गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

नारायण दभालकर का परम परोपकार राजनेताओं औेर राष्ट्र के लिए शर्म का विषय!

एक खबर कई बार सामने आ चुकी है कि कैसे नागपुर में एक 85 वर्षीय बुज़ुर्ग नारायण दभालकर ने अस्पताल में अपना बेड एक युवक को दे दिया और उसके प्राणों की रक्षा करते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया. इस खबर को राजनेता किस मुंह से सोशल मीडिया पर प्रसारित कर रहे हैं? हर मरीज को बेड उपलब्ध न कराने वाला तंत्र शर्मसार क्यों नहीं होता? निश्चित तौर पर किसी की जीवन रक्षा हेतु अपने प्राण त्याग देना, संवेदनशीलता और त्याग की पराकाष्ठा है. यूं भी हमारी सांस्कृतिक विरासत इतनी समृद्ध है कि वहां त्याग और बलिदान की कई कहानियां सुनने-पढ़ने को मिलती आई हैं.

भारत जैसे विशाल देश में इन कहानियों ने ही हमारे संस्कार और सभ्यता की नींव रखी है. चाहे वह श्रीराम हों, ऋषि दधीचि या फिर नचिकेता और ऐसे ही जाने कितने अनगिनत नाम, जिनकी कहानियों को सुनकर मन आश्चर्य से भर जाता है. हमारे स्वार्थी हृदय को तो सहसा विश्वास भी नहीं होता! लेकिन वो सब सच है परंतु सतयुग का!

कलयुग में ऐसा विरले ही देखने में आया है. स्व. श्री नारायण जी ने जो किया, उसके हम सब साक्षी बने हैं. यह घटना इसलिए भी उल्लेखनीय है कि इस समय कोरोना ने मनुष्य के सामाजिक मूल्यों और नैतिकता को पूर्ण रूप से ध्वस्त कर रखा है. देश के कई स्थानों से नकली इंजेक्शन बनाने, दवाओं की कालाबाज़ारी, और मरीज़ों से दुर्व्यवहार की खबरें सामने आ रही हैं.

साथ ही हम ये भी देख रहे हैं कि एक बेड के इंतज़ाम में परिजन कैसे चक्कर काट रहे हैं और इस कठिन समय में मनुष्य सिवाय अपनी जान बचाने के और कुछ भी सोच नहीं पा रहा है, ऐसे में किसी का स्वेच्छा से अपना बेड छोड़ किसी और मरीज़ को दे देना, इस कृत्य को अत्यंत सराहनीय और उस व्यक्ति को ईश्वरतुल्य बना देता है. उन बुज़ुर्ग सज्जन के बड़प्पन की जितनी भी प्रशंसा की जाए वो कम है.

नारायण जी की मौत, राजनेताओं के लिए डूब मरने वाली बात
निश्चित तौर से इस अतुलनीय त्याग की इस पूरी घटना पर हमारा भाव-विह्वल होना स्वाभाविक है. लेकिन हमें एक पल को भी नहीं भूलना चाहिए कि 'अगर बेड होता तो वे बच भी सकते थे'. त्याग और बलिदान अपनी जगह है लेकिन किसी भी देशवासी के लिए इससे अधिक शर्मिंदगी की बात और क्या हो सकती है कि 'चूंकि अस्पताल में बेड उपलब्ध नहीं है, इस कारण कोई वृद्ध स्वेच्छा से मृत्यु-वरण कर ले!

एक तंत्र के लिए यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय होता है जब एक देह के त्याग करने से दूसरी देह की रक्षा का प्रबंध हो रहा हो! क्या मृत्यु को महिमामंडित करने के स्थान पर हमें 'सिस्टम' से सीधे-सीधे प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि इलाज के अभाव में किसी व्यक्ति की जान कैसे चली गई? क्या इस तरह की मृत्यु अनैतिक नहीं लगती?

