आ तो प्रेम छे
गणित को मुख्य विषय न भी चुना हो और भले ही आप कला, वाणिज्य या किसी भी संकाय के विद्यार्थी/ शिक्षक रहे हों। पर आपका इन समीकरणों से पाला न पड़ना ठीक वैसा ही है जैसे कि आप इस दुनिया में तो पधार चुके पर सूरज की किरणों से महरूम रह गए हों।
यूँ तो समीकरण सुनते ही सबसे पहले गणितीय सूत्र दिमाग में भटकने शुरू हो जाते हैं। पर भले ही अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति के गहरे सागर में भटकते नदी-नाव के क़ातिलाना सवालों ने न जाने कितने मासूमों को बीच भँवर में ही डुबो उनकी अंकसूचियों की ज्यामिति बिगाड़ दी हो लेकिन हर समीकरण का इस विषय से कोई लेना-देना नहीं होता। मने, समीकरण तो छे....पर गणित नथी!
अह्हा! क्या दिन थे वो! याद है, श्यामपट्ट पे उजली चॉक से मोती की तरह उकेरा गया ये चक्रवाती फॉर्मूला -
राजेश+ गीता = love
जिसने भी इस ब्रह्मसूत्र की उत्पत्ति की, उसमें जरूर अपने जुक्कू भैया के पूर्वजों का लहू रहा होगा। सौ फ़ीसदी होगा तो नर ही। नारी बेचारी, लज्जा की मारी ऐसा कब्बी भी सोच ही नहीं सकती और वो भी उन तथाकथित बैकवार्ड दिनों में, तौबा-रे -तौबा!
ब्रेकिंग न्यूज़ ये कि इस प्रेम भरे फॉर्मूले की व्युत्पत्ति के लिए प्रेम होना क़तई अनिवार्य नहीं था। अरे, ये ढाई-तीन दशक पहले की बातें हैं, जब प्रेम के होने, मन ही मन घबराने और उसके बाद काँपते-काँपते कह देने के आखिरी एपिसोड तक पहुँचने के पहले ही लड़की आपको मामा बनाकर भारी ह्रदय से किसी और घर की चौखट पर क़दम रख चुकी होती थी या फिर लड़का दहेज़ लोलुप परिवार, दवाब या अलग जाति का होने की महानतम ग्लानि लिए त्याग और बलिदान की अमर कहानी लिख शहीद हो चुका होता था। ख़ैर, फिलहाल सेंटियाने की जरुरत नहीं, बात कुछ अउर ही है।
तो उस दशक में लड़के-लड़की में दोस्ती नाम का कॉन्सेप्ट ही नहीं था। अगर आप बात करते हुए पकड़ लिए गए, तो अगले ही दिन आपका समीकरण तो बेट्टा बन के रहेगा। भले ही आप अपने मोहल्ले की,मकान मालिक की लड़की या गुप्ता आंटी की बेटी से साइकिल में हवा भरवाने को दस पैसे की भिक्षा मांग रहे हों, या फिर पंक्चर ठीक कराने को चवन्नी। लड़की भी कई बार "भैया, जरा साइकिल का लॉक खोल देना" कह रही होती थी। पर दूरदर्शन का ग़ज़ब का क्रेज़, उन दिनों ऐसी ख़बरों को प्राइम टाइम में प्रसारित किया करता था, प्राइम टाइम बोले तो पहला पीरियड। ये समीकरण निम्न स्थानों पर मुख्य रूप से पाए जाते थे -
* श्यामपट पर या कक्षा के सबसे छुटके वाले स्टूल की बायीं टांग पर,
* टूटी हुई डेस्क के बड़के खड्डे में,
* साइकिल स्टैंड की २ फुट ऊंची दीवार की अंदर वाली साइड
* केंटीन की बाहरी एकदम पिच्छू वाली दीवार या कोई भी ऐसी दीवार जहाँ पर प्रिंसिपल की मनमोहक दृष्टि की कुदृष्टि में परावर्तित हो जाने की आशंका न्यूनतम हो।
बड़ा ही अजीबो गरीब होता था यह दृश्य (अब सेंटिया सकते हो) लड़के जहाँ इस समीकरण को देख हंसी-ठट्ठा कर रहे होते थे। लड़की वहीं शरम से भीतर तक गड़ जाती थी। मल्लब हमाई जैसी हाइट (हैं, उसे हाइट नी कहते पगली) के लोग तो अदृश्य ही समझो। कुछ लड़कियाँ उसके आँसू पोंछते हुए उसे ढाँढस बँधातीं और कुछ आपस में कानाफूसी करती नज़र आतीं। "हाँ, मैंनें भी देखा तो था एक दिन दोनों को बातें करते हुए। फिर सोचा, हमें क्या" कंधे उचकाकर वो अपनी विनम्रता और महानता की बधाई लेना कभी नहीं भूलती थी। उधर लड़कों में से भी इक्के-दुक्के, लड़की से सहानुभूति डॉट कॉम का ये गोल्डन चांस लेने में पल भर भी न गंवाते। ज्यादा जलकुकड़े टाइप हुए तो अपने दो-चार दोस्तों (मन में दुश्मन) के नाम बताकर अपने मित्र धर्म का खूब श्रद्धापूर्वक निर्वाह करते। उनके प्रेरणास्रोत जय ने भी तो वीरू के साथ यही किया था न, उनकी दोस्ती कित्ती पक्की हो गई फिर। नहीं क्या! एवीं हर बात में उल्टा न सोचा करो, मास्साब!
