'रिश्ते' कुछ नहीं, एक प्रशस्ति-पत्र के सिवा! जब तक पढ़ते रहो, रहेंगे और पीड़ा बाँटते ही छिटककर दूर खड़े हो जाते हैं! या कि मानव-मस्तिष्क की बनावट ही कुछ ऐसी है जहाँ स्नेह के सैकड़ों पत्र एक सरसरी निगाह डाल डिलीट कर दिए जाते हैं और शिकायतें हमेशा के लिए दर्ज हो जाती हैं!
ये कैसी आभासी दुनिया है जहाँ अपनों का अपमान करते आप, जरा भी नहीं हिचकते
ये कैसे लोग हैं जो अपना बनकर बात करते हैं और पलटते ही छुरा घोंप देते हैं
ये कैसे रिश्ते हैं, जो रिश्तों की मर्यादा ही नहीं समझते
तो क्या हुआ.…जो आपने उनके दुःख को समझा
तो क्या हुआ....जो आप हर घडी, हर पहर किसी को अपना समझ उसके लिए बाहें फैलाये तत्पर खड़े रहे
तो क्या हुआ...जो आपने अपना जीवन उनके नाम कर दिया
मकान दिखते हैं.....लेकिन पैसे कमाने में घर कहीं खो गया है
सदस्य दिखते हैं..... पर gadgets की भीड़ में परिवार व्यस्त हो गया है
ये कैसे रिश्ते हैं, जहां आंसू पोंछने को कोई नहीं होता और पीड़ा पहुंचाने में किसी को जरा भी दर्द नहीं होता
जहाँ आप सबके मंन के दुःख को समझें, दूर करने की भरसक कोशिश भी करें पर
आप की बात सुनने वाला....…कोई नहीं!
जब आप गिरें तो संभालने वाला....कोई नहीं!
दर्द अकेले ही सहना होता है! गैरों की क्या कहिए, जब अपने ही रिश्तों में सिर्फ़ प्रशंसा सुनने को आतुर रहते है, उनकी एक ग़लती की तरफ इशारा तो कीजिये और सब कुछ ख़त्म.
आपकी तकलीफ का मोल....कुछ नहीं!
आँसुओं का मोल...कुछ नहीं!
खोई मुस्कानों का मोल...कुछ नहीं!
जो अपना होने का भरम देता रहा, उसके ही द्वारा अकेला छोड़ जाने का मोल.....कुछ नहीं!
गर दस्तक देनी है तो दिलों पर दो!
जो रहना चाहते हो यादों में तो किसी के ह्रदय पर अपना नाम अंकित कर दो!
दर्द देने का वक़्त है तो बांटने के लिए भी निकालो!
क्या हमेशा ही हम सही और सामने वाला ग़लत होता है? आपके अलावा किसी में कोई भी अच्छाई नहीं? आप परफ़ेक्ट हैं और दूसरा इंसान एक डिफेक्टिव पीस? ग़लती न होने पर भी कोई 'रिश्ते' को बचाने की ख़ातिर हाथ जोड़कर आपसे माफ़ी माँगता रहे और आप उसे कोसते रहें, झिड़कते रहें....इसका मतलब कि आपको न तो उस इंसान में दिलचस्पी है और न ही रिश्ते को बचाने में. ये भी संभव है कि आप सब कुछ ख़त्म करने के लिए सिर्फ़ एक बहाने की तलाश में हैं.
इसका यह तात्पर्य हुआ कि दरअसल कोई किसी का है ही नहीं..और न होगा कभी! संबंधों को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय 'मौन' ही है, जहाँ रोज ही घुट-घुटकर एक मौत होती है पर शरीर ज़िंदा रहता है; दिखाई देता है आभासी मुस्कानों को लपेटकर अपने जीवित होने का भरम बनाए रखना भी तो आवश्यक होता है न!
पर ये सवाल अब भी अनुत्तरित ही रहा ----
"क्या रिश्ते मात्र 'प्रशस्ति-पत्र' बनकर रह गये हैं?"
ये कैसी आभासी दुनिया है जहाँ अपनों का अपमान करते आप, जरा भी नहीं हिचकते
ये कैसे लोग हैं जो अपना बनकर बात करते हैं और पलटते ही छुरा घोंप देते हैं
ये कैसे रिश्ते हैं, जो रिश्तों की मर्यादा ही नहीं समझते
तो क्या हुआ.…जो आपने उनके दुःख को समझा
तो क्या हुआ....जो आप हर घडी, हर पहर किसी को अपना समझ उसके लिए बाहें फैलाये तत्पर खड़े रहे
तो क्या हुआ...जो आपने अपना जीवन उनके नाम कर दिया
मकान दिखते हैं.....लेकिन पैसे कमाने में घर कहीं खो गया है
सदस्य दिखते हैं..... पर gadgets की भीड़ में परिवार व्यस्त हो गया है
ये कैसे रिश्ते हैं, जहां आंसू पोंछने को कोई नहीं होता और पीड़ा पहुंचाने में किसी को जरा भी दर्द नहीं होता
जहाँ आप सबके मंन के दुःख को समझें, दूर करने की भरसक कोशिश भी करें पर
आप की बात सुनने वाला....…कोई नहीं!
जब आप गिरें तो संभालने वाला....कोई नहीं!
दर्द अकेले ही सहना होता है! गैरों की क्या कहिए, जब अपने ही रिश्तों में सिर्फ़ प्रशंसा सुनने को आतुर रहते है, उनकी एक ग़लती की तरफ इशारा तो कीजिये और सब कुछ ख़त्म.
आपकी तकलीफ का मोल....कुछ नहीं!
आँसुओं का मोल...कुछ नहीं!
खोई मुस्कानों का मोल...कुछ नहीं!
जो अपना होने का भरम देता रहा, उसके ही द्वारा अकेला छोड़ जाने का मोल.....कुछ नहीं!
गर दस्तक देनी है तो दिलों पर दो!
जो रहना चाहते हो यादों में तो किसी के ह्रदय पर अपना नाम अंकित कर दो!
दर्द देने का वक़्त है तो बांटने के लिए भी निकालो!
क्या हमेशा ही हम सही और सामने वाला ग़लत होता है? आपके अलावा किसी में कोई भी अच्छाई नहीं? आप परफ़ेक्ट हैं और दूसरा इंसान एक डिफेक्टिव पीस? ग़लती न होने पर भी कोई 'रिश्ते' को बचाने की ख़ातिर हाथ जोड़कर आपसे माफ़ी माँगता रहे और आप उसे कोसते रहें, झिड़कते रहें....इसका मतलब कि आपको न तो उस इंसान में दिलचस्पी है और न ही रिश्ते को बचाने में. ये भी संभव है कि आप सब कुछ ख़त्म करने के लिए सिर्फ़ एक बहाने की तलाश में हैं.
इसका यह तात्पर्य हुआ कि दरअसल कोई किसी का है ही नहीं..और न होगा कभी! संबंधों को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय 'मौन' ही है, जहाँ रोज ही घुट-घुटकर एक मौत होती है पर शरीर ज़िंदा रहता है; दिखाई देता है आभासी मुस्कानों को लपेटकर अपने जीवित होने का भरम बनाए रखना भी तो आवश्यक होता है न!
पर ये सवाल अब भी अनुत्तरित ही रहा ----
"क्या रिश्ते मात्र 'प्रशस्ति-पत्र' बनकर रह गये हैं?"
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29 - 10 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2144 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंthis is one of the best...
जवाब देंहटाएंwelcome to my new post: http://raaz-o-niyaaz.blogspot.in/2015/10/blog-post.html