गुरुवार, 28 अगस्त 2014

शतायु भव:

जीवन, ज़िंदगी, साँसें, धड़कन, आरज़ू, प्रेम, इंतज़ार, मायूसी, कभी खुशी कभी ग़म की तर्ज़ पर डूबती-उतराती ये ज़िंदगानी. चाहे कितनी भी शिक़ायत हो इससे, पर जीने की ललक क़ायम रहती ही है. बहुत सी उम्मीदों का पूरा होना बाकी है, कुछ और नये ख्वाब संजोना बाकी है, ज़िम्मेदारियों को निभाना बाकी है, रिश्तों को अपनाना बाकी है...और भी न जाने कितना कुछ ! पर जिस तरह 'जीवन' एक सत्य है, ठीक वैसे ही 'मृत्यु' भी. आज जिसने जन्म लिया है, उसका जाना भी तय है. सभी लोग एक उम्र पूरी करके ही जाएँ, यह भी नहीं होता. कभी अस्वस्थता, कभी दुर्घटना, कभी प्राकृतिक विपदा और कभी यूँ ही अचानक चले जाना, किसी के भी साथ हो सकता है ! हमारा हर दिन इसी 'क्या खोया, क्या पाया' के हिसाब-क़िताब में निकल जाता है, और ज़्यादातर निराशा ही हाथ लगती है. भयानक त्रासदी से सामना सभी का होता है, मेरा भी कई-कई बार हुआ. मौत को कई बार चक़मा भी दिया ! २००१ के भूकंप का गहरा असर पड़ा मुझ पर, भुगता जो था ! उन क्षणों ने जैसे एक ही पल में जीवन की सच्चाई से रूबरू करा दिया था, कि 'जान है तो, जहान है'. तब से लेकर आज तक हर पल की क़ीमत का अंदाज़ा रहने लगा है, मुझे ! जितना कुछ बन पड़ा, समाज के लिए भी करती गई. पर एक सवाल फिर भी मन में था, मेरे जाने के बाद क्या ?

२ वर्ष पूर्व अचानक ही 'शतायु' का पता चला. शायद अक्तूबर २०१२ की ही बात है. यह संस्था, जीवन के बाद भी जीवन देने को संकल्पित है. यानी आपकी मृत्यु के बाद, आपके शरीर के अंगों को किसी और के जीवन के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ! हम चाहते हैं, आप सभी हमेशा स्वस्थ, प्रसन्न रहें, शतायु हों....पर मृत्यु की सच्चाई को भी स्वीकारना ही होगा. तो क्यूँ न खोखली आस्थाओं के भ्रम में न पड़ा जाए और अपने Organs, Donate कर दिए जाएँ..क्यूँ न हम ज़िंदा रहें कहीं, हमारे जाने के बाद भी....क्यूँ न हमारी साँसों के टूटते ही, कोई 'जी' उठे कहीं. क्यूँ न प्लास्टिक और पेपर की तरह ही खुद को भी recycle कर दिया जाए. हर शहर, हर हॉस्पिटल में इस बारे में जानकारी ज़रूर मिलेगी. कितनी खुशी की बात है, जीते हुए भले ही किसी का भला न कर सके पर जाते हुए 'कमाल कर जाना' ! कैसा अहसास होगा, हमारे अपनों के आँसुओं के बीच, कहीं 'एक बुझती लौ का जल जाना' ! शतायु भव:!
                DONATE ORGANS
           :)  LET'S RECYCLE LIFE ! :)

- प्रीति 'अज्ञात'

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

'स्वतंत्रता'.... महसूस क्यों नही होती ?

चित्र - गूगल से साभार
सोमवार से लेकर शनिवार तक, हम सभी की दिनचर्या कितनी नियमितता से चला करती है. वही समय पर उठना, रोजमर्रा की दौड़-भाग भरी ज़िंदगी, काम पर जाना, तय समय पर लौटना और सुकून भरे कुछ पलों की तलाश करते हुए एक और सप्ताह का गुजर जाना ! लेकिन शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है ! बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं. उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं ! 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो. पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं ! 'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है'. पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है ? आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नही, पर एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी ?

