रचनाकार केवल उतना ही नहीं होता, जितना दिखाई देता है! उसकी रचनाएँ एक जीवन की पूरी कहानी कहती हैं, उसकी सोच उसके आसपास के वातावरण, सामाजिक व्यवस्था और संस्कारों का प्रतिबिम्ब होती है। यूँ ही कोई कवि / कवयित्री नहीं बन जाता, जब तक उसने संघर्षों को करीब से देखा न हो, महसूस न किया हो! कुछ लोग संघर्ष को आर्थिक परिस्थितियों से जोड़ लिया करते हैं पर बहुधा यह मानसिक और व्यवस्था के विरुद्ध चल रहा अंतर्द्वंद्व भी होता है।जहाँ कुछ न कर पाने की विवशता, मुट्ठी भींचने पर मजबूर कर देती है। इन हालातों से अकेले ही जूझते रहना, आसपास के लोगों द्वारा किये गए हर ताने को बर्दाश्त करना, अपनों का भयाक्रांत हो साथ छोड़ जाना और इन सबसे घायल ह्रदय और उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए अपने 'होने' को और इस 'जीवन' को सार्थक करने का जूनून ही सही मायनों में एक संवेदनशील और भावुक इंसान को रचनाकार में तब्दील कर देता है।
लेखक कभी आत्महत्या नहीं करते, हाँ उनकी हत्या अवश्य हो जाती है। कवि को जूझना आता है, टूटना आता है, हर पीड़ा को सहना आता है, वो जीते भले ही न पर मैदान छोड़ भागता नहीं, उसे डटकर खड़े रहना आता है और इन सबसे भी ऊपर एक और बात..उसे हर हाल में मुस्कुराना आता है!
आह..यही उसके जीवन भर की कमाई और आय-व्यय का लेखा-जोखा है ! :D
भ्रम में बने रहने से बेहतर है डूबना या पार कर जाना! लेकिन उस पार पहुँचने के बाद आवाजों को अनसुना करना भी सीखना होगा. ये हुनर सबमें कहाँ, हमें डूब जाने का डर है और उन्हें उम्मीद! :)
-प्रीति 'अज्ञात'
प्रशंसनीय प्रस्तुति
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