इस पूरे घटनाक्रम में किसी का कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता? क्या हर जीवन बहुमूल्य नहीं होता? तो फिर ये कैसा अद्भुत 'सिस्टम' है जो हर मृत्यु को उत्सव में परिवर्तित कर देता है! हम आयु के आधार पर जीवन की महत्ता का निर्धारण करेंगे? या कि इस अवधारणा को संपुष्ट समझें कि जब भी कोई गंभीर परिस्थिति आए तो बलि अधिक आयु वाला ही देगा?

डूब मर जाना चाहिए इस तंत्र को जो किसी की मृत्यु पर 'सॉरी' बोलने के स्थान पर आपसे केवल गौरवशाली अनुभव करने की बात करता है. यदि हम सब भी मात्र इसी भाव में डूब गदगद होते रहे तो व्यवस्थाओं में सुधार की उम्मीद हमेशा के लिए भूल जाना बेहतर है. आइए, तंत्र की असफलताओं पर गर्व करें और त्याग के नए प्रतिमान गढ़ने को तैयार हो जाएं. 
नम आंखों से, स्व.श्री नारायण जी को विनम्र श्रद्धांजलि.
 - प्रीति अज्ञात 
29 अप्रैल 2021 

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क्या कोरोना को हराने में 'सिस्टम' से हुई ये 7 बड़ी भूलें?

जैसे ही नए ऑक्सीजन प्लांट लगने और उसकी आपूर्ति के समाचार आने शुरू हुए, भक्त लहालोट होने लगे हैं और उन्होंने 'मोहैतोमुहै' कहकर अपनी खींसे निपोरना शुरू कर दिया है. हाँ, हर बार की तरह इस बार भी वे भूल जाना चाहते हैं कि ये रायता माननीय का ही फैलाया हुआ है और अब वे उसे समेटने में लगे हैं. पर क्या करें? दरअसल गलती उनकी नहीं बल्कि  'सिस्टम' की है. 

सरकारी आंकड़ों का काला सच इससे भी पता चलता है कि जिन मरीज़ों की मृत्यु अस्पताल में हुई, बस उन्हें ही गिना जा रहा है. यानी यदि आप अस्पताल की देहरी पर बैठ इलाज़ के इंतज़ार में, एम्बुलेंस में या घर में इस बीमारी के चलते मृत्युलोक सिधार जाते हैं तो आप कोरोना के शिकार नहीं माने जाएंगे. परिजनों को ये मान लेना होगा कि आप हृदयाघात से मरे, मस्तिष्क रक्तस्राव (ब्रेन हेमरेज) से मरे या क्या पता, आत्महत्या ही कर ली हो! मैं ये तो नहीं कहूँगी कि घर में बैठने की सलाह इसलिए ही दी जा रही है कि आँकड़े कम शर्मनाक हों और हम दुनिया को मुँह दिखाने के क़ाबिल रह सकें लेकिन इतना जरूर कहूँगी कि सतर्क रहिए क्योंकि आपदा प्रबंधन के नए पैमाने गड़े जा चुके हैं. 

आवश्यकता से अधिक उत्सव प्रेमी 
कोरोना ने जब इस देश में प्रवेश किया था तो थाली, ताली और मोमबत्ती के आयोजन किये गए, जिसमें हम सभी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. साथ ही 'आपदा में अवसर' का सूत्र भी थमा दिया गया था. जिसे पहली लहर में मरीजों के अंग निकालकर बेचने, उनके गहने लूटने और दूसरी लहर में दवा और इंजेक्शन की कालाबाज़ारी ने एक शर्मिंदगी भरे जुमले में बदल दिया है. अब यह वाक्य नकारात्मक समाचार के साथ जुड़ चुका है. 
जब महामारी का असर कम होने लगा तो ये नहीं देखा कि बाकी देशों में दूसरी लहर का आगमन हो चुका है. यहाँ कोरोना को हराकर विश्व गुरु बनने का ताज पहना जाने लगा, वैक्सीन बनने की खुशियां मनाई जाने लगीं और इस गंभीर तथ्य को भूल गए कि हम कोरोनमुक्त देश तब बनेंगे जब 135 करोड़ भारतीयों को ये टीका लग जाएगा. लेकिन चुनाव की जल्दबाज़ी और विजेता के मद में, न तो टेस्टिंग बढ़ाने पर जोर दिया गया और न ही अन्य चिकित्सकीय व्यवस्थाओं को प्राथमिकता!