स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या 'कर' पाते हैं ? वो तो दूसरों के हिसाब से करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हुमारे नियम, हुमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहाँ अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत ? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है. क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है ? ध्यान रहे, यहाँ एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊँचे पदों पर आसीन शाही लोगों की नहीं ! इसी 'आम नागरिक' की तरफ से कुछ सवाल हैं, मेरे -

* अगर मैं स्वतंत्र हूँ तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती ? कहीं पढ़ा था कि "स्वतंत्रता, स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव को कहते हैं, ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच समझकर सब काम करने का अधिकार होता है".
* तो फिर, किसने छीन ली है मेरी आज़ादी ?, मुझे मेरे कर्तव्य तो हमेशा से दिखते आए हैं, पर मेरे अधिकारों का क्या हुआ ? उन्हें पा लेना मेरी स्वतंत्रता नही ? स्त्री और पुरुष के बीच अधिकार और कर्तव्य का ये कैसा बँटवारा, कि स्त्री के हिस्से में कर्तव्य आए और पुरुषों के में अधिकार? किसने तय की है स्वतंत्रता की ये परिभाषा ? क्या संविधान ऐसा कहता है ?
* मैं रोज ही देखा करती हूँ उसे, कभी कचरे में से सामान बीनते हुए, कभी सर पर स्वयं से भी अधिक बोझा ढोते हुए, कभी  वो किसी होटल में मेहमानों का कमरा साफ करते हुए अपनी 'टिप' के इंतज़ार में दिखता है तो कभी किसी रेस्टौरेंट में बर्तन मांजते हुए चुपके-से एक नज़र दूर चलते हुए टी. वी. पर डाल लिया करता है. मंदिर की सीढ़ियों पर उसे रोते-सूबकते उन्हीं उदार इंसानों की डाँट खाते हुए भी देखा है, जो अपने नाम का पत्थर लगवाने के हज़ारों रुपये दान देकर उसके पास से गुजरा करते हैं, इन सेठों के जूते-चप्पल की रखवाली करता बचपन अपनी स्वतंत्रता किसमें ढूँढे ?
* इन मासूम बाल श्रमिको और आम नागरिकों में बस इतना ही अंतर है, कि हमें अपने अधिकारों का बखूबी ज्ञान है. पढ़े-लिखे जो हैं, क़ानून जानते हैं, सुरक्षा के नियम भी बचपन में ही घोंट लिए थे, तभी दुर्भाग्य से समानता के बारे में भी पढ़ बैठे थे कहीं ! ये तो मूलभूत अधिकार था....बरसों से है ! आख़िर ये समानता इतने बरस बीत जाने पर भी दिखती क्यूँ नहीं ? सब धर्मों को समान अधिकार है, तो कोई दंभ में भर, खुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इतना लालायित क्यों रहता है ? सब वर्ग समान ही हैं, तो हमारे आसपास रोज ही कोई युवा बेरोज़गार, आरक्षण से इतना निराश क्यों दिखाई देता है ? सुरक्षा का अधिकार है तो अकेले निकलने में डर क्यों लगता है ?
* क़ानून है तो न्याय के इंतज़ार में जीवन कैसे गुजर जाता है? सरेआम अपराध करने पर भी, अपराधी बच क्यों जाता है ?. ये समाज और इसके दकियानूसी क़ानून, कुछ स्थानों की सड़ी-गली मान्यताएँ और उनका पालन करने को उत्सुक पंचायती लोग जो, कर्तव्य-पालन से चूक जाने पर सज़ा देना कभी नही भूलते पर स्त्री के अधिकारों की माँग पर कायरॉं से भाग खड़े होते हैं, सवाल करने पर इन्हें अचानक साँप कैसे सूंघ जाता है? इनके बनाए नियम, ये कभी खुद पर क्यों नहीं आजमाते ?
* कौन है, जिसने स्त्री की स्वतंत्रता को छीनकर कर्तव्य की गठरी और तालाबंद अधिकारों की एक जंग लगी संदूकची उसके दरवाजे रख दी है. वो जब-जब उस संदूकची को खोलने का दुस्साहस करे, तो उसके सर और दिल का बोझ दोगुना कैसे हो जाता है ? अगले ही दिन वो टुकड़ों में पड़ी क्यों मिलती है ?
* कौन सी सरकार है, जो स्त्रियों के आत्म-सम्मान को वापिस देगी ? कौन सा दल है जो चुनाव के वादों के बाद सिर्फ़ 'अपनी' नही सोचेगा ? कौन सी अदालत है, जो निर्भया को निर्भय हो जीना सिखा पाएगी ? 
* कौन से अख़बार या टीवी चैनल हैं, जो निष्पक्ष हो खबरें बताएँगे ? 
.ये सब तो फिर भी परिभाषित हो सकेगा पर मानसिक स्वतंत्रता ? उसे पाने के लिए किस युग में जाना होगा ?

