बुधवार, 30 दिसंबर 2015

सौदामिनी की याद में.....!


वो अपने पिता की सबसे दुलारी थी. माँ की आँखों का तारा थी. उसका भाई, उसके लिए सारी दुनिया से लड़ सकता था. सब दोस्त उसके हँसमुख स्वभाव के कारण उसे बहुत पसंद करते थे. वो सबकी मदद भी करती थी. यारों की यार थी, जिसका दुश्मन कोई नहीं! उसके प्रेमी ने पिछले तीन साल में चौथी बार उसे फिर प्रपोज़ किया और मुलाक़ात की जगह भी तय हो गई. बस एक कमी थी उसकी.....वो इस दुनिया को न समझ सकी, कई बार धोखा खाने के बावजूद भी वो सब पर आसानी से विश्वास कर लेती थी. पर इस बार के धोखे ने उसकी दुनिया बदल दी. उसके साथ....... 

अब पिता ने घर से निकलना छोड़ दिया था. मेहमानों के आने पर माँ उसे बाहर आने को मना कर देतीं. भाई उसे देख मुंह फेर चला जाता. प्रेमी ने उसे 'अछूत' समझ सदा के लिए नाता तोड़ लिया. 
वो उस दर्दनाक हादसे से उबर सकती थी अगर बाद में उसका इस तरह मानसिक बलात्कार न हुआ होता. जिन अपनों के लिए वो हमेशा डटकर खड़ी रही, आज वही उसे अकेला छोड़ गए. हर सवाल उसके दोषी होने की पुष्टि करता, उसके कपड़ों, तस्वीरों की चर्चा होती और चरित्र पर हजार लांछन लगते. बलात्कारी का चेहरा मीडिया ने भी नहीं दिखाया पर इसके हर रिश्ते की बघिया उधेड़कर रख दी. 

नए साल की दस्तक का स्वागत वो किस उम्मीद से करती? यही सोच उसने आज सुबह ही स्वयं को समाप्त कर दिया. अब वो अचानक महान बन गई है और उसकी याद में दिए जल रहे हैं....
ग़र विवाहिता होती तो शायद रोज तिल-तिलकर मरती....दुनिया उसे जीने नहीं देती और जिम्मेदारियां मरने! पति तलाक़ की तैयारियों में लग गया होता, ससुराल वालों की नाक कट जाती.

क्या दोष परिवार का है? सोच का है? 
ऐसा क्यों है कि पीड़िता को ही जीने की जद्दोज़हद करनी पड़ती है और गुनहगार आसान ज़िन्दगी जीता है?
क्यों स्त्री को अपने अधिकारों के लिए पुरुष का मुंह ताकना पड़ता है?
दोषी पुरुष क्यों आसानी से समाज में स्वीकारा जाता है?

क्या है इज़्ज़त की परिभाषा? जो कपड़े उतारने वाले इंसान से ज्यादा, पीड़िता से छीन ली जाती है. क्या ये कोई सामान है कि कोई लूटकर चला गया? ग़र है तो दोषी लूटने वाला हुआ या कि लुटने वाला?
धिक्कार है, इस तथाकथित सभ्य समाज पर जो पीड़िता के दर्द को समझने की  बजाय, उसके ज़ख्मों को और भी नोच देता है. 
लानत है उन अपनों पर भी, जो उसके साथ खड़े होने के बदले सदा के लिए उससे नाता तोड़ लेते हैं.

आत्महत्या करने से बेहतर है, अपने अपराधियों को उनकी सज़ा देना.
ध्यान रहे, "फूलन देवी, पैदा नहीं होती....समाज बनाता है!"
- प्रीति 'अज्ञात'

* अपवाद होते हैं पर सामान्य तौर पर समाज का यही दृष्टिकोण रहता है.

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

कुछ तो लोग कहेंगे..!

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संवैधानिक अधिकार बताया जाता है और यह है भी। परन्तु सच्चाई सुनने के बाद की तिलमिलाहट भी जगजाहिर है। आख़िर क्या किया जाना चाहिए? इन सब बातों का समाधान बिना चर्चा हुए निकल पाना संभव है क्या? संशय इस बात का भी उतना ही है कि चर्चा करने से भी कुछ परिणाम सामने आ सकेंगे। लेखकों की सरेआम ह्त्या होती है, उनके साथ मारपीट की जाती है, अपराधी खुलेआम घूमते हैं। तमाम शिकायतों के बावजूद कहीं कुछ नहीं होता। ऐसे में निराशा और क्षोभ से भर कुछ साहित्यकार दुखित हृदय से अपना पुरस्कार लौटाने का साहस करते हैं और चंद अति उत्साही लोग उन पर ऐसे टूट पड़ते हैं, जैसे ये पुरस्कार उन्हें उनका मुंह बंद करने के लिए दिया गया था। क्या 'पुरस्कार' पाने के बाद लेखक को उन सभी का ग़ुलाम बन जाना चाहिए, जिन्होंने उसे इस सम्मान के लायक समझा? अब अपनी कलम से उसे सिर्फ उन सबके लिए 'प्रशस्ति-पत्र' बांटने होंगे? (यहाँ बात सत्तारूढ़/ विपक्ष दोनों की है) वो गलत को गलत न कहे? अन्याय को देख आँखें मूँद ले? लेखक, लिखता है। प्रशंसा, उसके शब्दों की होती है और पुरस्कार भी इसीलिए ही मिलते रहे हैं(ऐसा विश्वास आम जनता का होता है), लेकिन जब उसकी लेखनी पर ही प्रहार होने लगें तो उसके पास विरोध का कौन सा माध्यम शेष रहता है? लेखनी तो उससे छूट नहीं सकती और वो भारी हृदय से उस पुरस्कार को लौटाने का निर्णय लेता है। इसका राजनीति से क्या और कैसा तआल्लुक? दुर्भाग्य से यदि कोई नाता है तो ये अपने-आप में उन सारी संस्थाओं और प्रतिभाओं के अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न बनकर उभरेगा, जिसकी जवाबदेही हर हाल में बनती ही है। यहाँ प्रश्न पाठकों, समर्थकों की आस्था और अटूट विश्वास का भी है। 

यदि कोई यह कह रहा है कि वो अपने देश में असुरक्षित महसूस कर रहा है तो क्या उसे समवेत स्वर में देशद्रोही क़रार कर देना सही है। क्या हम सचमुच इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में अपराध होते ही नहीं, न हत्या, न बलात्कार, न चोरी, न डाका, न लूटपाट, न झगडे, न आगजनी, न दंगे, न कोई खून-खराबा? क्या हम अन्याय को चुपचाप मुस्कुराकर हर बार झेल लेते हैं? कोई कभी कुछ नहीं कहता और न पलटवार करता है? हाँ, हम शांतिप्रिय हैं इसलिए हम अपराधियों को भी शरण देते हैं और सरेआम गोलियां बरसाने वाले आतंकवादी को भी वर्षों जेल में रख खूब-आवभगत कर उसकी सजा तय कर पाते हैं। कभी-कभी माफ़ भी कर देते हैं....पर इससे हौसले किसके बुलंद होते हैं? उन विघटनकारी ताक़तों और आतताइयों के ही तो!
दरअसल हमारी महानता ये है कि, हम अपनी दिनचर्या में यूँ वापिस लौट आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो कहीं! इतनी सहिष्णुता और उदारता देखी है कहीं?

बीते माह भी 'बीफ-बवाल' ने ख़ूब बवाल मचाया। आम भारतीय का ह्रदय इस कुतर्क को सुन तआज्जुब से भर जाता है कि वेदों ने गाय की वकालत ख़ूब की है और इंसानी मौत का वहाँ कोई ज़िक्र नहीं! पर इस बीच यह सच धुंधला जाता है कि बताने वालों ने पृष्ठों का चुनाव अपनी सुविधा से किया है।
दुःख होता है ये देखकर कि किसी धर्म विशेष के उल्लेख के साथ ही अब हर बात की चर्चा होती है कि फलाने धर्म के इतने लोग मरे, उनके इतने! इन्होंने उनके लोगों का धर्मांतरण कराया और और उन्होंने इनका! अत्यंत चिंता और विमर्श का विषय है कि ये बात सिर्फ इन धर्मों का झंडा लहराने वाले धर्मगुरु या सीधे-सीधे कहूँ तो, हिमायती लोग ही नहीं कर रहे बल्कि हर दल किसी-न-किसी तरह से ये ज़िक्र छेड़ ही देता है।

क्या मृत्यु से होने वाली पीड़ा भी अब धर्म की मोहताज़ हो गई है? गुण-दोष अब कर्म नहीं, धर्म के हिसाब से देखे जाने लगे हैं। हमारे धर्म का नहीं, मतलब हमारा है ही नहीं! इंसानी मौत का क्या? ख़त्म होती इंसानियत का क्या? दुश्मनों से देश की रक्षा की बात तो बहुत दूर, अपनी रोटियाँ सेंकते इन देशभक्षकों का क्या? 
क्षमा चाहूँगी, धर्म के नाम पर अफवाह फैलाने वालों से; पर हुज़ूर ये 'आम सोच' नहीं है। वरना हम रोटियों को हाथ में लिए पहले यह तौलते कि उस खेत की माटी को न जाने किसने सींचा होगा! कौन उस बीज को रोपता होगा! न जाने किसने फसल काटी और बोरों में भरी होगी! कौन जाने किन-किनके हाथों से गुजरकर चक्कियों में पिस ये आटा हम तक पहुंचा है! साहेब, हम रोटी में अन्न-देवता को देखने वाली धरती के लोग हैं, जो इनका x-ray नहीं करते।