वैसे तो अपुनिच भगवान है!
जहां श्रेय लूटने की बात आती है, सरकार छाती ठोक 'हमने किया, हमने किया' का गीत गाने लगती है. मानो, वैसे तो ये काम किसी और का रहा होगा लेकिन हाय रे हमारा सौभाग्य! कि इन्होंने कर दिखाया. लोग तो इस खुशी में ही बावले हुए फिरते हैं. जनता नतमस्तक हो जाती है कि प्रभु! हम पर आपके द्वारा ये जो एहसान कर दिया गया है, उससे उऋण कैसे होंगे! 
भैया, ओ भैया! आपको काम करने के लिए ही बेहद विश्वास और बहुमत के साथ चुना गया है. तो जब नाकामी हाथ लगे तो इसका ठीकरा 'सिस्टम' पर मत फोड़ो! क्योंकि ये 'सिस्टम' आपके कहे पर ही चलता आ रहा है. 

जरूरत से सौ गुना अधिक मीडिया प्रबंधन 
सारे चैनल दिन-रात किसकी बंसी बजा रहे,अब ये कोई राज की बात रह नहीं गई है. कभी-कभार आत्मा धिक्कारे, तो सच बोलने की कोशिश भी करते हैं पर उनकी टर्मिनोलॉजी बदल जाती है. अब माननीय का नाम बदलकर 'सिस्टम' कर दिया जाता है. वैसे अन्य संदर्भों में सिस्टम वो शय है जिसे नेहरू जी ने खराब कर रखा है.  
बेचारा, मजबूर 'सिस्टम', स्तुतिगान का पक्षधर है और इस संगीत का भरपूर आनंद लेता है पर उसका दिल बड़ा नाजुक है जी! इसलिए सुर बदलते देख संबंधित विषय की पोस्ट पर प्रतिबंध लगा देता है. बोले तो, 'न रहेगा बाँस... न बजेगी बाँसुरी'. तभी तो, जब हालात बिगड़ने लगे और दुनिया भर में थू-थू होने लगी तो ऑक्सीजन पहुँचाने का ऑर्डर देने से पहले सोशल मीडिया पर कोरोना से सम्बंधित पोस्ट करने वालों पर कार्यवाही करने का ऑर्डर आ गया. अपने आलोचकों का मुँह बंद करने का यही एकमात्र खिसियाना और बचकाना तरीका रह गया है. हालांकि ये यूपी वाले बाबूजी के ठोकने और गाड़ी पलटाने के तरीके से कहीं बेहतर और अहिंसक है. अब भई, इतनी तारीफ़ तो करनी ही पड़ेगी. 
काश! ऐसे ही आपदा प्रबंधन भी कर लिया होता!

जनता की नब्ज़ पर तो हाथ रखा पर दिल टटोलना भूल गए!
वो जनता जो शिक्षा और रोज़गार की बात करती थी, जो भ्रष्टाचार और गरीबी से मुक्ति चाहती थी, जिसने अव्यवस्थाओं के आगे घुटने टेक दिए थे और 2014 से अपनी आँखों में तमाम सपने भर एक बदलाव की अपेक्षा करने लगी थी, उस जनता की आँखें मूँद दी गईं. उन्हें देशभक्त और देशद्रोही की शिक्षा दी गई. आपस में भिड़ाया गया. फिर एक जगमगाते मंदिर की नींव रख ये यक़ीन दिलाया गया कि तुम यही तो चाहते थे. राष्ट्रवादी जनता फिर दीवानी हो उठी. 
आज वही जनता रोते-बिलखते हुए अस्पताल की मांग करती है, चरमराई चिकित्सा व्यवस्था को देख दिन रात तड़पती है पर शिकायत करे भी तो किस मुँह से? हमने अस्पताल कब मांगे? मंदिर ही तो मांगा था, सो मिल गया! 
हाँ, आप इसे भारतीयों की आस्था से न जोड़ लीजिएगा, यहाँ बात केवल और केवल प्राथमिकता की है
'अयोध्या की तो झांकी है/ मथुरा, काशी बाकी है' कहने वालों से मुझे कोई आपत्ति नहीं, न ही राम मंदिर या लौह पुरुष की भव्य मूर्ति से. ये हमारे देश और संस्कृति की पहचान हैं लेकिन अगली बार जब चुनाव हों तो भले ही यही लोग सत्ता में रहें पर आप उनसे अपना हक़ जरूर मांगना. अच्छे अस्पताल और शिक्षा की बात जरूर करना और ये भी याद दिलाना न भूलना कि जीवन चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो, पर इस सिस्टम के हाथों ऐसी निर्दयी मौत कभी न हो!

