ा कम्प्यूटर ने मुझसे सदा के लिए अलविदा कह दिया।

हालत यह है कि आज मेरे पास मेरे ही बच्चों की पिछले सात-आठ वर्षों से खींची गई दो-तीन हजार तस्वीरों में से कोई तस्वीर नहीं, उनके स्पोर्ट्स डे, तमाम कार्यक्रमों, ऑडिओ, वीडियो के नाम पर शून्य हूँ अब। प्रकृति से जुड़े तीन सौ से भी अधिक बेहतरीन चित्रों का अलबम, तमाम यात्राएँ, वर्षों का लेखन सब कुछ खत्म हो चुका है। कितनी स्मृतियाँ, इन सबसे जुड़ी थीं। कुछ अफसोस भी थे, जो सामने आकर टीस दिया करते थे, लेकिन अपनों से मिला दर्द भी अपना ही होता है। उसे फेंका नहीं जा सकता। अरमान और सपनों को मारो गोली,तो भी कितना कुछ था इस कम्प्यूटर में, जो अपना था। लेखन भी जब तक जीवित हूँ, घर की खेती जैसा है पर उन तस्वीरों को कहाँ से लाऊँ, जिनकी उम्र निकल चुकी। सब कुछ जानते, समझते हुए भी मैंनें इन्हें कहीं और क्यूँ नहीं सहेजा; इस बात का दुःख किसी नजदीकी की मृत्यु जैसा है जो अब जीवन भर मुझे सालता रहेगा। 

लेकिन अफसोस से भी क्या होगा, क्या कर सकेंगे? उसी दिनचर्या के बीचोंबीच यकायक बुक्का फाड़ के एकाध हफ्ते रोना-धोना चलेगा, कुछ महीने तक उदासियाँ भीतर धंसी रह जायेंगीं, सालों इसका मातम मनाया जाएगा। जो कहते हैं 'जब ईश्वर देता है तो छप्पर फाड़के देता है।' वो ये नहीं जानते कि ये छीनता भी इसी अंदाज़ से है। कम-से-कम मेरा पिछले तीन वर्षों का अनुभव तो यही कहता है।
हाँ, पर इतना जरूर है कि अब जब कैमरा कुछ क्लिक करेगा, तो उसका प्रिंट जरूर निकलेगा। कलम अब डायरी के पन्नों को इस स्क्रीन से पहले चूमेगी। उसके बाद ही इस धोखेबाज़ कम्प्यूटर को कोई दस्तक़ दी जाएगी, यूँ मतलबी लोगों की तरह, प्राथमिकता की पायदान से तो ये कबका उतर चुका है।

मैं अपनी पुरानी देसी दुनिया में ज्यादा खुश थी। यहाँ सब आभासी है। इश्क़ के डिजिटल अफ़सानों की तरह, एक क्लिक और खेल ख़त्म!   
- प्रीति 'अज्ञात'

*वैसे मैं आसानी से उम्मीद छोड़ती नहीं, हो सकता है कि जो खोया वो अब कभी न मिले, पर मिलने की सम्भावना भी उतनी ही शेष है। इस घटना को आप सबसे साझा करने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि ऐसा आपके साथ कभी न हो। इससे सीख लें, अपना ध्यान रखें और तक़नीकी दुनिया को जरूरत से ज्यादा भाव न दें। और हाँ, बैकअप जरूर रखें क्योंकि इस ग़लतफ़हमी से बाहर निकलना बहुत आवश्यक है कि जो अब तक न हुआ वो कभी न होगा। 
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गुरुवार, 30 जून 2016

'इमेजवा की फिक़र में'

"आसमान ने बदली करवटें जब से 
गिरती रही वादों पर बिजलियाँ
झुलसी उम्मीदों के पत्तों से झूलती डाली
बदहवास हैं ख़्वाबों की तितलियाँ"

उई माँ। कह दो ये झूठ है! या ख़ुदा, मुसीबतें पहले से यूं भी कम न थीं; अब ये क़हर क्यूँ ढा दिया। जुक्कु बाबू, बोलो ये तुमने क्या कर डाला? क्यूँ सबके मुखौटे नौचने पर तुले हो, यार! 
इतना बड़ा तहलका तो परमाणु बम भी न कर पाता, जो तुमने कर दिखाया! बाबा, रे बाबा! देखो तो जरा, कैसी बदहवासी छाई है। लोग हैरान-परेशान, बदहवास से इधर-उधर एक दूसरे की पोस्ट पर दौड़े जा रहे। की -बोर्ड पर कंपकंपाती उंगलियाँ हौले-से कहीं पूछ रही हैं "कहीं, ये सच तो नहीं" और उधर से मिलता हुआ ये असंतोषजनक जवाब कि 'क्या पता, मैनें तो सबको करते देखा तो पोस्ट कर दिया" उनकी पीड़ा को गहन चिकित्सा कक्ष के मुख्य द्वार तक जाकर छोड़ आता है।

भारत-पाकिस्तान के पिछले मैच के बाद आज हम फिर एक हैं। धर्म, जाति, क़द, ओहदा और तमाम वाहियात दीवारों को फांदकर 'मिशन पोस्टिंग' जारी है। जनाब, मोहतरमा पसीने से लथपथ हैं, हृदय की धड़कनें दुरंतो की गति पकड़ चुकी हैं। हर तरफ एक ही धुन, "जाने क्या होगा रामा रे! जाने क्या होगा, मौला रे!" दनादन बजे जा रही है। 

फेकबुक, तुमने अपनी बुक का कवर ही फाड़ दिया। कन्फेशन बॉक्स में जाए बिना सबको अपनी हर एक गलती का कैसा जबर अहसास दिला दिया रे! पर ये लिखवाने की क्या जरूरत थी कि "आखिरकार एक कापी पेस्ट से कौन सा खर्च होने वाला है?"
अरे, आज आपका ही दिन है। एन्जॉय करो, चिल्ल मारो! कितना भी मांग लो....सब देने को तैयार हैं। नाक का सवाल है, भई! इनबॉक्स की बातें बाहर आ गईं तो क़सम से हम 'नकटिस्तान' निवासी हो जाएँगे। तुमको क्या पता, उदास खिचडियों की तह में कितना मलाई पनीर दबा है।

वो अंकल जो पोस्ट पर संस्कार और मर्यादा की बात करते हैं, न जाने कितनों को अश्लील वीडियोऔर तस्वीर भेज ब्लॉक किए जा चुके हैं। तुमको उनकी महानता के आखिरी लम्हों की क़सम, ये जुलुम न करना!
जरा सोचो, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की झलक देने वाले, सूरज बड़जात्या के हीरो-हीरोइन टाइप सुभाषित, सुशोभित, सुसज्जित, माननीय, आदरणीय चरित्रों का क्या होगा जब परिवारजन के सामने उनका तात्कालिक चरित्रहरण एपिसोड चलेगा। नहीं, नहीं, नहीं! उनको यूं अंधकार में धकेल उनके हिस्से की रोशनी लूटने का तुम्हें कोई हक़ नहीं। हाय, रब्बा अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ। 
उन शादीशुदा हीर-रांझाओं, लैला-मजनुओं का मनन करो, जिन्हें तुमने उम्र भर की आशिक़ी का इतना खूबसूरत स्पेस दिया हुआ है। क्या तुमसे उनकी खुशी देखी नहीं जाती? जलभुन्नू, जलकुकड़े कहीं के! 
आखिर तुम उन एक्सट्रा स्मार्टियों की पोल के बहीखाते दीवाली के पहले ही क्यों खोल रहे, जो एक भद्दा जोक और तीर एक साथ कई जगह ब्रह्मास्त्र की तरह फेंक रहे। उनकी मारक क्षमता का भेद न खोलो भाई! तुम्हें विभीषण चच्चा दी सौं। 
बताओ न, उनका क्या होगा, जो कहते कि हम ऑनलाइन आते ही नहीं कभी और तुम उनके तमाम प्रेम-संदेश सार्वजनिक कर उनके स्वाभिमान की धज्जियाँ, देश की गरीबी की तरह इधर-उधर बिखेर दोगे! इतना दर्द, इतनी आहें उफ्फ! कैसे बर्दाश्त कर सकोगे तुम?

