शनिवार, 29 जून 2019

कैमरा! जान से जानलेवा तक का सफ़र!

यूँ तो मानव मस्तिष्क ही अपने-आप में सारी स्मृतियों को समेटे रखने के लिए पर्याप्त है. आँख मूँदकर बैठो तो बचपन से लेकर अब तक के सारे पलों की तस्वीर खिंचती चली जाती है. हँसी-ख़ुशी के पल, नाच-गाना, भाई-बहिनों के साथ मारकुटाई, झगड़ा, दोस्तों के साथ मस्ती और भी जाने क्या-क्या; सब किसी लाइट एन्ड साउंड शो की तरह चलने लगते हैं. लेकिन फिर भी तस्वीरों की अपनी एक ख़ास अहमियत होती है कि इसे आप सबके साथ बाँट सकते हैं. जब जी चाहे, देख सकते हैं. याद है न जब घर में album खोलकर बैठते हैं तो कैसे सारा घर इकट्ठा होकर हर तस्वीर की कहानी सुनाने बैठ जाता है और फिर घंटों उन्हीं स्मृतियों के पृष्ठ पलटते गुजर जाते हैं. कितना अच्छा महसूस होता है उस एल्बम को देखने के बाद!
सच! तस्वीरों ने हम सबको जोड़ रखा है. समुंदर पास की कहानी, पहाड़ पर चढ़ने की कहानी, जंगल में पेड़ की शाखा से झूलने के किस्से, पार्क, बाज़ार, फिल्म या यायावरी से जुड़ी तमाम बातें बस एक ही क्लिक से सामने आ जाती हैं. तभी तो कहते हैं, 'तस्वीरें बोलती हैं'.
  
कैमरा!! कितना सहज, सरल उपकरण लगता है लेकिन दो दशक पहले तक आम आदमी के लिए ये भी लक्ज़री ही था. इसकी विकास यात्रा के हम सब साक्षी हैं. विशिष्ट अवसरों पर सपरिवार फोटो खिंचाने जाना एक इवेंट की तरह होता था या फिर विवाह योग्य होते ही लड़के-लड़की की तस्वीर स्टूडियो में खींची जाती थी. बैकग्राउंड के लिए कश्मीर की सुरम्य वादियों से लेकर नकली ताजमहल तक के परदे उपलब्ध होते थे वहाँ.  ब्याह-शादी में तीन-चार किलो की भारी-भरकम एल्बम बनती (अभी भी बनती है) थी जिसे देखने का सब ख़ूब बेसब्री से इंतज़ार करते. 

बहुत बड़े या फिर मूवी कैमरे हुआ करते थे जिनका प्रयोग आसान नहीं था. कहीं घूमने जाते (दुर्लभ था उन दिनों) तो टूरिस्ट स्पॉट पर फोटोग्राफर हुआ करते थे. उनसे ही विभिन्न अदाओं में तस्वीरें खिंचवाई जातीं. बाक़ी किस्से बिना तस्वीरों के ही मसाला डाल सुना दिए जाते थे. आनंद और उत्साह से छलकते उन किस्सों का भी एक अलग रस था. अब उनमें वो मजा नहीं और उन फोटोग्राफरों का  व्यवसाय भी समाप्तप्राय: है.
बाद में बच्चों के लिए टॉय कैमरा आया और हैंडी कैमरा आने के बाद हम जैसे अनाड़ी भी स्वयं को फोटोग्राफर समझने की गफ़लत में रहने लगे. राह अब भी आसान नहीं थी. फोटो खींचने के बाद, नेगेटिव के रोल को डेवलप कराने स्टूडियो देने जाना पड़ता और फिर वही हफ़्तों का चक्कर. ये चक्कर उतने ही दुखदायी होते थे जितने कि दर्ज़ी लोग लगवाते हैं. देखने के बाद और दुःख होता क्योंकि आधे फोटो तो ख़राब ही हो जाते पर पैसे पूरे लगते. इस तरह यह शौक़, बहुधा शोक में भी बदल जाया करता था. 
डिजिटल कैमरे के आगमन ने क्रांति ला दी. तब तक लोन कंपनियों ने भी अच्छी पैठ बना ली थी. मध्यम वर्ग के लिए अब कैमरा भी भौतिक प्राथमिकताओं की सूची में प्रवेश कर चुका था. 