आम भारतीय तो, हिन्दू और मुसलमान की रोटियों के बीच की स्वादिष्ट filling* है। बिल्कुल, सैंडविच की तरह। कभी-कभी जब ये filling कम पड़ जाती है तो सुविधानुसार ब्रेड को घी लगाकर गरमा-गरम तवे पर सेंक खाया/खिलाया जाता है (दंगों की राजनीति में यही होता आया है).... सैंडविच का स्वाद सभी ले सकें, इसके लिए Filling का ब्रेड के समानुपाती होना अत्यंत आवश्यक है। वरना इस अवसर का लाभ उठा, अकेली ब्रेड को चबाने की ताक़ में बैठे लोग भी हमारे बीच ही उपस्थित हैं। इसलिए Filling को बढ़ाना अब हमारी नैतिक जिम्मेदारी और इस देश के प्रति कर्तव्य भी बनता है। 

हमारा देश अपनी सच्चाई के लिए अभी भी जाना जाता है, इसकी पवित्रता की दुहाई दी जाती है, यहां की विविधता आज भी पर्यटकों को आकर्षित करती है। 
इसलिए कभी-कभी ये स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हाँ, माहौल बिगड़ भी जाता है। 
ये भी निःसंकोच कह ही देना चाहिए कि हम आपको पूरी सुरक्षा का आश्वासन देते हैं और जो दोषी है ( भले ही मेरा अपना है) उसके ख़िलाफ़ कार्यवाही होगी।
अपने देशवासियों को ढाँढस बंधाने में कोई परेशानी, कभी आनी ही नहीं चाहिए। 
सच बोलने वाले से दुश्मन की तरह का व्यवहार, कैसे सही ठहराया जा सकता है भला!

हमारे घर का कोई सदस्य कभी हमें कहे कि उसे अच्छा नहीं लग रहा या उसका मन ठीक नहीं, तो क्या हम उसे घसीटकर बाहर कर देते हैं? उसके सिर पर हाथ फेर उसकी समस्या को जानने-सुलझाने की कोशिश नहीं करते? सच की स्वीकारोक्ति और अपनों को आगे बढ़, हाथ थामकर रोकने से बड़ा सुख और कोई नहीं! 'अहंकार' से बड़ा दुःख भी कोई और नहीं! निर्णय हमें ही करना है!

इस पर भी यदि हमें महसूस होता है कि कोई गुनहगार है, तो ये नहीं भूलना चाहिए कि उसने यह बात अपने देश में, अपने ही लोगों के बीच बैठकर उनके पूछे जाने पर कही है…दूसरे देश में जाकर हमारी सभ्यता और संस्कृति का मख़ौल नहीं उड़ाया। भेड़चाल में घुसने से पहले अपने मस्तिष्क को भी इस्तेमाल होने का मौका अवश्य देना चाहिए। हम फिल्म नहीं देखेंगे, उस उत्पाद को इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिसका विज्ञापन फलाने-ढिमके ने किया था। पर उस इंसान को तो अपने कार्य की कीमत मिल चुकी, क्या हम जाने-अनजाने में अपने ही देश का नुक़सान नहीं कर रहे? क्या यह ठीक वैसा ही मूर्खतापूर्ण कृत्य नहीं, जैसा कि कहीं दुर्घटना हो जाने पर उसके आसपास की गाड़ियों या राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट कर अपना रोष प्रकट किये जाने में होता रहा है? हमारे द्वारा चुनी गई उन मजबूत कुर्सियों पर विराजमान "हम तो लड़ाई करते ही नहीं" का वक्तव्य देने वाले राष्ट्र-भक्तों के बीच गाली-गलौज और जूतमपैजार को भी इसी श्रेणी में बेहिचक रखा जा सकता है।

किसी ने किसी बात पर अपनी राय दी नहीं कि "देश छोड़ दो" के नारे लगने लगते हैं। क्यों हम उस इंसान को समझ और पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही निष्कर्ष पर पहुँचने का धैर्य नहीं रख पाते? बात की पूँछ पकड़कर पीटना ओछी मानसिकता का परिचायक है और इस बात का भी कि आप हर उस इंसान को देश से बाहर निकालना चाहते हैं जिसकी राय आपसे अलहदा है। यही दुर्भाग्य है हमारे देश का, कि हम तथ्यों को जाँचे-परखे बिना ही कूदकर जज की कुर्सी पर बैठ जाना ज्यादा पसंद करते हैं और चुनिंदा मीडिया चैनल यहाँ उत्प्रेरक की सजग भूमिका निर्वहन के लिए सदैव तत्पर नज़र आते हैं। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब एक कोरा कागज़ी ढकोसला भर रह गई है? 

एक मजेदार बात भी! कोई नेता अपने विरोधी के गले मिल गया तो उसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया! लोग तो दुश्मनों के भी गले मिलते हैं, उनके विचार भी मिलने लगे हैं ये एक तस्वीर कैसे तय कर सकती है? आप गले मिलें तो भाईचारा, गर हम मिलें तो नागवारा?

आख़िरी बात : मेरी जमीं, मेरी मिट्टी, मेरा शरीर, मेरी सोच, मेरी मानसिकता, मेरा पर्यावरण, मेरा व्यक्तित्व, मेरा धर्म, मेरा समाज, मेरा प्रांत, मेरा देश और इसमें बसी मेरी रूह शत-प्रतिशत भारतीय है। इस पर कभी सवाल न उठाना! मैं विश्व-बंधुत्व भाव का भी हृदय से उतना ही सम्मान करती हूँ। गर्व है मुझे अपनी भारतीयता पर और मैं चाहती हूँ कि प्रत्येक भारतवासी अपने देश का सम्मान करे। लेकिन एक परिवार के सदस्य की तरह, जहाँ कमी लगे वहाँ बिना किसी भय के निःसंकोच बोलने का अधिकार भी उसे उतना ही है। सुधार की गुंजाइश कभी ख़त्म नहीं होती। सकारात्मक परिवर्तन के लिए, विचारों की सकारात्मकता भी उतनी ही आवश्यक है।

चेन्नई में जिस तरह सारा देश एक हो गया है, देखकर गर्व होता है। मुसीबत के समय देशवासियों ने हमेशा एक-दूसरे का साथ दिया है और आगे भी देते ही रहेंगे। ये हमारी अपनी संस्कृति है, इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं। कोई अदृश्य शक्ति गर है, तो उससे यही प्रार्थना है कि एकता दिखाने के लिए हमें कभी प्राकृतिक आपदाओं की आवश्यकता न पड़े। हमारे देश के गौरवशाली अस्तित्व की मिसाल सदैव कायम रहे।
नववर्ष की आहट, गुनगुनी सर्दी की मुस्कुराहट, सर्द-सी कुछ यादें, थोड़ी भुनी मूंगफली और एक कुल्हड़ गरम चाय के साथ
विदा दिसम्बर, विदा 2015 :)
 - प्रीति 'अज्ञात'
http://hastaksher.com/rachna.php?id=230
* Filling(भरावन) ही  लिखा है, feeling नहीं 

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

आह.…मेरे सपनों का भारत!

इतिहास गवाह है, धार्मिकता की आड़ में सबसे ज़्यादा पाप और अत्याचार होते आए हैं। 
अब 'प्रतिबंध' की राजनीति को लेकर सब कटिबद्ध हैं। सोशल-साइट्स पर बैन, फिल्मों पर बैन, पुस्तकों पर बैन और कुछ न बचा तो नौबत खाने-पीने तक आ गई है। वैसे ये शुरुआत 'मैगी' से हो चुकी है, पर तब कारण जायज़ था। इन दिनों शाकाहार बनाम माँसाहार का द्वंद्व, भारत/पाकिस्तान क्रिकेट मैच से भी ज्यादा टी.आर.पी. बटोर रहा है।
 
देखा जाए तो इससे अधिक मूर्खतापूर्ण और कोई घटना हो ही नहीं सकती! जहाँ आपके पड़ोसी या राजनीतिक दलों को आपकी थाली में परोसे भोजन की परवाह है। यदि बर्दाश्त नहीं तो सब अपना-अपना खाइए। न तो एक पक्ष को दूसरे की रसोई में माँस का लोथड़ा घुमाने की आवश्यकता है और न ही दूसरे पक्ष को उनकी थाली से उठाकर बाहर फेंकने की। एक-दूसरे के बर्तनों में झाँकने की तुक ही क्या है? जब जी करे, साथ बैठकर खाईये; न करे तो एक-दूसरे को न तो उलटी करवाएँ और न ही निवाला छीनने की कोशिश करें। फिर भी न समझ आये तो साथ बैठकर खाने की सभ्यता और उल्लास स्कूल के बच्चों से सीखें।
 
सभ्यता, संस्कृति और विकास की बातों के बीच इस तरह की घटनाएँ मन विचलित कर देती हैं। अवसरवादी संगठनों का देशभक्ति की बीन पर, हर बार की तरह इस मुद्दे पर भी ज़हर उगलने का प्रयास जारी है। सिर्फ एक राज्य के जय-जयकारे से, न तो आप आगे बढ़ेंगे और न ही राष्ट्र को बढ़ने देंगे! सवाल यह है कि ओछी मानसिकता वाले इन लोगों पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगता? देश को सुधारने का ठेका लेने वाले कभी खुद 'सुधार-गृह' की सैर पर जाकर जरूर देखें। ताज़ा हवा, उनके मन-मस्तिष्क को एक नई ताज़गी देगी और सकारात्मक सोच की कलियाँ भी अवश्य प्रस्फुटित होंगीं। 
 
