बुधवार, 24 सितंबर 2014

मुझे 'प्रेम' से 'प्रेम' है !

प्रेम' क्या है ? अहसासों की अभिव्यक्ति, अनुभूति, दर्द, टीस, जीने की वजह या ज़रूरत से ज़्यादा ही इस्तेमाल होने वाला महज एक शब्द। जो कभी सच्चा, कभी झूठा, कभी स्वार्थ-निहित, कभी मजबूरी भी हो जाया करता है। क्या प्रेम को समझने के लिए 'प्रेम' करना जरूरी है? शायद हाँ, इसे आत्मा को छूना जरूरी है, इसका रूह तक पहुँचना भी जरूरी है। न जाने कितने आडंबरों से घिरा हुआ है ये 'प्रेम'। पर यह किसी भी कोण से मात्र स्त्री-पुरुष के शारीरिक-आकर्षण तक ही सीमित नहीं। यह भी सच है कि जब इश्क़ की बात आए तो हम सभी लैला-मजनूं, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद, सोहनी-महिवाल की बातें करते हैं। कभी चर्चा होती है, राधा-किशन की तो कभी मीरा-घनश्याम की। यानी ये भी सदियों से तय है कि प्रेम में प्राप्य की इच्छा रखना बेमानी है। तो फिर हम सभी 'प्रेम' से 'प्रेम' क्यूँ नहीं करते? क्यूँ आजकल लोग मोहब्बत के नाम पर ख़ुद को तबाह कर लिया करते हैं और कुछ तो ऐसे भी किस्से होते हैं, जहाँ उम्र-भर साथ निभाने का वादा करने वाले आशिक़ अस्वीकृत हो जाने पर अपने ही प्रेमी/प्रेमिका को बर्बाद करने से नहीं चूकते। प्रेम का यह रूप कितना वीभत्स और घिनौना है। दरअसल ये 'प्रेम' है ही नहीं।

'प्रेम' को परिभाषित करना आसान नहीं, पर मेरा तो यही मानना है कि जीवन-अभिव्यक्ति का सबसे सार्थक रूप प्रेम ही है। यदि इस अहसास को पूरी तरह से जी लिया जाए, तो आपसी वैमनस्य, ईर्ष्या, कटुता, मन-मुटाव जैसे भाव स्वत: ही समाप्त हो जाएँगे। प्रेम एक सुखद अनुभूति है, जिसमें हमें पाने से ज़्यादा देने में सुख का अनुभव होता है। जिससे हम स्नेह करते हैं, उसकी खुशी अपनी-सी लगती है और उसकी ज़रा-सी परेशानी से मन जार-जार रोता है। उन पलकों से आँसू गिरने के पहले ही दुख को भाँप लेना और उसे दूर करने के लिए दिन-रात एक कर देना भी तो इसी प्यार का ही एक सुनहरा रूप है। आँखों में हर वक़्त अपने प्रिय की छवि और उसकी चाहत को दिल में बसाते हुए जीना कितना सुंदर अहसास होता है। 'प्रेम' मानव-जीवन की एक मिठास है, जिसकी प्रथम अनुभूति माता-पिता के अपार स्नेह और देखभाल से होती है। कहते हैं, जो हम दुनिया को देते हैं; हमें भी वही मिलता है तो फिर क्यूँ न हम सब स्नेह भरी वाणी से ही इस दुनिया का दिल जीत लें। कोशिश तो की ही जा सकती है, न ! जितनी वरीयता हम दूसरों को अपनी ज़िंदगी में देंगे, उतनी या उससे ज़्यादा प्राथमिकता शायद वो भी हमें दे दें ! न भी दें, पर हम तो अपना कार्य निश्छलता से करें. समर्पण भी तो प्रेम का एक व्यापक रूप ही है। बच्चों की परवरिश में प्रेमपूर्ण वातावरण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार के ऊपर प्यार का पलड़ा हमेशा भारी रहा है। कभी इन्हीं नन्हे-मुन्नों पर आज़माकर देखिए।