बच्चे, बूढ़े और जवान ('पहने यंग इंडिया बनियान' याद आया न), पर सबकी आफ़त में है जान। 
आज गरीबी, बेरोजगारी, अपराध, स्त्री-विमर्श गए एक साथ तेल लेने। सब जगह एक अंजान साया रामू जी के भूत की तरह मंडरा रहा है। दुआओं के लिए अरबों हाथ उठे, दोस्त हेलो करने से घबरा रहे, ख्यालों में ये कैसी उमस है, मुई बारिश है कि पसीना सब रूमाल से सटासट पोंछे जा रहे। खाना गले के नीचे उतरता ही नहीं। सांस हलक में पैर पटक-पटक खिंच रही। हर जगह एक ही बात, तुम्हारा ही चर्चा। अब बच्चे की जान न लो पगले! हमसे दुनिया का यह दुःख और नहीं देखा जा रहा, जी भर आया, पछाड़ें खा-खाकर इतना गिरें हैं जितना सेंसेक्स भी आज तक न गिरा होगा। 
"तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही.... लुट गएएए  हाँ लुट गएए, हम चेहरों की पुस्तक्क में"
बस, बहुत हुआ इमोशनल अत्याचार। अब कह भी दो न "ये झूठ था, बौड़म"
पर समाज को एक पल में संस्कारी बनाने का दोबारा जब भी दिल करे, तो आते रहना! बड़ा अच्छा लगता है जी!
तुम हो, तो सब है
तुझमें ही रब है  
पर ये दुनिया ग़ज़ब है!
- प्रीति 'अज्ञात'
  

बुधवार, 15 जून 2016

'स्त्री-सशक्तिकरण'

कल्पना शर्मा जी से मेरी मुलाक़ात ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर हुई। मई की तपती दोपहरी में करीब  एक बजे ट्रेन वहाँ पहुँची और मैं लगेज लेकर बाहर आ रही थी। पापा लेने आये थे, वो दूसरी तरफ थे और मैं शॉर्टकट से आकर उनकी प्रतीक्षा कर रही थी।

अचानक सामने से आती हुई गुलाबी रंग की एक वैन को देख थोड़ा कौतुहल हुआ। हर वर्ष ही वहाँ जाना होता है पर इससे पहले ऐसी वैन कभी देखने में नहीं आई थी। उसके रुकते ही मेरे क़दम उत्सुकतावश स्वत: ही उस ओर बढ़ गए। वैन पर बाहर ही एक फोन नंबर और 'केवल महिलाओं के लिए' देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। मुझे ये स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि हम स्त्री-पुरुष समानता की बात चाहे लाखों बार कर लें पर ऐसी सुविधा 'विशिष्ट' होने का अहसास दे ही जाती है और बहुत अच्छा लगता है। जाहिर है, एक मुस्कान मेरे चेहरे पर भी तैर चुकी थी।

उचककर खिड़की में से झाँका, तो महिला ड्राईवर मुझे ही देख रहीं थीं। शायद सवारी समझकर या मेरी जिज्ञासु नजरों को भांपकर। मैंने तुरंत ही वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए कहा, "पहली बार ग्वालियर में ऐसा देखा है। क्या मैं आपका और इस वैन का फोटो ले सकती हूँ?"
उन्होंने तुरंत ही स्वीकृति दे दी। मैंने नाम पूछा, फिर नंबर सेव कर उनसे फोन पर अन्य जानकारी लेने की बात कहकर विदा ली। पापा आ चुके थे, मैं भी घर पहुँचने को उतावली हो रही थी।

अगले ही दिन कल्पना जी (महिला ड्राईवर) से बात करके मिलने को कहा। अपना पता भी दे दिया, दिन और समय तय हो चुका था। लेकिन किसी कारणवश वो नहीं आ सकीं, मेरा कॉल भी नहीं लग रहा था। अगले दिन मुझे वापिस आना था, सो बिना मिले ही आना पड़ा। पर इस बात पर यक़ीन और भी बढ़ गया था कि 'स्त्री-सशक्तिकरण' को निरर्थक रैलियां और मोमबत्तियाँ नहीं बल्कि कल्पना जी जैसी महिलाएँ ही सार्थक करतीं हैं।

आज सुबह ही उनका चेहरा आँखों में घूम गया तो तुरंत उन्हें कॉल किया। बातचीत के दौरान पता चला कि उनकी पाँच बेटियाँ हैं, पति अस्थायी सेवा में हैं। बड़ी बेटी प्रीति की शादी हो चुकी, चेतना नर्सिंग का कोर्स कर रही है, सपना बारहवीं पास कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगी है। उससे छोटी दोनों ग्यारहवीं में हैं। सपना, मेडिकल प्रवेश परीक्षा में एक अंक से चूक गई। उसके बारे में बात करते-करते उनका जी भर आया और वो फूट-फूटकर रोने लगीं। इतनी दूर, दूसरे शहर से बढ़कर उन्हें गले भी कैसे लगाती! थोड़ा ढाँढस दिया। उनकी छोटी बेटी पार्वती वहीँ थी, उससे बात की और मम्मी का ध्यान रखने को कह वार्तालाप को विराम दिया। मेरा मन भी उदास हो चला था। 

दरअसल दोनों पति-पत्नी की कमाई इतनी नहीं कि अच्छे-से गुजारा हो सके। समाज सेवी संस्था के माध्यम से वैन पाकर वे खुश हैं पर उसकी किश्त भी उन्हें देनी पड़ती है। उन्हें मदद की जरुरत है। पर तमाम आर्थिक तंगियों के बाद भी उन्होंने बच्चियों को शिक्षा दी और अभी भी उनकी पढ़ाई के लिए इतने चिंतित और प्रयासरत हैं। इसके लिए उन्हें दिल से सलाम!

आप सभी और विशेष रूप से ग्वालियर निवासियों से विनम्र अनुरोध के साथ कहना चाहूँगी कि यदि आप उन्हें आर्थिक रूप से सहायता देना चाहें तो इस नंबर पर संपर्क करें-8889366219 यदि सामाजिक संस्थाओं की मदद से, बच्चियों की शिक्षा को सुचारु रूप से चलने देने की ओर प्रयास किये जाएँ, तो और भी बेहतर रहेगा। 

पोस्ट को पूरा पढ़ने के लिए दिली शुक्रिया!
अरे, हाँ! उनकी वैन का नाम 'वीरांगना एक्सप्रेस' है। एकदम solid न! 
- प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 26 मई 2016

एक अजीब- सी पोस्ट

एक अजीब- सी पोस्ट/ लिंक इन दिनों खूब वायरल हो रही है। जिसमें मृतप्राय: पिता का उसकी बेटी के द्वारा जीवन बचाए जाने का पूरा किस्सा है। भावुक हूँ, संवेदनशील भी लेकिन इस पोस्ट में जो कहा गया, वो समझ से परे है। मैं अत्याधुनिक(bold पढ़ें) विषयों पर न तो कभी लिखती हूँ और न ही सहज हो पाती हूँ। आप चाहें तो मुझे छोटे शहर की, दकियानूसी या अप्रगतिशील कहकर लानत भेज सकते हैं। लेकिन जब सोशल मीडिया में सैकड़ों बार इस पोस्ट को शेयर होते देखा, तो रहा नहीं गया।

*शुरुआत में इस संभावना कि, "यह एक बाप और बेटी को दर्शाता चित्र है, तो हो सकता है आपका मन घृणा और अवसाद से भर जाये। लेकिन मुझे पूरा यकीन है जब आप इस प्रसिद्ध पेटिंग के पीछे छिपी कहानी को सुनेंगे तो आपके विचार जरूर बदलेंगे" को पढ़ने के बाद मैंने इस पोस्ट को पूरी गंभीरता से पढ़ा और सच कहूँ तो सहानुभूति के बजाय मन और भी वितृष्णा से भर गया। क्योंकि इस बेटी की तथाकथित महानता के आगे किसी ने मनन करने का जिम्मा ही नहीं उठाया।

जिन्हें नहीं मालूम, उनको बताना चाहूँगी कि Lactation की प्रक्रिया किसी भूखे या मृत इंसान को देखते ही प्रारम्भ नहीं हो जाती चाहे वह आपका पिता भी क्यों न हो। यह प्रक्रिया pregnancy के आखिरी महीनों में शरीर में hormones interaction के बाद ही प्रारम्भ होती है। यदि किसी ने बच्चा गोद लिया है तो induced lactation संभव है, लेकिन इसके लिए भी महीनों पहले hormone therapy से गुजरना होता है। ऐसे में इस चित्र के पीछे की कहानी और उसकी सत्यता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगता क्या? अब लगभग अस्सी वर्ष से भी ऊपर के दिखने वाले शख़्स की बेटी का कोई new born baby होगा, इस कल्पना को मैं यहीं खारिज़ करती हूँ।  

यह तस्वीर और इसकी कहानी पेंटर के व्यावसायिक दिमाग की उपज हो सकती है या फिर खरीदने वालों की तरफ से इसे ड्राइंग रूम में सजाने से पहले दिया गया बेहूदा कुतर्क़। पर मेरी समझ से यह विकृत मानसिकता से घिरे और स्त्री को मात्र उपभोग, आनंद  की वस्तु समझने वाले किसी सिरफिरे की घृणित सोच से ज्यादा कुछ भी नहीं! 'प्रसिद्धि' की सबसे बड़ी ख़ूबी यह भी है कि नाम हो जाने के बाद कुछ भी बेचना/कहना आसान हो जाता है। चित्रकारी हो, लेखन या फिर कोई भी क्षेत्र, सबमें यही भेड़चाल जोरों पर है।
हाँ जी, वाह जी, क्या बात जी, तुसी तो बड़े महान जी!
DISGUSTING!!!
- प्रीति 'अज्ञात'
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* पेंटर की कहानी और चित्र के लिए कृपया गूगल सर्च कीजिये। और हाँ, हमें उनकी महान कृतियों से कोई ईर्ष्या/ कुंठा टाइप नहीं रही कभी, हम तो नाम ही पहली बार सुने हैं।  


शुक्रवार, 20 मई 2016

अजब-ग़ज़ब दुनिया

अभी ट्रेन में चढ़ी ही थी। दो अलग अलग बोगियों में हम माँ-बेटी की टिकट। पुराने अनुभवों के अनुसार TC से बात का कोई फायदा नहीं था। सो, हर बार की तरह वही दो ऑप्शन थे कि या तो वो सीट किसी से एक्सचेंज हो सके या एक ही सीट पर दोनों एडजस्ट होते आएं। इस मामले में अब तक का रिज़ल्ट 50..50 रहा है। खैर, किस्सा ये नहीं है।

जैसे ही हम अपनी सीट पर जाकर बैठे, तो सामने एक परिवार था, अच्छे शालीन लोग। एक बेहतर सफ़र की उम्मीद जगी। यही उम्मीद की लौ तब झपाक से तुरंत ही बुझ गई जब ऊपर वाली बर्थ से एक खड़ूस से साहब जी ने अटेंडेंट को जोर से आवाज लगाई।