'धर्म' के नाम पर हत्या का समर्थन करने वाले लोगों की धार्मिकता का अंदाज़ा उनके इस व्यवहार और दक़ियानूसी सोच से ही लगाया जा सकता है। जिस 'धर्म' की आड़ में ये हिंसक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं, उन धार्मिक ग्रंथों के पन्ने भी तड़पकर रोज फड़फड़ाते होंगे और 'ईश्वर' स्वयं इनके गुनाहों को देख सन्न रह जाता होगा।
अपराधी, 'अपराधी' ही है। बहस, उसके जघन्य कृत्य पर होनी चाहिए। उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता। दोषी या निर्दोष होना क्या अब धर्म तय करेगा? लेकिन अब तक की सभी घटनाओं का सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है कि लोग अपराधी की ज़ात पर पहले गौर करते हैं और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है। 
 
साधु, संत, बाबा, महात्मा, देवी और इस टाइप के सभी अति आदरणीय, महान एवं विशिष्ट देशभक्तों की बढ़ती पैदावार देखकर यह सिद्ध होता है कि इन्हें खाद-पानी देने वाले ज्ञानियों की भी कमी नहीं! इन महाऋषियों के शांत और संयमित स्वभाव का चित्रहार आये दिन किसी-न-किसी चैनल पर प्रसारित होता ही रहता है। बेहतर है इसे भी 'इंडस्ट्री' घोषित कर दिया जाए। जिसे जो बेहतर लगे, उसकी भक्ति में सराबोर होता रहे। फिर जनता को अपने 'लुटे' जाने का इतना अफ़सोस नहीं होगा। सब अपनी मर्ज़ी से फ़ीस चुकाकर बेवकूफ़ बनते रहेंगे। वैसे भी अंत में ये ठीकरा अशिक्षित और मूर्ख जनता के नाम पर ही फोड़ा जाता रहा है। शिक्षित वर्ग की 'क्लास' तो कभी ली ही नहीं गई।  
 
इधर एक दलित परिवार को सरेआम निर्वस्त्र करने की घटना जितनी शर्मनाक और घृणित है उतना ही इसे बार-बार सोशल मीडिया पर शेयर करना भी निंदनीय है। वर्षों से यही होता आ रहा है। जो उन्होंने एक बार किया, आप वही लगातार दोहराकर किस नैतिकता का परिचय दे रहे हैं? कुछ लोग इसके समर्थन में ये बोलते भी दिखाई दिए कि बिना ऐसा करे हमें इनका दर्द समझ नहीं आएगा। सोचिये, यदि ऐसा आपके परिवार के साथ होता तो क्या तब भी आप इतनी ही संवेदनहीनता दिखा पाते? क्या तब आप इन नग्न तस्वीरों और वीडियो से सहानुभूति बटोरने या न्याय मिलने की उम्मीद रखते? नहीं न! सुनते ही मन कैसे बौखला जाता है!
 
क्योंकि यह एक निर्धन और कमजोर वर्ग का किस्सा है, इसलिए इसका तमाशा बनाना सहज है। कोई बड़ा नेता, अभिनेता या उद्योगपति होता तो पैसों और ताक़त के बल पर इसे डिलीट करवा चुका होता। गरीबों का रहनुमा कोई नहीं होता! इस बार भी भीड़ न तो हटी, न ही किसी को रोकने की हिम्मत जुटा पाई। हाँ, निर्लज्जता से इस पूरी घटना को रिकॉर्ड करने की जिम्मेदारी उसे अच्छे से याद रही।

न तो किसी राजनीतिक दल को इस मुद्दे में दिलचस्पी होगी और न ही डिबेट के नाम पर दिन-रात चिंघाड़ने वाले मीडिया हाउस कोई पैनल बनाकर इस पर चर्चा करने वाले हैं। खुद को दबंग और जुझारू कहने वाले अधिकतर पत्रकार भी इन जगहों से चुपचाप निकल आना ज्यादा पसंद करते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर और निर्बल वर्ग की चिंता सिर्फ एक चुनावी सुविधाजनक विषय है। चूँकि इसमें न तो आमदनी है और न ही ख़बरों को बेचने के लिए आवश्यक मसाला, इसीलिए ये ख़बरें अब अत्यधिक आम हो चली हैं। न तो इनकी जांच होगी, न अपराधी को जेल होगी और न ही यहाँ किसी मुआवजे की उम्मीद है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इनका केस लड़ने कोई वकील आगे नहीं आता, कोई F.I.R. दर्ज़ नहीं होती! चीरहरण करने वाले इन दुशासनों के बीच रहते हुए ऐसे न जाने कितने परिवार, कब ख़त्म हो जाते हैं, कब उस घर की महिलाओं की अस्मत के साथ खिलवाड़ होता है , कब उन्हें चाकू से गोदकर उनकी लाश वहीँ सड़ते रहने को छोड़ दी जाती है, इसकी फ़िक्र करने वाला कोई नहीं। इस तरह के 'हादसों' की कहीं कवर स्टोरी नहीं बनती!
 
'न्याय' अब एक बहुमूल्य शब्द है, बिलकुल कोहिनूर हीरे की तरह! इसे पाने की उम्मीद लिए न जाने कितने जीवन नष्ट हो चुके या मौन कर दिए गए! कोई नहीं जानता। जानने से होगा भी क्या? संख्या बढ़ती ही रहेगी और हम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों को पलट, कुछ पल शून्य की तरफ निहारते हुए, मौन हो, भारी मन से उस पुस्तक को पुन: जगमगाते काँच की अल्मारी में रख उदासी-उदासी का पुराना खेल खेलेंगे।
अभी ही टेलीविज़न पर एक 'ब्रेकिंग न्यूज़' फ्लेश हुई, जिसका सार है…"कहीं संगीत को सीमाओं में बाँधने का काम जारी है!"
सामने दिख रही उस पुस्तक का शीर्षक अभी भी अपनी सार्थकता तलाशने को मुँह बाए खड़ा है…'मेरे सपनों का भारत!'
- प्रीति 'अज्ञात'
 'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका, अक्टूबर, 2015 अंक का संपादकीय

शनिवार, 7 नवंबर 2015

नुक्कड़ वार्ता

(दो दोस्त, पॉपकॉर्न खाते हुए) 
उफ्फ, ये कचरा कहाँ फेंकूँ?
वो देख न उधर.…एक खाली रैपर पड़ा है, वहीँ डाल दे.
और नहीं तो क्या! एक हमारे डस्टबिन में डाल देने से कौन सी गंदगी साफ़ होने ही वाली है!
हम्म, वोई तो!
और बता, क्या चल रहा है? 
बस, जी रहे हैं. जैसे-तैसे!
अच्छा, सुन..... पिछले वर्ष जो अपहरण और बलात्कार वाली घटना हुई थी, उसका क्या हुआ ? 
कुछ नहीं, मामला अदालत में है!
हे,हे,हे.....अब तो इलास्टिक की तरह खिंचेगा रे भैया! जोर लगा के हईशा!
हा,हा,हा...पर बड़ी दया आती है न कभी-कभी?
एक हमारे अच्छे बनने से कौन-सा सुधार आने वाला है! जब हम नहीं सुधरे, तो देश क्या सुधरेगा!
सही पकडे हैं!
और वो उसके दो बरस पहले जो वृद्ध जोड़े को लूटपाट के बाद मार दिया था?
उसका भी वही हाल! तारीख़ें, बढ़ती जा रहीं हैं!
सात वर्ष पहले जो ज़िंदा जलाने वाला कांड हुआ था, किसको सज़ा मिली ?
पता नहीं, सुनते हैं एक गवाह मर गया और दूसरा मुक़र गया!
पच्चीस साल पुराना वो जघन्य हत्या का मुक़दमा?
अरे! उसके तो जज़ की ही हत्या हो गई और परिवार वाले न्याय के इंतज़ार में ही चल बसे!
ओह्ह्ह...क्या होगा, हमारे देश का?
हर दिन का अख़बार, अपराधों से भरा होता है.
अरे, फ़िल्में जिम्मेवार हैं इसकी!
पर वो तो समाज का आईना होती हैं न!
हाँ, सो तो है!
दरअसल, सारा दोष system का है, देखो न भ्रष्टाचार कितना बढ़ता जा रहा है? कोई कुछ करता ही नहीं! सब हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं.
तुम्हारे बेटे के एडमिशन का क्या हुआ?
होना क्या था, एक लाख दिए..हो गया! दूसरे लोगों ने तो दो-तीन लाख तक दिए थे!
ओह्ह, फिर तो सस्ते में हो गया!
न जाने रिश्वतखोरों से कब इस देश को मुक्ति मिलेगी?
क्या करें मित्र, बड़ी प्रॉब्लम हैं!
ग़रीबी, घटती नहीं और महंगाई बढ़ती जा रही है! 
उस दिन गाँव फ़ोन किया था, काका को?
किया तो था.
मैनें पूछा, क्या हाल हैं भाई? अबकी फ़सल तो अच्छी हुई न?
आँखों में पानी भर बोला...."हुई तो थी, पर बारिश ने सब लील लिया"
यहाँ 'सब' का मतलब मात्र 'फ़सल' ही नहीं...'आस', भी चली गई, वर्ष भर की रोजी-रोटी का जुगाड़ भी, अब वहां चूल्हा नहीं जलेगा, थका मन और शरीर loan को चुकाने की क़िस्तों में गुजर जाएगा !
कुछ घटेगा कहीं तो किसानों की संख्या!
सुना है, हर सरकार की प्राथमिकता सूची में पहला नाम इन्हीं का होता है!
इतने दशकों से सुन ही तो रहे हैं.
एक मिनट, घर से फ़ोन आ रहा है.
हाँ, मम्मी!
अच्छा, ठीक है. हाँ, सुपरस्टोर से ही लाऊँगा.
सुन, मॉल जा रहा हूँ. बाय
ओके, बाय
कल मिलते है. मैसेज कर देना मुझे.
हम्म्म, ओके बॉस!