स्त्री-पुरुष का प्रेम जितना सुंदर है, उतना ही क्लिष्ट भी। यहाँ अपेक्षाएँ रिश्तों पर हावी हो जाया करती हैं। कहीं अहंकार तो कहीं अवसाद घुन बनकर सारी सुंदरता को नष्ट कर देते हैं। संभवत: इसीलिए ज़्यादातर प्रेम-कहानियों का अंत दुखद ही होता है। मन से किसी से जुड़ना, विचारों-भावों का मिलन, साथ बीते कुछ हंसते-हँसाते पल इतना प्रेम ही काफ़ी है, जीवन जीने के लिए लेकिन इसके बिना भी तो जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इस ढाई आखर के शब्द ने पूरा साहित्य रच डाला है। 'प्रेम' न होता, तो किस पर लिखते? क्या लिखते? कैसे लिखते? न कविता होती, न कहानी, न गीत, न ग़ज़ल। हम सबके पास ऐसे न जाने कितने पल हैं, जो जीना सिखा देते हैं और अनायास ही हम उन्हें चाहने भी लगते हैं फिर लिख डालते हैं, इन्हीं मधुर-स्मृतियों को प्रेम की स्याही में डुबोकर। कभी मन भावुक हो उठता है, तो कभी प्रसन्न। कभी आँखें दुःख में बरसती है, तो कभी खुश हो छलकती हैं। 'प्रेम' ही 'साहित्य' है और 'साहित्य' ही 'प्रेम' है। 'प्रेम' शिक्षक भी तो है। यही हमें सिखाता है कि सब दिन एक से नहीं होते। सुख और दुःख दोनों ही को समान रूप से लेना चाहिए। परिस्थितियों में समय के साथ परिवर्तन अवश्य होता है, पर इंसान भीतर से वही रहता है। प्रेम विश्वास भी सिखाता है। दुनिया में कितनी खूबसूरती व्याप्त है, इसे सिर्फ़ एक स्नेहिल हृदय ही महसूस कर सकता है। अपने अंतर्मन से पूछिए,

क्या आपको प्रेम है -

बारिश की बूँदों से,
मिट्टी की खुश्बू से,
नदिया की कलकल से,
लहरों की हलचल से,
जंगल के हिरणों से
सूरज की किरणों से,
बहते इन झरनों से
पलते इन सपनों से
फूलों और कलियों से
गाँव और गलियों से
होली के रंगों से
घर के हुड़दंगों से
दीपक की बाती से
बगिया की माटी से
पेड़ों के झूलों से
कच्चे इन चूल्हों से
बच्चों की टोली से
मीठी उस बोली से...... और न जाने ऐसे कितने ही अद्भुत क्षण।

प्रकृति ने हर तरफ से अपने स्नेहांचल में ही तो हमें घेरे रखा है। हरे-भरे वृक्ष से झुकी हुई डालियां, उन पर बैठे खुशी में फुर्र से इधर-उधर फुदकते पंछी और फूलों पर मंडराते हुए भंवरे किसका मन नहीं मोह लेते। झील के किनारे घंटों यूँ ही बैठे रहना, कभी आसमान तो कभी पानी में उसकी छवि निहारना, सब कुछ शामिल है, इस प्रेम में।

हाँ, मुझे इस 'प्रेम' से 'प्रेम' है और आपको??

- प्रीति 'अज्ञात'
* 'साहित्य-रागिनी' वेब पत्रिका के लिए, फ़रवरी'२०१४ में लिखा गया मेरा 'संपादकीय' http://www.sahityaragini.com/rachna.php?id=209

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

यादें !

