शनिवार, 26 मार्च 2016

ये उम्मीद इन दिनों तोड़ देती है......

डॉ. नारंग की हत्या न तो सांप्रदायिक है और न ही आतंकवादी हमला।
ये एक बार फिर 'इंसानियत' की मौत है। जहाँ लोगों के कानों तक किसी की चीख-पुकार नहीं पहुँचती। उनकी आँखों को किसी के जिस्म से बहता लहू नहीं दिखता। जहाँ भय के कारण उनकी आवाज किसी अंधे कुँए की तलहटी में छुपकर बैठ जाती है।

बारात में सड़क पर नाचते हुए लोग या फिर भारत की जीत पर जश्न में शामिल हुए चेहरे अचानक समाज से लुप्त हो जाते हैं और अगले दिन सुबह सरसराहट के साथ दरवाजे खुलते हैं। बाहर के दृश्य को भांपा-परखा जाता है और अचानक जलती हुई मोमबत्तियाँ रौशनी की उम्मीद में सड़कों पर चलने लगती हैं। कितना शर्मनाक है! धिक्कार है इन तमाशबीनों पर!

ये मोमबत्तियाँ अंधकार को दूर करती हैं आपके मन के भय को नहीं! उसे निकालो, तो कुछ हो सके शायद! वरना गर यही इलाज होता तो इनका कुछ तो, कहीं तो असर दिखता! वर्षों से इन मोमबत्तियों ने दिलासे के सिवाय और क्या दिया है हमें?

जब तक हम भयभीत और आत्मकेंद्रित रहेंगे, अपराधियों के हौसले बुलंद होते जायेंगे। ये तो पेशेवर अपराधी भी नहीं थे, पर सब जानते हैं कि 'इंसान' की कीमत कुछ भी नहीं! संवाद की क्या जरुरत, सीधे ख़त्म कर दो! क्योंकि यही दिखता आया है! ये सोच कौन बदलेगा और कैसे?

लाश और मोमबत्ती का रिश्ता तोडना होगा! जो बच्चा, अपने पिता की निर्ममतापूर्वक हुई हत्या का प्रत्यक्षदर्शी है, जाकर पूछो उसे कि इन मोमबत्तियों ने उसका दिल कितना रौशन किया है....!

इस मोमबत्ती का श्राद्ध करने के लिए, आज एक मोमबत्ती मैं भी जलाती हूँ। जब तक यहाँ हूँ, ये जलती रहेगी, कि कुछ संवेदनाएं भी जग उठें कहीं! आखिर दुनिया उम्मीद पर ही तो जीवित है अब तक! नहीं, क्या?
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 14 मार्च 2016

पहने तो करता है,चुर्र...


 आये दिन न्यूज़ चैनलों में ख़बरें रहतीं हैं कि फलाने, 'आम' आदमी ने ढिमके 'ख़ास' को जूता फेंककर मारा। ये बहुत गलत एवं निंदनीय व्यवहार है, अपनी बात कहकर भी तो समझाई जा सकती हैं। सुनकर बुरा तो हमें भी बहुत लगता है, जी! पर कभी-कभी दिमागी चिंटू न जाने क्यूँ रह-रहकर मस्तिष्क के मन-मंदिर में यह प्रश्न टनाटन बजाता है कि हाय रे, उस बेचारे को जब पुलिस पकड़कर ले जा रही थी तो उसका फेंका हुआ जूता ससम्मान उसके चरण-कमलों तक पहुँचाया गया या कि वो मजबूर बन्दा/बन्दी (स्त्री का बराबर का हक़ होता है, न) पैर घिसटते हुए ही काल-कोठरी तक गया। वैसे मोजा देना तो बनता है, भले ही मुँह पर फेंककर दो क्योंकि हम 'बदला युग' (exchange & revenge era) में रह रहे हैं।  

अचानक हमारे यादों के सागर में हमारे प्रेरणास्रोत प्यारे गुल्लू जी, बोले तो अपने 'गुलज़ार सर' की तस्वीर दिखाई देने लगी। उन्होंने जब "इब्न-ए-बतूता....बगल में जूता" लिखा था,तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा, कि लोग उनकी इस बात को इतनी गंभीरता से लेंगे. पर आजकल की खबरों में ऐसी बातें कितनी आम हो गईं हैं,कि हमें भी हैरत है!

