शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

ऐसे भी कोई जाता है क्या!

दस वर्ष से भी अधिक समय हुआ जब मैं उनसे पहली बार मिली थी। मिलना भी क्या, इसे टकराना ही कहना उचित होगा। ठीक पौने ग्यारह बजे मैं अपने घर से जिम को निकलती और रास्ते में हम एक-दूसरे को देखते। धीरे-धीरे मुस्कान का आदान-प्रदान भी होने लगा और फिर कभी जब वो चेहरा न दिखता तो चिंता होने लगती थी। एक अपनापन-सा हो गया था। एक बार ऐसा भी हुआ कि मैं अन्य प्राथमिकताओं के चलते दो दिन जा न सकी थी। फिर जब गई तो अचानक ही एक आवाज़ ने मुझे चौंका दिया। "अरे, रुकिए न!" मैं अचकचाकर रुक गई। कुछ कहती, इससे पहले ही उन्होंने कहा "आप कितना प्यारा हँसती हो... और ये बाल कहाँ सेट करवाये? आप पर बहुत सूट करते हैं।" इस बात से भी ज्यादा उनके आँखें मचमचाकर कहने के अंदाज़ ने मेरा मन मोह लिया था और फिर बातों-बातों में ही पता चला कि हम दोनों एक ही जगह जाते हैं बस timings अलग हैं। धीरे-धीरे हम दोस्त भी बन गए। 

वो अपने सिर को स्कार्फ़ से ढका करतीं थीं। बाद में पता चला कि उनको breast cancer हुआ था। ट्रीटमेंट भी पूरा हो चुका था। पर फिर brain और शरीर के अन्य हिस्सों पर भी इसका असर होने लगा और बीते सत्रह वर्ष उन्होंने इसी बीमारी के साथ गुजारे। मुझसे बहुत सारी बातें शेयर करतीं थीं और बच्चों-सी छोटी-छोटी ख़्वाहिशें भी। जैसे कभी उन्हें फ़ूड कोर्ट में जाकर पिज़्ज़ा खाना होता था तो एक बार गांधी घड़ी लेने की धुन सवार हुई थी। और फिर हम दोनों साथ जाकर इच्छा पूरी करने के बाद ही चैन से बैठते। यहाँ ये जरूर बताना चाहूँगी कि उस गाँधी घड़ी का शौक़ मुझे भी था और उनके बहाने से मैं भी ले आई थी।

कई बार मेरे कॉल न करने या घर न जाने पर वो नाराज़ होती भीं तो ख़ुद ही कह देतीं कि देख, तू खिलखिलाकर हँसना मत, वरना मैं तुझे गाली नहीं दे पाऊँगी। जाहिर है, मैं हँस देती थी।हम दोनों ही जानते थे कि ये दिल का रिश्ता है जो बंधनों का मोहताज़ नहीं! अज़ीब-सा रिश्ता था ये, कि उन्हें मुझ पर गर्व होता था और मैं उनसे प्रेरणा लिया करती थी। उन्हें अपने कम पढ़े-लिखे होने का बहुत मलाल रहता था लेकिन उनसे बेहतर, सभ्य और ज़िंदगी को सकारात्मक तरीके से जीने वाला इंसान मैंनें आज तक नहीं देखा! हर काम स्वयं करतीं थी और वो भी बिना शिकायत। 

मैं जितना सरप्राइज़ से चिढ़ती हूँ, उन्हें उतना ही मज़ा आता था। ठीक से याद नहीं पर शायद सितंबर 2016 में कभी मैं अपनी फ्रेंड नीता के साथ (जो कि अमेरिका से आई हुई थी) उनके घर दोपहर अचानक ही पहुँच गई थी। मैडम जी चटखारे लेकर दालबडे (जिसे मैं मंगौड़े कहती हूँ) खा रहीं थीं, वो भी हरी मिर्च के साथ। उनकी कोई दोस्त लेकर आई थी। फिर हमने साथ में चाय बनाई। यादगार पल थे। सरप्राइज़ पाकर वो भी खिल उठीं थीं। 

