गुरुवार, 22 मार्च 2018

एक बिहारी सबपे भारी

मेरी मित्रता-सूची में सबसे अधिक संख्या में यदि कोई राज्य नज़र आता है तो वो है बिहार/ झारखंड। पता नहीं, यह महज़ संयोग है या कि यहाँ के लोग सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय हैं।
जहाँ हर तरफ़ इस राज्य (मैं अब भी दोनों को एक ही मानती हूँ) को लेकर नकारात्मकता फैली हुई है, वहीं मैं न केवल इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के लिए ही प्रसन्न होती हूँ बल्कि इसे बौद्धिकता और साहित्य के प्रति अगाध प्रेम से पटा हुआ भी पाती हूँ। यहाँ के पठन-पाठन में रुचि रखने वाले लोग जमकर लिखते हैं और अपनी बात को बिना किसी लाग-लपेट के खुलकर कहने में जरा भी नहीं झिझकते। ये अच्छे मित्र हैं, मिलनसार हैं, बातूनी हैं, मस्तीखोर हैं, आशिकमिजाज़ हैं, बिंदास हैं। लेकिन अगर आपकी बात नहीं जँची या फिर आपने कोई बेफिज़ूल बात कह दी तो आवश्यकतानुसार ये दादागिरी पर उतर आने  में भी नहीं चूकते। अभी-अभी ही कुछ मित्रों को याद कर 'दादागिरी' को मैंने 'लड़ाकू और अकडू' के सम्मिश्रण के अर्थ में लेने की गुस्ताख़ी कर दी है।

आज देश भर में त्यौहारों की चमक भले ही धूमिल पड़ती जा रही है,  लेकिन यहाँ के लोगों के भीतर का उत्साह अब भी जीवित है। बल्कि बिहार, उन इक्का दुक्का राज्यों की श्रेणी में आता है जहाँ आज भी उत्सवों को धूमधाम, पारंपरिक तरीक़े और पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। कम-से-कम मुझे तो यही महसूस होता है। 

इस राज्य के साथ जब हम ग़रीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, बढ़ते अपराध, अन्याय और विकृत शिक्षा प्रणाली की बात करते हैं तब हम उस लचर और बेलगाम तंत्र व्यवस्था की चर्चा करना भूल जाते हैं जिसके सुधार के बिना इन समस्याओं से मुक्ति पाना असंभव है। पर यह मात्र बिहार ही नहीं, शेष राज्यों में भी इतना ही विकराल रूप धारण किए उपस्थित हैं। हाँ, बिहारी इन बातों को लेकर अत्यधिक भावुक एवं संवेदनशील हो जाते हैं..यहाँ उन्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण और आत्मशोधन की आवश्यकता है। 
अपनी जन्मभूमि से स्नेह होना स्वाभाविक है, होना ही चाहिए! तभी तो 
हमें नालंदा पर गर्व है, बुद्ध पर अभिमान है, देश को सर्वाधिक प्रशासनिक सेवा अधिकारी देने की प्रसन्नता है, जमीन से जुड़े रहने की ज़िद है पर यदि हमारी कमी को लेकर कोई कुछ इंगित करता है तो उसे सहज स्वीकार कर बदल देने का जुझारूपन भी और बढ़ाना होगा। किसी बहस में उलझने से कहीं ज्यादा प्रयास करने होंगे कि हमारे राज्य की तस्वीर और भी ख़ूबसूरत बने। अंततः हैं तो हम भारतीय ही। देश का हर कोना हमारा अपना ही तो घर है।

आज जबकि मैं यह लिख रही हूँ तो मेरी मित्रता सूची के तमाम प्यारे चेहरे मेरी आँखों में तैर रहे हैं। वे शानदार लेखक, लेखिका, संपादक, पत्रकार, अध्यापक, समाज सेवी, व्यापारी, सरकारी नौकरी में सेवारत और लगभग हर व्यावसायिक क्षेत्र से जुड़े हैं। सबकी अपनी विशिष्ट    पहचान है। इन सबमें अगर कोई बात कॉमन है तो वो है इनका साहित्य के प्रति मोह, अधिकाधिक एवं अच्छा पढ़ने की लालसा और भीड़ में एक अलग पहचान बनाने की अदम्य इच्छाशक्ति।