इस समय हम मोबाइल के महान दौर में जी रहे हैं जहाँ मोबाइल खरीदते समय बाक़ी सुविधाओं से ज्यादा अच्छे कैमरे पर जोर दिया जाने लगा है, पिक्चर क्वालिटी, ज़ूम इत्यादि. स्वार्थ की हद ही समझिये इसे कि अब सभी का फोकस स्वयं पर अधिक रहता है.  सेल्फी इसी का परिणाम है. अब किसी को किसी की ज़रूरत ही नहीं! बस, मुँह बिचकाया और क्लिक कर दिया.  
कहीं-कहीं मोबाइल कैमरा निजता का हनन भी करता है और इससे सम्बंधित कोई कानून शायद बना ही नहीं है.
मोबाइल के इसी कैमरे से कितनी घटनाएँ वायरल होने लगी हैं. नेताओं की गद्दी पर बन आई है तो कहीं अपराध को बढ़ावा भी मिलने लगा है. अगर ये कहा जाए कि कुछ लोग इसे हथियार की तरह उपयोग में लेने लगे हैं तो भी ग़लत न होगा!
इंटरनेट के सुविधाजनक ऑफर्स के कारण कैमरे का प्रयोग आवश्यकता से अधिक होने लगा है और यह दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुका है. पर कहते हैं कि अति हर चीज़ की बुरी होती है. हालत यह है कि सेल्फी के चक्कर में पिछले सात वर्षों में हमारे देश के 259 लोगों की मृत्यु हो चुकी है. ये उपकरण जो हम सबका प्यारा हुआ करता है, अब जानलेवा भी हो गया है. लेकिन दोष किसका है? कहाँ से कहाँ आ गए हैं हम?
कैमरा हमारे सुखद पलों को सँजोने के लिए है कि हम उम्रभर उस उल्लास को बनाए रखें. आज 'राष्ट्रीय कैमरा दिवस' पर ढूँढ निकालिए अपनी सबसे शानदार तस्वीर या फिर सामने वाले से मुस्कुराकर कहिये कि बोलो cheese, कुछ यहाँ भी 'श्री' बोलने की सिफ़ारिश करते हैं. मैं कहती हूँ दांत निपोरते हुए 'ही ही' बोलिए जी!
- प्रीति 'अज्ञात'
#राष्ट्रीय_कैमरा_दिवस

शुक्रवार, 21 जून 2019

बाबा की बेंत

बाबा की चमचमाती, सुन्दर, गोल घुण्डीनुमा बेंत जाने कितने ही काम आती थी। शैतान बच्चों की टोली इसकी खटखट सुनते ही गद्दों और चारपाई के नीचे साँसें रोक दुबक जाती, फिर इसी बेंत की घुंडी में उनकी टांग फँसाकर उन्हें बाहर निकाला जाता। उसके बाद पूरा घर किलकारियों से घंटों यूँ गूँजता रहता जैसे कि दीवारों ने हँसी ने घुँघरू पहन रखे हों। बच्चे डरते कहाँ थे इस बेंत से, उन्हें तो इसे थामे दादाजी का स्नेह भरा हाथ और भी लम्बा लगता था। वे कभी बाबा की पीठ पर झूला झूलते तो कभी उनकी गोदी में जा बैठते। 

उन दिनों ये बेंत सबके लिए बहुत उपयोगी हुआ करती थी। कभी बिल्ली तो कभी बन्दर भगाने के भी खूब काम आती। कौन विश्वास करेगा भला कि तब रेगुलेटर खराब होने पर इससे घुमाकर पंखा तक चल जाया करता था! वैसे इसकी पहुँच दूर-दूर तक थी। पड़ोस वाले अंकल जी के बेटे राहुल को जब-जब बगिया से आम या नींबू तोड़ने होते तो तुरंत आवाज देता, "छोटू, जरा बेंत तो दे यार!"
छोटू अपनी महत्ता देख तुरंत गर्व से भर उठता। दौड़कर दादाजी के पास जाता और अपनी गोल-गोल आँखों में प्रसन्नता के हजार पंख लिए पूछता, "बाबा, ले जाऊँ न?"
यह प्रश्न पूछना एक औपचारिकता भर ही होती थी। बाबा के उत्तर देने की प्रतीक्षा करे बिना ही वह बेंत लेकर भाग उठता। बाबा भी अरे, अरे कह उसे रोकने का नाटक भर करते और दिल में खूब आशीष देते।