यादें ! दिल की अलमारी में करीने से सजाया गया वो सामान, जिन्हें हम खुद ही तितर-बितर कर सहेजा करते हैं. कुछ भूले-बिसरे पल, कुछ खुश्बू देते फूल, कुछ आँसू कुछ मुस्कान, किसी का छूटा हुआ रुमाल, कहीं मुड़ा-तुडा कागज, कोई किताब, कोई कविता, किसी का टूटा पेन, बस की टिकट, इस्तेमाल किया हुआ सामान, पसंदीदा रंग, कोई तस्वीर या फिर उसके द्वारा खींची गई बस एक लकीर, लेकिन हर हाल में यादों के इस गुलाबी झोंपड़े में हम सब कितने अमीर ! ये बित्ते भर का दिल; पर इसकी सब कुछ सहेजने की क्षमता अपार है ! हम सब के पास, न जाने कितनी अजीबो-ग़रीब यादें और उनसे जुड़ा सामान बरसों सुरक्षित रखा रहता है, जो कि ज़मीन के बढ़ते भाव की तरह बरस-दर-बरस और कीमती होता जाता है ! किसी की धड़कनें एक ख़ास गीत को सुनकर ही बढ़ जाती हैं, तो कभी उसके शहर का नाम ही दिमाग़ में घूमता रहता है. साथ में पी हुई उस चाय की खुश्बू और वो लकड़ी की बेंच भी कितना याद आती है. एक ही थाली में खाना और फिर चुपके से उसके गिलास से पानी पी लेना इतना रोमांटिक हो सकता है, किसे पता था. सफ़र में बस का अचानक से रुकना और फिर उन दोनों का मन-ही-मन ये सोचना कि बस वहीं खराब होकर खड़ी रहे तो कितना अच्छा हो ! प्रेम की यह सोच कितनी मासूम और अद्भुत है. कभी-कभी तो इस दिल पर ही तरस आता है. कैसे संभाल लेता है ये इतनी यादें, वो भी आजीवन. या ये कहूँ कि इस दिल और इसमें बसी यादों के सहारे ही लोग बरसों जी लेते हैं. न जाने क्या सच है और कितना, पर जैसा भी है; है बड़ा ही खूबसूरत ! जीवन में कुछ बातें यकायक ही होती हैं, हाँ..प्रेम भी ! पर यह अहसास ही अनगिनत मधुर स्मृतियों का जन्मदाता भी है और संरक्षक भी !

यादों की महत्ता उन बूढ़ी आँखों से पूछो, जो आज भी संजोया करती हैं. बच्चे का जन्म, उसकी उंगली थामकर चलना सिखाना, स्कूल का पहला दिन. रिपोर्ट-कार्ड और असंख्य यादगार पल ! पिता कैसे दिन-रात मेहनत कर उनकी शिक्षा के लिए एक-एक पाई जोड़ा करते थे और माँ की आँखें आज भी उन दिनों को याद कर भीग जाती हैं, जब बच्चे को दोस्त के घर से आने में देरी हुई थी. आते ही कैसे डांटा था उसे और फिर खुद ही फफककर रो दी थी, ये कहते हुए.." जानता नहीं, कितनी चिंता हो जाती है ?' बच्चे सच में नहीं जानते-समझते ये सब बातें, जब तक वो खुद माँ-बाप नहीं बन जाते ! उस समय तो कंधे उचकाकर निकल जाते हैं. पर बाद में इन्हीं बातों को याद कर आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वो भी तब, जब उनका नंबर आ चुका हो. समय उन्हें पूरी तरह से जकड़े रखता है. काश, ये भी कभी अपने परिवार के साथ उन यादों को ताज़ा करें !

अकेलेपन में यादों का बड़ा सहारा होता है. यदि दिमाग़ पर ज़ोर न भी देना हो तो एलबम से अच्छा कोई दोस्त नहीं, यहाँ हर चित्र एक कहानी कहता है. इसकी एक और  ख़ास बात यह भी है कि इसमें ज़्यादातर खुशियों के पल ही क़ैद होते हैं. पूरा दिन कैसे मुस्कुराते हुए निकल जाता है, पता ही नहीं चलता ! लेकिन चित्र तब भी ख़त्म नहीं होते. क्योंकि हम रुक जाते हैं, हर इक तस्वीर पर.......एक सिरा पकड़ा नहीं, कि मीलों दूर का रास्ता तय कर लिया जाता है. दोस्तों के साथ स्कूल, कॉलेज की मजेदार बातें, किसी दूसरे का टिफिन उसके खाने के पहले ही खाली कर देना, एक की नोटबुक दूसरे के बेग में चुपके से डाल देना और खी-खी कर हँसना, किसी का अपनी टीचर पर ही क्रश देख उसकी खिल्ली उड़ाना फिर खुद ही जाकर उस टीचर को ताड़ना और न जाने ऐसी कितनी ही बेवकूफ़ियाँ ! कैसे जी लिया करते थे उन दिनों ! जिन्हें नींद नहीं आती, वो इन्हीं सुंदर पलों का तकिया लगाकर, मुस्कुराते हुए चैन से सो सकते हैं !