मेरी स्वतंत्रता मेरे पास नहीं, मेरे अधिकार मेरे पास नहीं ! मेरे पास भय है..कि मुझे हर हाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, भय है सुरक्षा का, अपने धर्म, संस्कारों के पूर्ण-निर्वहन का...क्योंकि उनको 'ना' कहने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं. मैं विश्वास रखती हूँ हर धर्म में..पर यदि कोई किसी धर्म विशेष के बारे में बुरा बोल रहा है, तो उसे रोकने की स्वतंत्रता मेरे पास नही, मेरे पास उस वक़्त भय होता है, अधर्मी कहलाने का, सांप्रदायिकता फैलाने का ! बाज़ार से गुज़रते हुए मैं सरे-राह क़त्ल होते देख सकती हूँ, शायद कुछ पल ठिठक भी जाऊं, पर संभावना यही है कि मैं डर से छुपकर या अनदेखा कर आगे बढ़ जाऊं ; उस अपराधी को रोकने की स्वतंत्रता नही है मेरे पास ! सिखाया गया है इसी समाज में, कि दूसरे के पचड़ों में न पड़ना ही बेहतर, वरना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा ! मुझे जान प्यारी है, अपना घर, परिवार, दोस्त सभी प्यारे हैं.....इसलिए मैं दंगों में खिड़कियाँ बंद कर लेती हूँ, हिंसा आगज़नी के दौरान घर से निकलना छोड़ देती हूँ..मैं बलात्कार की खबरें देख सिहर उठती हूँ..और घबराकर बहते हुए पसीने को पोंछ, अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचा करती हूँ..जो मिली तो थी, कई बरस पहले ! हाँ, वर्ष याद है मुझे, सबको याद है. क़िताबें भी इसकी पुष्टि करती हैं ! पर कोई ये नही बताता कि तब जो स्वतंत्रता मिली थी, वो अब कहाँ खो गई ? किसने छीन ली, हमारी आज़ादी ? क्या उन स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान व्यर्थ गया, जिन्होंनें इसके लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ? मुझे संशय है कि दूर-दराज आदिवासी इलाक़ों में उस 'आज़ादी' की खबर अब तक पहुँची ही नहीं ? उनके हालात तो यही बयाँ करते हैं ! पर फिर भी लगता है कि वे ज़्यादा स्वतन्त्र हैं, अपनी मर्ज़ी का खाते-पहनते हैं, इन्हें लुट जाने का भय नहीं, ये धर्म के लिए लड़ते नहीं, शिक्षा का अधिकार इन्होंने सुना ही नहीं !

जो मिली थी कभी, उस 'आज़ादी' का 'खून' तो हम भारतीयों की आपसी लड़ाई ने स्वयं ही कर दिया है ! स्वीकारना मुश्किल है, क्योंकि हमारी मानसिकता दोषारोपण की रही है और इसमें विदेशी ताक़तों का हाथ कैसे बताएँ ?
सच तो ये है कि आम भारतीय के लिए आज का दिन आज़ादी के अहसास से भावविभोर होने से कहीं ज़्यादा, 'छुट्टी का एक और दिन' होना है. जिसके रविवार को पड़ने पर बेहद अफ़सोस हुआ करता है !
आज रविवार नहीं, इसलिए मुबारक हो !
आज के दिन अपने स्वतंत्र होने के भाव को दिल खोलकर जी लीजिए ! देशभक्ति के गीत, लहराता तिरंगा, स्कूलों से मिठाई ले प्रसन्न हो घर लौटते बच्चे, परिवार के साथ समय गुज़ारते हुए कुछ लोगों को देख हृदय बरबस कह ही उठता है - 
स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएँ !
नमन उन शहीदों को, सभी वीर-वीरांगनाओं को ! जिनका त्याग और समर्पण हम संभाल न सके ! 
अब भी वक़्त है, आइए अब बेहतर राष्ट्र-निर्माण के लिए एक प्रयत्न हमारी ओर से भी हो ! सच्चे राष्ट्रभक्तों के बलिदानों को हम यूँ व्यर्थ नहीं जाने दे सकते ! एक सफल प्रशासनिक ढाँचा ही हमें सच्ची स्वतंत्रता दिलवा सकता है और इस ढाँचे को बनाने में सभी भारतवासियों का योगदान अत्यावश्यक है ! पहला क़दम उठाना ही होगा ! ईश्वर हम सभी को इस लक्ष्य प्राप्ति में विजयी बनाए, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ, जय हिंद !
- प्रीति 'अज्ञात'