मैं आप सबको 'बिहार दिवस' पर ख़ूब शुभकामनाएँ और बधाई देती हूँ कि आप अपने राज्य के साथ हम सबको गौरवान्वित करें। मित्रता-सूची में जुड़े होने का शुक्रिया भी क़बूल कीजिए। कई लोग हैं जिनके नाम मैं लेना चाहती हूँ पर संभव है कि इस प्रक्रिया में कई नाम रह भी जाएँ। 
वैसे भी आप लोग कहते हैं न कि 'एक बिहारी सबपे भारी' तो इस बात पर गौर फरमाते हुए और अपने-आप को भावी दुविधा से सुरक्षित रखने  हेतु मैं किसी को टैग न करना ही उचित समझती हूँ।
और हाँ, सुनिए... यदि बिहार देश के गले का हार है तो आप उस हार के गुलाब और गुलाबो हैं। इसी बात पर दिल करे तो दो गुलाबजामुन खा लीजिएगा। 
शेष शुभ ही शुभ है। 
पर सबसे मज़ेदार बात ये है कि हम आज तक बिहार ही न गए। :D 
- प्रीति 'अज्ञात'


मंगलवार, 20 मार्च 2018

केदारनाथ सिंह

*मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी

और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।

आह! और आप इसी विश्वास के साथ चले गए! हाँ, पृथ्वी रहेगी और आपके शब्द भी नम आँखों में यूँ ही तैरते रहेंगे.
मैं स्वयं को उन पाठकों की श्रेणी में देखती हूँ जिनके लिए दिल्ली अभी दूर है, बेहद दूर. ऐसे में जब केदारनाथ सिंह जी सरीख़े साहित्यकारों की कविताएँ हाथ लगती हैं तो अपने अच्छे पाठक होने पर भी संदेह होने लगता है कि आख़िर मैनें अब तक पढ़ा ही क्या है! कितना वृहद और समृद्ध साहित्य है हमारा और उन पुस्तकों को हाथ भर लगाते हुए कैसा बौनापन-सा महसूस होता है! मैं केदारनाथ सिंह जी से कभी नहीं मिली, वही नहीं, उनके समकक्ष साहित्यकारों से भी कभी नहीं मिली. मिलना चाहती थी, अब भी चाहती हूँ पर कहा न...हम जैसों के लिए दिल्ली अभी दूर है! हमें ऐसे सुअवसर जरा कम ही नसीब होते हैं. होते ही नहीं! हमारी औक़ात भी कहाँ! ख़ैर..... 
सोशल मीडिया के कई सकारात्मक पक्ष हैं और उन्हीं के चलते केदारनाथ सिंह जी से कई-कई बार मुलाक़ात हुई, उन्हें पढ़ा और जब-जब उनकी तस्वीर सामने आई तो वही अहसास हुआ जैसे मेरे दादाजी को देखकर हुआ करता था. वही स्नेहिल मुस्कान और नरम-मुलायम सा दिल. यहाँ यह भी स्वीकार करती हूँ कि मैंने उन्हें उतना और इस हद तक कभी नहीं पढ़ सका था जितना कल रात से अब तक. मैं सो ही न सकी. मन बेहद भारी है उनके शब्द इन हवाओं में कहीं आसपास उड़ रहे हैं जैसे और यूँ लगता है -
*"झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की"

तुम ही कहो, क्यों चले गए अब? जानते थे न
*"कि जाना/ हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है."
मैं नए कवि के दुख को ओढ़े इस सोच में बैठी हूँ -
*"क्या जीवन इसी तरह बीतेगा/ शब्दों से शब्दों तक जीने /और जीने और जीने ‌‌और जीने के /लगातार द्वन्द में?

*कितनी लाख चीख़ों /कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद /किसी आँख से टपकी / एक बूंद को नाम मिला- आँसू /कौन बताएगा /बूंद से आँसू / कितना भारी है?

*उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते
हे, विधाता! बस करो....इन पत्तों को अब हरा भी रहने दो!
- प्रीति 'अज्ञात'
*केदारनाथ सिंह

रविवार, 18 मार्च 2018

सौदामिनी...

