गीली तौलिया को
पलंग पर रखे बिना ही
सुखा आते हैं आँगन में
चिड़ियों का पानी रखते हुए
सोफे के नीचे छुपे जूते की,
वो बदबूदार मोज़े
अब चुगलियाँ नहीं करते
कि करें भी किससे
सारे डिब्बों के ढक्कन भी
पहले-से टाइट नहीं रहते
जितना वो चिढ़ाने के लिए
अक़्सर किया करते थे
उनकी टेबल व्यवस्थित
अल्मारी भी सलीके से सजी
किताबों के ऊपर रखा वो चश्मा
अब बिन कहे कवर में घुस जाता है
अखबार के पन्ने गायब नहीं होते
रुकी घडी की बैटरी बदल जाती है तुरंत
आरामकुर्सी पर बैठे हुए बेवक़्त
चाय, पकौड़ों की तलब कब की ख़त्म हुई
आप लड़तीं थीं न जिनके लिए
देखो न! बग़िया में वही ढेरों गुलाब हैं
गुलमोहर भी खिल उठा है दोबारा
पर एक शिकायत है मेरी तुमसे
माँ, तुम क्या गईं
पापा भी जैसे चले ही गए!
उन्हें पहले-सा कर दीजिये, प्लीज!
- प्रीति 'अज्ञात'
नानी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद लिखा था कभी, बचपन की डायरी में मिला.
बनारस से मेरी कई यादें जुडी हैं. पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. मैं और भैया, मम्मी के साथ वहाँ गए थे. डॉक्टर अंकल जब नानी के चेकअप को आते, तो हम दोनों उनके बेड के नीचे छुप जाते थे फिर हमें वहाँ से खदेड़कर निकाला जाता. हमारी उत्सुकता बस यही थी कि नानी को हुआ क्या है! नाना अकेले में रोते क्यों हैं? मैं अपने नाना की बेहद लाड़ली रही हूँ, इतनी कि आज तक मेरे मौसेरे भाई-बहिन इस बात का दुःख मनाते हैं. कुछ को तो नानी की गोद भी न नसीब हो पाई थी. इस मामले में बेहद भाग्यशाली हूँ कि वो सब भी मुझे इतना ही स्नेह देते हैं. खैर… तो मैं नाना से जब भी नानी के बारे में सवाल करती तो वो मुझे भींचकर और भी जोरों से रोने लगते. कहते कुछ भी नहीं थे. कुछ ही दिनों बाद नानी हम सबको छोड़कर चली गईं थीं और उस दिन नाना लिपटकर खूब रोये थे. बार-बार यही कहते रहे बेटा, लीला चली गई. वैसे नानी का नाम निर्मला था, लीला शायद उनका प्यार वाला नाम नाना ने ही कभी रखा होगा. संकोचवश कभी पूछा ही नहीं!
मेरी नानी की मृत्यु जब हुई, वो उम्र नहीं थी जाने की. उनके देहांत के बाद नाना जी, बेहद उदास रहने लगे थे. मन भीगता था मेरा, पर कुछ कह नहीं पाती थी. संभवत: ये मेरे जीवन का पहला हादसा था, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था. उससे पहले कभी सोचा तक नहीं था, मृत्यु की क्रूरता के बारे में. फिर तो फ़ेहरिस्त लम्बी होती चली गई और जीवन, 'मृत्यु की शुरुआत' ही लगने लगा. किसी के दूर चले जाने की पीड़ा अब भी उतनी ही कष्टप्रद होती है, यादें पोटली में जमा होती चली जाती हैं. जिन्हें जब-तक खोल बैठने की मेरी आदत हर एक पल को, पलकों तक ले आती है. भारी ह्रदय, उन तस्वीरों से अपनी बात कहता है. उनकी अनुपस्थिति के लिए उनसे लड़ता भी है और फिर जिम्मेदारियों की एक पुकार सुनते ही उन्हें उठा, मन के किसी हिस्से में पुन: सुरक्षित रख आता है.