मसीहा बनने का चस्का
'मोहैतोमुहै' का नारा यूँ ही नहीं बना है. अच्छी खासी रेसिपी है इसकी. पहले किसी समस्या को इतना बढ़ने दो कि देश में त्राहिमाम मच जाए. फिर 'अँधेरी रातों में, सुनसान राहों पर...एक मसीहा निकलता है' की धुन पर इठलाते हुए ठीक 8 बजे टीवी पर अवतरित हो जाओ. फिर एक ऐसी बात कह दो कि जनता स्वयं को धन्य महसूस करने लगे और सारे गिले शिकवे भूल जाए.  
ये ठीक ऐसा ही ही है कि 99 लोगों को मरने दो और 100 वें का नंबर आते ही हीरो स्टाइल में एंट्री लो और उसे बचा लो. फिर बचाने के महान उपकार का वर्णन कुछ इस तरह करो कि जनता अपने भाग्य को सराहने लगे. 
और जो ये प्रश्न पूछे कि उन 99 मौतों का हिसाब कौन देगा? तो उसे देशद्रोही कहकर अपमानित करने के लिए आईटी सेल पहले से ही चाक-चौबंद है. प्रजातंत्र का ऐसा अपमान पहले कभी नहीं देखा. 

कथनी और करनी में अंतर 
आप गमछा बाँधकर टीवी पर तो खूब आए और बहुत ज्ञान भी बांटा लेकिन अफ़सोस कि स्वयं उसे अपनाने में बुरी तरह से विफल हुए. 'दो गज की दूरी, मास्क जरूरी और सोशल डिस्टेंसिंग' का ब्रह्मवाक्य, बंगाल चुनाव की किसी भी रैली में आपके मुखमंडल से एक बार भी उच्चरित नहीं हुआ. क्योंकि आपको तो ठसाठस भरी भीड़ को देखने का सुख लेना था, उनकी तालियों की गड़गड़ाहट से अपनी छाती को और चौड़ाना था. आप हों या आपके बाल सखा, सभी अहंकारी मुस्कान लिए, बिना मास्क लोगों के बीच घूमते रहे.  उस समय ऐसा लग रहा था जैसे आप किसी  कोरोना मुक्त ग्रह पर विचरण कर रहे हों. हाँ, ये बात अलग है कि वहाँ के आँकड़े जब आएंगे तो सारा ठीकरा दीदी के सर फोड़ दिया जाएगा. 
'छोड़ो दो गज की दूरी, अब चुनाव है जरूरी' के व्यवहार ने ये भी बता दिया कि आपने देश हित से ऊपर स्वयं को रखा. यही नहीं बल्कि इसके साथ-साथ कुंभ में लाखों लोगों को  एकत्रित कर जनता की आस्थाओं को भी सहलाते रहे. जनता ने पहले लॉक डाउन में आपके कहे अनुसार सब किया तो अब वो आपको यूं भीड़ में बोलता देख स्वयं भीड़ बनने से क्योँ सकुचाए?