उसके कुछ दिन बाद वो मेरे घर आईं। बेहद कमजोर हो गईं थीं। 
"देख लेना, एक दिन मेरी अर्थी तेरे घर के सामने से ही जायेगी और तुझे पता भी नहीं चलेगा।" स्नेह भरे उलाहने के साथ मेरे कंधे पर थपकी मारते हुए उन्होंने कहा था। 
"ऐसा करना, सुबह पौने सात पर निकलना। उस समय मैं बेटी को बाय करने बाहर वाले गेट पर ही होती हूँ।" उन्हें हँसाने के उद्देश्य से मैंनें मज़ाकिया लहजे में कहा। 
"ओये, मुझे कैसे पता चलेगा कि कब ले जाएँगे। चल, मैं अपने हसबैंड को बोल दूँगी कि जब बेसना की सूचना पेपर में दें, तो मेरे बड़े वाले फोटो के साथ दें।" इस बार उनके भाव में थोड़ी संज़ीदगी थी। 
मेरी आँखें भी भर आईं थीं। उनके गले लिपटते हुए बोली, "कुछ नहीं होगा आपको। अभी तो अगली बार मेरे साथ marathon में जाना है।"
इस बात से उनके चेहरे पर शैतानी भरी, प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी क्योंकि वो जानती थीं मैं रेस तो हमेशा पूरी करती हूँ पर अस्थमा के कारण अधिक दौड़ नहीं सकती।  खिलखिलाते हुए बोलीं, "फिर तो मेरी जीत तय है।"
"हाँ, आपकी जीत तो हमेशा से तय है....कुमुद बेन। आपसे ही तो मैं प्रेरणा लेती हूँ।" ये कहते हुए उनका हाथ थाम मैं उन्हें ड्राइंग रूम तक ले आई थी।

अब जो ख़बर मिली तो यक़ीन ही न हुआ। पता नहीं कैसे इस बार आप हार गईं! जबकि ये जीत तो बेहद जरुरी थी। आपकी वो बात भी सच हो गई, मुझे आपके जाने की ख़बर महीनों बाद ही मिली....!
आपसे इंटरव्यू का वादा था मेरा, दो बार कॉल भी किया। बात न हो सकी तो लगा व्यस्त होंगी। कहाँ पता था कि आप तो....!

इंटरव्यू तो न हो सका, पर आपकी बातें साझा की हैं मैंनें कि लोग मर-मर कर न जीएँ और आपसे प्रेरणा लें कि हर परिस्थिति में जीवन को मुस्कुराते हुए कैसे जिया जाता है। मुझे गर्व है कि मैं आपको जानती थी और आपसे कई-कई बार मिली थी।
आप सुन पा रही हो न? Really missing u yaar!
ऐसे भी कोई जाता है क्या! :(
- प्रीति 'अज्ञात'

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

आ तो प्रेम छे!

आ तो प्रेम छे

गणित को मुख्य विषय न भी चुना हो और भले ही आप कला, वाणिज्य या किसी भी संकाय के विद्यार्थी/ शिक्षक रहे हों। पर आपका इन समीकरणों से पाला न पड़ना ठीक वैसा ही है जैसे कि आप इस दुनिया में तो पधार चुके पर सूरज की किरणों से महरूम रह गए हों।
यूँ तो समीकरण सुनते ही सबसे पहले गणितीय सूत्र दिमाग में भटकने शुरू हो जाते हैं। पर भले ही अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति के गहरे सागर में भटकते नदी-नाव के क़ातिलाना सवालों ने न जाने कितने मासूमों को बीच भँवर में ही डुबो उनकी अंकसूचियों की ज्यामिति बिगाड़ दी हो लेकिन हर समीकरण का इस विषय से कोई लेना-देना नहीं होता। मने, समीकरण तो छे....पर गणित नथी!

अह्हा! क्या दिन थे वो! याद है,  श्यामपट्ट पे उजली चॉक से मोती की तरह उकेरा गया ये चक्रवाती फॉर्मूला -
राजेश+ गीता = love
जिसने भी इस ब्रह्मसूत्र की उत्पत्ति की, उसमें जरूर अपने जुक्कू भैया के पूर्वजों का लहू रहा होगा। सौ फ़ीसदी होगा तो नर ही। नारी बेचारी, लज्जा की मारी ऐसा कब्बी भी सोच ही नहीं सकती और वो भी उन तथाकथित बैकवार्ड दिनों में, तौबा-रे -तौबा!

