बुधवार, 3 सितंबर 2014

शाम की अपनी कहानी है....सारे दिन की व्यस्तता और मन की बेवजह उड़ान एक अनचाही-सी थकान पैदा कर देती है. हृदय की धड़कन, अभी सुस्त है, पर रुकी नहीं. लेकिन फिर भी मन निढाल-सा, मायूस हो ठहर जाता है कहीं ! ये कैसा इंतज़ार है, जो थमता ही नहीं ! हर उदास शाम, यूँ ही बैठ जाना और सुबह होते ही, अचानक पंख फड़फड़ा दुगुनी तेज़ी से उड़ जाना ! न जाने, रोज ही ये हिम्मत कैसे टूटती है और रोज ही इतना हौसला कहाँ से पैदा होता है. खैर, जो भी है ; ज़रूरी है, इसका होना भी ! चलते रहना ही तो जीवन है और जब तक जीवन है, चलो..कुछ क़दम यूँ भी सही! 

- प्रीति 'अज्ञात'
Pic - From my page
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2 टिप्‍पणियां:


  1. अनकहे सच को उजागर करती
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर ---

    आग्रह है --मेरे ब्लॉग में भी शामिल हों
    भीतर ही भीतर -------

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    1. धन्यवाद, ज्योति खरे जी ! आपके ब्लॉग में शामिल हूँ, अब ! :)

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