हमने तो बचपन से ही "मुँह में राम, बगल में छुरी" वाली कहावत सुनी थी, ये 'जूता' तो आजकल बगल में आने लगा है। वैसे आइडिया ठीक-सा ही है...'मार भी दो और मर्डर भी ना हो' धत्त, छिः छि:,ये भी कोई बात हुई, घटिया सोच! "हे ईश्वर, हमें माफ़ मत करना...क्योंकि हमें पता है कि हम क्या कर रहे हैं!" :( 
पर सच्ची, हमें लगता है,कि आने वाले दिनों में इस विषय पर निबंध आ सकता है। ज़रा सोचिए तो! 'रामू ने राजू को जूता मारा' विषय पर कैसे लिख सकते हैं? घबराओ मत, हमरा जन्म इन्हीं समस्याओं को निबटाने को हुआ है, बताते हैं......

सबसे पहले तो इस खेल के नियम-
*सबसे ज़रूरी नियम तो ये है कि जूता हर पार्टी का होना चाहिए। बेईमानी नहीं कि हमारा टर्न ही न आए! 
*हर बार एक अलग पार्टी का बंदा दूसरे को मारेगा, जिससे मीडिया वालों को अच्छा और निष्पक्ष कवरेज मिले! 
*जूता देशी हो या विदेशी, पहले ही तय कर लो. वरना जनता विदेशी प्रभाव का आरोप लगा सकती है! 
*जूते का टाइप भी निश्चित हो, मतलब; बरसाती हो,लेदर का हो, स्पोर्ट्स हो या केनवास, क्यूँकि सबसे अलग-अलग तरह की चोटें लगती हैं। दर्द बांटना होता है, वो भी बराबर!इसलिए अनियमितता के चक्करों में कौन पड़े भाई! 
*मारे गये जूते 'राष्ट्रीय संपत्ति' का हिस्सा माने जाएँगे! 
*ज़रूरत पड़ने पर एक 'जूता-संग्रहालय' भी बनाया जाएगा, जिससे आम जनता को इसकी पूरी एवं सचित्र जानकारी हो..कि किसने, कब और कहाँ इसका प्रयोग किया था!

अब खिलाड़ी बनने के नियम -
*मारने वाले की लंबाई ज़्यादा होनी चाहिए, जिससे निशाना ठीक से दिखाई दे! 
*वो खुद कमज़ोर हो तो चलेगा, पर जिसे जूता पड़ना है, उसका सीना चौड़ा हो, ताकि लक्ष्य प्राप्ति में कोई अड़चन न आये। 
*अपनी बेइज़्ज़ती के लिए तैयार रहें, कई बार result, on spot declare हो जाते हैं। आपको लात-घूँसों का ईनाम मिल सकता है! जो आगामी चोटों के लिए आपके शरीर को सहनशक्ति प्रदान करता है। 

अदालत में पूछे जाने वाले सवाल -
*जूता नया था या पुराना? हां, रे..इससे मारने वाले की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा होता है! 
*जूते की गति क्या थी? 
*वह शरीर के किस भाग से टकराया? 
*क्या वहीं लगा,जहाँ निशाना साधा था(इससे पता चलता है, कि कहीं मुलज़िम के घर में ऐसी कोई पुरानी परंपरा या आनुवंशिक झोल तो नहीं)!

केस की बानगी -

जूता ही क्यों चुना? 
*जी, सर ! ये आसानी से उपलब्ध था! इसे अलग से ले जाना भी नहीं पड़ता! 
*इसकी ग्रिप भी अच्छी होती है और थ्रो भी! 
*लाइसेन्स भी नहीं लगता, सर! 
वजह क्या थी? 
*क्या ये जूता उसे काट रहा था, और वो दुनिया के सामने उसे नीचा दिखाना चाहता था? 
*कहीं इसने किसी और का जूता तो नहीं इस्तेमाल किया? 
कुछ भी हो सकता है मीलॉर्ड...मुझे तो ये एक सोची समझी साज़िश लगती है।
नहीं.... नहीं...नहीं   
*शायद इसे इस एक जूते से ज़्यादा प्यारी वो दो वक़्त की रोटी थी, जो जेल में मुफ़्त में मिल जाएगी!

