बनारस से मेरा रिश्ता बहुत पुराना है, इतना कि मुझे खुद भी याद नहीं! पहली बार वहाँ जाना तब हुआ था जब नानी जी को cancer था और मिर्ज़ापुर के डॉक्टरों ने उन्हें बी.एच.यू. ले जाने की सलाह दी थी. वहीँ रहे थे हम लोग, अब तो मालूम नहीं लेकिन उन दिनों बी.एच.यू. का कैंपस खूब हरा-भरा हुआ करता था. वो एक उदास समय था, इसलिए तब उसमें खेलने-कूदने में कोई आनंद नहीं आता था.
उसके कई वर्षों बाद फिर जाना हुआ, तब नाना मिर्ज़ापुर कॉलेज से रिटायर होने के बाद यहाँ पीएचडी गाइड थे. मैं और मम्मी-पापा 'विश्वनाथ मंदिर' देखने गए थे. बहुत ही संकरी गलियों और अत्यधिक भीड़भाड़ के बीच चलते हुए हम वहां तक पहुंचे थे. दर्शन के बाद लौट ही रहे थे कि अचानक किसी ने मुझे खींच लिया. मैं जोर से चिल्लाई और तुरंत ही माँ-पापा ने भी देख लिया. वो भाग चुका था लेकिन हम सब घबरा गए और सीधे घर वापिस आ गये थे.
तीसरी बार की यात्रा अत्यधिक सुखद रही. वो भी स्कूल के दिनों की ही बात है. हम सब वहां दशाश्वमेध घाट पर गए, बहुत देर तक बैठे रहे थे. अच्छा लगा था वहाँ सीढ़ियों पर बैठे हुए पानी को उछालते रहना! कोई अस्सी घाट नाम से भी कुछ था. पर मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित वहां के तुलसी मानस मंदिर ने किया था. अगर मुझे ठीक से याद है तो ये वही स्थान है जहाँ मैनें पहली बार मंत्रोच्चारण और बोलती मूर्तियों को देखा था. तब कई दिनों तक उनकी स्मृतियाँ मुझे अचरज में डालती रहीं थीं और मैं सबका खूब दिमाग खाती. हर बार यही सवाल करके कि...वो मूर्तियां बोल कैसे रहीं थीं!
मैं मिठाई की शौक़ीन कभी नहीं रही लेकिन वहाँ जाकर लगा था कि मिठाई के बिना ये लोग जी ही नहीं सकते (ये अतिश्योक्ति हो सकती है, पर तब मैनें ऐसा ही पाया था). ये 30 वर्ष पुरानी बात है, आजकल तो नहीं खाते होंगे. मुझे ये मेले टाइप फीलिंग वाली जगहें बहुत पसंद हैं, छोटी-छोटी दुकानों, ठेले वालों के पास बहुत सुन्दर वस्तुएं होती हैं. लकड़ी के रंगीन खिलौने, कारीगरी के सामान और भी न जाने क्या-क्या! बनारस में ये सब कुछ हुआ करता था. हमने खूब खरीददारी भी की थी. वहाँ की बोली बड़ी ही मीठी, प्यारी-सी है. अगर मुझे कोई बात नापसंद थी तो वो वहां के लोगों का पान खाकर यहाँ-वहाँ पिचकारी बना देना.
पता नहीं...तब और अब के बनारस में कितना अंतर आया होगा! आज न्यूज़ में वहाँ शांति की ख़बरें देखकर जहाँ मन को एक तसल्ली मिली वहीँ कुछ कच्ची-पक्की यादें भी ताजा हो आईं।
इसके साथ ही मिर्ज़ापुर भी याद आ गया...जाना है वहाँ एक दिन, कई दिनों के लिए! कब, कैसे और क्यों ये भी पता नहीं! बस, जाना है एक दिन! कुछ नहीं तो नाना-नानी के घर को और उस बगीचे को छूकर लौट आऊँगी, जहाँ की आवाज़ें इन दिनों बहुत पुकार रही हैं!