ब्रेकिंग न्यूज़ ये कि इस प्रेम भरे फॉर्मूले की व्युत्पत्ति के लिए प्रेम होना क़तई अनिवार्य नहीं था। अरे, ये ढाई-तीन दशक पहले की बातें हैं, जब प्रेम के होने, मन ही मन घबराने और उसके बाद काँपते-काँपते कह देने के आखिरी एपिसोड तक पहुँचने के पहले ही लड़की आपको मामा बनाकर भारी ह्रदय से किसी और घर की चौखट पर क़दम रख चुकी होती थी या फिर लड़का दहेज़ लोलुप परिवार, दवाब या अलग जाति का होने की महानतम ग्लानि लिए त्याग और बलिदान की अमर कहानी लिख शहीद हो चुका होता था। ख़ैर, फिलहाल सेंटियाने की जरुरत नहीं, बात कुछ अउर ही है।

तो उस दशक में लड़के-लड़की में दोस्ती नाम का कॉन्सेप्ट ही नहीं था। अगर आप बात करते हुए पकड़ लिए गए, तो अगले ही दिन आपका समीकरण तो बेट्टा बन के रहेगा। भले ही आप अपने मोहल्ले की,मकान मालिक की लड़की या गुप्ता आंटी की बेटी से साइकिल में हवा भरवाने को दस पैसे की भिक्षा मांग रहे हों, या फिर पंक्चर ठीक कराने को चवन्नी। लड़की भी कई बार "भैया, जरा साइकिल का लॉक खोल देना" कह रही होती थी। पर दूरदर्शन का ग़ज़ब का क्रेज़, उन दिनों ऐसी ख़बरों को प्राइम टाइम में प्रसारित किया करता था, प्राइम टाइम बोले तो पहला पीरियड। ये समीकरण निम्न स्थानों पर मुख्य रूप से पाए जाते थे -
* श्यामपट पर या कक्षा के सबसे छुटके वाले स्टूल की बायीं टांग पर,
* टूटी हुई डेस्क के बड़के खड्डे में,
* साइकिल स्टैंड की २ फुट ऊंची दीवार की अंदर वाली साइड
* केंटीन की बाहरी एकदम पिच्छू वाली दीवार या कोई भी ऐसी दीवार जहाँ पर प्रिंसिपल की मनमोहक दृष्टि की कुदृष्टि में परावर्तित हो जाने की आशंका न्यूनतम हो।

बड़ा ही अजीबो गरीब होता था यह दृश्य (अब सेंटिया सकते हो) लड़के जहाँ इस समीकरण को देख हंसी-ठट्ठा कर रहे होते थे। लड़की वहीं शरम से भीतर तक गड़ जाती थी। मल्लब हमाई जैसी हाइट (हैं, उसे हाइट नी कहते पगली) के लोग तो अदृश्य ही समझो। कुछ लड़कियाँ उसके आँसू पोंछते हुए उसे ढाँढस बँधातीं और कुछ आपस में कानाफूसी करती नज़र आतीं। "हाँ, मैंनें भी देखा तो था एक दिन दोनों को बातें करते हुए। फिर सोचा, हमें क्या" कंधे उचकाकर वो अपनी विनम्रता और महानता की बधाई लेना कभी नहीं भूलती थी। उधर लड़कों में से भी इक्के-दुक्के, लड़की से सहानुभूति डॉट कॉम का ये गोल्डन चांस लेने में पल भर भी न गंवाते। ज्यादा जलकुकड़े टाइप हुए तो अपने दो-चार दोस्तों (मन में दुश्मन) के नाम बताकर अपने मित्र धर्म का खूब श्रद्धापूर्वक निर्वाह करते। उनके प्रेरणास्रोत जय ने भी तो वीरू के साथ यही किया था न, उनकी दोस्ती कित्ती पक्की हो गई फिर। नहीं क्या! एवीं हर बात में उल्टा न सोचा करो, मास्साब!