'आत्मनिर्भर भारत' अब जुमला कम, श्राप अधिक लगता है! 
मात्र कोविड महामारी ने ही हम भारतीयों को दुख नहीं दिया बल्कि कई परिवारों ने उस दर्द को भी सहा है जिसका एहसास उनकी आने वाली पीढ़ियों तक शेष रहेगा. ये लोग पहले एम्बुलेंस की तलाश में दर-दर भटके, फिर अस्पताल की देहरियों पर माथा टेका, उसके बाद बेड की तलाश में नाक रगड़ते रहे, फिर दवाई और ऑक्सीजन सिलिन्डर के लिए गिड़गिड़ाए. कुछ ऐसे अभागे भी रहे जो सारी पूंजी खर्च करने के बाद किसी अपने की अर्थी लिए, श्मशान की प्रतीक्षा पंक्ति में टोकन लिए खड़े हो खून के आँसू बहाते रहे. 'आत्मनिर्भर भारत' के ऐसे अश्लील रूप की कल्पना भी न की थी हमने!
हम वाकई इस सिस्टम से हार चुके हैं. 
- प्रीति अज्ञात 
27 अप्रैल 2021 को iChowk में प्रकाशित

वो दिन हम ही ला सकते हैं!

 इन दिनों जिधर देखो, प्रतीक्षा है. एक ऐसी प्रतीक्षा, जो ईश्वर करे कि किसी के हिस्से में कभी न आये! आदमी बीमार है लेकिन बीमारी पता करने के लिए एक लम्बी लाइन है. टेस्ट हो गया तो उसकी रिपोर्ट के लिए भी प्रतीक्षा करनी होगी. कोरोना पॉजिटिव निकले तो अस्पतालों के दरवाजे खटखटाने होंगे, जहाँ बेड के लिए फिर उसी अंतहीन लाइन से जूझना होगा. हो सकता है किसी अस्पताल की लॉबी में या सड़क किनारे कहीं आपका ठिकाना बना दिया जाए. हालत गंभीर हुई तो इंजेक्शन और ऑक्सीजन के इंतज़ाम के लिए दर बदर ठोकरें खानी होंगी. एम्बुलेंस भी न जाने मिलेगी या नहीं! लेकिन इतने पर भी दुर्भाग्य पीछा नहीं छोड़ने वाला क्योंकि जो साँसें टूटीं तो मृत्यु बाद भी यह प्रतीक्षा जारी रहेगी. लाश रखने की जगह अब कम पड़ने लगी है तो उन्हें सामान की तरह एक-दूसरे पर रखा जा रहा है. सड़ती हैं तो सड़ा करें, क्या करें अस्पताल वाले!