"अबे, सुन..इधर आ"
"जी, साब जी" वो दोनों हाथ बांधे विनम्रता से बोला।
"कौन सा स्टेशन निकला?"
"साब, ग्वालियर"
"अबे, तो जगाया क्यों नहीं" उन्होंने इस अंदाज़ में तुनकते हुए कहा, मानो बीवी पर ऑफिस में लेट होने का दोष मढ़ रहे हों।
"साब,जी। झांसी पे जगाया। आप उठे नहीं। आपको उतरना कहाँ है?" उसकी भाषा में दयनीयता और उसे सफाई देता देख अब मुझे अटेंडेंट पे चिढ़ आ रही थी।
"अरे, जहाँ मन होगा उतर जाएंगे। तुमको बताना तो चाहिए। क्या पता सीट बदलनी पड़े। अब तुम हमारी खिल्ली उड़वाओगे क्या?' तथाकथित साब जी ने बेशर्मी से आँख मारते हुए कहा।
"अरे, नहीं साब। नाश्ता कर लीजिये (तब तक ब्रेड कटलेट, ऑमलेट, इडली सांभर का नारा लगाते हुए एक वेंडर ट्रेन में चढ़ चुका था), इसमें पैंट्री कार नहीं है।" वो पगला, अब भी पूरी गुलामपंती के मूड में था।

हमारा माथा बुरी तरह ठनका। दिमाग में खलबली हुई। या ख़ुदा! तो ये साब जी एक तो बिना टिकट भिनभिना रहे और उसपे सीट पर हक़ ऐसे जमा रहे, जैसे घर से फोल्डिंग कुर्सी की तरह उठा के लाये हों।
अब तक आगरा आ चुका था और वो संभ्रांत परिवार उतर गया था। सौभाग्य से TC ने ख़ुद ही आकर हमें वो सीट लेने को कह दिया। मैं इस इंसान को प्रवचन दिए बिना इसकी क्लास लेना चाहती थी। अच्छा मौका था। सो, तपाक से सामने वाली बर्थ पर गई और चादर तान फुल्टू लाश की तरह लेट गई। बेटी दूसरी बर्थ पर सो चुकी थी।

साब जी, जो मुफ़्त की दूसरी सीट का सपना खिलाते, मचलते हुए अवतरित हुए थे। उन्हें किसी डेड बॉडी टाइप को देख अचानक अपनी समृद्धि योजनाओं पर तुषारापात होता नजर आया। उनकी खिसियाहट चादर के छिद्रों (धन्यवाद इसका भी ले ही लो अबकी तो) से, खिले आसमान की तरह साफ़ नजर आ रही थी। चेहरा केंचुए-सा सकुचाया और अचानक खुद को फोन पर व्यस्त दिखा, अपनी अव्यक्त बेइज़्ज़ती को छुपाने की मुहिम में जुट गए। दस मिनट हुए, क़सम से मेरी कमर की नस चढ़ गई, पर मैं न हिली।
अब इन्होंने दूसरी ट्रिक आजमाई। अपने बैग को बर्थ के नीचे से निकाल सीट पर रखने लगे। हमका पता था कि बंदा नौटंकी कर रहा और बैग हटाके उधर ही बैठेगा। पर हमारी दयालुता, इन दुष्ट आत्माओं के लिए स्थायी हड़ताल पर रहती है, सो हम फिर टस से मस न हुए।

कुछ ही देर में इन्होने फिर सरकारी फ़ोन घुमाया और स्वयं के कलेक्टर के ख़ास होने की उद्घोषणा कुछ इस अंदाज़ में की, कि एक भी यात्री इस ज्ञानवर्धक जानकारी से चूक न जाए। हमारी तुच्छ-सी सोच में इस श्रेणी के उच्च कोटि वाले चमचों की कोई जगह नहीं। हालांकि इनकी चूं-चूं ही इन्हें नफ़रत तालिका में श्रेष्ठ पायदान पर बैठने का सटीक उम्मीदवार घोषित करती है। ख़ैर.... कुछ समय के लिए ये घमंडी, मुफ्तखोर और बद्तमीज़ किस्म के साब जी ग्लानि की तपती भूमि में अंतर्ध्यान हो गए।

हम ख़ुद को जीवित करते हुए बड़े खुश हो छपाक से अभी बैठे ही थे कि जनाब फिर आ धमके।
उफ़्फ़, अब क्या! पर हमारे बायोलॉजी वाले दिमाग ने, इंजीनियरिंग कैटेगरी में घुसकर आननफानन में लेफ्ट में तकिया, चादर, blanket और उसके ऊपर एक बैग की टॉपिंग करते हुए कामचलाऊ दीवार का निर्माण कर डाला। उसके साथ ही हम अपने मासूम चेहरे से बाहर यूँ तकने लगे, जैसे कि हमें पता ही नहीं...कि हमने ये क्या जुलम कर डाला!

जनाब, ठिठके और कुछ बोलने की सोच ही रहे थे कि उनकी बदकिस्मती का ज्वालामुखी फिर फूटा और कहीं से लावा की तरह पिघलती स्वर लहरी आई "अरे,पांडे जी! अब कित्ती देर तक्क मुफत की बथ्थ के काजें फित्त रओगे। दो ऊपर वालीं और जे नीचे वालन पे तो तुम घूमि आये भैय्या। अबके कलेट्टर साब से कै दियो। जे ना चलेगो। बताओ तो, तुमाई कछु इज्जत फिज्जत है की नहीं। जाने कैसो जमानो आये गओ है, अब रहान दो, इतैं आ जाओ। खाली परी तबसे।"
अबकी बार पांडे जी ने अपने दोस्तों को अनसुना कर इज़्ज़त के जनाजे को रोकने की आख़िरी नाक़ाम कोशिश की। अटेंडेंट को बुलाया और अकड़ते हुए कहा.. "चलो, सामान ले चलो। हमारा स्टेशन आने वाला है।"

एक यात्री ने पीछे से मसखरी करते हुए कहा.."अरे, पूरा नाम तो बताइयेगा न!"
उधर अटेंडेंट कमाई की आशा में उनकी ओर देख रहा था, कि रात से टिकट बचवाई है तो शायद..
"साब, चाय पानी!'
"अच्छा! मेहनत करके कमाओ, पगार मिलती है न! तुम जैसों की वजह से ही भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।"
उनकी इस ज्ञान-गंगा से भौंचक हो, वो उनका मुँह देखने लगा।
उनके जाने के बाद, मेरे पास आकर बोला, "इनके कारण हम रात भर सोये नहीं।" 
मैं मुस्कुरा दी पर कुछ नहीं बोली।
एक तो कुछ सबक, तज़ुर्बे से सीखने की उम्र थी इसकी और आगे की सीटों पर बैठे चमचों के बच्चों से पंगे लेने का कोई इरादा भी नहीं था, अपन का! प्रवचन देने की भी अपनी जगह होती है भई!

जहाँ तक साब जी की बात है, तो इस तरह के लोग समाज में असाध्य रोग के विषाणुओं की तरह रेंगते मिलते ही रहेंगे। इन्हें दीवारों में चुनकर सजा देना ही इनकी सज़ा है। वैसे हमें अपनी ही कही इस बात पर भयंकर वाला शक़ है।
'जब तक मुफ़्त में बंटेगा, लोग लूटेंगे ही!'
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 27 अप्रैल 2016

नालसरोवर

यदि पक्षियों और खूबसूरती की दृष्टि से देखा जाए तो 'नालसरोवर' को मैं दुनिया की दस सबसे सुन्दर झीलों की श्रेणी में रखना चाहूँगी। यह प्राकृतिक सुंदरता और अथाह जलीय पौधों का ऐसा कोष है जिसे कैमरा भी चाहे तो क़ैद नहीं कर सकता। एक घर है ये, कई विलुप्तप्राय: प्रजातियों, प्रवासी, अप्रवासी पंछियों का। इसे आँखों में भरा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है और इन लम्हों को बरस-दर-बरस संजोते हुए जिया जा सकता है। 120 किमी. के क्षेत्र को अपनी बाहों में समेटे इस जलाशय के क़रीब पहुँचते ही मन उल्लसित हो उठता है और भीषणतम सर्दी की परवाह किये बिना आप उस पानी में उतरने का मन बना लेते हैं। जी, हाँ पानी में  उतरने का! यह भी एक ख़ासियत है यहाँ की, आप इस झील पर चल भी सकते हैं। मल्लाह की मानें तो यहाँ जलस्तर मात्र 4 फ़ीट गहरा ही है।

पानी में झांको तो वनस्पति नजर आती है, बड़ी-बड़ी लम्बी घास के रास्तों से गुजरते हुए जब कश्ती चलती है तो इसके सामने कोई और पल टिक ही नहीं सकता। सोचो, कैसा लगेगा जब झील के बीचों-बीच पहुँचो और कोई कहे...जाइए, यदि इच्छा हो तो थोड़ा टहल आइये! मैं पलटकर उनकी तरफ देख आश्वस्त होना चाहती हूँ कि क्या मल्लाह ने वही कहा जो मैंने सुना। उसकी मुस्कान, मेरी खिलखिलाहट में तब्दील हो जाती है और मैं नाव से कूद, थोड़ा पानी में चलते हुए उस टापू तक पहुँचने में एक क्षण भी जाया नहीं करती।
 