यादें धुंधली पड़ जाती हैं, पर कभी साथ नहीं छोड़तीं ! ये न मिटती हैं, न रूठती हैं, न लड़ती-झगड़ती हैं. हर हाल में दामन थामे रखतीं हैं ! कचोटती भी बहुत हैं, कुछ खुश्बूदार-सी यादें अकेलेपन की क़सक जीवित रखती हैं. पर जो यादें जीवन-पर्यंत अपना रूप नहीं बदलतीं, वो हैं बचपन की यादें ! नानी-दादी के यहाँ कुलाँचें भरकर दौड़ना. अपनी पसंद के खाने की फरमाइश करना, उनके साथ ज़िद मचाकर हर जगह जाने के लिए तैयार रहना, वो भागकर पलंग के नीचे घुसकर चुपचाप से अपनी चप्पल पहन आना और उनके पूछने पर हँस के कह देना कि "हम भी साथ जाएँगे". माँ पल्लू के नीचे से बोला करती कि रहने दे, क्यूँ परेशान कर रहे हो उन्हें ! और ऐसे में अचानक से दादाजी का ये कहना, "कोई बात नहीं, ले जाता हूँ". सुनते ही चेहरा कैसे चमचमाने लगता था ! बात-बेबात अपने ही माता-पिता को धमकाए रखना और फिर चुपके से दादी के पीछे छिप ऐसा मुँह बनाकर देखना, कि वो दोनों खुद ही आगे बढ़ गले लगाने को विवश हो जाएँ !
  
हम सब कभी-न-कभी बल्कि ज़्यादातर ही, ज़िंदगी को कोसा करते हैं..अपने संघर्ष, मुश्किल भरे दिन, आर्थिक हालात और बचपन की खोई मासूमियत को याद कर अपने-आप को और भी परेशान करते हैं. पर दरअसल हमें इसी बचपन का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, क्योंकि इसी ने हमें जीना सिखाया ! पूरे वर्ष आप कहीं भी घूमें,पर ग्रीष्म-अवकाश  में बच्चों को ननिहाल-ददिहाल ज़रूर ले जाएँ ! जीवन और इससे जुड़े कितने ही लोग , कितनी यादें दे जाते हैं, वक़्त के साथ कभी वो ज़ख्म बनती हैं, कभी मरहम...लेकिन बचपन की यादें कभी अपना रंग नहीं बदलतीं, ये जीवित ही रहती हैं, मरते दम तक...ज़िंदा रखें इन्हें, अपने-अपने घरों में ! कुछ ऐसी यादें, जिनके सहारे आप जी सकें.....! ये जब तक साथ हैं, मरने नहीं देंगीं ! चाहें वो एक दिन की हों या बरसों की...... !
तो क्यूँ न सॅंजो लिया जाए, कुछ और सुनहरी यादों को, जी लेते हैं कुछ और बेहतरीन पल, जोड़ लेते हैं कुछ और मधुर स्मृतियाँ, अपने वर्तमान को भरपूर समय देकर, इसे और भी सुंदर बनाकर ! क्योंकि ज़िंदगी अभी बाकी है.......!

- प्रीति 'अज्ञात'
तस्वीर : एक मित्र से साभार !

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

यूँ भी तो होता है....