छोटू जिस तीव्र गति से जाता, उतनी ही गति से लौट भी आता था। वो हमेशा शर्ट को गोलमोल करता ही लौटता और उन तहों को खोलते ही सब तरफ फल बिखर जाते।
बाबा हमेशा टोकते, "क्यों रे, बेंत देने गया था या फल लेने?"
छोटू सीना चौड़ाकर इतराता, "पता है, राहुल भैया ने दिए हैं। बेंत के हुक में कट से अटकाकर झट से इत्ते सारे फल तोड़ लेते हैं। सारे अकेले कैसे खाएंगे?" उसके भोलेपन और गोल बटननुमा आँखों को मटकाते हुए चहकने के अंदाज़ पर बाबा निहाल हो उठते। 

इधर घर की बहुएँ भी इसकी ठकठक सुन 'बाबूजी आ गए' कह सहज ही घूँघट खींच खुसपुस ख़ूब चुहलबाज़ियाँ करतीं। उनके लिए ये बाबा की उपस्थिति की सूचक थी, सम्मान थी। 
दरअस्ल ये बेंत, बस बेंत भर नहीं थी और न बाबा का सहारा थी। उन्हें तो इसकी आवश्यकता तक न थी पर दादी के गुजर जाने के बाद इससे एक रिश्ता-सा जोड़ लिया था उन्होंने। इसे खूब चमकाकर रखते। जहाँ भी जाते, हमेशा साथ ले जाते। उनके जीवन का जरुरी हिस्सा बन गई थी ये। 

बाबा अब बीमार रहने लगे थे। लेकिन अपनी बेंत को सिरहाने रख सोना कभी न भूलते। कभी रह भी जाती तो तुरंत ही किसी न किसी को आवाज़ दे पास रखवा लेते, तब ही उन्हें चैन की नींद आती। छोटे बच्चे गुदगुदाते हुए कहते कि "बाबा, ये बेंत लोरी भी सुनाती है क्या? जैसे दादी हमें सुनाया करती थीं?" दादी का ज़िक्र आते ही बाबा की आँखें 
भर आतीं और रुंधे गले से हमेशा एक ही उत्तर देते, "बेटा, तेरी दादी  सा कोई न हो सकेगा। चकरघिन्नी सी लगी रहती थी दिन-रात। न जाने फिर भी इतना हँस कैसे लेती थी!" बाबा की उदासी देख बच्चे उनसे लिपट जाया करते थे। यूँ वो इन गहरी बातों का मर्म ज्यादा समझ तो नहीं पाते थे। 

बेंत थी, तो जैसे ऊर्जा थी घर में! घर दिन-रात चहकता। बड़ा मान, बड़ा रौब था इसका। इससे जुड़ी शैतानियाँ थीं, अनगिनत किस्से-कहानियाँ थीं। 
फिर एक दिन बाबा ऐसे सोये कि उठे ही नहीं! बाबा गए तो जैसे बेंत की आत्मा भी चली गई। बच्चों को तोड़फोड़ में मजा कम आने लगा। छोटू को अब फल तोड़ने में कोई आनंद नहीं आता था। बहुएँ चुपचाप अपनी-अपनी रसोई बनातीं और कमरे में चली जातीं। धीरे-धीरे हर बात पर लड़ाई-झगड़े होने लगे और कभी किलकारियों से गूँजता ये घर अब गहन उदासीनता से भर सायं-सायं कर काटने को दौड़ता।

एक दिन वसीयत पढ़ी गई। हर वस्तु का बँटवारा हुआ।
लेकिन उसके बाद सीढ़ियों के नीचे बने खाँचे में उपेक्षित पड़ी, वर्षों धूल खाती रही ये बेंत।  
फिर एक दिन माली काका ने इसे भुतहा घोषित कर दिया गया। 
-प्रीति 'अज्ञात' 