चलिये, तब तक हम और आप अपने शहरी होने को celebrate करते हैं....बाक़ी फ़िक्र तब करेंगे, जब हमारी प्लेट खाली होगी!
हाँ, हेलो...Please, Take my order ! One large Mushroom Pizza with extra cheese........!
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 
Pic : Clicked By Preeti 'Agyaat'

बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

'रिश्ते' या 'प्रशस्ति-पत्र?'

'रिश्ते' कुछ नहीं, एक प्रशस्ति-पत्र के सिवा! जब तक पढ़ते रहो, रहेंगे और पीड़ा बाँटते ही छिटककर दूर खड़े हो जाते हैं! या कि मानव-मस्तिष्क की बनावट ही कुछ ऐसी है जहाँ स्नेह के सैकड़ों पत्र एक सरसरी निगाह डाल डिलीट कर दिए जाते हैं और शिकायतें हमेशा के लिए दर्ज हो जाती हैं! 
ये कैसी आभासी दुनिया है जहाँ अपनों का अपमान करते आप, जरा भी नहीं हिचकते 
ये कैसे लोग हैं जो अपना बनकर बात करते हैं और पलटते ही छुरा घोंप देते हैं 
ये कैसे रिश्ते हैं, जो रिश्तों की मर्यादा ही नहीं समझते 
तो क्या हुआ.…जो आपने उनके दुःख को समझा 
तो क्या हुआ....जो आप हर घडी, हर पहर  किसी को अपना समझ उसके लिए बाहें फैलाये तत्पर खड़े रहे 
तो क्या हुआ...जो आपने अपना जीवन उनके नाम कर दिया 
मकान दिखते हैं.....लेकिन पैसे कमाने में घर कहीं खो गया है 
सदस्य दिखते हैं..... पर gadgets की भीड़ में परिवार व्यस्त हो गया है 
ये  कैसे रिश्ते हैं, जहां आंसू पोंछने को कोई नहीं होता और पीड़ा पहुंचाने में किसी को जरा भी दर्द नहीं होता 
जहाँ आप सबके मंन के दुःख को समझें,  दूर करने की भरसक कोशिश भी करें पर 
आप की बात सुनने वाला....…कोई नहीं!
जब आप गिरें तो संभालने वाला....कोई नहीं!

दर्द अकेले ही सहना होता है! गैरों  की क्या कहिए, जब अपने ही रिश्तों में सिर्फ़ प्रशंसा सुनने को आतुर रहते है, उनकी एक ग़लती की तरफ इशारा तो कीजिये और सब कुछ ख़त्म.
आपकी तकलीफ का मोल....कुछ नहीं!
आँसुओं का मोल...कुछ नहीं!
खोई मुस्कानों का मोल...कुछ नहीं!  
जो अपना होने का भरम देता रहा, उसके ही द्वारा अकेला छोड़ जाने का मोल.....कुछ नहीं! 

गर दस्तक देनी है तो दिलों पर दो! 
जो रहना चाहते हो यादों में तो किसी के ह्रदय पर अपना नाम अंकित कर दो! 
दर्द देने का वक़्त  है तो बांटने के लिए भी निकालो!
क्या हमेशा ही हम सही और सामने वाला ग़लत होता है? आपके अलावा किसी में कोई भी अच्छाई नहीं? आप परफ़ेक्ट हैं और दूसरा इंसान एक डिफेक्टिव पीस? ग़लती न होने पर भी कोई 'रिश्ते' को बचाने की ख़ातिर हाथ जोड़कर आपसे माफ़ी माँगता रहे और आप उसे कोसते रहें, झिड़कते रहें....इसका मतलब कि आपको न तो उस इंसान में दिलचस्पी है और न ही रिश्ते को बचाने में. ये भी संभव है कि आप सब कुछ ख़त्म करने के लिए सिर्फ़ एक बहाने की तलाश में हैं.

इसका यह तात्पर्य हुआ कि दरअसल कोई किसी का है ही नहीं..और न होगा कभी! संबंधों को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय 'मौन' ही है, जहाँ रोज ही घुट-घुटकर एक मौत होती है पर शरीर ज़िंदा रहता है; दिखाई देता है  आभासी मुस्कानों को लपेटकर अपने जीवित होने का भरम बनाए रखना भी तो आवश्यक होता है न! 
पर ये सवाल अब भी अनुत्तरित ही रहा ----
"क्या रिश्ते मात्र 'प्रशस्ति-पत्र' बनकर रह गये हैं?"
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

कवि को जूझना आता है.....

रचनाकार केवल उतना ही नहीं होता, जितना दिखाई देता है! उसकी रचनाएँ एक जीवन की पूरी कहानी कहती हैं, उसकी सोच उसके आसपास के वातावरण, सामाजिक व्यवस्था और संस्कारों का प्रतिबिम्ब होती है। यूँ ही कोई कवि / कवयित्री नहीं बन जाता, जब तक उसने संघर्षों को करीब से देखा न हो, महसूस न किया हो! कुछ लोग संघर्ष को आर्थिक परिस्थितियों से जोड़ लिया करते हैं पर बहुधा यह मानसिक और व्यवस्था के विरुद्ध चल रहा अंतर्द्वंद्व भी होता है।जहाँ कुछ न कर पाने की विवशता, मुट्ठी भींचने पर मजबूर कर देती है। इन हालातों से अकेले ही जूझते रहना, आसपास के लोगों द्वारा किये गए हर ताने को बर्दाश्त करना, अपनों का भयाक्रांत हो साथ छोड़ जाना और इन सबसे घायल ह्रदय और उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए अपने 'होने' को और इस 'जीवन' को सार्थक करने का जूनून ही सही मायनों में एक संवेदनशील और भावुक इंसान को रचनाकार में तब्दील कर देता है।

लेखक कभी आत्महत्या नहीं करते, हाँ उनकी हत्या अवश्य हो जाती है। कवि को जूझना आता है, टूटना आता है, हर पीड़ा को सहना आता है, वो जीते भले ही न पर मैदान छोड़ भागता नहीं, उसे डटकर खड़े रहना आता है और इन सबसे भी ऊपर एक और बात..उसे हर हाल में मुस्कुराना आता है! 
आह..यही उसके जीवन भर की कमाई और आय-व्यय का लेखा-जोखा है ! :D
भ्रम में बने रहने से बेहतर है डूबना या पार कर जाना! लेकिन उस पार पहुँचने के बाद आवाजों को अनसुना करना भी सीखना होगा. ये हुनर सबमें कहाँ, हमें डूब जाने का डर है और उन्हें उम्मीद! :)
-प्रीति 'अज्ञात'

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

बनारस

बनारस से मेरा रिश्ता बहुत पुराना है, इतना कि मुझे खुद भी याद नहीं! पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. वहीँ रहे थे हम लोग, अब तो मालूम नहीं लेकिन उन दिनों बी.एच.यू. का कैंपस खूब हरा-भरा हुआ करता था. वो एक उदास समय था, इसलिए तब उसमें खेलने-कूदने में कोई आनंद नहीं आता था.

उसके कई वर्षों बाद फिर जाना हुआ, तब नाना मिर्ज़ापुर कॉलेज से रिटायर होने के बाद यहाँ पीएचडी गाइड थे. मैं और मम्मी-पापा 'विश्वनाथ मंदिर' देखने गए थे. बहुत ही संकरी गलियों और अत्यधिक भीड़भाड़ के बीच चलते हुए हम वहां तक पहुंचे थे. दर्शन के बाद लौट ही रहे थे कि अचानक किसी ने मुझे खींच लिया. मैं जोर से चिल्लाई और तुरंत ही माँ-पापा ने भी देख लिया. वो भाग चुका था लेकिन हम सब घबरा गए और सीधे घर वापिस आ गये थे.

तीसरी बार की यात्रा अत्यधिक सुखद रही. वो भी स्कूल के दिनों की ही बात है. हम सब वहां दशाश्वमेध घाट पर गए, बहुत देर तक बैठे रहे थे. अच्छा लगा था वहाँ सीढ़ियों पर बैठे हुए पानी को उछालते रहना! कोई अस्सी घाट नाम से भी कुछ था. पर मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित वहां के तुलसी मानस मंदिर ने किया था. अगर मुझे ठीक से याद है तो ये वही स्थान है जहाँ मैनें पहली बार मंत्रोच्चारण और बोलती मूर्तियों को देखा था. तब कई दिनों तक उनकी स्मृतियाँ मुझे अचरज में डालती रहीं थीं और मैं सबका खूब दिमाग खाती. हर बार यही सवाल करके कि...वो मूर्तियां बोल कैसे रहीं थीं!