यहाँ के पंछियों को आदत है, मनुष्यों को देखने और तस्वीरें खिंचवाने की। इसलिए एक निश्चित दूरी रखने पर ये अपनी जगह टिके रहते हैं और आप उन्हें जी भरकर निहार सकते हैं। ऐसे कई स्पॉट हैं यहाँ। 
कितने ताज्जुब की बात है कि 15 वर्ष हुए मुझे इस शहर में,  कितनी बार यहाँ आने का सोचा पर न आ सकी। आज आई तो अचानक, बिन सोचे ही।

यदि birdwatching में रूचि रखते हैं तो दिसंबर-जनवरी के माह में सुबह 5.30 तक पहुँच जाना चाहिए। यहाँ काफी भीड़ होती है और टिकट की लम्बी लाइन भी। लाइन से बचने का जुगाड़-तंत्र भी यहाँ मौजूद है। यही इसकी सबसे बड़ी कमी है कि ग्रुप में जाने पर ये सारे स्पॉट्स नहीं दिखाते और आप कई बेहतरीन प्रजातियों को देखने से वंचित रह जाते हैं। Personal boat का किराया 3000/- से शुरू होता है और आपके समय के हिसाब से spots और रेट तय होता है। Shared boat में 200-300/- प्रति व्यक्ति के हिसाब से भी जाया जा सकता है। 6 मुख्य स्पॉट्स हैं, जहाँ जाना बनता ही है। यहाँ के अधिकारियों से निवेदन है कि मनचाहे रेट्स के अत्याचार से जनता को बचाने के लिए इस दिशा में उचित क़दम शीघ्र ही उठायें। ये प्रकृति-प्रेमी लोग हैं जिनका ऐसे स्थानों पर एक बार जाने से जी ही नहीं भरता!
यदि आप लोकल भोजन से परहेज नहीं करते और हाइजीन के मारे नहीं तो यहाँ के लोगों द्वारा तैयार किये भोजन का स्वाद भी अवश्य लें। वैसे अपना टिफ़िन भी ले जाया जा सकता है।
* वर्ष की शुरुआत को सुन्दर बनाने की एक कामयाब कोशिश! सलाम, जनवरी! विदा दिसंबर!
(जनवरी 2016 में लिखी गई पोस्ट)
- प्रीति 'अज्ञात'
* कृपया अनुमति के बिना, तस्वीरों का अन्यत्र उपयोग न करें।
 धन्यवाद :)









शनिवार, 26 मार्च 2016

ये उम्मीद इन दिनों तोड़ देती है......

डॉ. नारंग की हत्या न तो सांप्रदायिक है और न ही आतंकवादी हमला।
ये एक बार फिर 'इंसानियत' की मौत है। जहाँ लोगों के कानों तक किसी की चीख-पुकार नहीं पहुँचती। उनकी आँखों को किसी के जिस्म से बहता लहू नहीं दिखता। जहाँ भय के कारण उनकी आवाज किसी अंधे कुँए की तलहटी में छुपकर बैठ जाती है।

बारात में सड़क पर नाचते हुए लोग या फिर भारत की जीत पर जश्न में शामिल हुए चेहरे अचानक समाज से लुप्त हो जाते हैं और अगले दिन सुबह सरसराहट के साथ दरवाजे खुलते हैं। बाहर के दृश्य को भांपा-परखा जाता है और अचानक जलती हुई मोमबत्तियाँ रौशनी की उम्मीद में सड़कों पर चलने लगती हैं। कितना शर्मनाक है! धिक्कार है इन तमाशबीनों पर!

ये मोमबत्तियाँ अंधकार को दूर करती हैं आपके मन के भय को नहीं! उसे निकालो, तो कुछ हो सके शायद! वरना गर यही इलाज होता तो इनका कुछ तो, कहीं तो असर दिखता! वर्षों से इन मोमबत्तियों ने दिलासे के सिवाय और क्या दिया है हमें?

जब तक हम भयभीत और आत्मकेंद्रित रहेंगे, अपराधियों के हौसले बुलंद होते जायेंगे। ये तो पेशेवर अपराधी भी नहीं थे, पर सब जानते हैं कि 'इंसान' की कीमत कुछ भी नहीं! संवाद की क्या जरुरत, सीधे ख़त्म कर दो! क्योंकि यही दिखता आया है! ये सोच कौन बदलेगा और कैसे?

लाश और मोमबत्ती का रिश्ता तोडना होगा! जो बच्चा, अपने पिता की निर्ममतापूर्वक हुई हत्या का प्रत्यक्षदर्शी है, जाकर पूछो उसे कि इन मोमबत्तियों ने उसका दिल कितना रौशन किया है....!

इस मोमबत्ती का श्राद्ध करने के लिए, आज एक मोमबत्ती मैं भी जलाती हूँ। जब तक यहाँ हूँ, ये जलती रहेगी, कि कुछ संवेदनाएं भी जग उठें कहीं! आखिर दुनिया उम्मीद पर ही तो जीवित है अब तक! नहीं, क्या?
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 14 मार्च 2016

पहने तो करता है,चुर्र...


 आये दिन न्यूज़ चैनलों में ख़बरें रहतीं हैं कि फलाने, 'आम' आदमी ने ढिमके 'ख़ास' को जूता फेंककर मारा। ये बहुत गलत एवं निंदनीय व्यवहार है, अपनी बात कहकर भी तो समझाई जा सकती हैं। सुनकर बुरा तो हमें भी बहुत लगता है, जी! पर कभी-कभी दिमागी चिंटू न जाने क्यूँ रह-रहकर मस्तिष्क के मन-मंदिर में यह प्रश्न टनाटन बजाता है कि हाय रे, उस बेचारे को जब पुलिस पकड़कर ले जा रही थी तो उसका फेंका हुआ जूता ससम्मान उसके चरण-कमलों तक पहुँचाया गया या कि वो मजबूर बन्दा/बन्दी (स्त्री का बराबर का हक़ होता है, न) पैर घिसटते हुए ही काल-कोठरी तक गया। वैसे मोजा देना तो बनता है, भले ही मुँह पर फेंककर दो क्योंकि हम 'बदला युग' (exchange & revenge era) में रह रहे हैं।  

अचानक हमारे यादों के सागर में हमारे प्रेरणास्रोत प्यारे गुल्लू जी, बोले तो अपने 'गुलज़ार सर' की तस्वीर दिखाई देने लगी। उन्होंने जब "इब्न-ए-बतूता....बगल में जूता" लिखा था,तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा, कि लोग उनकी इस बात को इतनी गंभीरता से लेंगे. पर आजकल की खबरों में ऐसी बातें कितनी आम हो गईं हैं,कि हमें भी हैरत है!

हमने तो बचपन से ही "मुँह में राम, बगल में छुरी" वाली कहावत सुनी थी, ये 'जूता' तो आजकल बगल में आने लगा है। वैसे आइडिया ठीक-सा ही है...'मार भी दो और मर्डर भी ना हो' धत्त, छिः छि:,ये भी कोई बात हुई, घटिया सोच! "हे ईश्वर, हमें माफ़ मत करना...क्योंकि हमें पता है कि हम क्या कर रहे हैं!" :( 
पर सच्ची, हमें लगता है,कि आने वाले दिनों में इस विषय पर निबंध आ सकता है। ज़रा सोचिए तो! 'रामू ने राजू को जूता मारा' विषय पर कैसे लिख सकते हैं? घबराओ मत, हमरा जन्म इन्हीं समस्याओं को निबटाने को हुआ है, बताते हैं......

सबसे पहले तो इस खेल के नियम-
*सबसे ज़रूरी नियम तो ये है कि जूता हर पार्टी का होना चाहिए। बेईमानी नहीं कि हमारा टर्न ही न आए! 
*हर बार एक अलग पार्टी का बंदा दूसरे को मारेगा, जिससे मीडिया वालों को अच्छा और निष्पक्ष कवरेज मिले! 
*जूता देशी हो या विदेशी, पहले ही तय कर लो. वरना जनता विदेशी प्रभाव का आरोप लगा सकती है! 
*जूते का टाइप भी निश्चित हो, मतलब; बरसाती हो,लेदर का हो, स्पोर्ट्स हो या केनवास, क्यूँकि सबसे अलग-अलग तरह की चोटें लगती हैं। दर्द बांटना होता है, वो भी बराबर!इसलिए अनियमितता के चक्करों में कौन पड़े भाई! 
*मारे गये जूते 'राष्ट्रीय संपत्ति' का हिस्सा माने जाएँगे! 
*ज़रूरत पड़ने पर एक 'जूता-संग्रहालय' भी बनाया जाएगा, जिससे आम जनता को इसकी पूरी एवं सचित्र जानकारी हो..कि किसने, कब और कहाँ इसका प्रयोग किया था!

अब खिलाड़ी बनने के नियम -
*मारने वाले की लंबाई ज़्यादा होनी चाहिए, जिससे निशाना ठीक से दिखाई दे! 
*वो खुद कमज़ोर हो तो चलेगा, पर जिसे जूता पड़ना है, उसका सीना चौड़ा हो, ताकि लक्ष्य प्राप्ति में कोई अड़चन न आये। 
*अपनी बेइज़्ज़ती के लिए तैयार रहें, कई बार result, on spot declare हो जाते हैं। आपको लात-घूँसों का ईनाम मिल सकता है! जो आगामी चोटों के लिए आपके शरीर को सहनशक्ति प्रदान करता है। 

अदालत में पूछे जाने वाले सवाल -
*जूता नया था या पुराना? हां, रे..इससे मारने वाले की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा होता है! 
*जूते की गति क्या थी? 
*वह शरीर के किस भाग से टकराया? 
*क्या वहीं लगा,जहाँ निशाना साधा था(इससे पता चलता है, कि कहीं मुलज़िम के घर में ऐसी कोई पुरानी परंपरा या आनुवंशिक झोल तो नहीं)!