चित्र - गूगल सर के गॉगल
क्लेमर : नीचे दी गई घटनाएँ पूर्णत: सत्य हैं और इनका हर 'जीवित' या 'मृत' व्यक्ति से सीधा संबंध है. इसे पढ़कर आपका किसी अपने को याद करना महज़ संयोग नहीं, बल्कि हक़ीक़त है. इसे खुद से जोड़कर ज़रूर देखें ! :D

'शिक्षक-दिवस' पर याद आते हैं सभी गुरुजन, आचार्य जी, सर, मेडम और कुछ बेतुके नाम भी, जो हम सभी मस्ती मज़ाक में अपने प्यारे शिक्षकों को दे दिया करते थे. इससे उनको दिया जाने वाला सम्मान कम नहीं होता था, वो तो बस हमारा 'कोड-वर्ड' हुआ करता था... सबको आगाह करने के लिए. इस मामले में लड़कियाँ भी कम नहीं होतीं. पढ़ाई में काफ़ी अच्छी रही हूँ, पर ऐसी बातों में भी खूब दिमाग़ लगता था. तब हमारी टोली के अलावा ये नाम किसी को पता नहीं होते थे, तो हम बड़ी ही सहजता से सबके सामने भी वो नाम ले लिया करते थे. कई बार तो 'टीचर' के सामने भी ! :P असली नाम तो आज भी नहीं बताऊंगी, क्योंकि उनके लिए हृदय में अभी भी उतना ही सम्मान है और जैसी भी इंसान बनी हूँ, अपने माता-पिता और शिक्षकों द्वारा दी गई सीख को अपनाकर ही.

खैर..इस लिस्ट में सबसे ऊपर नाम आता है, हम सबके पसंदीदा 'पॉपिन्स' सर का..उनकी आँखें खूब गोल-मटोल थीं और हर विषय पर बखूबी बोलते थे, मैं उनकी प्रिय विद्यार्थी थी, सो अपनी पसंदीदा गोली का नाम ही हमने उन्हें दे डाला. नये जमाने के लोगों को बता दें, कि ये संतरे के स्वाद वाली अलग-अलग रंगों की खट्टी-मीठी गोलियाँ हुआ करती थीं, जो बाद में और फ्लेवर में भी आने लगीं थीं. इतने ही शानदार थे, हमारे 'पॉपिन्स' सर ! :)

'कन्हैया' सर साँवले-सलौने, प्यारी-सी मुस्कान वाले हुआ करते थे, ये हमें पढ़ाते भी नहीं थे. लेकिन कॉलेज में आते-जाते बस एक बार इनके दर्शन हो जाते, तो बस...हम सबका दिन बन जाता था. कई बार किसी मित्र को वो नहीं दिखते, और हमें पूछ बैठती तो हम बड़े ही आराम से बता देते..अभी नहीं मिलेंगे. वो तो फलानी क्लास में बाँसुरी बजा रहे हैं. वैसे इसे सामान्य भाषा में 'पीरियड लेना' भी कहा जा सकता था ! :D

'मधुमती' और 'चिड़िया' जी भी थीं. एक के लड्डूनुमा केशों की, मोगरे के महकते फूल बाउंड्री बना दिया करते थे, पढ़ाई के साथ-साथ बगीचे की खुश्बू से हम सब खूब मंत्र-मुग्ध हो उठते. जिस दिन वो गजरा लगाना भूल जातीं, उनसे ज़्यादा अफ़सोस तो हमें होता..यूँ लगता था, मानो रेगिस्तान में ऊँट की तरह घिसटते हुए चले जा रहे हैं.  :( वक़्त काटे न कटता ! बार-बार घड़ी को घूरते, तो वो हमें घूरने लगती. गोया कह रही हो,' मैं तो एक मिनट में ६० बार ही चलूंगी, तेरा मन हो :/  तो ब्लेंडर में घुमा दे. 'चिड़िया' जी भी बहुत अच्छी थीं. बस, उनकी फिक़्र बहुत होती थी. वो डाँटने के बाद मुँह बंद करना भूल जाती थीं. हम सबको डर लगता, मच्छर वगेरा न चला जाए. Well, It was a serious concern, you know ! सोचो, क्या हाल होता होगा, उस स्टूडेंट का..जिसको ज़्यादा हँसने की वजह से खड़ा किया गया हो और उसके खड़े होते ही हम भोलेपन में टीचर से कहें..'मेम, देखिए ना वो पेड़ पर कित्ती सुंदर चिड़िया बैठी है' :P ...उफ्फ, उसकी विवशता पर कलेजा मुँह को आता था. क़िस्मत है कि पूरी स्कूल, कॉलेज लाइफ में कभी किसी से कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ. इन फॅक्ट, सबको हमारी इस कला पर बड़ा नाज़ था ! :D