गुरुवार, 20 जून 2019

प्रकृति, पर्यावरण और पृथ्वी

प्रकृति के इंद्रधनुष से सजी इस सृष्टि को जब-जब निहारते हैं, इसे दाता के रूप में ही पाते आये हैं। सदियों से ये धरती हम सबका भार सह रही है। नदी, पहाड़, झरने, वनस्पति इन सभी ने मिलकर जीवन संभव किया। सूरज ने ऊर्जा भरी सुबह देकर हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी तो चाँद ने थके हुए मनुष्य को अपनी नर्म बाँहों की सुकून भरी थपकी देकर उसकी हर थकान को दूर किया। प्राणवायु साँसों को अबाध गति प्रदान करती रही। सदियों से अडिग खड़े पहाड़ों को देख इच्छाशक्ति को और भी दृढ़ता प्राप्त होती है एवं इनसे गुज़रती हिमनदी हृदय में भीतर ग़ज़ब का आत्मविश्वास भर देती है। बहते पानी की आवाज़ किसी नवजात शिशु की किलकारी बन खूब हिलोरें मारती है। इन रास्तों से गुज़रते हुए हॅंसते-झूमते फूलों और चहकते पक्षियों का दर्शन जीवन के प्रफुल्लित भाव और सुन्दर होने की अनुभूति का जीवंत प्रमाण बन प्रस्तुत होता है। कभी जंगलनुमा स्थानों में भटककर देखें तो यहाँ सारे पेड़ किसी बातूनी दोस्त की तरह गले मिलते हैं। उन पर फुदकते पक्षी कुछ इस तरह से मस्ती और उल्लास से भरे लगते हैं जैसे मायके आकर लड़कियाँ चहकती, इतराती घूमती हैं। कभी-कभी तो यूँ भी महसूस होता है कि किस्से-कहानियों से निकल; वो अलादीन का जिन्न या कोई सुन्दर-सी परी भी अभी सामने आ खड़ी होगी और हाथ थाम; हमें वहाँ की सबसे अनोखी मीठी झील के पास छोड़ आएगी।
वस्तुतः प्रकृति ने हर तरफ से अपने स्नेहांचल में हमें घेरे रखा है। फल-फूल से लदी झुकी हुई डालियाँ और उन पर मंडराते हुए भँवरे किसका मन नहीं मोह लेते! नदी के किनारे घंटों यूँ ही बैठे रहना, कभी आसमान में टहलते बादलों की आकृतियों को समझना तो कभी पानी में उनकी छवि निहारना, प्रकृति प्रेमियों के हृदय को अपार शीतलता प्रदान करता है।
मनुष्य जाति पर यह वो ऋण है, जो हम कभी चुका नहीं सकते लेकिन इसको सहेजकर धन्यवाद अवश्य दे सकते हैं। 

दुर्भाग्यपूर्ण है कि धन्यवाद देना तो दूर, हम तो इसका उचित प्रकार से संरक्षण भी न कर सके। आज धरती का अस्तित्व ख़तरे में है। वायुमंडल में जो भीषण प्रतिकूल परिवर्तन हुए हैं और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में जिसका परिणाम विश्वभर को झेलना पड़ रहा है, वह मानव के कुकृत्यों की ही देन है। 
हमने तालाबों का पानी चुरा लिया, उन्हें पाटकर भवन बना लिए। रसायनों के बहाव से नदियों को विषैला कर दिया, बारिश से उसके हिस्से की माटी छीन उस ज़मीन पर सीमेंट-कंक्रीट से भर अपना पट्टा लगा लिया, पानी के तमाम जलस्त्रोतों को नष्ट कर दिया। जंगलों को ऊँची इमारतों की तस्वीर दे दी, कीटनाशकों के अधिकाधिक प्रयोग, मिलों, कारखानों, वाहनों से बाहर निकलने वाले धुएं तथा विषैली गैसों से वायु को प्रदूषित किया। प्रकृति का जितना और जिस हद तक दोहन कर सकते थे; किया। अब हमारे पास अपना कहने को अधिक कुछ शेष नहीं है।

ये मासूम पक्षी; जो हर वृक्ष को अपना घर समझ हमारी सुबह-शाम रोशन करते हैं। जो सुबह की पहली धूप के साथ हमारे आँगन में चहचहाहट बन उतरते हैं, जो किसी बच्चे की तरह खिड़कियों से लटक सैकड़ों करतब किया करते हैं, जो अलगनी को अपने बाग़ का झूला समझ दिन-रात फुदकते हैं। हमने इन्हें क्या दिया? आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर हम इनके भी घर छीन रहे हैं। जंगलों को काटकर हमने न जाने कितने जीव-जंतुओं को बेघर कर दिया। समाचार में देखकर चिंता व्यक्त करते हैं कि "जानवर शहर में घुस आया!" नहीं! वो उसका ही घर था। उनकी जमीन पर अतिक्रमण के दोषी हम हैं। जब जंगल लगातार कटते जायेंगे तो कहाँ जायेंगे ये जीव-जन्तु? इनके बिना ये दुनिया कितनी सन्नाटे भरी होगी, इसकी कल्पनामात्र सिहरा देने के लिए काफ़ी है। इनकी प्रजातियाँ यूँ ही विलुप्त नहीं हो रहीं। अपितु मानवीय स्वार्थ की बलि चढ़ रही हैं। पारिस्थितिक तंत्र के इस असंतुलन ने ही पर्यावरण सम्बन्धी समस्त समस्याओं को जन्म दिया है।