विशेष -
हां-हां...यही सच है! 
सब तंग आ गये हैं, ग़रीबी से, बेरोज़गारी से, भ्रष्टाचार से, दंगों से, आगजनी से,
लूट-खसोट से, 
बेकार होते वोट से
तंग आ गये हैं अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वाले राजनीतिक दलों से!
हम किसी पार्टी को नहीं, किसी धर्म को नहीं, बस देश की भलाई को चुनते हैं साहेब
साहेब, ए साहेब, सुनो न साहेब -

"कुछ करो, कि सुधार हो, निस्वार्थ जब सरकार हो!  
संसद चले तो शांति से, और दूर भ्रष्टाचार हो! 
पैसे की जब न मार हो, न कोई बेरोज़गार हो! 
फिर दूसरों के सामने, काहे को अपनी हार हो!"

बहुत हुई ये मारामारी! शांति से बैठकर बात कीजिए न! 'मानहानि' का भी ख़तरा नहीं और न ही 'मनी हानि' का! और क्या 'जूते' सस्ते थोड़े ही न आते हैं आजकल! महंगाई के इस दौर में एक जूता खो जाए, तो लंगड़ाकर कब तक चलेंगे साहेब? अब इस उमर में लंगड़ी खेलते हुए भी अच्छे न लगेंगे हम।  
"मेरा जूता नाम है बाटा 
पहनें इसको गोदरेज, टाटा 
काहे फेंके इसको भैया  
क्यों करवाएं अपना घाटा??"
ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल्ल लला :P 
अब डर तो सिर्फ़ इसी बात का है,कि हमें जूते खरीदने का बड़ा शौक है! कहीं कल के अख़बारों में ये ख़बर न आ जाए, कि 'अज्ञात' जी के यहाँ से जूतों का एक बड़ा ज़ख़ीरा बरामद हुआ! उफ़...तब हमारा क्या होगा...??? मम्मीईईईईई, बुहु,बुहु ,सुबकसुबक ;)

 - प्रीति अज्ञात

मंगलवार, 8 मार्च 2016

मैं सोचती रही, क्या कहूँ उसे...

मैं सोचती रही, क्या कहूँ उसे...

'अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस' की शुभकामनाएँ, बोलना उतना ही आसान है जैसा कि 'स्वतंत्रता दिवस मुबारक़ हो' या अन्य कोई भी दिवस की बधाई देना। लेकिन सब जानते हैं, इस सब की सच्चाई, एक तिथि या अवकाश से ज्यादा कुछ भी नहीं। कभी गौर कीजियेगा, नब्बे प्रतिशत महिलाओं के मुँह से इस बधाई की प्रतिक्रियास्वरुप खिसियाता 'थैंक्स' ऐसे निकलेगा जैसे अस्पताल के बिस्तर पर पड़े किसी बीमार बच्चे को हैप्पी बर्थडे बोल दिया गया हो। पर एक बात यह भी है कि कोई 'विश' करे, अच्छा तो लगता ही है! सच समझे आप, 'स्त्रियों' को समझ पाना इतना आसान नहीं है। स्त्री मन की थाह का अंदाजा, शायद स्त्री को भी नहीं होता। फिर भी इन बातों को समझकर उसे शुभकामनाएँ भेजेंगे, तो उसे अच्छा लगेगा-

आज जिस इंसान पर कोई स्त्री आग-बबूला हो रही है, कल उसी के लिए नम आँखों से दुआ मांगती दिखेगी। क्योंकि उसे परवाह है अपनों की, क्रोध उस खिसियाहट का परिणाम है कि अपनों को उसकी परवाह क्यों नहीं? ये प्रेम है उसका। 
"जाओ, अब तुमसे कभी बात नहीं करुँगी" कहकर दस सेकंड बाद ही सन्देश भेजेगी, "सॉरी यार कॉल करूँ क्या?" क्योंकि वो आपके बिना रह ही नहीं सकती, उसे क़द्र है आपकी उपस्थिति की। ये रिश्तों को निभाने की ज़िद है उसकी।
रात भर सिरहाने बैठ बीमार बच्चे का माथा सहलाती है, कभी अपनी नींदों का हिसाब नहीं लगाती। ये ममता है उसकी।
हिसाब से घर चलाते हुए, भविष्य के लिए पैसे बचाती है और एक दिन वो सारा धन बेहिचक किसी जरूरतमंद को दे आती है। ये दयालुता है उसकी। 
कोई उसकी मदद करे न करे, लेकिन वो सबकी मदद को हमेशा तैयार रहती है। ये संवेदनशीलता है उसकी। 
अपने आँसू भीतर ही समेटकर, दूसरों की आँखें पोंछ उन्हें दिलासा देती है। ये दर्द को समझने की शक्ति है उसकी।
अपनों के लिए ढाल बनकर दुश्मन के सामने खड़ी हो जाती है। ये हिम्मत है उसकी।
बार-बार जाती है, जाकर लौट आती है। इश्क़ है, दीवानगी है उसकी।
एक हद तक सफाई देती है, फिर मौन हो जाती है। गरिमा है उसकी।  
स्वयं की तलाश में, खोयी रही अब तक....कुछ ऐसी ही ज़िंदगानी है उसकी।