केस की बानगी -

जूता ही क्यों चुना? 
*जी, सर ! ये आसानी से उपलब्ध था! इसे अलग से ले जाना भी नहीं पड़ता! 
*इसकी ग्रिप भी अच्छी होती है और थ्रो भी! 
*लाइसेन्स भी नहीं लगता, सर! 
वजह क्या थी? 
*क्या ये जूता उसे काट रहा था, और वो दुनिया के सामने उसे नीचा दिखाना चाहता था? 
*कहीं इसने किसी और का जूता तो नहीं इस्तेमाल किया? 
कुछ भी हो सकता है मीलॉर्ड...मुझे तो ये एक सोची समझी साज़िश लगती है।
नहीं.... नहीं...नहीं   
*शायद इसे इस एक जूते से ज़्यादा प्यारी वो दो वक़्त की रोटी थी, जो जेल में मुफ़्त में मिल जाएगी!

विशेष -
हां-हां...यही सच है! 
सब तंग आ गये हैं, ग़रीबी से, बेरोज़गारी से, भ्रष्टाचार से, दंगों से, आगजनी से,
लूट-खसोट से, 
बेकार होते वोट से
तंग आ गये हैं अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले राजनीतिक दलों से!
हम किसी पार्टी को नहीं, किसी धर्म को नहीं, बस देश की भलाई को चुनते हैं साहेब
साहेब, ए साहेब, सुनो न साहेब -

"कुछ करो, कि सुधार हो, निस्वार्थ जब सरकार हो!  
संसद चले तो शांति से, और दूर भ्रष्टाचार हो! 
पैसे की जब न मार हो, न कोई बेरोज़गार हो! 
फिर दूसरों के सामने, काहे को अपनी हार हो!"

बहुत हुई ये मारामारी! शांति से बैठकर बात कीजिए न! 'मानहानि' का भी ख़तरा नहीं और न ही 'मनी हानि' का! और क्या 'जूते' सस्ते थोड़े ही न आते हैं आजकल! महंगाई के इस दौर में एक जूता खो जाए, तो लंगड़ाकर कब तक चलेंगे साहेब? अब इस उमर में लंगड़ी खेलते हुए भी अच्छे न लगेंगे हम।  
"मेरा जूता नाम है बाटा 
पहनें इसको गोदरेज, टाटा 
काहे फेंके इसको भैया  
क्यों करवाएं अपना घाटा??"
ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला :P 
अब डर तो सिर्फ़ इसी बात का है,कि हमें जूते खरीदने का बड़ा शौक है! कहीं कल के अख़बारों में ये ख़बर न आ जाए, कि 'अज्ञात' जी के यहाँ से जूतों का एक बड़ा ज़ख़ीरा बरामद हुआ! उफ़...तब हमारा क्या होगा...??? मम्मीईईईईई, बुहु,बुहु ,सुबकसुबक ;)

 - प्रीति अज्ञात

मंगलवार, 8 मार्च 2016

मैं सोचती रही, क्या कहूँ उसे...

मैं सोचती रही, क्या कहूँ उसे...

'अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस' की शुभकामनाएँ, बोलना उतना ही आसान है जैसा कि 'स्वतंत्रता दिवस मुबारक़ हो' या अन्य कोई भी दिवस की बधाई देना। लेकिन सब जानते हैं, इस सब की सच्चाई, एक तिथि या अवकाश से ज्यादा कुछ भी नहीं। कभी गौर कीजियेगा, नब्बे प्रतिशत महिलाओं के मुँह से इस बधाई की प्रतिक्रियास्वरुप खिसियाता 'थैंक्स' ऐसे निकलेगा जैसे अस्पताल के बिस्तर पर पड़े किसी बीमार बच्चे को हैप्पी बर्थडे बोल दिया गया हो। पर एक बात यह भी है कि कोई 'विश' करे, अच्छा तो लगता ही है! सच समझे आप, 'स्त्रियों' को समझ पाना इतना आसान नहीं है। स्त्री मन की थाह का अंदाजा, शायद स्त्री को भी नहीं होता। फिर भी इन बातों को समझकर उसे शुभकामनाएँ भेजेंगे, तो उसे अच्छा लगेगा-

आज जिस इंसान पर कोई स्त्री आग-बबूला हो रही है, कल उसी के लिए नम आँखों से दुआ मांगती दिखेगी। क्योंकि उसे परवाह है अपनों की, क्रोध उस खिसियाहट का परिणाम है कि अपनों को उसकी परवाह क्यों नहीं? ये प्रेम है उसका। 
"जाओ, अब तुमसे कभी बात नहीं करुँगी" कहकर दस सेकंड बाद ही सन्देश भेजेगी, "सॉरी यार कॉल करूँ क्या?" क्योंकि वो आपके बिना रह ही नहीं सकती, उसे क़द्र है आपकी उपस्थिति की। ये रिश्तों को निभाने की ज़िद है उसकी।
रात भर सिरहाने बैठ बीमार बच्चे का माथा सहलाती है, कभी अपनी नींदों का हिसाब नहीं लगाती। ये ममता है उसकी।
हिसाब से घर चलाते हुए, भविष्य के लिए पैसे बचाती है और एक दिन वो सारा धन बेहिचक किसी जरूरतमंद को दे आती है। ये दयालुता है उसकी। 
कोई उसकी मदद करे न करे, लेकिन वो सबकी मदद को हमेशा तैयार रहती है। ये संवेदनशीलता है उसकी। 
अपने आँसू भीतर ही समेटकर, दूसरों की आँखें पोंछ उन्हें दिलासा देती है। ये दर्द को समझने की शक्ति है उसकी।
अपनों के लिए ढाल बनकर दुश्मन के सामने खड़ी हो जाती है। ये हिम्मत है उसकी।
बार-बार जाती है, जाकर लौट आती है। इश्क़ है, दीवानगी है उसकी।
एक हद तक सफाई देती है, फिर मौन हो जाती है। गरिमा है उसकी।  
स्वयं की तलाश में, खोयी रही अब तक....कुछ ऐसी ही ज़िंदगानी है उसकी।

स्त्री को कोई अपेक्षा नहीं सिवाय इसके कि उसे 'इंसान' समझा जाए। उसके साथ निर्ममता और क्रूरतापूर्ण व्यवहार न हो। नारी, 'नर' की महिमा है, गरिमा है, ममता की मूरत है, अन्नपूर्णा है, कोमल भाषा है, निर्मल मन और स्वच्छ हृदय है, समर्पिता है. और इन सबसे भी अहम बात वो सिर्फ़ एक ज़िस्म ही नहीं, उसमें जाँ भी बसती है। अपने हिस्से के सम्मान की हक़दार है वो। हमें बदलना ही होगा अपने-आप को, अपनी सोच को, अपने आसपास के माहौल को, नारी को उपभोग की वस्तु समझने वालों की कुत्सित सोच को..अब बिना डरे हुए सामना करना ही होगा उन पापियों का, समाज के झूठे ठेकेदारों का, बेनक़ाब करना है हर घिनौने चेहरे की सच्चाई को..साथ देना होगा, उस नारी का, उम्मीद की लौ जिसकी आँखों में अब भी टिमटिमाती है, जिसे अब भी विश्वास है बदलाव पर! 

वो फूलों को देख प्रसन्न हो जाती है,
हवाओं में मचलकर आँचल लहराती है,
तूफां से न हारी, देखो बिजली-सा टकराती है
बारिश में किसी फसल की तरह लहलहाती है,
खुशी में दीपक बन जगमगाती है
हल्की आहट से बुद्धू बन चौंक जाती है
अकेले में पगली बेवजह गुनगुनाती है 
हँसती है बहुत तो कभी
औंधे मुंह पड़ जाती है 
जाते ही इसके जाने क्यूँ 
घर की नींव हिल जाती है 
मैं सोचती रही, क्या कहूँ उसे....
तभी सामने से एक 'स्त्री' गुजर जाती है 
- प्रीति 'अज्ञात'
http://hastaksher.com/rachna.php?id=346

गुरुवार, 3 मार्च 2016

उन्हें पहले-सा कर दीजिये, प्लीज!