इस हरियाली का जीवन कितना नि:स्वार्थ है। हरीतिमा से आच्छादित, फूल-फल से लदे वृक्ष बिन कहे ही सकारात्मक सन्देश दे जाते हैं। ये मुसाफिरों को छाया देते हैं, अपनेपन का एहसास कराते हैं, बिन किराए, कुछ पल निश्चिंतता से बैठने की सुविधा देते हैं। इन्हें अपने होने का मतलब पता है, ये शिकायत नहीं करते, ये जानते हुए भी कि कोई राहगीर पलटकर उनकी तरफ वापिस कभी नहीं आएगा। उन्हें यह भी पता है कि दिन की चटक रोशनी में ही हमें उनकी ज़रूरत महसूस होती है और एक दिन कुल्हाड़ी के तीक्ष्ण प्रहार से उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा। लेकिन फिर भी उसकी शाखाएँ सदैव आलिंगन की मुद्रा में ही दिखेंगी। वृक्ष बचेंगे तो डालियों से झूलते झूले की परंपरा बनी रहेगी और बच्चों का खिलंदड़पन नित नई उड़ान भरेगा। संस्कृति जगमगा उठेगी। 

पानी की कितनी कमी है और जल-स्तर भी लगातार घटता जा रहा है, इस दुखद तथ्य से हम सब भली-भाँति परिचित हैं। लेकिन औद्योगीकरण और बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए एक अदद घर का रोना लेकर हम इस बात को भूलते हुए लगातार जंगल काटते आ रहे हैं कि वृक्ष और मिट्टी के बिना बारिश का पानी पक्की ज़मीन कहाँ से सोखेगी? ऐसे में जल-स्तर घटना तय ही है जब उसे बढ़ाने के सारे माध्यमों का मुँह हम ही बंद कर रहे हैं। जल के प्रदूषित होने और गाँवों-शहरों में इसके निकास की समस्या और उससे पनपती बीमारियों की जो गाथा है सो अलग! यह इस भू-मंडल पर रहने वाले प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है कि उसे पीने के लिए स्वच्छ जल मिले लेकिन विडंबना देखिये कि मनुष्य ही इसकी अनुपलब्धता के लिए उत्तरदायी भी है। दो-ढाई दशक पूर्व की ही बात करें तो हमारे देश में 'पानी के व्यवसाय' का अस्तित्त्व तक नहीं था और न ही इसके शुद्धिकरण की कोई आवश्यकता ही थी। कब धीरे-धीरे हम सबके घरों में प्यूरीफायर लग गए या बोतलबंद पानी आने लगा; पता भी नहीं चला। पानी को शुद्ध बनाने, इसकी पैकेजिंग और इसे बेचने के लिए तमाम कम्पनियाँ बनती चली गईं और इसके विज्ञापन भी सराहे जाने लगे। लेकिन मूल समस्या अब भी जस-की-तस है। विकास के नाम पर जितना शोषण इस धरती का किया गया है उसके दुष्परिणाम अब दृष्टिगोचर होने लगे हैं। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह स्थिति जितनी भयावह होगी, इससे निबटना उतना ही दुष्कर भी रहेगा। 

पर्यावरण से सामंजस्य बिठाये बिना मानव सभ्यता के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। प्रत्येक क्षेत्र विशेष में वहाँ की परिस्थितियों के अनुकूल ही वनस्पतियों का विकास तथा जीव-जंतुओं का आवास तय होता है। प्रतिकूल पर्यावरण में पादप-समूहों तथा जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं अथवा उनकी प्राकृतिक क्रिया में अवरोध उत्पन्न होता है। इस विषम परिस्थिति का सीधा प्रभाव वहाँ की कृषि, अन्य उद्योग एवं मानवीय जीवन पर पड़ता है। जितनी लापरवाही से हम सब नष्ट करते जायेंगे उतने ही दुरूह परिणामों का मिलना भी तय है। 