नानी के निधन के समय बहुत छोटी थी मैं, पर उसका असर बहुत गहरा था. मम्मी, मौसी, मामा सबको उनकी याद में रोता देखती तो अपना मुंह कसकर भींच लेती. कुछ-न-कुछ फ़रमाईश कर विषय बदलने की कोशिश भी करती. बढ़ते समय के साथ, कुछ शब्द लिखे थे कभी, पर नानाजी को दिखाने की हिम्मत न हुई. अब तो उन्हें गुजरे हुए भी दो दशक होने को आये. आज भी उनकी याद आँखें नम कर देती है. मेरी उनसे बहुत जमती थी, हम दोनों एक-दूसरे को खूब पत्र लिखते थे. उन दिनों साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग में जब मेरा लिखा छपा तो न जाने किस-किसको गर्व के साथ बताते थे. कई बार तो इतनी तारीफ करते कि मैं संकोच से गड जाती. गर्मियों की छुट्टियों की मेरी सबसे खूबसूरत यादें उन्हीं के साथ हैं.
वो पक्के दोस्त थे मेरे, हम एक-दूसरे से सारी बातें साझा करते. कितना कुछ शेष हैं, जो मैं उनसे कहना चाहती हूँ अभी. मैं जानती हूँ, वो एकदम से अपनी दोनों हथेलियों को मेरे कानों से चिपकाकर वैसे ही हँसते हुए मुझे हवा में उठा लेंगे और बोलेंगे 'सुर्री...सर्रर्ररर' फिर सब ठीक हो जायेगा.
* 'सुर्री' माने कुकर की सीटी का बजते हुए ऊपर उठ जाना. जहाँ तक मेरा मानना है, यह शब्द या तो नाना ने मेरे लिए ही बनाया था या फिर छोटे मामा ने. क्योंकि पिछले तीन दशकों से मैंने इसे कभी, कहीं नहीं सुना!
- प्रीति 'अज्ञात'
पलंग पर रखे बिना ही
सुखा आते हैं आँगन में
चिड़ियों का पानी रखते हुए
सोफे के नीचे छुपे जूते की,
वो बदबूदार मोज़े
अब चुगलियाँ नहीं करते
कि करें भी किससे
सारे डिब्बों के ढक्कन भी
पहले-से टाइट नहीं रहते
जितना वो चिढ़ाने के लिए
अक़्सर किया करते थे
उनकी टेबल व्यवस्थित
अल्मारी भी सलीके से सजी
किताबों के ऊपर रखा वो चश्मा
अब बिन कहे कवर में घुस जाता है
अखबार के पन्ने गायब नहीं होते
रुकी घडी की बैटरी बदल जाती है तुरंत
आरामकुर्सी पर बैठे हुए बेवक़्त
चाय, पकौड़ों की तलब कब की ख़त्म हुई
आप लड़तीं थीं न जिनके लिए
देखो न! बग़िया में वही ढेरों गुलाब हैं
गुलमोहर भी खिल उठा है दोबारा
पर एक शिकायत है मेरी तुमसे
माँ, तुम क्या गईं
पापा भी जैसे चले ही गए!
उन्हें पहले-सा कर दीजिये, प्लीज!
- प्रीति 'अज्ञात'
नानी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद लिखा था कभी, बचपन की डायरी में मिला.
बनारस से मेरी कई यादें जुडी हैं. पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. मैं और भैया, मम्मी के साथ वहाँ गए थे. डॉक्टर अंकल जब नानी के चेकअप को आते, तो हम दोनों उनके बेड के नीचे छुप जाते थे फिर हमें वहाँ से खदेड़कर निकाला जाता. हमारी उत्सुकता बस यही थी कि नानी को हुआ क्या है! नाना अकेले में रोते क्यों हैं? मैं अपने नाना की बेहद लाड़ली रही हूँ, इतनी कि आज तक मेरे मौसेरे भाई-बहिन इस बात का दुःख मनाते हैं. कुछ को तो नानी की गोद भी न नसीब हो पाई थी. इस मामले में बेहद भाग्यशाली हूँ कि वो सब भी मुझे इतना ही स्नेह देते हैं. खैर… तो मैं नाना से जब भी नानी के बारे में सवाल करती तो वो मुझे भींचकर और भी जोरों से रोने लगते. कहते कुछ भी नहीं थे. कुछ ही दिनों बाद नानी हम सबको छोड़कर चली गईं थीं और उस दिन नाना लिपटकर खूब रोये थे. बार-बार यही कहते रहे बेटा, लीला चली गई. वैसे नानी का नाम निर्मला था, लीला शायद उनका प्यार वाला नाम नाना ने ही कभी रखा होगा. संकोचवश कभी पूछा ही नहीं!