गीली तौलिया को
पलंग पर रखे बिना ही 
सुखा आते हैं आँगन में
चिड़ियों का पानी रखते हुए

सोफे के नीचे छुपे जूते की,
वो बदबूदार मोज़े 
अब चुगलियाँ नहीं करते
कि करें भी किससे  

सारे डिब्बों के ढक्कन भी 
पहले-से टाइट नहीं रहते
जितना वो चिढ़ाने के लिए
अक़्सर किया करते थे

उनकी टेबल व्यवस्थित 
अल्मारी भी सलीके से सजी 
किताबों के ऊपर रखा वो चश्मा
अब बिन कहे कवर में घुस जाता है

अखबार के पन्ने गायब नहीं होते 
रुकी घडी की बैटरी बदल जाती है तुरंत 
आरामकुर्सी पर बैठे हुए बेवक़्त
चाय, पकौड़ों की तलब कब की ख़त्म हुई 

आप लड़तीं थीं न जिनके लिए
देखो न! बग़िया में वही ढेरों गुलाब हैं
गुलमोहर भी खिल उठा है दोबारा
पर एक शिकायत है मेरी तुमसे 

माँ, तुम  क्या गईं 
पापा भी जैसे चले ही गए!
उन्हें पहले-सा कर दीजिये, प्लीज!
 - प्रीति 'अज्ञात'

नानी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद लिखा था कभी, बचपन की डायरी में मिला. 
बनारस से मेरी कई यादें जुडी हैं. पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. मैं और भैया, मम्मी के साथ वहाँ गए थे. डॉक्टर अंकल जब नानी के चेकअप को आते, तो हम दोनों उनके बेड के नीचे छुप जाते थे फिर हमें वहाँ से खदेड़कर निकाला जाता. हमारी उत्सुकता बस यही थी कि नानी को हुआ क्या है! नाना अकेले में रोते क्यों हैं? मैं अपने नाना की बेहद लाड़ली रही हूँ, इतनी कि आज तक मेरे मौसेरे भाई-बहिन इस बात का दुःख मनाते हैं. कुछ को तो नानी की गोद भी न नसीब हो पाई थी. इस मामले में बेहद भाग्यशाली हूँ कि वो सब भी मुझे इतना ही स्नेह देते हैं. खैर… तो मैं नाना से जब भी नानी के बारे में सवाल करती तो वो मुझे भींचकर और भी जोरों से रोने लगते. कहते कुछ भी नहीं थे. कुछ ही दिनों बाद नानी हम सबको छोड़कर चली गईं थीं और उस दिन नाना लिपटकर खूब रोये थे. बार-बार यही कहते रहे बेटा, लीला चली गई. वैसे नानी का नाम निर्मला था, लीला शायद उनका प्यार वाला नाम नाना ने ही कभी रखा होगा. संकोचवश कभी पूछा ही नहीं!

मेरी नानी की मृत्यु जब हुई, वो उम्र नहीं थी जाने की. उनके देहांत के बाद नाना जी, बेहद उदास रहने लगे थे. मन भीगता था मेरा, पर कुछ कह नहीं पाती थी. संभवत: ये मेरे जीवन का पहला हादसा था, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था. उससे पहले कभी सोचा तक नहीं था, मृत्यु की क्रूरता के बारे में. फिर तो फ़ेहरिस्त लम्बी होती चली गई और जीवन, 'मृत्यु की शुरुआत' ही लगने लगा. किसी के दूर चले जाने की पीड़ा अब भी उतनी ही कष्टप्रद होती है, यादें पोटली में जमा होती चली जाती हैं. जिन्हें जब-तक खोल बैठने की मेरी आदत हर एक पल को, पलकों तक ले आती है. भारी ह्रदय, उन तस्वीरों से अपनी बात कहता है. उनकी अनुपस्थिति के लिए उनसे लड़ता भी है और फिर जिम्मेदारियों की एक पुकार सुनते ही उन्हें उठा, मन के किसी हिस्से में पुन: सुरक्षित रख आता है. 

नानी के निधन के समय बहुत छोटी थी मैं, पर उसका असर बहुत गहरा था. मम्मी, मौसी, मामा सबको उनकी याद में रोता देखती तो अपना मुंह कसकर भींच लेती. कुछ-न-कुछ फ़रमाईश कर विषय बदलने की कोशिश भी करती. बढ़ते समय के साथ, कुछ शब्द लिखे थे कभी, पर नानाजी को दिखाने की हिम्मत न हुई. अब तो उन्हें गुजरे हुए भी दो दशक होने को आये. आज भी उनकी याद आँखें नम कर देती है. मेरी उनसे बहुत जमती थी, हम दोनों एक-दूसरे को खूब पत्र लिखते थे. उन दिनों साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग में जब मेरा लिखा छपा तो न जाने किस-किसको गर्व के साथ बताते थे. कई बार तो इतनी तारीफ करते कि मैं संकोच से गड जाती. गर्मियों की छुट्टियों की मेरी सबसे खूबसूरत यादें उन्हीं के साथ हैं.

वो पक्के दोस्त थे मेरे, हम एक-दूसरे से सारी बातें साझा करते. कितना कुछ शेष हैं, जो मैं उनसे कहना चाहती हूँ अभी. मैं जानती हूँ, वो एकदम से अपनी दोनों हथेलियों को मेरे कानों से चिपकाकर वैसे ही हँसते हुए मुझे हवा में उठा लेंगे और बोलेंगे 'सुर्री...सर्रर्ररर' फिर सब ठीक हो जायेगा.

* 'सुर्री' माने कुकर की सीटी का बजते हुए ऊपर उठ जाना. जहाँ तक मेरा मानना है, यह शब्द या तो नाना ने मेरे लिए ही बनाया था या फिर छोटे मामा ने. क्योंकि पिछले तीन दशकों से मैंने इसे कभी, कहीं नहीं सुना!
- प्रीति 'अज्ञात'

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

ताज्जुब नहीं!

"12 -14 वर्ष की लड़कियों के साथ सबसे ज्यादा बलात्कार होता है, आपको मौका मिले आप भी नहीं छोड़ेंगे" - पप्पू यादव 
जब तक इन महानुभाव जैसे लोग सत्ता में रहेंगे, 'स्त्री-अस्मिता' मजाक ही रहेगी इसके बाद उपदेश भी दे डालते हैं, "सिस्टम को बदलिये" 
साहेब, जनता की मति मारी गई थी जो सिस्टम बदलने को आप जैसों को चुन लिया! (बहुवचन का प्रयोग इसलिए कि इन जैसे सैकड़ों लोग हमारे ही बीचोंबीच घूम रहे हैं)
यानी इन्होने ये तो स्वीकार ही लिया कि इनके यहाँ इस मौके का खूब फायदा उठाया जाता है।

ताज्जुब इस बात का बिलकुल नहीं कि इतनी कुत्सित मानसिकता वाले वक्तव्य के बाद भी ये निर्लज़्ज़ की तरह हंस क्यों रहे हैं?
ताज़्ज़ुब ये भी नहीं कि वहाँ उपस्थित लोगों ने इनका विरोध कर इन्हें तभी धराशायी क्यों नहीं कर दिया?
ताज्जुब तब भी नहीं होगा, जब इन जैसे और लोग चुने जाते रहेंगे!
हाँ, ताज़्ज़ुब तब भी नहीं होगा जब इस वीडियो को देख ज्यादातर लोग चुप्पी धारण कर अगली पोस्ट के लाइक की ओर बढ़ जाएंगे।
ताज़्ज़ुब तब होता है जब लोग देश में बदलाव की उम्मीद कर, अपने घर का कचरा पडोसी के घर की तरफ उछाल देते हैं।
ताज्जुब तब होता है जब एक स्त्री के भाषण की धज्जियाँ उड़ाने में व्यस्त लोग, गैंगरेप की घटनाओं का ज़िक्र तक करना भूल जाते हैं। यहाँ इनके लिए किसी समस्या के समाधान से ज्यादा जरुरी किसी का मजाक उड़ाना है। 
ताज्जुब तब भी होता है जब दुःख भरी कविताएँ और घड़ियाली आँसू लिए डरपोक चेहरों को सर झुकाये देखती हूँ, जो सिर्फ अपनी बारी की प्रतीक्षा तक मौन हैं.....!
पर जानती हूँ, संवेदनाएं मरी नहीं....ऊँघ रही हैं कहीं, उनकी नींद में खलल होगा तो जागृत भी अवश्य हो जाएँगी। इन्हें दवा नहीं, दुआ की ही जरुरत है अब!

दुःख है कि अब अपराधी और नेता के बीच का दायरा सिमट रहा है और संभवत: इन्हें सह-अस्तित्व की तलाश है। 
डर इस बात का है, कहीं समाज का प्रबुद्ध वर्ग, इन सबसे आँखें चुराकर, स्वार्थ लिप्तता या मृत्यु भय से एक संज्ञा शून्य, भाव विहीन समाज की स्थापना में योगदान तो नहीं दे रहा?? फिर परिवर्तन की आस किससे और क्यों???
ख़ैर...ताज्जुब अब भी नहीं है!
प्रीति 'अज्ञात'
https://www.facebook.com/rakesh.k.singh.52/videos/10153462784717602/

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

रेलगाड़ी -रेलगाड़ी

सुना है रेल बजट आ रहा है, पूरा यक़ीन है कि रेल से जुडी यह एकमात्र बात है जो अपने निर्धारित समय पर होती है। बाकी जो है, सो हम और आप जानते ही हैं :)
जितनी नफरत हमें हवाई जहाज और बस के सफर से है उससे दस गुना ज्यादा ख़ुशी रेलयात्रा में मिलती है। इसीलिए इससे सम्बंधित कोई भी चर्चा होते ही, हमारे भीतर का जागरूक नागरिक और भी जागृत हो उठता है। राजनीति में दिमाग लगता नहीं, इसलिए पता ही नहीं चलता कि बजट बनना शुरू कब होता है? खैर...अब बन गया तो बन गया। हमारी कुछ बातें हैं, सुझाव भी हैं जो अगर उसमें शामिल न हों, तो कृपया विचार किया जाए। इससे सिर्फ हमारा ही नहीं देश का भी भला होगा। Now come to the point -

1. सबसे पहली और मुख्य बात, ये waiting list का फंडा ही ख़त्म कीजिये। टिकट या तो कन्फर्म रहे या नहीं रहे। इससे जो चिंता और समझदारी के मारे, ज्ञानी लोग कई ट्रेन में टिकट्स करा लेते हैं और उसके बाद भी अधर में लटके रहते हैं, उनकी ज़िन्दगी में कुछ साँसें और जुड़ जाएंगी। हम जैसे लोग ये दुआ ही करते रह जाते हैं, "हाय, अल्लाह! जा पाएंगे भी या नहीं!" :/ साथ ही ये बहाना भी ख़त्म हो जाएगा कि "क्या करें, पैकिंग तक हो गई थी पर मुई टिकट कन्फर्म न हुई।" बोले तो, सच्चाई में इज़ाफ़ा होगा। जिसकी आज देश को सख़्त जरुरत है। 