प्रकृति की प्रकृति में कुछ भी नहीं बदला। बस, मनुष्य ही खोटा निकला! हमें प्रकृति जैसा बनना होगा। इससे जीने की प्रेरणा लेनी होगी।
आसमान सिखाता है कि माँ के आँचल का अर्थ क्या है।
पहाड़ सच्चे दोस्त की तरह, किसी अपने के लिए डटकर खड़े रहने की बात कहते हैं।
सहनशक्ति धरती से सीखनी होगी।
प्रेम क्या होता है और बिना किसी अपेक्षा के अगाध स्नेह कैसे किया जाता है, किसी के दुख में साथ कैसे दिया जाता है; इस कला को पशु-पक्षियों से बेहतर कोई नहीं जानता।
कट-कटकर गिरने के बाद फिर कैसे बार-बार उठना है, आगे बढ़ना है; जीवन का यह पाठ पौधे सिखाते हैं। जब तक ये जीवित हैं  प्राणवायु भी देते हैं कि हमारे अस्तित्त्व को ख़तरा न रहे!
धूप, हवा, पानी से दान की प्रसन्नता महसूस करनी होगी। 
सभ्यता, बीजों और माटी से समझनी होगी जो उगने के लिए धूप और पोषक तत्त्व साझा करते हैं। 

यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो ही मनुष्यता को पा सकेंगे। उसके पश्चात् ही प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षित होने की आशा रख सकते हैं। सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं जब तक कि हम मनुष्यों की सोच निज हितों से ऊपर न उठे। जिन कारणों से पर्यावरण को हानि पहुँच रही है उन क्रियाकलापों का उचित प्रबंधन होना आवश्यक है साथ ही पर्यावरण संरक्षण हेतु जनमानस को जागरूक एवं सचेत भी करना होगा। 
सृष्टि ने हमें वो सब दिया जो इस धरती को स्वर्ग बना सकता था लेकिन हम उसे प्लास्टिक और विषैले पदार्थों से भर अपनी असभ्यता का परिचय देते रहे। परिस्थितियाँ इतनी विकट हो चुकी हैं कि अब वैश्विक स्तर पर यह घनघोर चिंता का विषय बन चुका है। यहाँ तक कि पृथ्वी के समाप्त होने की तिथि भी आये दिन घोषित होने लगी है। 