स्त्री को कोई अपेक्षा नहीं सिवाय इसके कि उसे 'इंसान' समझा जाए। उसके साथ निर्ममता और क्रूरतापूर्ण व्यवहार न हो। नारी, 'नर' की महिमा है, गरिमा है, ममता की मूरत है, अन्नपूर्णा है, कोमल भाषा है, निर्मल मन और स्वच्छ हृदय है, समर्पिता है. और इन सबसे भी अहम बात वो सिर्फ़ एक ज़िस्म ही नहीं, उसमें जाँ भी बसती है। अपने हिस्से के सम्मान की हक़दार है वो। हमें बदलना ही होगा अपने-आप को, अपनी सोच को, अपने आसपास के माहौल को, नारी को उपभोग की वस्तु समझने वालों की कुत्सित सोच को..अब बिना डरे हुए सामना करना ही होगा उन पापियों का, समाज के झूठे ठेकेदारों का, बेनक़ाब करना है हर घिनौने चेहरे की सच्चाई को..साथ देना होगा, उस नारी का, उम्मीद की लौ जिसकी आँखों में अब भी टिमटिमाती है, जिसे अब भी विश्वास है बदलाव पर! 

वो फूलों को देख प्रसन्न हो जाती है,
हवाओं में मचलकर आँचल लहराती है,
तूफां से न हारी, देखो बिजली-सा टकराती है
बारिश में किसी फसल की तरह लहलहाती है,
खुशी में दीपक बन जगमगाती है
हल्की आहट से बुद्धू बन चौंक जाती है
अकेले में पगली बेवजह गुनगुनाती है 
हँसती है बहुत तो कभी
औंधे मुंह पड़ जाती है 
जाते ही इसके जाने क्यूँ 
घर की नींव हिल जाती है 
मैं सोचती रही, क्या कहूँ उसे....
तभी सामने से एक 'स्त्री' गुजर जाती है 
- प्रीति 'अज्ञात'
http://hastaksher.com/rachna.php?id=346

गुरुवार, 3 मार्च 2016

उन्हें पहले-सा कर दीजिये, प्लीज!

गीली तौलिया को
पलंग पर रखे बिना ही 
सुखा आते हैं आँगन में
चिड़ियों का पानी रखते हुए

सोफे के नीचे छुपे जूते की,
वो बदबूदार मोज़े 
अब चुगलियाँ नहीं करते
कि करें भी किससे  

सारे डिब्बों के ढक्कन भी 
पहले-से टाइट नहीं रहते
जितना वो चिढ़ाने के लिए
अक़्सर किया करते थे

उनकी टेबल व्यवस्थित 
अल्मारी भी सलीके से सजी 
किताबों के ऊपर रखा वो चश्मा
अब बिन कहे कवर में घुस जाता है

अखबार के पन्ने गायब नहीं होते 
रुकी घडी की बैटरी बदल जाती है तुरंत 
आरामकुर्सी पर बैठे हुए बेवक़्त
चाय, पकौड़ों की तलब कब की ख़त्म हुई 

आप लड़तीं थीं न जिनके लिए
देखो न! बग़िया में वही ढेरों गुलाब हैं
गुलमोहर भी खिल उठा है दोबारा
पर एक शिकायत है मेरी तुमसे 

माँ, तुम  क्या गईं 
पापा भी जैसे चले ही गए!
उन्हें पहले-सा कर दीजिये, प्लीज!
 - प्रीति 'अज्ञात'