2. सिर्फ महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा पर ही जोर न दें, पुरुष भी मार्शल आर्ट का कोर्स करके सफर नहीं करते हैं। सभी aisle और gate के पास कैमरा लगवाये जाएं और ट्रेन में एक कंट्रोल रूम हो, जहाँ से सब पर नजर रखी जा सके। पर्याप्त महिला, पुरुष गार्ड भी हों।
इससे न केवल सुरक्षा ही होगी बल्कि गंदगी फैलाने वाले लोग भी पकडे जा सकेंगे। उन पर तुरंत ही डबल किराया का fine हो. मात्र समझाने से सुधरते तो डिब्बों की ये दुर्गति न होती! सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी आम जनता ही करती है और इसके लिए सफाईकर्मियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। 

3. यह नियम बनाया जाए कि यदि कोई परिवार के साथ यात्रा कर रहा हो, तो उसे एक साथ सीट मिले। या कम-से-कम एक lower birth का वरदान तो मिले ही! और हाँ, upper birth पर चढ़ने के लिए थोड़ा आसान मार्ग बनाइये न! कितनी बार हवा में ही झूलते रह जाते हैं, कि फलाना-ढिमका निकल जाए तो चढ़ूँ! तकलीफ होती है, साब! :O

4. चाय वाले भैया को बोलिए कि same चाय बार-बार गरम करके न पिलाये वरना उसका लाइसेंस रद्द हो जाएगा! यलो वाले पानी में दाल के दाने होने चाहिए और रोटी, परांठों की thickness पिज़्ज़ा जैसी न हो pleeeeease! पनीर का तो आपको पता ही है।

5. एक अत्यधिक आवश्यक बात, जो यात्री इतना लगेज लाते हैं कि मानों घर shift कर रहे हों! उनसे अतिरिक्त charge लिया जाए और वो भी इस अनुरोध के साथ कि जो गरीब बेचारा बस एक ही बैग  लाया है, उसे वो बिना लड़ाई किये रखने देंगे। आपको क्या पता, एक बार हमने अपना बैग गोदी में रखकर यात्रा की है। दुष्ट लोग हमें ऐसे देख रहे थे, जैसे वो तो सरकार की परमीशन लेके बैठे और हम बिना टिकट! ये अन्याय हुआ न। :( 

5. अब आखिरी और सबसे मुश्किल बात, वो ये कि सर/मैडम जी कुछ ऐसा कीजिये कि अपनी ट्रेन जो है न, वो जरा टाइम पर पहुंचे। इससे यात्रियों को तो आराम होगा ही, अपना प्लेटफार्म जो 'कुम्भ मेले' में तब्दील हो जाता है, वो भी नहीं होगा जी। सब टाइम पर अपनी ट्रेन में जायेंगे तो भीड़ काहे होगी? कोई पिकनिक मनाने तो उधर जाता नहीं न!
जो ये काम दुष्कर लगे तो अइसन करो कि देरी होने पर यात्रियों के जलपान और आराम की व्यवस्था करवा दीजिये और भी ज्यादा देरी हो तो... हे-हे अगली ट्रेन का किराया भी सरकार आपही को देना होगा। :P

6. भीड़ तो कम होने से रही, तो जो गेट पर लटके लोग हैं उन्हें रस्से से बंधवा दीजिये। गिर जाते हैं तो उन्हें बड़ी चोट लगती है। या फिर उनके गले में ये तख्तियाँ कि "हमें अपनी जान प्यारी नहीं, इसलिए आज ये try मार रहे।" :( 

फिलहाल इतना ही। कुछ मुद्दों की ओर पिछले वर्ष ध्यान आकर्षित किया था, कृपया उन्हें भी दोहरा लें -  
* छोटे स्टेशनों पर रेल के रुकने का समय बढ़ाया जाए. कई बार सामान और यात्री में से कोई एक ही उतर / चढ़. पाता है. उसके बाद का तमाशा तो सबको पता है.
* पान, गुटका, तंबाकू और इस तरह के अन्य पदार्थों के क्रय-विक्रय पर सख़्त पाबंदी हो. ट्रेन क्या ९० % देश साफ हो जाएगा, जी ! यूँ भी ये धीमे जहर ही हैं.
* चादर, कंबल डिस्पोज़ेबल हों और हो सके तो तकिये के अंदर रखा पत्थर भी हटा दिया जाए. 
* ये आख़िरी वाले के लिए तो करबद्ध प्रार्थना है, कि हर स्टेशन पर होने वाली उद्घोषणा को सुनाने वाले यंत्रों की मरम्मत कराई जाए. क्योंकि 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें'.........के बाद भले ही हम कितना भी ध्यान दें, श्रोणि-यंत्र भी लगवा लें...पर क्या मज़ाल है जो एक शब्द भी समझ में आ जाए !
शेष शुभ! :) 
© 2016 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

सलाम, नीरजा!

एक समय था जब मैं बहुत फ़िल्में देखती थी। अच्छी फिल्मों के शानदार सीन दिलो-दिमाग पर अगली अच्छी फिल्म देख लेने तक छाए रहते थे। किसी के गीत, गुनगुनाने लायक तो किसी का कोई डायलॉग सर पर सवार रहता था। एक्शन और हॉरर फिल्मों से हमेशा परहेज किया है मैनें। मैं सरदर्द लेने या भयभीत होने के लिए थिएटर में नहीं जाती।:P 
कुछ ऐसी फ़िल्में भी होती हैं, जिनका असर वर्षों रहता है। मेरे ख्याल से रियलिस्टिक सिनेमा में यह बात होती ही है।

उन दिनों जब दूरदर्शन ही अकेला दर्शन देता था, एक मूवी आई थी उस पर 'एक रुका हुआ फैसला'...आज भी याद करती हूँ तो बस एक ही शब्द दिमाग में गूंजता है,'वाह!' यह पंकज कपूर जी के फैन होने की शुरुआत थी। उसके बाद सारांश, डैडी ने ऐसा जादुई असर छोड़ा कि वो अनुपम खेर द्वारा अभिनीत, बेटे की अस्थियों के लिए टूटकर रोने वाला मार्मिक दृश्य हो या कि 'आईना मुझसे मेरी पहली-सी सूरत मांगे......!' गीत के समय दी गई स्पीच, आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भारतीय फिल्म उद्योग ने हमको ऐसी सैकड़ों फ़िल्में और कलाकार दिए हैं, जिनके नाम हम सदियों गर्व के साथ लेते रहेंगे। खैर..ये चर्चा फिर कभी!

समय के साथ फ़िल्में देखना कब छूट गया, पता ही न चला। ज़िन्दगी की बदलती तस्वीरों के साथ वक़्त बहता रहा। पर इधर बीते दो-तीन वर्षों में मैरी कॉम, कहानी, मांझी देखने के बाद महसूस हुआ कि अच्छी फिल्मों को न देखना मेरी सबसे बड़ी बेवकूफी रही। कितना कुछ सिखा जाती हैं ये फ़िल्में हमें। एक अलग-सी संतुष्टि भी मिलती है इनसे।

'नीरजा' की बातें और उसकी बहादुरी के किस्से बचपन की गलियों से होकर गुजरे हैं। उन दिनों की बहुत-सी बातें, अखबारों की सुर्खियां जेहन में अब भी ताजा हैं। आज जब इस फिल्म को देखने का मन बनाया तो अंदाज नहीं था कि थिएटर को सुबकियों में इस क़दर डूबा पाऊँगी। सुबह के शो में अलबत्ता तो दर्शक होते ही नहीं या फिर सात-आठ चेहरे ही नजर आते हैं। आज पचास से अधिक जोड़ी नम आँखें थीं और एक मिनी थिएटर में इस वक़्त, इतने लोगों को देख काफी तसल्ली मिली।

ओह्ह. नीरजा! तुम सामने होतीं तो आज तुम्हें गले लगा लेती। कितना रुलाया है तुमने यार! मेरा दिल रो रहा, उस माँ के लिए जिसके शब्दों में तुम्हारे लिए कितना गर्व था! मुझे भी है, बेहद गर्व है तुम पर! शबाना आज़मी जी ने ये क़िरदार बखूबी निभाया है, सोनम कपूर का कार्य भी सराहनीय रहा!
लेकिन वही अफ़सोस, वही शिकायत उस अदृश्य शक्ति से कि अच्छे लोगों को चैन से जीने क्यों नहीं देता?? दुनिया जहान के दर्द, तकलीफें उनके हिस्से ही क्यों?? तुम्हारी शहादत को सलाम नीरजा!
काश, अपने ही देश को आग में फूंकते लोग तुम-सा सोच भी पाते तो इंसान कहलाते!
-  © 2016  प्रीति 'अज्ञात'

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

सफ़र में....

ट्रेन की खिड़की से सर को टिकाये बैठी मैं झांकती हूँ बंद खिड़कियों से. वही खेत-खलिहान, कुछ कच्चे मकान, सदियों पुराने उन्हीं विज्ञापनों से रंगी हुई दीवारें उन घरों की ईंटों की दरारों को ढांपने की नाकाम कोशिश आज भी उतनी ही शिद्दत से कर रहीं हैं. ट्रेन की गति जीवन की तरह ही तो है, सब कुछ पीछे छूटता जा रहा, जैसे हाथ छुड़ाकर भाग रहा हो कोई. ये नीम-हक़ीम के नाम आज भी नहीं बदले, इतने ज्यादा हैं कि दौड़ती हुई ट्रेन के साथ भी इन्हें आसानी से पढ़ा जा सकता है. हम्म्म, याद भी तो हो गए हैं.