समय तेजी से आगे बढ़ रहा है पर अभी बीता नहीं! हम सब को अपनी इस धरा से प्रेम है और जब तक ये प्रेम जीवित है तब तक पृथ्वी के बचे रहने की उम्मीद क़ायम है। यदि प्रेम ही ख़तरे में है तो फिर यूँ ही जीकर करेंगे भी क्या और किसके लिए! झरनों में जो संगीत है, नदी की जो कलकल है, पहाड़ों से लिपटी जो बर्फ़ है, तारों से खिलखिलाता जो आकाश है, ये बाँहें फैलाए जो वृक्ष खड़े हैं और फूलों की ये सुगंध जिसे घृणा की हजारों जंजीरें भी अब तक बाँध नहीं सकी हैं, ये पक्षी जो आसपास फुदकते, चहचहाते हैं..यही प्रेम है, यही हमारी प्यारी पृथ्वी है। यह हमारी वो विरासत है जिसे हमें आने वाली नस्लों के लिए सुरक्षित रख छोड़ना है कि वे जब इस दुनिया में आयें तो ये उन्हें भी इतनी ही सुन्दर दिखाई दे जिसके प्रत्यक्षदर्शी हम सब रहे हैं। 
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चलते-चलते: मुज़फ्फरपुर में मस्तिष्क ज्वर (इंसेफेलाइटिस) के शिकार बच्चों की असमय मृत्यु ने व्यवस्था का एक और कुरूप चेहरा प्रस्तुत किया है जहाँ प्रशासन या तो मौन है या फिर 'लीची' को दोषी ठहराकर हाथ झाड़े जा रहे हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि कोई फल नहीं बल्कि उस पर हुए कीटनाशकों या फिर जहाँ ये उगाई जा रहीं हैं; उन क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक कीटनाशकों का प्रयोग इन मौतों का कारण हो सकता है। 2014 में कुपोषण भी इसका ज़िम्मेदार ठहराया गया था। उस समय टीकाकरण तथा अस्पतालों में और सुविधाएँ देने की तमाम घोषणाएँ भी की गईं थीं। अगर वे कागज़ी घोषणाएँ न होतीं तो शायद  मुज़फ्फरपुर की ये तस्वीर इतनी दुखदायी नहीं होती! 
आम जनता बार-बार भूल जाती है कि घोषणाएँ, चुनाव जीतने के लिए की जाती हैं और इनका यथार्थ से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता! काश! सरकार और प्रशासन से बस इतना भर ही हो सके कि देश का कोई बच्चा भूखा न सोये, उसके शरीर में पानी की कमी न हो और आसपास का वातावरण स्वच्छ हो! इसके लिए जनता को भी जागरूक होना पड़ेगा। 
वे बच्चे जिनको लेकर माँ-पिता हजार सपने पाल लेते हैं और बुजुर्ग जिनको पुचकार रोज बलैयाँ लेते हैं। आज उनके घरों में सिसकियाँ हैं, मातम है और सिस्टम से न भिड़ पाने की अंतहीन बेबसी! वे अपनी उस ग़रीबी को भी बारम्बार कोस रहे होंगे जिसकी नियति में अव्यवस्थाओं के चलते केवल और केवल अपनी बलि देना लिखा है। अगले चुनाव की पहली आहट पर, संवेदनहीन नेता इनका प्रयोग पक्ष/विपक्ष के लिए अवश्य करेंगे। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं होना! हाँ, बस ये मौतें आँकड़ा बन रह जानी है, भविष्य में तुलनात्मक अध्ययन के लिए।
-©प्रीति अज्ञात
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* हस्ताक्षर जून 2019 सम्पादकीय

https://hastaksher.com/world-environment-day/


बुधवार, 12 जून 2019

ए मेरे दिल कहीं और चल!

जब कभी पहाड़ों को देखती हूँ तो अपनी इच्छाशक्ति को और भी दृढ़ होते हुए पाती हूँ। इनसे गुजरती हिमनदी भीतर ग़ज़ब का आत्मविश्वास  भर देती है। बहते पानी की आवाज़ किसी नवजात शिशु की किलकारी बन खूब हिलोरें मारती हैं। इन रास्तों से गुजरते हुए जब हॅंसते झूमते फूलों और चहकते पक्षियों को देखती हूँ तो जीवन के खुशनुमा होने का अहसास जीवंत हो उठता है।
लेकिन दस दिनों के बाद जब असल दुनिया में वापिस लौटती  हूँ तो लगता है कि ये जाने कहाँ आ गई हूँ। वो कौन सी दुनिया थी जहाँ के पेड़, पौधे, नदी, पहाड़ सब खुश थे और जहाँ जाकर मैं फिर कहीं और नहीं जाना चाहती! और ये कौन सी दुनिया है जहाँ की तस्वीर में हर बार और भी बदसूरत और बदनुमा दाग लगे मिलते हैं! लेकिन जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा इसी में काटना है।
यक़ीन मानिये तमाम कठिनाइयों के बावजूद भी जीवन जंगलों में है, नदी में है, पहाड़ों में है। उसके अलावा जो भी है सब बेहद विकृत, स्वार्थी कुटिल मानसिकता और बेहूदगी से भरा पड़ा है। हम सब इस बेहूदगी के जिम्मेदार हैं और कुछ हद तक सहभागी भी।
हमने प्रेम को नफ़रतों में बदलना सीख लिया है लेकिन नफ़रत को प्रेम में बदलने की कोशिश कभी नहीं की। जिन्होंने की, वे भावुक मूर्ख माने गए और गहरे अवसाद में डूबते चले गए। 
धीरे-धीरे ये सबके साथ होगा!
अन्याय, अधर्म और असत्य के विरुद्ध चीखते रहने के बाद एक वो भी दौर आएगा जब हम हारकर चुप्पी साध लेंगे या अपनी आवाज़ खो बैठेंगे।
मुझे लगता है हम इसी गूँगे-बहरे समाज की स्थापना की ओर अग्रसर हो रहे हैं। ऐसा नहीं कि हमें फ़र्क नहीं पड़ता.....बहुत पड़ता है। लेकिन इसने हमारा सुख चैन छीन लिया है।
अगर चैन से जीना है तो अपना नंबर लगने तक पत्थर हो जाइए।
- प्रीति 'अज्ञात'

