डॉ. नारंग की हत्या न तो सांप्रदायिक है और न ही आतंकवादी हमला।
ये एक बार फिर 'इंसानियत' की मौत है। जहाँ लोगों के कानों तक किसी की चीख-पुकार नहीं पहुँचती। उनकी आँखों को किसी के जिस्म से बहता लहू नहीं दिखता। जहाँ भय के कारण उनकी आवाज किसी अंधे कुँए की तलहटी में छुपकर बैठ जाती है।
बारात में सड़क पर नाचते हुए लोग या फिर भारत की जीत पर जश्न में शामिल हुए चेहरे अचानक समाज से लुप्त हो जाते हैं और अगले दिन सुबह सरसराहट के साथ दरवाजे खुलते हैं। बाहर के दृश्य को भांपा-परखा जाता है और अचानक जलती हुई मोमबत्तियाँ रौशनी की उम्मीद में सड़कों पर चलने लगती हैं। कितना शर्मनाक है! धिक्कार है इन तमाशबीनों पर!
ये मोमबत्तियाँ अंधकार को दूर करती हैं आपके मन के भय को नहीं! उसे निकालो, तो कुछ हो सके शायद! वरना गर यही इलाज होता तो इनका कुछ तो, कहीं तो असर दिखता! वर्षों से इन मोमबत्तियों ने दिलासे के सिवाय और क्या दिया है हमें?
जब तक हम भयभीत और आत्मकेंद्रित रहेंगे, अपराधियों के हौसले बुलंद होते जायेंगे। ये तो पेशेवर अपराधी भी नहीं थे, पर सब जानते हैं कि 'इंसान' की कीमत कुछ भी नहीं! संवाद की क्या जरुरत, सीधे ख़त्म कर दो! क्योंकि यही दिखता आया है! ये सोच कौन बदलेगा और कैसे?
लाश और मोमबत्ती का रिश्ता तोडना होगा! जो बच्चा, अपने पिता की निर्ममतापूर्वक हुई हत्या का प्रत्यक्षदर्शी है, जाकर पूछो उसे कि इन मोमबत्तियों ने उसका दिल कितना रौशन किया है....!
इस मोमबत्ती का श्राद्ध करने के लिए, आज एक मोमबत्ती मैं भी जलाती हूँ। जब तक यहाँ हूँ, ये जलती रहेगी, कि कुछ संवेदनाएं भी जग उठें कहीं! आखिर दुनिया उम्मीद पर ही तो जीवित है अब तक! नहीं, क्या?
- प्रीति 'अज्ञात'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " वोटबैंक पॉलिटिक्स - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंउद्वेलित करता है आपका एक एक शब्द
जवाब देंहटाएंदुःख और क्षोभ
आंसू और क्रोध
क्या इतने विवश
और निराश हैं
हम वास्तव में..