मैं मिठाई की शौक़ीन कभी नहीं रही लेकिन वहाँ जाकर लगा था कि मिठाई के बिना ये लोग जी ही नहीं सकते (ये अतिश्योक्ति हो सकती है, पर तब मैनें ऐसा ही पाया था). ये 30 वर्ष पुरानी बात है, आजकल तो नहीं खाते होंगे. मुझे ये मेले टाइप फीलिंग वाली जगहें बहुत पसंद हैं, छोटी-छोटी दुकानों, ठेले वालों के पास बहुत सुन्दर वस्तुएं होती हैं. लकड़ी के रंगीन खिलौने, कारीगरी के सामान और भी न जाने क्या-क्या! बनारस में ये सब कुछ हुआ करता था. हमने खूब खरीददारी भी की थी. वहाँ की बोली बड़ी ही मीठी, प्यारी-सी है. अगर मुझे कोई बात नापसंद थी तो वो वहां के लोगों का पान खाकर यहाँ-वहाँ पिचकारी बना देना. 
पता नहीं...तब और अब के बनारस में कितना अंतर आया होगा! आज न्यूज़ में वहाँ शांति की ख़बरें देखकर जहाँ मन को एक तसल्ली मिली वहीँ कुछ कच्ची-पक्की यादें भी ताजा हो आईं।
  
इसके साथ ही मिर्ज़ापुर भी याद आ गया...जाना है वहाँ एक दिन, कई दिनों के लिए! कब, कैसे और क्यों ये भी पता नहीं! बस, जाना है एक दिन! कुछ नहीं तो नाना-नानी के घर को और उस बगीचे को छूकर लौट आऊँगी, जहाँ की आवाज़ें इन दिनों बहुत पुकार रही हैं! 
मुझे कलकत्ता और बोध गया जाना है, लखनऊ, मुंबई भी जाना है....और इसी जीवन में जाना है, ऊपर जाने के बहुत पहले!
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 7 सितंबर 2015

'सच' तो ये.... 'सच' कुछ भी नहीं !

क्या मैं हमेशा सच बोलती हूँ ? या बोल पाती हूँ ? यह बात ही सच की सच्चाई को बयां कर रही है. हाँ, मैं सच बोलना पसंद करती हूँ, पर हर बार सत्य ही बोल सकूँ, यह संभव नहीं हो पाता, क्योंकि उसमें किसी को आहत कर देने का भय भी समाहित होता है. और यदि मेरे बोले सच से किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचे तो मैं असत्य का सहारा लेने की बजाय मौन हो जाना ज़्यादा पसंद करती हूँ. पर यदि न्याय और अन्याय के बीच जंग छिड़ी हो, तो मैं बेझिझक सच का दामन थाम लेती हूँ, फिर चाहे सामने वाला इंसान कितना ही प्रतिष्ठित और ताक़तवर क्यूँ न हो !

'सच' की सबसे बड़ी सुंदरता यह है, कि वो एक ही होता है और स्थाई भी, उसके साथ कहानियाँ गढ़ने का परिश्रम नहीं करना पड़ता, उसे याद नहीं रखना होता ! 'झूठ' को हमेशा संभालना होता है, किन परिस्थितियों में किससे, कब, क्या और क्यों कहा था, इन सभी बातों से मस्तिष्क इतना ज़्यादा बेचैन हो जाता है कि झूठ बोलने वाला व्यक्ति खुद भूल जाता है और आसानी से पकड़ में आ जाता है.

'सच' के साथ हमेशा रह पाना उतना आसान भी नहीं, मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूँ जो बड़े ही गर्व से खुद को 'सत्यवादी' कहलाना पसंद करते हैं. पर जब कोई और उनका सच कहे तो, तिलमिला उठते हैं. मेरी नज़रों में असली सत्यवादी वही है जो दूसरों का सच बोलने के साथ-साथ अपनी सच्चाई भी नि:संकोच स्वीकार कर सके. वरना वो 'सत्यवादी' नहीं 'आलोचक' ही कहलाएगा ! ध्यान रखने योग्य बात यह भी है, कि सच बोलने के पहले उसके होने की पुष्टि ज़रूर की जाए और जब यह तय हो जाए कि वही सामने वाले का सच है, उसे तभी ही बोला जाए ! कई बार लोग आधी-अधूरी बात से या पूर्वाग्रह से वशीभूत हो स्वयं ही पूरी कथा बुन लेते हैं, इससे बचना चाहिए. 'आधा सच' भी 'आधा झूठ' ही होता है !

सत्य की एक विडंबना यही है कि ये अक़्सर ही अकेला होता है, जबकि झूठ के साथ पूरा मेला होता है. सच बहुधा उदास हो, कोने में छुपा अकेला सूबकता है जब लोग झूठ की तलाश में व्यस्त रहते हैं ! सत्य कायर नहीं है ,ये ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही आशावादी हैं, तभी तो चुप हो बैठ जाता है, और झूठ की प्रतिरोधक-क्षमता इससे कहीं ज़्यादा दिखाई पड़ती है. जो दिखता है, उसे ही दुनिया भी सच मान लेती है, क्योंकि असली मज़ा तो उन्हें झूठ ही देता है. एक सरल, सच के साथ चलने वाला जीवन 'झूठ' की छत्रछाया में हताश और उम्र-भर संघर्षरत रहता है. आजकल 'झूठ' ज़्यादा बेबाक और 'इन' है, और 'सच' अकेला ही अपने अस्तित्व की तलाश में खिसियाता-सा हाथ-पाँव मारता दिखाई देता है. लेकिन मैंनें न हार मानी है और न मानूँगी, 'सच' के साथ, बिना किसी के सहारे, नि:स्वार्थ आगे बढ़ना है, जिसे जो सोचना है सोचे....वो उनकी स्वतंत्रता है. मैं लोगों के बार-बार झूठ से व्यथित अवश्य होती हूँ और बेहद विचलित भी, पर यही तो जीवन है !
वर्तमान परिवेश, समाज और व्यवस्था को देखते हुए यही कहना चाहूँगी कि - 

झूठ, झूठ और सिर्फ़ झूठ ! 
सारे रिश्ते-नाते...झूठ ! 
दोस्ती के वादे....झूठ ! 
अपनेपन के दिखावे..झूठ ! 
प्यार की वो बातें....झूठ ! 
सारे ख़्वाब सुनहरे....झूठ ! 
खुशियों के वो पल भी कृत्रिम, 
चेहरे की मुस्कानें......झूठ ! 
झूठी बस्ती, झूठा जमघट, 
ये लगता, रिश्तों का मरघट ! 
मायावी इंसान यहाँ पर, 
एहसासों की बातें.....झूठ ! 
स्वार्थ भरा, अब हर धड़कन में, 
दिल ना समझे, इनकी चाल ! 
कब तक गिनता, अपनी साँसें, 
ज़ज़्बातों का ये कंकाल ! 
झूठ ही सब पर हावी है,अब 
सच क्या है, मालूम नहीं, 
शब्दकोष का हिस्सा है, बस 
'सच' तो ये.... 'सच' कुछ भी नहीं !

You can also read it here -
http://parikalpnaa.blogspot.in/2015/07/blog-post_25.html

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

अनुशासन

दो दशकों से भी ज्यादा पुरानी बात है ! तब जो भी बच्चा कक्षा में ज्यादा बात (बोले तो disturb ) करता था, उसे या तो आखिरी में दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा कर दिया जाता था या फिर बेंच के ऊपर दोनों हाथ करके ! ज्यादा दिलदार टीचर जी हुए तो कान पकड़ के मुर्गे बनने का मनोरम दृश्य भी यदा-कदा दिखाई पड़ जाता था या फिर बच्चा सबकी नजरों से अदृश्य यानि कि सीधे कक्षा से बाहर!
उस समय वो बच्चा तो असहाय दिखता ही था, अंदर बैठे उसके दोस्तों को भी धुकधुकी लगी रहती थी....हाइला , कहीं हमारा नाम न बोल दे ! दुनिया का रिवाज़ है, कि "गेंहूँ के साथ घुन भी पिसता ही है ", सो कई मासूम चेहरे उस बच्चे के अपराध की भेंट चढ़ा दिए जाते थे ! अब जो बचे, उनसे न हँसा जाए और न ही रोया ! "इधर कुआँ उधर खाई टाइप सिचुएशन!"

खैर.... सुधरा कोई भले ही न हो ! पर टीचर जी और सर जी का ख़ौफ़ ज़बरदस्त रहता था ! दिक्क़त बस तभी होती थी, जब ये जिम्मेदारी निरीह 'मॉनिटर' के पल्ले पड़ती थी ! कुछ अपने दोस्तों को भारी डिस्काउंट के लालच (यहाँ इसका तात्पर्य नोट्स से है) में बचा लिया करते थे और कर्तव्यनिष्ठ विद्यार्थी सबकी बराबर क्लास लेता था ! अपनी-अपनी क़िस्मत है भैया !

माराकूटी, बटन तोडना, पेन फेंक देना, पानी फैलाकर निकल लेना जैसी हिंसक और निकृष्ट घटनाओं के लिए एक नियत समय था ! जिसे 'ब्रेक' के आत्मिक नाम से जाना जाता था !
हर शहर, हर स्कूल में लगभग यही प्रथा थी ! वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार इनमें फेरबदल भी प्रचलन में था ! 

घर में बताओ तो डबल कुटाई का डर! सो, आपसी सहमति से सब चुप्पी लगा जाते ! माता-पिता भी ये तो नहीं कहते न कि"बेटा, ख़ूब टेबल-कुर्सियाँ तोड़ो! कॉपी-क़िताब के पन्ने फाड़ो और फिर अगले दिन शान से अपने टाइप के लोगों के साथ कक्षा में प्रवेश करो! उसके बाद मैम की शिकायत, प्रिंसिपल से कर आओ !"