#नेपालयात्रा-1

बहुत सालों पहले एक फ़िल्म आई थी, 'महान'. उस फ़िल्म में ऐसा कुछ भी महान नहीं था पर चूँकि अपने लंबू की थी तो देखना जरूरी ही था। उसी का एक गीत 'प्यार में दिल पे मार दे गोली, ले ले मेरी जान' उन दिनों बेहद पॉपुलर हुआ था। टोटल बक़वास गीत था पर थोड़ा सकुचाते हुए स्वीकार कर ही लेती हूँ कि उस समय मुझे भी ये ख़ूब पसंद था। मुझे इस गाने की लोकेशन ने प्रभावित किया था और तबसे मैंने ठान लिया था कि अपने को भी एक दिन इसी जगह खड़े होकर ये वाला गीत गाना है। खी खी मत कीजियेगा, बच्चे थे अपन तब। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इसी का एक और गीत 'जिधर देखूँ तेरी तस्वीर नज़र आती है' का Sad version तब भी शानदार लगता था और अब भी। लिंक दे रही हूँ, समय मिले तो सुन लीजियेगा। 
पर हाँ, उस समय बात और ख़्वाहिश दोनों आई गई हो गई।

बाद में पता चला कि ये मूवी नेपाल में शूट हुई है तो जैसे उम्मीद पर घड़ों पानी फिर गया क्योंकि उन दिनों प्लेन में बैठना तो दूर उसे देखना भी बड़ा मुश्किल हुआ करता था। मुझे याद है कि जैसे ही हेलीकॉप्टर या प्लेन के गुजरने की आवाज सुनाई देती थी, मैं और मेरा भाई पूरी ताक़त और गति के साथ सीढ़ियों से दौड़ते हुए छत पर जा पहुँचते थे और फिर धुँए की लक़ीर देखकर ही खुश हो जाते थे कि देखो इधर से गया था।
ख़ैर! ये सब तो पुरानी बात थी। इसके बाद तीन वर्ष फ्लोरिडा(अमेरिका) में रही। फिर बैंकॉक, दुबई की यात्राएँ भी हुईं लेकिन नेपाल जाने की तमन्ना बरक़रार रही। आलम ये था कि एक दिन मैंने पतिदेव से कहा कि लिखकर दो 'अपन नेपाल चलेंगे' और लिखवाकर वो पर्ची भी अगली लड़ाई में इस्तेमाल करने के इरादे से संभालकर रख ली थी।
अबकी मम्मी पापा के विवाह की पचासवीं वर्षगाँठ पर हम सबने साथ घूमने का प्लान किया। मेरी प्राथमिकता सूची में मिज़ोरम या हिमाचल प्रदेश थे पर साहब की छुट्टियों की दुविधा के कारण कुछ तय नहीं हो पा रहा था। बेटा भी अपना प्रोजेक्ट निबटाकर 3 जून रात को यहाँ आने वाला था, 4 उसे तैयारी के लिए चाहिए था और बेटी के स्कूल 10 जून से खुल रहे थे। मैं स्वयं अपनी पुस्तक के सिलसिले में बाहर थी तो 5 से पहले मेरा जाना भी संभव नहीं था। अब इतने कम समय में कहाँ जाएँ और कब घूमें! 
ऐसे में अचानक पतिदेव का ये कहना कि "चलो, नेपाल चलते हैं। वही ट्रिप संभव है।" सुनकर मेरी तो बाँछें ही खिल गईं और वर्षों पुरानी तमन्ना अचानक ही पूरी हो गई वो भी तब जबकि वो मेरी सूची में थी भी नहीं!
यात्रा और घुमक्कड़ी के अपने तमाम मीठे-नमकीन किस्से हैं। धीमे-धीमे कभी वो भी लिख ही डालूँगी। ये बात तो बस ये बताने को लिखी है कि "किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो....... ब्लाह ब्लाह ब्लाह।"
- प्रीति 'अज्ञात' #नेपालयात्रा #काठमांडू #Nepal #Kathmandu
#Nepal_trip_part_1

https://www.youtube.com/watch?v=6H3ZX-w7sVQ