खैर, उस दिन दुर्भाग्य से जो बंदा /बंदी अनुपस्थित होते, वो आलसी, निखटटू, होमवर्क न करने के लिए रोज स्टूल पे कुकड़ूँ -कूँ करने वाले दुष्ट प्राणी भी इस घटना में भारी बहुमत से दिलचस्पी लेते और इस सनसनीखेज़ घटना को पायथागोरस प्रमेय की तरह एक बार पुनः समझने की कोशिश खूब दिल लगा के करते। और फिर उसपे उनकी विशिष्ट धांसुआत्मक टिप्पणी, उफ़ चाणक्य अंकल जी भी ऐसा न सोच सकते कभी। माने दिमाग तो इनमें भी जबर होता है, बस किताबें ही बैरन भई जाती हैं। जो हुसियार निकले, उन्हें मुई विदेशी कंपनियां लूट लेती हैं।
सामाजिक समस्या फिर कभी, अभी तो मुद्दे पे रहो। सो, बात स्कूल-कॉलेज में ही सुलट गई, तो नए समीकरण के आते ही इस पुराने केस की फाइल सरकारी कार्यालयों के कागजों की भांति धूल फांकती फिरती थी। पर जो मामला घर तक पहुँचा, लो जी तब तो हो गई जय राम जी की। एकदम इमरजेंसी जैसा गंभीर माहौलवा, तत्काल सनराइज की तरह अइसा इमर्ज होता था कि का कहें! लड़की का आना-जाना बंद और लड़का यू-टर्न मार के नए समीकरण बनाने में व्यस्त हो जाता।
वैसे बड़े समर्पित भी थे, उस समय के लड़के। अपनी जिम्मेदारियों से मुँह न मोड़ते थे कभी। जो आशिक़ थे वो पॉकेट मनी के पैसे बचा, चुंगी वाली दूकान पे थम्स अप पीकर ग़म भुलाने की सफल कोशिश करते। और हाँ, ऐसा नहीं कि लड़कियाँ एकदम ही भोली भाली थीं, उनकी नोटबुक के अंतिम पृष्ठ पर ऐसे दसियों संभावित समीकरणों का जत्था कई बार पकड़ा जाता था। बस, वो बात पब्लिक न होती और राष्ट्रहित( केस मत करना, पिलीज़) के नाम दबा दी जाती थी।
भला था, बुरा था जैसा भी था...पर होता असल था। इससे जुड़े किस्से, मस्ती, खी-खी, खू-खू का अपना एक अलग ही आनंद भी हुआ करता था। दुःख होता भी कभी, तो दोस्तों की मस्ती के इरेज़र से मिट भी जाया करता था। पढ़ाकू लोग पढ़ते, शैतान इश्कियाते और लड़ाकू ढिशुम-ढिशुम में मगन। पर फिर भी बड़ी हार्मोनी भरी दुनिया थी वो। आजकल तो हर समीकरण उलझा-उलझा सा। 'प्रेम' में भी 4 बैकअप रखते हैं, मुए आशिक़। ज्ञानकोष में बढ़त करनी हो तो, ई बाँच लो-
राजेश+ गीता = love
गीता +धर्मेन्द्र = टूटा दिल
धर्मेन्द्र +सुनीता = टूटे दिल में तीर तीन सेंटी मीटर तक भीतर धंसा हुआ
राजेश + सुशीला = दिल के दो बड्डे वाले टुकड़े दाएँ-बाएँ समान गति से विचरते हुए
धर्मेन्द्र +राजेश = दो धड़कते दिल पे एक सहमता गुलाब
सुनीता +गीता = समाज की कटी नाक
धर्मेन्द्र +सुनीता = उम्मीद तो हरी है
सुनीता +राजेश = कह दो कि तुम हो मेरी वरना, गीता के संग ही मुझको मरना
मस्तिष्क की तमाम रुधिर वाहिनियों पर इत्ता जोर न दो भई!
अरे, आ तो प्रेम छे, प्रेम छे, प्रेम छे! :D
- प्रीति 'अज्ञात'
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