MORAL :  'अनुशासन', आज भी उतना ही आवश्यक है जितना २० वर्ष पहले हुआ करता था ! ये अलग बात है कि लोग न तब सीखे और न अब कोई चांस हैं ! बच्चे इस कहानी से क्या शिक्षा लेंगे, पता नहीं …बस, आज यूँ ही याद आ गई ! हम कौन, एवीं खामखाँ मरे जा रहे !
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

इंटरनेट देवता जी

हमारे परमपूज्य श्री श्री 1008 इंटरनेट देवता जी का निवास-स्थान कहाँ है ? :O
मेरा उनसे विनम्र अनुरोध है कि वर्षा ऋतु में भी नियमितता बनाये रखें। जिससे कुछ गरीबों को सन्देश के आदान-प्रदान में असुविधा न हो ! आपकी उपस्थिति के बिना जीवन व्यर्थ है और दूरभाष पर होने वाले आर्थिक और मानसिक व्यय को बचाने में भी आप नितांत उपयोगी सिद्ध हुए हैं ! :)

हे, जन-जन के कष्ट निवारक! 
समीपता और दूरी के समानता से संचालक! 
मनोरंजनकर्ता, सबके मस्तिष्क के स्वामी ! 
आज के पावन दिवस पर आपको कोटिश: प्रणाम एवं ह्रदय से आभार ! :)

दक्षिणास्वरुप कुछ पुराने मोबाइल और माउस रख दिए हैं !
कृपादृष्टि बनाये रखना, बाबा !
आशीर्वाद दीजिये न बाबा ! :(
अरे हाँ,  वो कष्ट-निवारण मन्त्र का जाप करते समय समोसा, एक खाऊँ या दो ? :P
******************************************************************************
मोरल : मेरा पूरे विश्व से निवेदन है कि आदरणीय सम्मानित श्री अंतर्जालीय देवता और सूचना संपादक परम भक्त श्रीमान गूगल देवता जी  की पूजा-अर्चना के लिए एक धार्मिक स्थल का  निर्माण किया जाए ! लेकिन :/ टेंशन यही है कि वो किस धर्म का होगा ! उफ्फ्फ, यहाँ तो सबका आना-जाना है, फिर अपन के लड़ने के लिए कोई मुद्दा ही नहीं रहेगा ! हुँह, तो क्या फायदा रे ! :/ :(
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

'सौदामिनी', जीवन के आख़िरी पन्नों से......

कितना आसान है ये कह देना, "बस तुम खुश रहो, मुझे और कुछ नहीं चाहिए ! अगर ये मेरे बिना सही, तो वो भी मंज़ूर है मुझे!"
पर दिल क्या सचमुच मंज़ूर कर पाता है इसे ?
उसकी एक हल्की-सी आहट, उसकी मौज़ूदगी का अहसास भर सिहरा देता है ! उम्मीद और डर के बीच झूलता हुआ ये मन साँसे रोक कर इंतज़ार करता है कि अब कोई पलटकर पूछेगा, "कैसी हो तुम?"
अब कोई सिर पर हाथ फेरेगा और कहेगा, "अरे, उदास क्यों हो भई?" आँखें ये सोचकर ही भीगने लगतीं हैं, गला रुंध-सा जाता है और मस्तिष्क स्वयं को उन जवाबों के लिए तैयार करता है लेकिन तब तक वो चेहरा ओझिल हो चुका होता है ! 
मैं तो यही कहती कि "ठीक हूँ!" तुम्हारा पूछना भर ही मेरा दिन बना देता !
पर अब सचमुच अहसास होने लगा है कि तुम खुश हो मेरे बिना !
सॉरी,लेकिन मैं इतनी महान नहीं कि आसानी से कह सकूँ..."बस तुम खुश रहो, मुझे और कुछ नहीं चाहिए! 
क्योंकि मुझे तुम्हारी मौज़ूदगी चाहिए!
तुम्हारी वो मुस्कान चाहिए जो मुझे देख ही तुम्हारी आँखों की झीलों में खुशबुओं-सी तैरने लगती थी !
मुझे मेरे इस दुनिया में होने की एकमात्र वज़ह चाहिए! 
हाँ, इसके अलावा मुझे वाक़ई कुछ नहीं चाहिए !
वो अगले जन्म के साथ का वादा भी नहीं! 
जो जीते-जी न मिल सका, मर जाने के बाद उसकी उम्मीद रखूँ; अब इतनी बेवक़ूफ़ भी नहीं रही मैं!
यूँ जानती तो ये भी हूँ कि मेरी बातों का कोई मोल नहीं!
याद है एक दिन तुमने गुस्से में कहा था कि "मैं पछतावा हूँ तुम्हारी ज़िंदगी का, प्रताड़ित करती है मेरी उपस्थिति तुम्हें !"
बहुत रोई थी मैं उस दिन... और अभी भी तो !
पर हर बार की तरह तुम्हें 'बेनेफिट ऑफ डाउट' दे दिया था ! तुम्हारा गुस्सा और मूड, तुम खुद भी कहाँ जान सके हो अब तक!
हर बार आखिरी पत्र मानकर लिखती हूँ! पर लौट आती हूँ खुद ही, बिन बुलाये !
न जाने क्या शेष है अभी !
उम्मीद नहीं है ये!
इंतज़ार भी नहीं!
चाहत तो यूँ भी दोतरफ़ा ही जायज़ होती है !
पीड़ा बेतहाशा है !
पता नहीं क्यों, दिल आज भी इस सच को स्वीकार नहीं कर पा रहा कि "तुम सचमुच खुश हो मेरे बिना !"
तुम ख़ुद शांत मन से एक बार कह दो न मुझे, कुछ इस तरह कि विश्वास कर सकूँ और उसके बाद तुम देखना, आवाज़ तक नहीं दूंगी कभी!
हाँ, एक तसल्ली हो जायेगी हमेशा के लिए !
उसके बाद क्या होगा ?
क्या करोगे जानकर ?
"फ़टी-पुरानी, बिना ज़िल्द वाली पीली क़िताबों का आख़िरी पृष्ठ अक़्सर गायब ही रहता है !"
(एक अंश - 'सौदामिनी', जीवन के आख़िरी पन्नों से, से )
© प्रीति 'अज्ञात'
Pic Credit : प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 13 जुलाई 2015

आदरणीय श्री नरेंद्र मोदी जी 
सादर अभिवादन
आज भी रोज की तरह समाचार देख-पढ़ मन व्यथित हुआ और लगा कि आम भारतीय नागरिक की तरह मुझे भी अपने 'मन की बात' कह ही देनी चाहिए!

* एक समाचार से ज्ञात हुआ कि कुछ लोग जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं! मैं राजनीति बिल्कुल भी नहीं जानती पर इतना ज़रूर समझती हूँ, कि गर ऐसा हुआ तो सही नहीं होगा! यूँ भी हमारे देश में समस्याओं की जड़ ये 'जाति' और 'धर्म' ही तो रहा है! वरना ये दंगे-फ़साद किसके नाम पर हो रहे हैं?

*सोचिए ज़रा, कितना अच्छा होता....अगर चुनाव 'इंसान' और उसके द्वारा किए गये कार्यों के आधार पर हो! लोग 'जाति' नहीं 'इंसान' को चुनें, उसके नेक कार्य और अच्छी सोच पर भरोसा रखें न कि उनकी 'कास्ट' को आगे ले जाने के अशोभनीय आश्वासनों पर!

* क्या यह संभव नहीं कि हर नेता या चुनाव उम्मीदवार की जाति बताई ही न जाए, निष्पक्षता तो तभी तय होगी! पहचान के लिए उनके स्कूल, कॉलेज के प्रमाण-पत्र बनाये रखने में कोई बुराई नहीं!

* मैं किसी पार्टी के समर्थन या विरोध में नहीं हूँ, बल्कि आम भारतीय नागरिक की तरह अपने देश के विकास की पक्षधर हूँ!
* मैं 'जातिगत' आरक्षण की नहीं बल्कि हर उस विद्यार्थी की पक्षधर हूँ जो 80% अंक से भी अधिक लाने पर उदास है क्योंकि उसी के सामने 60% अंक वालों को प्रवेश मिल जाता है और वो अपने 'सामान्य-श्रेणी' में होने को कोस रहा होता है!

क्या 'शिक्षा' या ज्ञान का पैमाना, 'बुद्धिमत्ता' नहीं होना चाहिए ?
* मैं हर उस इंसान की, हर उस जाति की, हर उस धर्म की पक्षधर हूँ जहाँ एक बुद्धिमान बच्चा, पैसों के अभाव में शिक्षा से वंचित रह जाता है....... मैं ऐसे हर एक 'भारतीय' को उसका, हक़ दिलाने की पक्षधर हूँ! मैं एक क़ाबिल इंसान को उसकी योग्यता के आधार पर चुनने की पक्षधर हूँ!

* मैं विरोधी हूँ उस हर इंसान की जो योग्य न होने के बावजूद भी जाति या डोनेशन ( जी हाँ, यह भी रईसों का सुगम मार्ग है) के बल पर प्रवेश पा लेता है, डॉक्टर या इंजीनियर भी बन जाता है...और कुछ वर्षों बाद हम समाचार पढ़ते हैं, 'डॉक्टर की लापरवाही से मरीज़ की मौत' या फिर 'कमजोर पुल टूटने से बस खाई में गिरी, मरने वालों की संख्या सैकड़ों में'...पर यदि गहराई से सोचा जाए तो पता चलता है कि इस लापरवाही का ज़िम्मेदार वो 'प्रवेश-द्वार' है जहाँ इन्हें होना ही नहीं चाहिए था!