अभी तो कहानी और भी है क्योंकि इसके बाद श्मशान घाट पर भी आपकी मृत देह को एक टोकन मिलेगा और जब नंबर आएगा, तब ही आपका जैसे-तैसे अंतिम संस्कार हो सकेगा. कहीं पुरानी क़ब्रों को खोदकर किया जा रहा तो कहीं यूँ ही फेंक भी दिया जाता है क्योंकि अपनी जान सबको प्यारी होती ही है तो कभी-कभी घरवाले ही घबरा जाते हैं. कहीं लकड़ियों की भी कमी हो रही.
ये बात पढ़ने में जितनी क्रूर लग रही, सच्चाई उससे कहीं अधिक कठिन और भयावह है. लेकिन ऐसा असहाय मनुष्य पहले कभी न देखा होगा आपने! वो अस्पताल की देहरी पर दम तोड़ती उम्मीदों के साथ वहीं कहीं, दीवारों पर सिर मारते रह जाता है, चीखता चिल्लाता है. जाने वाले को पुकारता रह जाता है लेकिन जो गया है वो लौटकर कभी नहीं आ पाता! ये एक ऐसी बेबसी है जिससे लाखों परिवार जूझ रहे हैं.
बहुत सी बातें हैं जो इस समय दिमाग़ में घूम रही हैं. न जाने कितनी कह पाऊँगी और कितनी अनकही रह जाएंगी. लेकिन सच तो यह है कि जिस कोविड महामारी ने पिछले वर्ष दस्तक़ दी थी इस बार इसके क़हर से बच पाना मुश्किल हो रहा है. आप कितने भी बड़े तोप हों या किसी भी उम्र के, ये वायरस सबको निगलने को तैयार है. इधर आप अपनी तैयारियों में ढीले पड़े और उधर इसने सेंध बना ली.
हम हमारी जर्जर व्यवस्था पर आँसू बहा सकते हैं, स्वयं बीमार होने या परिजनों को लेकर भटकते हुए हम चिकित्सा व्यवस्था को कोस सकते हैं, प्रशासन पर प्रश्न उठा सकते हैं, सरकार पर आरोप मढ़ सकते हैं. हम मास्क, सैनिटाइज़र और सोशल डिस्टेंसिंग का मज़ाक उड़ा सकते हैं. उनसे होने वाली असुविधाओं पर घंटों बात कर सकते हैं. वैक्सीन न लगाने के पक्ष में ललित निबंध लिख सकते हैं. मोदी-राहुल, कुम्भ-तबलीगी ज़मात पर घंटों बहस कर सकते हैं, चुनाव होने, न होने पर पर गहरा वक्तव्य बाँच सकते हैं. लेकिन इससे हमें मिलेगा क्या? और अब तक क्या पा लिया है हमने? यक़ीन मानिए, कोविड वायरस इन सब बातों से बेअसर है. वो आपके राजनीतिक रुझान को समझ नहीं पाता और आपकी मूर्खताओं पर हँसते हुए पीछे से आकर चुपचाप आपका गला दबोच लेता है.
हमारे हाथ में इतना ही है कि हम वैक्सीन लगवाएं, मास्क का उपयोग करें, अपनी सुरक्षा पर स्वयं ध्यान दें. उसके बाद अगर बीमार हो भी गए तो इस वायरस को हराने की उम्मीद बढ़ जाती है. हमारी जान, हमारे अपनों के लिए बहुत क़ीमती है. हम इसे बचाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं. इस महामारी से मुक्त दुनिया में मनुष्य चैन की साँसें ले सकें, वो दिन भी हम ही ला सकते हैं. ईश्वर सबको सुरक्षित रखे. 🙏
18 अप्रैल 2021 को MP MediaPoint में प्रकाशित

Remdesivir Injection: कोरोना मरीजों के लिए संजीवनी इंजेक्शन, दवाई भी-लड़ाई भी!

'दवाई भी और कड़ाई भी', कहने को तो देश के बच्चे-बच्चे को यह आदर्श वाक्य रट चुका है. लेकिन जब कोविड उपचार में जीवनरक्षक रेमडेसिविर (Remdesivir) इंजेक्शन की बात आए तो यह एकदम खोखला प्रतीत होता है. 'न दवाई है, न कड़ाई है'. जो सामने दिख रहा है, वो केवल 'दवाई के लिए हो रही लड़ाई' ही है. हालात ये हैं कि इस इंजेक्शन की एक डोज़ का मिलना भी मुश्क़िल दिख रहा है, जबकि गंभीर स्थिति वाले मरीज के लिए छह इंजेक्शन का डोज़ अनिवार्य है. ऐसे में इसे पाना कितना जरुरी है ये केवल उस मरीज़ के परिजन ही समझ सकते हैं. फिलहाल तो दुआ कीजिए कि चुनाव निबटें तो शायद सरकार की नज़र इन ‘छोटे-मोटे’ मुद्दों पर पड़ जाए!

विडंबना यह भी है कि एक तरफ मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने पर जोर दिया जा रहा है. कहीं तो मास्क न पहनने पर मार-मारकर अधमरा छोड़ देने तक की ख़बरें भी चर्चा में हैं तो वहीं इस बात की भी समुचित व्यवस्था है कि इस इंजेक्शन को पाने के लिए लोग कैसे टूट पड़ें और मारामारी पर उतारू हो जाएँ. बीते कुछ दिनों के समाचार इसके साक्षी हैं.  हाँ, हमारे देश में नेताओं के लिए कोई नियम क़ायदे लागू नहीं होते हैं, वो तो जहाँ जाएंगे छुट्टा मुँह ही! और आपका ये फ़र्ज़ बनता है कि ये साब लोग जहाँ भी मिलें, आप रुलबुक फाड़कर उन्हें सलाम करना न भूलें. देश में वायरस फैलाने के लिए इनके अतुलनीय योगदान के चर्चे अब सदियों तलक होते रहेंगे.