'बैंगन राजा' का त्वचा के रंग से कोई लेना-देना नहीं है, हाँ, बैंगनी उनका पसंदीदा रंग लगता था और मजेदार बात ये थी कि वो स्कूटर से उतरने के बाद भी हेल्मेट नहीं उतारते थे,  :( इसलिए मजबूरी में उन्हें ये नाम देना पड़ गया था. उनके बारे में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
Volcano हमारे H.O.D.हुआ करते थे, भयानक गुस्सा और उसके बाद सब एकदम शांत..और फिर उर्वर भूमि में हम सब खूब दिल लगा पढ़ते थे.

बहुत-सी बेहतरीन यादें हैं, यादगार किस्से हैं. मैं स्वयं भी एक वर्ष, कॉलेज में प्राध्यापिका रही हूँ. सच्ची बोलूं तो, अपने स्टूडेंट्स के अच्छे मार्क्स आने की चिंता के अलावा मुझे इस बात की भी बड़ी उत्सुकता रहती थी, कि इन 'दुष्ट' लोगों ने मेरा नाम क्या रखा होगा ! अपनी ग़लतियों का फल, इसी जन्म में मिलना चाहिए ना ! वैसे अच्छे थे सभी और सम्मान भी खूब करते थे, पर वो गुण तो मुझमें भी थे..तो भी मैं कहाँ मानी ! :P
खैर...'गुरु-शिष्य' परंपरा भी सच है और ये भी होता ही है...हर समय, हर कोई सज्जन नहीं हो सकता है, शैतानी इस उम्र का अहम हिस्सा है. आज भी ये 'दिवस' वगेरा मुझे बहुत अच्छे लगते हैं..कहने की बात है कि हर दिन, हर दिवस मनाना चाहिए ! कौन मनाता है ? किसके पास इतनी फ़ुर्सत है ? लोग जन्म दिवस भी भूल जाते हैं, आजकल फ़ेसबुक नोटिफिकेशन की कृपा है, कि हम अंजान चेहरों को भी बधाइयाँ दे सकते हैं. वरना अगर ये तिथियाँ और दिवस न हों, तो हमारे और चींटी के जीवन में फ़र्क़ ही क्या ? बस मेहनत करो और रेंगते रहो......हँसोगे कब ? :O

* MORAL : हर पल, हर दोस्त, हर रिश्ता बहुत कुछ सिखाता है. एक बच्चा अपनी मासूमियत से बहुत कुछ सिखा सकता है और वृद्ध अनुभवों से. सीखने में झिझक कैसी ? यही तो जीवन है....जिसकी कक्षा में प्रतिदिन शिक्षक बदलते हैं ! अपने पसंदीदा शिक्षक का साथ कभी न छोड़ना, ताने देंगे..डाँटेगे भी...... पर उनसे ज़्यादा परवाह और कोई नहीं करता ! :)
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 3 सितंबर 2014

शाम की अपनी कहानी है....सारे दिन की व्यस्तता और मन की बेवजह उड़ान एक अनचाही-सी थकान पैदा कर देती है. हृदय की धड़कन, अभी सुस्त है, पर रुकी नहीं. लेकिन फिर भी मन निढाल-सा, मायूस हो ठहर जाता है कहीं ! ये कैसा इंतज़ार है, जो थमता ही नहीं ! हर उदास शाम, यूँ ही बैठ जाना और सुबह होते ही, अचानक पंख फड़फड़ा दुगुनी तेज़ी से उड़ जाना ! न जाने, रोज ही ये हिम्मत कैसे टूटती है और रोज ही इतना हौसला कहाँ से पैदा होता है. खैर, जो भी है ; ज़रूरी है, इसका होना भी ! चलते रहना ही तो जीवन है और जब तक जीवन है, चलो..कुछ क़दम यूँ भी सही! 

- प्रीति 'अज्ञात'
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