* 'बुद्धिमत्ता', 'जाति' से तय नहीं होती! कमजोर व पिछड़े वर्गों को ऊपर उठाने का मतलब उन्हें ये सुविधा देना नहीं, बल्कि उनकी शिक्षा के प्रति रूचि बढ़ाना है. उन्हें सब कुछ निशुल्क दें और जो बेहतर होंगे वो स्वयं ही हर परीक्षा उत्तम अंकों से उत्तीर्ण कर लेंगे, उनके लिए अलग से व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता है?
 "जब विरासत दिखती है, तो कौन मेहनत करता है भला!"

* दो-टूक़ बात तो ये है कि हमें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता कि 'सरकार' किस पार्टी की है! हमें तो देश के विकास से मतलब है, हम तो यही चाहते हैं कि जब कहीं बाहर जाएँ तो हमारे पूर्वजों की तरह उसी शान से कह सकें कि "हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है!"
'गंगा सफाई अभियान', 'स्वच्छता अभियान', 'बेटी बचाओ अभियान' और ऐसे ही अन्य सकारात्मक योजनाओं को देख एक उम्मीद जगी है!

भारतवासियों में बहुत ताक़त है, बहुत हिम्मत है, हर मुश्किल घड़ी से निपटने का हुनर भी खूब आता है! 'सती-प्रथा' और 'बाल-विवाह' जैसी कुरीतियों को हम सबने ही दूर भगाया है! 'कन्या-भ्रूण हत्या' और कितने ही 'आपराधिक' मामलों के विरोध में सारा देश एकजुट हुआ है! तो, ये 'जाति-प्रथा' दूर करना भी मुश्किल नहीं...
"ज़रूरत सिर्फ़ एक 'मुहर' की है!"

धन्यवाद!
प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 22 मई 2015

'वृद्ध-आश्रम' होने चाहिए या नहीं?

अपेक्षाओं और उम्मीद के परे भी एक जीवन है यहाँ...! जीने के लिए न कोई शर्तें हैं और न ही स्नेह को पाने के लिए व्यर्थ के बने कायदे-कानून !  ये सब तो स्वार्थी समाज की सुविधा के लिए उगाई गई फसलें हैं; जहाँ हर बरस नए रिश्तों और मौकों की खेती होती है और पुराने स्नेह बीजों को खरपतवार समझ उखाड़ फेंक देना ही आपके समझदार और व्यवहारिक होने का प्रामाणिक तथ्य माना जाता है।

यहाँ न सपने हैं न ख्वाहिशें। उम्मीदों की टूटन, रिश्तों की सघन गर्मी, मन की उष्णता, ह्रदय की घुटन और इस सबको भुलाने की नाक़ाम कोशिशों में लगे तमाम अनुभवों की ठिठुरन है। अपनी जिम्मेदारियों को निभाकर और कर्तव्यों के आगे स्व की तिलांजलि देने के बाद जो शेष है वही इनका जीवन है. अपनों का दूर जाना जितना आसान  है उन्हें भूल पाना उतना ही जटिल। इसीलिए अब भी कहीं, मायूसी के भंवर से जूझते हुए एक झिझक भरी निग़ाह दरवाजे की तरफ देख न जाने क्या टटोला करती है....!

यही वो दरवाजा है जहाँ आप थोडा संकोच के साथ कुछ लोगों को मुस्कान देने के ज़ज़्बे के साथ प्रवेश करते हैं और उनके गले लग स्वयं के वजूद को बेहद बौना पाते हैं। पता ही नहीं चलता कि कब चेहरे की सलवटों से झांकती एक जोड़ी आँखों की टिमटिमाती रोशनी, आपके ह्रदय को भीतर तक रोशन कर जाती है ! मन में पैदा हुई कुछ ख्वाहिशें जो यूँ भी बेबुनियाद ही ठहरीं, हंसती हैं अपने होने पर ! मन कचोटने लगता है, ह्रदय से एक आह निकलती है, पीड़ा असहनीय है लेकिन जीवन के प्रति अगाध स्नेह आपको हैरत में डाल देता है. एक कमरे से सुरीले गीत की ध्वनि, कहीं बैसाखी की थाप पर चलती ज़िंदगी, ढोलक का मधुर संगीत और एक साथ बजती तालियां ! भजन ढोलक और सिर्फ दो वक़्त की रोटी की जरुरत।

एक प्रश्न उठता है मन में.....! क्या वाक़ई इससे अधिक की आवश्यकता है ? पैसे कमाने की जद्दोजहद में लगे लोगों के पास शेष क्या रहेगा ?  मैं पलटकर फिर उस दरवाजे की ओर देखती हूँ। उसी गीत को बार-बार रिवाइंड कर सब एक साथ थिरक रहे हैं......... " अपने लिए जिए तो क्या जिए... " मेरा पसंदीदा गीत और उन खामोश चेहरों की हंसी दिल को गहरी तसल्ली दे जाती है ! हालांकि इसके भीतर की मायूसी भी अपनी उपस्थिति का अहसास बख़ूबी कराती है। मैं सर झुका, प्रणाम कर वहां से निकल पड़ती हूँ।  दिमाग में अब भी वही बारह-तेरह वर्षों से घुमड़ती उथल-पुथल बरक़रार है कि "वृद्ध आश्रम होने चाहिए या नहीं?". मेरा मूरख दिल आज भी इसके पक्ष और विपक्ष में बराबर की गवाही देता है !
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

जो 'दर्द' लिखता है , सोचो.....उसकी रगों में कितना बहता होगा !


जो 'दर्द' लिखता है , सोचो.....उसकी रगों में कितना बहता होगा ! जो बढ़कर गले न लगा सको तो ,भूले से भी कभी उसके कंधे पर हाथ न रख देना कि फिर उम्र-भर रिसता रहेगा ये। सागर का पानी यूँ ही खारा नहीं होता ! अरमानों के इतने मचलते उफान के साथ दौड़ती चली आती हैं जो, उन लहरों की साहिल पे सर पटकने की मायूसी देखी है कभी ? थके-हारे क़दमों से उनका लौट जाना जीकर तो देखो !

टूटा ही सही....पर फिर भी जुटा लेती है ज़िद्दी हौसला और कुछ सीप, कुछ मोती अपने गीले आँचल में भर तुम्हारी देहरी पर छोड़ आती है। डूब जाती है, फिर उसी खारे समुन्दर में। निहारती है कुछ पल, धुंधली आँखों से। वक़्त की रफ़्तार में भागते चेहरे ठिठककर चुन लेते हैं, मोतियों को।  लहरों की उदासी किसने महसूसी है कभी ! रुदाली का रुदन सबने देखा और उसे दोषी ठहरा चलते बने ! 
रुदाली....तुम कब हंसती हो !

आसान है, कह देना
'चले जाओ ' 
पर कोई, 'जाता कहाँ है' !
छोड़ जाता है इक हिस्सा 
दर्द को सहलाने के लिए 
गहराते हैं ज़ख्म 
कभी न भर पाने  लिए 
खुद ही रीतता जाता है 
इच्छाओं का समंदर 
जिसमें तड़पकर
आस की अनगिनत मछलियाँ 
चुपचाप दम तोड़ देती हैं ! 
 
अभिशप्त जीवन 
अधूरी श्वांस की 
टूटी बैसाखी 
कोई भूले भी तो, भूले कैसे 
कि बस वर्ष बदलते हैं
लोग बदलते हैं  
तारीखें और दिन तो 
वहीँ-के-वहीँ 
फूटे भाग्य-से  
ठिठककर रह जाते हैं !
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Google

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

अरे, खिड़कियाँ तो बंद करवा सकते हो !

बिहार में परीक्षाओं के हाल पर एक अधिकारी ने अभी कहा कि..."क्या करें, इन्हें गोली तो मार नहीं सकते!"
सहमत, क्योंकि गोली तो आप खुलेआम क़त्ल करने वाले अपराधी को भी नहीं मार पाते, ये तो बेचारे, बच्चों के उजियारे भविष्य की चाह में, लटकने को मजबूर, निरीह माँ-बाप ठहरे ! छि:..धिक्कार है !

आपकी मासूमियत पे तरस आता है, सर जी ! अरे, खिड़कियाँ तो बंद करवा सकते हो ! 
* अंदर से ज़्यादा, बाहर की पहरेदारी तो करवा सकते हो ! 
* जो अभिभावक लटके हैं, उनके बच्चों की परीक्षाएँ तो निरस्त करवा सकते हो !
* सबसे आसान, शिक्षा का स्तर तो सुधार सकते हो !
* CCTV कैमरे का इस्तेमाल कब करोगे, साहेब ? 

अध्यापक अच्छे से पढ़ाएँ और विद्यार्थी नियमित आते रहें, तो ये शर्मनाक स्थिति पैदा ही न हो ! दुख ऐसे अभिभावकों को देखकर भी होता है, ऐसी शिक्षा और डिग्री दिलवाकर आप जैसे लोग ही 'बेरोज़गारी' को ज़िंदा रखे हो और फिर चले आओगे आंदोलन लेकर ! जितनी मेहनत आप कर रहे हो, उसके लिए कभी बच्चों को ही प्रेरित कर दिया होता !