खैर! मुद्दा यह है कि कहने को तो देश की कई प्रमुख कंपनियाँ रेमडेसिविर इंजेक्शन बना रही हैं, लेकिन ये जा कहाँ रहे हैं इसकी सूचना से जनता बेख़बर है. धरातल पर इसे पाने के लिए आम आदमी के हिस्से एक बार फिर वही कड़ा संघर्ष ही आया है. क़ीमत की तो चर्चा ही अलग है! किसी के रेट हजारों को पार कर रहे, तो कोई कंपनी हज़ार से कम में भी इसे उपलब्ध कराने का दावा पेश कर रही है. उस पर तुर्रा ये कि यह वही इंजेक्शन है जो कोविड के पहले दौर में लाखों को पार कर गया था. कुल मिलाकर 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' वाला मामला है. सबके अपने-अपने रेट हैं और जो ब्लैक मार्केटिंग कर रहे, उन असुरों के टशन का तो भगवान ही मालिक है.

आपदा में अवसर! 

'आपदा में अवसर' का इससे सुनहरा रूप और क्या होगा कि इधर आपदा आई और उधर धंधे पनपने लगे. 'तुम मरो या जियो' उनकी बला से! जीवनरक्षक इंजेक्शन की मांग और आपूर्ति का अनुपात पूरी तरह से चरमरा चुका है. ऐसे में दवाई की कालाबाज़ारी करने वालों के अच्छे दिन फिर लौट आये हैं. क्योंकि इसे खरीदने को इच्छुक भीड़ का आलम वैसा ही है जैसा कि कभी थिएटर की टिकट खिड़की पर हुआ करता था. पर वो फ़िल्म थी, आज छूटी तो कल देख ली जाएगी! ज्यादा जल्दी हुई तो ब्लैक में टिकट ख़रीद ली. लेकिन साहिब, ये ज़िन्दग़ी है यहाँ खिड़की पर हाथ धरे हुए ही कब साँसों की डोर हाथ से छूट जाए, कौन जानता है! साँसों की कालाबाज़ारी करने से बड़ा पाप भी कोई और नहीं होता! किसी की मजबूरी का लाभ उठाने से बड़ा ग़ुनाह और कुछ नहीं! लेकिन पापियों को अपना पाप, दिखाई ही कब दिया है! दुर्भाग्य ये है कि पूरी प्रक्रिया में जनता ही पिसती है, वही बलि देती आई है, सरकारें ठुड्डी पर हाथ धरे तमाशा देखती रही हैं कि कब पानी सिर के ऊपर से गुज़रे और वे अपना अवतारी रूप ग्रहण कर जनता को धन्य करें. इस बार भी वही हो रहा.

लेकिन आपको इससे क्या लेना-देना!

जिसका कोई अपना जीवन-मृत्यु से जूझ रहा, वह उसे बचाने की ख़ातिर अपनी जान हथेली पर रख मेडिसिन काउंटर पर गिड़गिड़ा रहा है कि किसी भी क़ीमत पर इस इंजेक्शन को हासिल कर ले. लेकिन हालात ये हैं कि हर जगह निराशा, निराशा और फिर उसका अंत करते हुए एक सफ़ेद चादर से सामना होता है. हिम्मत है तो लाशों के ढेर पर बैठ, अच्छे दिनों की इस उजली तस्वीर को क्लिक कर लीजिए जिससे हम सबको भी एक-न-एक दिन रूबरू होना ही है. 

अरे! सराहिए अपने भाग्य को कि आप डॉक्टरी प्रिस्क्रिप्शन को लेकर शहर भर में नाक नहीं रगड़ रहे. ईश्वर को भी धन्यवाद दीजिए कि उन लाखों मृत शरीरों में आपका कोई अपना नहीं था. लेकिन क़ाश आप उस दर्द को महसूस करते तो कम से कम दवाई पाने के लिए सरकार की नाक में दम तो कर देते! हड़तालें करते, ढोल बजाते, अनशन करते! या कि हम केवल दिए जलाने और थाली पीट गौरवान्वित होने को ही बने हैं? कभी शर्मिंदा होंगे इन हालातों पर?