किसी को किसी से कुछ भी नहीं चाहिए होता है. हर रिश्ता केवल मुट्ठी भर समय की मांग करता है. उसका टिकना, बनना, टूटना, बिखरना इस एक बात पर ही टिका है. कोई तो हो, जो कहे.....कोई तो हो, जो सुने! अपने और पराये के बीच की दूरी इसी समय के दोराहे से होकर गुजरती है. कोई दुःख में काँधे पर हाथ भर रख दे, तो आँसुओं को कैसा सहारा मिल जाता है और जो कभी मुस्कान को उसका जोड़ीदार मिल जाए तो फ़िर उसे खिलखिलाहट में बदलते पल भर की भी देर नहीं लगती. बस ये पाषाण चुप्पियाँ ही हैं जो इंसान को भीतर-ही-भीतर लीलने लगती हैं. धीरे-धीरे गहराई बढ़ती है और गड़प की ध्वनि के साथ अचानक खेल ख़त्म! अब मातम मनाइये या उम्र भर का अफ़सोस कीजिए ....बदले में यही चुप्पी ही हाथ आएगी. दिल सर पटकेगा और एक ही बात दोहराएगा....काश! काश! काश!
लेकिन इस काश! को समझने का समय भी किसके पास होता है? कब होता है?
तक़लीफ़ यह है कि उसे अब भी ज़िंदग़ी से ग़ज़ब का इश्क़ है. 
ख़ामोशियों से चीखती आवाज़ें और सौदामिनी देखें...आख़िर कब तक टिकते हैं!
'सौदामिनी....एक अधूरी कहानी' शनैः शनैः समाप्ति की ओर
- © प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 14 मार्च 2018

स्त्री और पुरुष

पुरुष होने के भी अपने फ़ायदे हैं. जब भी दिल करे आप जब चाहें, जहाँ चाहें, बे-रोकटोक आ-जा सकते हैं. आपके आने-जाने, सुरक्षा-संबंधी फ़िक्र करने और बेतुके प्रश्न पूछने वाला कोई नहीं होता. 
ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ घर से निकलती नहीं पर उस समय भी उन्हें बहुत कुछ manage करके जाना पड़ता है और आने के बाद भी वही प्रक्रिया दोहरानी होती है. मसलन पति, बच्चे, सास-ससुर कोई भी बाहर जाए तो वही है जो सभी घरेलू कार्यों के साथ-साथ सबका खाना पैक करके देगी, हर वस्तु का ख्याल रखेगी और किसी मशीन की तरह धडाधड लगी रहेगी. दिक्कत यह है कि जब वो बाहर जाए तब भी उसे यही सब करके जाना होता है. वो कहीं भी चली जाए, बार-बार फ़ोन करके निश्चिन्त होना चाहती है कि उसके पीछे सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं! दुःख यह है कि घर में घुसते ही उसे पानी की पूछने वाला भी कोई नहीं होता, चाहे कितनी ही लम्बी/छोटी, थकान/परेशानी भरी  यात्रा हो...घर में घुसते ही सब यूँ फरमाइशें करते हैं, गोया अभी पांच मिनट पहले ही बगीचे से टहल घर में घुसी हो!
कुछेक अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कहीं कम; कहीं और भी ज्यादा पर कुल मिलाकर आम भारतीय स्त्री की यही कहानी है. पर मैं इसका दोष घरवालों से कहीं अधिक स्वयं स्त्रियों को ही देती हूँ क्योंकि -
* हमने ही अपने मन को इस चारदीवारी से इस क़दर बाँध रखा है और  इस भरम में जीने लगे हैं कि हमारी अनुपस्थिति में ये सब असहाय हो जाते हैं. बेचारों को चाय भी बनानी नहीं आती, बाहर का खाने की आदत नहीं इत्यादि, इत्यादि. जबकि सब ख़ूब मस्त रहते हैं और हमारे घर में प्रवेश करते ही पुराने फॉर्म में लौट आते हैं.
*हमें अपने-आप पर आवश्यकता से अधिक गर्व है और अपने perfectionist होने का अहसास भी भरपूर हिलोरें मारता है. इसलिए हम यह भरोसा कर ही नहीं पाते कि हमारे बिना सब ठीक रहेगा.
*हमने इसे अपना कर्त्तव्य मानकर पूरी तरह ओढ़ लिया है, इतना कि अपने लिए जीना ही भूल चुके हैं. हमें त्याग और बलिदान की मूर्ति बनना ही भाता रहा है. फिर उसके बाद अपने दुखड़े रोना भी नहीं भूलते कि शादी न की होती तो मैं ये कर सकती थी, वो कर सकती थी. मज़ेदार बात ये है कि जिन सदस्यों को हम अड़चन समझ कोसते रहे हैं, उनके बिना न तो रह सकते हैं और न ही कहीं कोई ठौर है.
*हम बड़े डरपोक क़िस्म के जीव हैं और आजकल के हालातों में कहीं आने-जाने में हमारे ही पसीने छूट जाते हैं और हम पुरुष का साथ चाहते हैं. जबकि पुरुषों ने भी कोई मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग नहीं ली हुई होती है, न ही उनकी चमड़ी बुलेट प्रूफ है. गोली लगने या लूटपाट होने पर उनको भी वही दर्द होगा जिससे हम हाहाकार मचाते हैं. 'मर्द को दर्द नहीं होता' वाली कहावत कितनी ही हिट हो गई हो पर सच यह है कि 'मर्द को भी ख़ूब ज़बर दर्द होता है, बस इस डायलाग के बोझ तले दब वो बेचारा कह ही न पाया कभी! पर फिर ये क्या है कि उनका साथ हममें साहस भर देता है, सुरक्षित होने का अहसास कराता है? कहीं ये इश्क़ वाला लव तो नहीं!
जो भी है, स्त्री होना बहुत अच्छा भी लगता है और नहीं भी...ये सोच भी बड़ी situational चीज है. जब देखो, नेताओं की तरह पाला बदल लेती है.