लेकिन ये भी सच है, कि तस्वीर भले ही यही सामने आई हो, पर सिर्फ़ बिहार ही नहीं, ऐसे तमाशे और भी कई राज्यों में शिक्षा की मिट्टी पलीद किए हुए हैं ! 
यही भारत देश है मेरा......! :( 
- प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

मज़हब नहीं सिखाता....!

मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना....
फिर ये 'मज़हब' है ही क्यों ?
क्योंकि ये जो नहीं सिखाता, वही तो सब सीखते आए हैं !
'धर्म' न होता तो लड़ने के लिए कौन सा मुद्दा होता ?  देश में जितने भी दंगे-फ़साद , आगजनी, हत्याएँ और इस तरह के असंख्य अमानवीय कृत्य होते रहे हैं , इनका जिम्मेदार कौन है ? क्या सचमुच 'धर्म' ही इसकी वज़ह है या उन अराजकीय तत्वों  की मानसिकता, जिन्हें 'घृणा' से 'प्रेम' है ? पर फिर भी जनता बेवकूफ बनती आ रही है, ये 'जनता' भोली नहीं रही, बल्कि चंद सिक्कों के लिए आसानी से अपना ईमान बेचना सीख गई  है।  इन लोगों को होश तभी आता है, जब स्वयं पर बीतती है, इनके ही 'धर्म' की आड़ में जब इन पर प्रहार होता है। 

'धर्म' का इंसान से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं सिवाय इसके कि ये जन्म के साथ आपको 'बोनस' में मिलता है. बात इसके सही इस्तेमाल की है. इंसानियत पैदाइशी नहीं होती, ये आपको सीखनी होती है. आप 'इंसान' बनें रहें, 'धर्म' कहीं नहीं जाने वाला ! एक इंसान, अच्छा या बुरा हो सकता है, धर्म का उसकी सोच से क्या संबंध ? क्या किसी धर्म ने बुरा व्यक्ति बनने के रास्ते दिखाए हैं ? संवेदनहीनता, हिंसा, अमानवीय और पाश्विक व्यवहार का समर्थन कौन सा धर्म करता है ? और यदि धर्म के कारण ऐसा हो रहा है, तो फिर ये 'धर्म' ही हर परेशानी की जड़ है ! इसे हटाने की हिम्मत जुटानी होगी ! पर अगर सारे धर्मों के लोगों के अपराधों का हिसाब-क़िताब लगाया जाए, तो हरेक के हिस्से में हर तरह का अपराध आएगा ! फिर तो सारे ही धर्म, अत्याचार के समर्थक हुए ? जो धर्म जितना बड़ा, उसका हिस्सा उतना ही ज़्यादा ? ये भी संभव है कि जो धर्म छोटा, उस पर अत्याचार ज़्यादा ? दुनिया की रीत है, पलटवार करने वाले से सब भयभीत रहते  हैं और दुर्बल को सताने में सबको अपार आनंद की अनुभूति होती है ! लेकिन जब 'दुर्बल' की सहनशक्ति टूट जाती है, तो उसके सामने कोई नहीं टिक पाता. ये इंसानी फ़ितरत है. पुनश्च, इसका आपके 'धर्म' से कोई ताल्लुक़ नहीं !

अपराधी, 'अपराधी' ही है. बहस, उसके जघन्य कृत्य पर ही होना चाहिए. उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता. पर इस  सुशिक्षित, सभ्य समाज का  सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है, कि लोग अपराधी की जात पर पहले गौर करते हैं, और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है. दुर्भाग्य की बात है कि अपराध के विरोध और समर्थन में दो गुटों का निर्माण उसी वक़्त हो जाता है।

अगर समाज में परिवर्तन चाहते हैं, तो 'उपनाम' के मोह से बचें ! ज़्यादातर लोग धर्म के नाम पर मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं. आपकी इज़्ज़त, आपका रूतबा, आपके प्रति लोगों का नज़रिया...आपके व्यवहार पर निर्भर करता है. दूसरे के बुरे व्यवहार को अपनी क़ौम पर हमला न समझें. वो बुरा है, इसलिए उसने ऐसा किया. वो आपको मारना चाहता है, इंसानियत का विरोधी है, आप 'उसका' विरोध करें, पर अपने धर्म की महानता का बखान करे बिना. क्योंकि जब गिनाने की बात आएगी, तो आप बगलें झाँकते नज़र आएँगे ! सच तो यह है कि सबका हृदय जानता है, कि धर्म हमें सही राह दिखाते हैं और सभी धर्म 'सर्वश्रेष्ठ' हैं ! विचारणीय बात यह है  कि इसके बावज़ूद भी आतंक का इतना गहरा साया क्यूँ है. बाहरी ताक़तों की बात तो समझ आती है, पर जो घर में होता आ रहा है उसका क्या ? ये सब, कौन करवा रहा है ? कहीं राजनीतिक पार्टियां , वोट बैंक की लालसा में आम जनता को ही बलि का बकरा तो नहीं बना रहीं ? गरीबी-भुखमरी, अशिक्षा , बेरोजगारी ; इन  समस्याओं का निवारण हो गया है क्या ? या इनकी चर्चा 'आउटडेटेड' है !

इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण आप लोगों ने भी अवश्य देखे  होंगे कि कई घरों में ऐसी घटनाओं की निंदा करते समय ऐसे वाक्य सुनने को मिलते हैं....'इनकी तो जात ही ऐसी है' 'ये लोग बहुत कट्टर होते हैं, किसी को नहीं छोड़ते', 'इनके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए' वग़ैरह-वग़ैरह ! अगले दिन, उन घरों के बच्चे यही बात अपने साथियों से कह रहे होते हैं, बिना किसी प्रामाणिक तथ्य के। ये आगामी पीढ़ी के 'सोच' के पतन की शुरुआत है ! हमें इन्हें, यहीं से रोकना होगा ! अन्यथा ये समस्या जस-की-तस रहेगी !

यदि आप ईश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं तो  अपने-अपने घरों में, अपने बच्चों को सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाएं ! यदि नास्तिक हैं तो यह आपकी स्वतंत्रता है पर किसी और को सोच बदलने के लिए बाध्य न करें। हर इंसान को धर्म, जाति  से ऊपर उठकर अपनी एक पहचान बनाने का अवसर दें यही एक तरीका है, आने वाली नस्लों को हैवानियत से बचाने का !

एक सवाल, स्वयं से भी करें ! आप कौन हैं ? आप किस  रूप में याद किये जाना पसंद करेंगे या अपने धर्म से ही अपनी पहचान बनाएंगे ? वो पहचान जो पहले से ही तय की जा चुकी है , तो फिर आपके होने-न-होने का मतलब ही क्या ? क्या धर्म , इंसानियत से भी बड़ा होता है ?

विमर्श करें -
'मैं कौन हूँ'
मेरा उठना-बैठना
खाना-पीना, रहन-सहन
बातचीत का तरीका
स्वभाव,शिक्षण,व्यवसाय
विवाह की उम्र
शिष्टाचार,जीवन-शैली
यहाँ तक कि
मौत के बाद की
विधि भी,
सब कुछ तय है
मेरे जन्म के समय से.

पैदा होते ही तो लग जाता है
ठप्पा उपनाम का
जुड़ जाता है धर्म 
पिछलग्गू बन 
नाम के साथ ही
और उसी पल हो जाती है
सारी राष्ट्रीयता एक तरफ.
आस्था हो, न हो
विश्वास हो, न हो
पर इंसान को जाने बिना ही
समाज निर्धारित कर लेता है
उसके गुण-अवगुण,
चस्पा कर दी जाती हैं
उसके व्यक्तित्व पर
कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ.

सीमाएँ लाँघने पर 
तीक्ष्णता-से घूरती हैं 
एक साथ कई निगाहें
फिर समवेत स्वर में उसे
नास्तिक करार कर दिया जाता है,
उन्हीं लोगों के द्वारा
जिन्होंने संकुचित कर रखी है
अपनी विचारधारा !
अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
ये बुहारा करते हैं, रोज ';अपना'; आँगन 
सँवारते हैं, उसे
गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम.
धर्म-विधान के नाम पर
हो-हल्ला मचाते
ये तथाकथित संस्कारी लोग
रख देते हैं अपनी भारतीयता 
ऐसे मौकों पर, दूर कहीं कोने में.

राष्ट्र-हित की आड़ में 
बातें करने वालों ने
बो दिया है ज़हरीला बीज
तुम्हें खुद ही तोड़ने का
और हो गये हैं सभी सिर्फ़
अपने-अपने धर्म के अधीन.
तो फिर स्वतंत्र कौन है ?
मैं कौन हूँ?
तुम कौन हो?
जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
तो तोड़ना होगा सबसे पहले
धर्म और प्रांत का बंधन.

ईश्वर एक ही है
मौजूद है, हर शहर, हर गली
हर चेहरे में,
हटा दो मुखौटा
और देखो
एक ही खुश्बू है
हर प्रदेश की मिट्टी की
हरेक घर का गुलाब 
एक-सा ही महकता है
महसूस करना ही होगा
तुम्हें  ये अपनापन,
तभी पा सकोगे 
दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
सारी अराजकताओं से दूर
एक स्वतंत्र-भारत !

- प्रीति 'अज्ञात'
*राष्ट्रीय मासिक पत्रिका, 'वर्तमान मीडिया' , फरवरी'२०१५ अंक में प्रकाशित
चित्र - गूगल से साभार