खैर, उस दिन दुर्भाग्य से जो बंदा /बंदी अनुपस्थित होते, वो आलसी, निखटटू, होमवर्क न करने के लिए रोज स्टूल पे कुकड़ूँ -कूँ करने वाले दुष्ट प्राणी भी इस घटना में भारी बहुमत से दिलचस्पी लेते और इस सनसनीखेज़ घटना को पायथागोरस प्रमेय की तरह एक बार पुनः समझने की कोशिश खूब दिल लगा के करते। और फिर उसपे उनकी विशिष्ट धांसुआत्मक टिप्पणी, उफ़ चाणक्य अंकल जी भी ऐसा न सोच सकते कभी। माने दिमाग तो इनमें भी जबर होता है, बस किताबें ही बैरन भई जाती हैं। जो हुसियार निकले, उन्हें मुई विदेशी कंपनियां लूट लेती हैं। 

सामाजिक समस्या फिर कभी, अभी तो मुद्दे पे रहो। सो, बात स्कूल-कॉलेज में ही सुलट गई, तो नए समीकरण के आते ही इस पुराने केस की फाइल सरकारी कार्यालयों के कागजों की भांति धूल फांकती फिरती थी। पर जो मामला घर तक पहुँचा, लो जी तब तो हो गई जय राम जी की। एकदम इमरजेंसी जैसा गंभीर माहौलवा, तत्काल सनराइज की तरह अइसा इमर्ज होता था कि का कहें! लड़की का आना-जाना बंद और लड़का यू-टर्न मार के नए समीकरण बनाने में व्यस्त हो जाता।
वैसे बड़े समर्पित भी थे, उस समय के लड़के। अपनी जिम्मेदारियों से मुँह न मोड़ते थे कभी। जो आशिक़ थे वो पॉकेट मनी के पैसे बचा, चुंगी वाली दूकान पे थम्स अप पीकर ग़म भुलाने की सफल कोशिश करते। और हाँ, ऐसा नहीं कि लड़कियाँ एकदम ही भोली भाली थीं, उनकी नोटबुक के अंतिम पृष्ठ पर ऐसे दसियों संभावित समीकरणों का जत्था कई बार पकड़ा जाता था। बस, वो बात पब्लिक न होती और राष्ट्रहित( केस मत करना, पिलीज़) के नाम दबा दी जाती थी। 

भला था, बुरा था जैसा भी था...पर होता असल था। इससे जुड़े किस्से, मस्ती, खी-खी, खू-खू का अपना एक अलग ही आनंद भी हुआ करता था। दुःख होता भी कभी, तो दोस्तों की मस्ती के इरेज़र से मिट भी जाया करता था। पढ़ाकू लोग पढ़ते, शैतान इश्कियाते और लड़ाकू ढिशुम-ढिशुम में मगन। पर फिर भी बड़ी हार्मोनी भरी दुनिया थी वो। आजकल तो हर समीकरण उलझा-उलझा सा। 'प्रेम' में भी 4 बैकअप रखते हैं, मुए आशिक़। ज्ञानकोष में बढ़त करनी हो तो, ई बाँच लो-

राजेश+ गीता = love
गीता +धर्मेन्द्र = टूटा दिल 
धर्मेन्द्र +सुनीता = टूटे दिल में तीर तीन सेंटी मीटर तक भीतर धंसा हुआ
राजेश + सुशीला = दिल के दो बड्डे वाले टुकड़े दाएँ-बाएँ समान गति से विचरते हुए
धर्मेन्द्र +राजेश = दो धड़कते दिल पे एक सहमता गुलाब
सुनीता +गीता = समाज की कटी नाक
धर्मेन्द्र +सुनीता = उम्मीद तो हरी है
सुनीता +राजेश = कह दो कि तुम हो मेरी वरना, गीता के संग ही मुझको मरना 

मस्तिष्क की तमाम रुधिर वाहिनियों पर इत्ता जोर न दो भई!
अरे, आ तो प्रेम छे, प्रेम छे, प्रेम छे! :D 
- प्रीति 'अज्ञात'