मुझे कलकत्ता और बोध गया जाना है, लखनऊ, मुंबई भी जाना है....और इसी जीवन में जाना है, ऊपर जाने के बहुत पहले!
- प्रीति 'अज्ञात'
उसके कई वर्षों बाद फिर जाना हुआ, तब नाना मिर्ज़ापुर कॉलेज से रिटायर होने के बाद यहाँ पीएचडी गाइड थे. मैं और मम्मी-पापा 'विश्वनाथ मंदिर' देखने गए थे. बहुत ही संकरी गलियों और अत्यधिक भीड़भाड़ के बीच चलते हुए हम वहां तक पहुंचे थे. दर्शन के बाद लौट ही रहे थे कि अचानक किसी ने मुझे खींच लिया. मैं जोर से चिल्लाई और तुरंत ही माँ-पापा ने भी देख लिया. वो भाग चुका था लेकिन हम सब घबरा गए और सीधे घर वापिस आ गये थे.
तीसरी बार की यात्रा अत्यधिक सुखद रही. वो भी स्कूल के दिनों की ही बात है. हम सब वहां दशाश्वमेध घाट पर गए, बहुत देर तक बैठे रहे थे. अच्छा लगा था वहाँ सीढ़ियों पर बैठे हुए पानी को उछालते रहना! कोई अस्सी घाट नाम से भी कुछ था. पर मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित वहां के तुलसी मानस मंदिर ने किया था. अगर मुझे ठीक से याद है तो ये वही स्थान है जहाँ मैनें पहली बार मंत्रोच्चारण और बोलती मूर्तियों को देखा था. तब कई दिनों तक उनकी स्मृतियाँ मुझे अचरज में डालती रहीं थीं और मैं सबका खूब दिमाग खाती. हर बार यही सवाल करके कि...वो मूर्तियां बोल कैसे रहीं थीं!
मैं मिठाई की शौक़ीन कभी नहीं रही लेकिन वहाँ जाकर लगा था कि मिठाई के बिना ये लोग जी ही नहीं सकते (ये अतिश्योक्ति हो सकती है, पर तब मैनें ऐसा ही पाया था). ये 30 वर्ष पुरानी बात है, आजकल तो नहीं खाते होंगे. मुझे ये मेले टाइप फीलिंग वाली जगहें बहुत पसंद हैं, छोटी-छोटी दुकानों, ठेले वालों के पास बहुत सुन्दर वस्तुएं होती हैं. लकड़ी के रंगीन खिलौने, कारीगरी के सामान और भी न जाने क्या-क्या! बनारस में ये सब कुछ हुआ करता था. हमने खूब खरीददारी भी की थी. वहाँ की बोली बड़ी ही मीठी, प्यारी-सी है. अगर मुझे कोई बात नापसंद थी तो वो वहां के लोगों का पान खाकर यहाँ-वहाँ पिचकारी बना देना.
पता नहीं...तब और अब के बनारस में कितना अंतर आया होगा! आज न्यूज़ में वहाँ शांति की ख़बरें देखकर जहाँ मन को एक तसल्ली मिली वहीँ कुछ कच्ची-पक्की यादें भी ताजा हो आईं।
इसके साथ ही मिर्ज़ापुर भी याद आ गया...जाना है वहाँ एक दिन, कई दिनों के लिए! कब, कैसे और क्यों ये भी पता नहीं! बस, जाना है एक दिन! कुछ नहीं तो नाना-नानी के घर को और उस बगीचे को छूकर लौट आऊँगी, जहाँ की आवाज़ें इन दिनों बहुत पुकार रही हैं!
मुझे कलकत्ता और बोध गया जाना है, लखनऊ, मुंबई भी जाना है....और इसी जीवन में जाना है, ऊपर जाने के बहुत पहले!
- प्रीति 'अज्ञात'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, उधर मंगल पर पानी, इधर हैरान हिंदुस्तानी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंवाराणसी ! लहराती गंगा को अपने में समेटे चिरंतन नगरी -कैसे भूला जा सकता है उसे !
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