क्या हमने कभी ये 5 सवाल पूछे हैं?

*आख़िर ऐसा क्यों है कि एक ऐसी बीमारी जिसने पिछले डेढ़ वर्षों से पूरे विश्व को जकड़ रखा है, उसके लिए 'क्राइसिस मैनेजमेंट' के नाम पर ज़ीरो बटा सन्नाटा है?

*सरकारी व्यवस्था ऐसी क्यों होती है कि पहले भयावहता दिखाई जाए और फिर 'ये देखो! हमने कर दिखाया' कहकर अहसान की तरह, सम्बंधित दवाई या इंजेक्शन उपलब्ध कराया जाए. 

* किसी समस्या के विकराल रूप धारण करने तक की प्रतीक्षा क्यों होती है? आम आदमी क्यों दर-दर भीख माँगता फिरे? क्या इतनी महत्वपूर्ण और जीवनरक्षक दवाई की उपलब्धता सहज नहीं होना चाहिए या हम हमेशा प्यास लगने पर ही कुंआ खोदते रहेंगे?

* क्या हर चीज़ के लिए 'जुगाड़ तंत्र' ही एकमात्र उपाय है? एक ही दवाई को पाने के लिए, अमीर-ग़रीब के लिए एक सा ही सीधा रास्ता क्यों नहीं होता?

* आम इंसान की लाचारी का फायदा क्यों उठाया जाता है? क्या वो जीवन भर कालाबाज़ारी के दुष्चक्र में पिसने को ही बना है? 

SMS वाले गणितीय सूत्र को कब-कब भूल जाना है?

एक तरफ़ सामाजिक दूरी की बात होती है और वहीं इंजेक्शन और दवाई की ख़ातिर लगी लम्बी लाइनों और मारामारी पर कोई चर्चा नहीं? क्या इस महामारी के दौर में ये सारी दवाइयां हॉस्पिटल के माध्यम से नहीं मिलनी चाहिए? या आम पब्लिक जो अभी इस वायरस से संक्रमित नहीं हुई है, उसे भी इसकी आग में झोंकना जरुरी है? क्या इससे संक्रमण का खतरा और बढ़ नहीं जाता है कि स्वस्थ आदमी  किसी की दवा लेने जाए और भीड़ में कुचलने के बाद संक्रमित होकर लौटे?  

ध्यान रहे, किसी के लिए आपकी मौत एक ख़बर जितनी भी महत्वपूर्ण नहीं है. वैसे ख़बर तो ये भी है कि कोरोना मरीज़ों की मृत्यु दर के आंकड़ों से भी खेला जा रहा है तो हो सकता है आप उन आंकड़ों से भी उड़ा दिए जाएँ. बदनसीब हुए तो क्या पता कि कल को दवाई लेने जाएँ और यही घिसे-पिटे जवाब सुनने पड़ें -

* स्टॉक खत्म हो गया है.

* ऑर्डर किया है, अभी आया नहीं!

* अब इंजेक्शन पेड़ पर तो उगते नहीं है न!

* जी, शिकायत सही मिली, तो काला बाज़ारी करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्यवाही की  जाएगी.  

ख़ैर! जितना हो सके, अपना और अपनों का ध्यान रखें. दवाई की नौबत ही न आने दें. अस्पताल मरीज़ों से पटे पड़े हैं लेकिन प्रशासन ने रात्रिकालीन कर्फ्यू लगाकर कोरोना वायरस को धमका रखा है. अभी तो जहाँ चुनाव हैं, वहाँ के रुझान आने शेष हैं. चुनावी बिगुल में दवाई, कड़ाई, मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग की उड़ती धज्जियों पर कोई ज्ञान नहीं बाँटा जा रहा. शायद कोरोना वायरस के लिए बैरिकेडिंग कर फ़िलहाल उसे सीमाओं पर रोक लिया गया है.

- प्रीति अज्ञात 

8 अप्रैल 2021 को iChowk में प्रकाशित -