मेरी नानी की मृत्यु जब हुई, वो उम्र नहीं थी जाने की. उनके देहांत के बाद नाना जी, बेहद उदास रहने लगे थे. मन भीगता था मेरा, पर कुछ कह नहीं पाती थी. संभवत: ये मेरे जीवन का पहला हादसा था, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था. उससे पहले कभी सोचा तक नहीं था, मृत्यु की क्रूरता के बारे में. फिर तो फ़ेहरिस्त लम्बी होती चली गई और जीवन, 'मृत्यु की शुरुआत' ही लगने लगा. किसी के दूर चले जाने की पीड़ा अब भी उतनी ही कष्टप्रद होती है, यादें पोटली में जमा होती चली जाती हैं. जिन्हें जब-तक खोल बैठने की मेरी आदत हर एक पल को, पलकों तक ले आती है. भारी ह्रदय, उन तस्वीरों से अपनी बात कहता है. उनकी अनुपस्थिति के लिए उनसे लड़ता भी है और फिर जिम्मेदारियों की एक पुकार सुनते ही उन्हें उठा, मन के किसी हिस्से में पुन: सुरक्षित रख आता है.
नानी के निधन के समय बहुत छोटी थी मैं, पर उसका असर बहुत गहरा था. मम्मी, मौसी, मामा सबको उनकी याद में रोता देखती तो अपना मुंह कसकर भींच लेती. कुछ-न-कुछ फ़रमाईश कर विषय बदलने की कोशिश भी करती. बढ़ते समय के साथ, कुछ शब्द लिखे थे कभी, पर नानाजी को दिखाने की हिम्मत न हुई. अब तो उन्हें गुजरे हुए भी दो दशक होने को आये. आज भी उनकी याद आँखें नम कर देती है. मेरी उनसे बहुत जमती थी, हम दोनों एक-दूसरे को खूब पत्र लिखते थे. उन दिनों साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग में जब मेरा लिखा छपा तो न जाने किस-किसको गर्व के साथ बताते थे. कई बार तो इतनी तारीफ करते कि मैं संकोच से गड जाती. गर्मियों की छुट्टियों की मेरी सबसे खूबसूरत यादें उन्हीं के साथ हैं.
वो पक्के दोस्त थे मेरे, हम एक-दूसरे से सारी बातें साझा करते. कितना कुछ शेष हैं, जो मैं उनसे कहना चाहती हूँ अभी. मैं जानती हूँ, वो एकदम से अपनी दोनों हथेलियों को मेरे कानों से चिपकाकर वैसे ही हँसते हुए मुझे हवा में उठा लेंगे और बोलेंगे 'सुर्री...सर्रर्ररर' फिर सब ठीक हो जायेगा.
* 'सुर्री' माने कुकर की सीटी का बजते हुए ऊपर उठ जाना. जहाँ तक मेरा मानना है, यह शब्द या तो नाना ने मेरे लिए ही बनाया था या फिर छोटे मामा ने. क्योंकि पिछले तीन दशकों से मैंने इसे कभी, कहीं नहीं सुना!
- प्रीति 'अज्ञात'
मर्मस्पर्शी... . भीगी भीगी यादें .
जवाब देंहटाएंस्मृतियाँ काव्यमय होती है
जवाब देंहटाएंबहुत मर्मस्पर्शी लिखा है...आत्मा भीग गयी अंदर तक
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