क्रॉसिंग पर रुके अधीर लोग अब भी माथे पर वही शिकन लिए खड़े हैं. इनकी फ़िक्र इनके साथ ही जाएगी. वहीँ कुछ बच्चे उल्लास-में, हाथ को जोरों से हिलाते हुए वैसे ही कूदते हैं और चिल्लाकर हँसते हुए "बाय-बाय, फिर मिलेंगे" कुछ इस तरह कहते हैं कि पूरा यक़ीन हो जाता है, दुनिया जीवित है अभी. एक मुस्कान चेहरे पर तैरने लगती है, मैं भी जोरों से हाथ हिलाकर अपने इस आश्वासन को पुख़्ता करती हूँ.

तभी ऊपर की सीट पर बैठे प्रेमी जोड़े की फुसफुसाहट असहज कर देती है.
लड़का, लड़की से पूछ रहा है, "मुझसे बियाह रचाएगी?"
मैं कानों को स्कार्फ़ से बाँध अनजान होने की कोशिश करती हूँ कि उनकी बातों में कोई व्यवधान न उत्पन्न हो, पर ये सामने सीट पर बैठी दोनों लड़कियाँ मुँह को हाथों से छुपा, अपनी बेताब हंसी इतनी बुरी तरह दबा रहीं हैं, कि मन घबराने लगा....कहीं उन दोनों की बात अधूरी न रह जाए!  
दूसरी तरफ बैठे अंकल जी ने भी कनखियों से अभी ही ऊपर देखा. न जाने क्यूँ बगल में बैठी उस महिला का चेहरा अचानक उतर गया. जैसे उन उदास आँखों ने भीतर की नमी को और भी सहेज लिया हो. शायद उसे याद आ गया कोई!

मैं अचानक उनसे अपनी सीट बदल लेती हूँ. जानती हूँ अकेले सफ़र में, ये खिड़कियाँ बड़ा सहारा हैं. बाहर देखने का भ्रम पालते हुए चुपचाप यादों के पन्ने कुछ इस तरह उलट दिया करतीं हैं कि वक़्त का अहसास ही नहीं होता. ट्रेन की मानिंद, ज़िन्दगी भी रफ़्तार पकड़ एक दिन अचानक किसी स्टेशन पर रुक ही जाने वाली है.
मैं अपने स्टेशन के इंतज़ार में फिर से घड़ी चेक़ करती हूँ....
- प्रीति 'अज्ञात'
* एक यात्रा के दौरान 

सोमवार, 4 जनवरी 2016

लेखन मेरी प्राणवायु

शब्द ही शब्द मंडराते हैं हर तरफ, सहेजना चाहती हूँ उन्हें, गागर में सागर की तरह, वक़्त की धूल कभी आँखों में किरकिरी बन नमी ला देती है, तो कभी इस धूल को एक ही झटके में झाड़ फटाक से खड़ा हो उठता है मन, जरा-सी ख़ुशी मिली नहीं कि बावलों-सा मीलों दूर नंगे पाँव दौड़ने लगता है, रेत में फूलों की ख़ुश्बू ढूंढ लेता है, घनघोर अन्धकार में भी यादों की मोमबत्तियाँ जला उजास भर देता है! पर उदासी में अपने ही खोदे कुँए में नीचे गहराई तक उतर जाता है, बीता हर दर्द टटोलता है, सहलाता है, भयभीत हो चीखता-चिल्लाता है! पुकार बाहरी द्वारों  से टकराकर और भी भीषण ध्वनि के साथ वापिस आ मुंह चिढ़ाने लगती है! दोनों हाथों को कानों से चिपकाकर, चढ़ने की कोशिश आसान नहीं होती। घिसटना किसे मंज़ूर है भला? चाहे हिरणी-सी मीलों दूर की दौड़ हो या जमीन के भीतर धंसी दुःख की खाई, दोनों ही जगहों से लौटना आसान नहीं होता, पर फिर भी, जिम्मेदारियों की रस्सी गले में फंदा बाँध ऊपर खींच ही लेती है! एक गहरी ख़राश, कुछ पलों का मौन, चीखता सन्नाटा और हारी कोशिशों का खिसियाता मुंह लिए लौट आता है तन, पुरानी दिनचर्या में शामिल होने के लिए! ठीक तभी मैं, स्वयं को भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिशों में जुटा पाती हूँ! मैं की-बोर्ड को अपना सबसे करीबी मित्र मान, अपनी हर बात उसके कानों में डाल थोड़ा मुक्त-सा महसूस करने लगती हूँ!

लेखन मेरी प्राणवायु है, ये कभी समाज की कुरीतियों और अपराधों के प्रति निकली हुई झुंझलाहट है तो कभी धर्मजाल के खेल में उलझते लोगों के लिए कुछ न कर पाने की बेबसी! ये घुटन को दूर करने की व्याकुलता है और नम आँखों पर हँसी बिखेर देने की ज़िद भी! कभी ये छोटे-छोटे पलों को जीने का अहसास बन एक मासूम बच्चे-सा मेरे काँधे पर झूलता हुआ बचपन है तो कभी खुशियों को कागज़ पर समेट देने की असीम उत्कंठा! पर इन सबके पीछे 'परिवर्तन' की एक उम्मीद आज भी कहीं जीवित है! लेखन मेरे लिए आत्म-संतुष्टि से कहीं ज्यादा 'प्रयास' है कि समाज में एक सकारात्मक और आशावादी सोच भी उत्पन्न कर सकूँ! संघर्षों से हारना मैंने सीखा ही नहीं, इसलिए यह यात्रा अब तक अनवरत जारी है क्योंकि जीवित हूँ अभी!
- प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 3 जनवरी 2016

साँसों की पतवार

अहमियत 'साथ' की उतनी नहीं होती जितनी कि साथ होने के अहसास की होती है! 'मैं हूँ न' की आश्वस्ति से अधिक किसी को कुछ नहीं चाहिए होता.....क्या ये इतना मुश्किल है ????  
पर सवाल ये है कि  साँसों की पतवार को खेते रहने के लिए उम्मीद के सागर की तलाश क्यों है? वही क्यों चाहिये, जिसे आपकी जरुरत नहीं! खुद को परखा है कभी? अपने पीछे भागनेवालों को मन वितृष्णा से क्यों देखने लगता है? क्या फ़र्क़ है, उनमें और तुममें! सबको तलाश है किसी और की, जो सामने है उपलब्ध है, उस पर नज़र जाती ही नहीं और असंभव को पाने की जद्दोज़हद में ज़िन्दगी फिसलती जाती है!

मन खुद ही टूटता है, बिखरता है और तिनका-तिनका हो हवाओं में विलीन हो जाता है कहीं! ये भी मन ही है जो बोझिल हाथों से खुद को समेट फिर उठ खड़ा होता है! बार-बार लड़खड़ाना, चोट खाना, एक सहारे के लिए गिड़गिड़ाना और फिर खिसियाकर खुद ही उठ जाना.... ये नियति भी तो मन की स्वयं की ही चुनी है. क्यों नहीं, ये हर बार एक ही झटके में मजबूती से उठ खड़ा होता है, कभी न गिरने के लिए. आत्मसम्मान को बेचकर, उम्र भर का अहसान लेते हुए, भिक्षा-पात्र में गिरता रिश्ता कब तक टिक सकता है? भिक्षुक कभी सम्मान के पात्र हुए हैं भला? एक टूटी आस, खुद से ज्यादा इंसान को तोड़ देती है. उम्मीद नहीं, ख्वाब नहीं , उन्हें पूरा करने की ज़द्दोजहद भी नहीं.... …पर फिर भी जीवन बाकी है. सामने नीला खुला आकाश बाहें फैलाये खड़ा रोज दिखता है और याद आता है एक दिन उसने पूछा था....."कितना प्यार करती हो मुझे?" और मैंने हंसकर कहा था "आसमान से भी ज्यादा". उसे इस बात पर कभी यकीं न हुआ था और मुझे तो वो आसमान भी कम जान पड़ा था. पर आज जब उस ओर देखती हूँ , तो लगने लगता है कि उसे भी आश्चर्य नहीं हुआ था तब, शायद कम ही लगा होगा ये पैमाना! तभी तो कितनी बार इस पैमाने की खिल्ली उड़ाते हुए चला जाता था और मैं खिसियाती हुई अपने को ही दोष देने लगती थी.  आज मेघों का गर्जन मुझे मखौल बनाता लगता है, बारिश की बूँदें तेज़ाब सा गिरकर मेरे चेहरे का  रंग उड़ा देती हैं. मैं जान गई हूँ, ये आसमाँ मेरा न था! मेरे हिस्से की जमीं भी अपनी न रही... जिसके लिए मैंने अपनी हर चीज़ दाँव पर लगा दी, वो मुझे ही गुनहगार ठहरा गया. आज मेरा हर भ्रम चकनाचूर है और उससे जुड़ा हर घमंड भी. फ़िज़ूल था वो यक़ीन कि कोई मेरा भी हो सकता है. अधूरे इंसान का कौन, कब, कहाँ हुआ है? सदियों से उसका मजाक ही बनाया जाता रहा है. अधर में हूँ , पर शिक़ायत नहीं कोई! क्योंकि उसे मेरा यही होना मंज़ूर है!

'सौदामिनी, जीवन के आखिरी पन्नों से' का एक अंश