वैसे कई फ़ायदों के बावजूद भी पुरुष होने की कई दिक्कतें हैं -
* बचपन से ही अच्छी नौकरी पाने की टेंशन वरना घरवालों को चिंता कि इस नाकारा से कौन ब्याह रचाएगा।
* नौकरी मिल गई तो सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने की जी-तोड़ कोशिश. यद्यपि यह हमेशा नाकाम ही होती पाई गई है.
* घर-परिवार, बॉस-नौकरी में सामंजस्य बिठाने की कोशिश उसे चकरघिन्नी बना डालती है. उस पर भी किसी-न-किसी का मुँह फूला हुआ मिलना तय है. 
*छुट्टियों की मारामारी से जूझता यह प्राणी अपने सारे शौक़ भूल चूका होता है और उसका पूरा जीवन घर-बच्चों को खुश करने में बीतता चला जाता है, हालांकि सब अंत तक असंतुष्ट ही बने रहते हैं.
*वो जो शादी से पहले एक गिलास पानी तक भी न लेता था, आज बोतलों में पानी भर फ्रिज़ में रखना सीख गया है.
*अपना जन्मदिन भले ही भूल जाए पर बाक़ी सबकी तिथियाँ रटनी पड़ती हैं उसे.
* कहाँ दस हजार में भी अकेले ठाट से रहता था अब लाखों भी जैसे नित कोई अज़गर निगल लेता है.
*कितनी भी थकान हो, pick & drop करने की ड्यूटी तो उसी की लकीरों में रच दी गई है.
*उसके जीने का एकमात्र उद्देश्य अपने परिवार का भरण-पोषण है और उसके बाद के लिए भी वह जुटाकर रखने की लाख कोशिशें करता है.
*और हाँ, इन्हें भी मशीन समझा जाता है. कौन सी? ATM ...
हाय ख़र्चा कर-करके हम लोग इनका जीना मुहाल कर देते हैं.

कृपया विचार कीजिए, कहीं ऐसा तो नहीं कि विवाह ही हर समस्या की जड़ है?
आदर्शवाद से परे आप क्या कहते हैं?
#भारतीय समाज की दुखी आत्माएँ
MORAL: इतना टेंशन भी ठीक नहीं! कभी हँस भी लिया करो! 
- प्रीति 'अज्ञात'