नानी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद लिखा था कभी, बचपन की डायरी में मिला. 
बनारस से मेरी कई यादें जुडी हैं. पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. मैं और भैया, मम्मी के साथ वहाँ गए थे. डॉक्टर अंकल जब नानी के चेकअप को आते, तो हम दोनों उनके बेड के नीचे छुप जाते थे फिर हमें वहाँ से खदेड़कर निकाला जाता. हमारी उत्सुकता बस यही थी कि नानी को हुआ क्या है! नाना अकेले में रोते क्यों हैं? मैं अपने नाना की बेहद लाड़ली रही हूँ, इतनी कि आज तक मेरे मौसेरे भाई-बहिन इस बात का दुःख मनाते हैं. कुछ को तो नानी की गोद भी न नसीब हो पाई थी. इस मामले में बेहद भाग्यशाली हूँ कि वो सब भी मुझे इतना ही स्नेह देते हैं. खैर… तो मैं नाना से जब भी नानी के बारे में सवाल करती तो वो मुझे भींचकर और भी जोरों से रोने लगते. कहते कुछ भी नहीं थे. कुछ ही दिनों बाद नानी हम सबको छोड़कर चली गईं थीं और उस दिन नाना लिपटकर खूब रोये थे. बार-बार यही कहते रहे बेटा, लीला चली गई. वैसे नानी का नाम निर्मला था, लीला शायद उनका प्यार वाला नाम नाना ने ही कभी रखा होगा. संकोचवश कभी पूछा ही नहीं!

मेरी नानी की मृत्यु जब हुई, वो उम्र नहीं थी जाने की. उनके देहांत के बाद नाना जी, बेहद उदास रहने लगे थे. मन भीगता था मेरा, पर कुछ कह नहीं पाती थी. संभवत: ये मेरे जीवन का पहला हादसा था, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था. उससे पहले कभी सोचा तक नहीं था, मृत्यु की क्रूरता के बारे में. फिर तो फ़ेहरिस्त लम्बी होती चली गई और जीवन, 'मृत्यु की शुरुआत' ही लगने लगा. किसी के दूर चले जाने की पीड़ा अब भी उतनी ही कष्टप्रद होती है, यादें पोटली में जमा होती चली जाती हैं. जिन्हें जब-तक खोल बैठने की मेरी आदत हर एक पल को, पलकों तक ले आती है. भारी ह्रदय, उन तस्वीरों से अपनी बात कहता है. उनकी अनुपस्थिति के लिए उनसे लड़ता भी है और फिर जिम्मेदारियों की एक पुकार सुनते ही उन्हें उठा, मन के किसी हिस्से में पुन: सुरक्षित रख आता है. 

नानी के निधन के समय बहुत छोटी थी मैं, पर उसका असर बहुत गहरा था. मम्मी, मौसी, मामा सबको उनकी याद में रोता देखती तो अपना मुंह कसकर भींच लेती. कुछ-न-कुछ फ़रमाईश कर विषय बदलने की कोशिश भी करती. बढ़ते समय के साथ, कुछ शब्द लिखे थे कभी, पर नानाजी को दिखाने की हिम्मत न हुई. अब तो उन्हें गुजरे हुए भी दो दशक होने को आये. आज भी उनकी याद आँखें नम कर देती है. मेरी उनसे बहुत जमती थी, हम दोनों एक-दूसरे को खूब पत्र लिखते थे. उन दिनों साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग में जब मेरा लिखा छपा तो न जाने किस-किसको गर्व के साथ बताते थे. कई बार तो इतनी तारीफ करते कि मैं संकोच से गड जाती. गर्मियों की छुट्टियों की मेरी सबसे खूबसूरत यादें उन्हीं के साथ हैं.

वो पक्के दोस्त थे मेरे, हम एक-दूसरे से सारी बातें साझा करते. कितना कुछ शेष हैं, जो मैं उनसे कहना चाहती हूँ अभी. मैं जानती हूँ, वो एकदम से अपनी दोनों हथेलियों को मेरे कानों से चिपकाकर वैसे ही हँसते हुए मुझे हवा में उठा लेंगे और बोलेंगे 'सुर्री...सर्रर्ररर' फिर सब ठीक हो जायेगा.

* 'सुर्री' माने कुकर की सीटी का बजते हुए ऊपर उठ जाना. जहाँ तक मेरा मानना है, यह शब्द या तो नाना ने मेरे लिए ही बनाया था या फिर छोटे मामा ने. क्योंकि पिछले तीन दशकों से मैंने इसे कभी, कहीं नहीं सुना!
- प्रीति 'अज्ञात'