मंगलवार, 9 सितंबर 2014

यादें !

यादें ! दिल की अलमारी में करीने से सजाया गया वो सामान, जिन्हें हम खुद ही तितर-बितर कर सहेजा करते हैं. कुछ भूले-बिसरे पल, कुछ खुश्बू देते फूल, कुछ आँसू कुछ मुस्कान, किसी का छूटा हुआ रुमाल, कहीं मुड़ा-तुडा कागज, कोई किताब, कोई कविता, किसी का टूटा पेन, बस की टिकट, इस्तेमाल किया हुआ सामान, पसंदीदा रंग, कोई तस्वीर या फिर उसके द्वारा खींची गई बस एक लकीर, लेकिन हर हाल में यादों के इस गुलाबी झोंपड़े में हम सब कितने अमीर ! ये बित्ते भर का दिल; पर इसकी सब कुछ सहेजने की क्षमता अपार है ! हम सब के पास, न जाने कितनी अजीबो-ग़रीब यादें और उनसे जुड़ा सामान बरसों सुरक्षित रखा रहता है, जो कि ज़मीन के बढ़ते भाव की तरह बरस-दर-बरस और कीमती होता जाता है ! किसी की धड़कनें एक ख़ास गीत को सुनकर ही बढ़ जाती हैं, तो कभी उसके शहर का नाम ही दिमाग़ में घूमता रहता है. साथ में पी हुई उस चाय की खुश्बू और वो लकड़ी की बेंच भी कितना याद आती है. एक ही थाली में खाना और फिर चुपके से उसके गिलास से पानी पी लेना इतना रोमांटिक हो सकता है, किसे पता था. सफ़र में बस का अचानक से रुकना और फिर उन दोनों का मन-ही-मन ये सोचना कि बस वहीं खराब होकर खड़ी रहे तो कितना अच्छा हो ! प्रेम की यह सोच कितनी मासूम और अद्भुत है. कभी-कभी तो इस दिल पर ही तरस आता है. कैसे संभाल लेता है ये इतनी यादें, वो भी आजीवन. या ये कहूँ कि इस दिल और इसमें बसी यादों के सहारे ही लोग बरसों जी लेते हैं. न जाने क्या सच है और कितना, पर जैसा भी है; है बड़ा ही खूबसूरत ! जीवन में कुछ बातें यकायक ही होती हैं, हाँ..प्रेम भी ! पर यह अहसास ही अनगिनत मधुर स्मृतियों का जन्मदाता भी है और संरक्षक भी !

यादों की महत्ता उन बूढ़ी आँखों से पूछो, जो आज भी संजोया करती हैं. बच्चे का जन्म, उसकी उंगली थामकर चलना सिखाना, स्कूल का पहला दिन. रिपोर्ट-कार्ड और असंख्य यादगार पल ! पिता कैसे दिन-रात मेहनत कर उनकी शिक्षा के लिए एक-एक पाई जोड़ा करते थे और माँ की आँखें आज भी उन दिनों को याद कर भीग जाती हैं, जब बच्चे को दोस्त के घर से आने में देरी हुई थी. आते ही कैसे डांटा था उसे और फिर खुद ही फफककर रो दी थी, ये कहते हुए.." जानता नहीं, कितनी चिंता हो जाती है ?' बच्चे सच में नहीं जानते-समझते ये सब बातें, जब तक वो खुद माँ-बाप नहीं बन जाते ! उस समय तो कंधे उचकाकर निकल जाते हैं. पर बाद में इन्हीं बातों को याद कर आत्मग्लानि से भर जाते हैं. वो भी तब, जब उनका नंबर आ चुका हो. समय उन्हें पूरी तरह से जकड़े रखता है. काश, ये भी कभी अपने परिवार के साथ उन यादों को ताज़ा करें !

अकेलेपन में यादों का बड़ा सहारा होता है. यदि दिमाग़ पर ज़ोर न भी देना हो तो एलबम से अच्छा कोई दोस्त नहीं, यहाँ हर चित्र एक कहानी कहता है. इसकी एक और  ख़ास बात यह भी है कि इसमें ज़्यादातर खुशियों के पल ही क़ैद होते हैं. पूरा दिन कैसे मुस्कुराते हुए निकल जाता है, पता ही नहीं चलता ! लेकिन चित्र तब भी ख़त्म नहीं होते. क्योंकि हम रुक जाते हैं, हर इक तस्वीर पर.......एक सिरा पकड़ा नहीं, कि मीलों दूर का रास्ता तय कर लिया जाता है. दोस्तों के साथ स्कूल, कॉलेज की मजेदार बातें, किसी दूसरे का टिफिन उसके खाने के पहले ही खाली कर देना, एक की नोटबुक दूसरे के बेग में चुपके से डाल देना और खी-खी कर हँसना, किसी का अपनी टीचर पर ही क्रश देख उसकी खिल्ली उड़ाना फिर खुद ही जाकर उस टीचर को ताड़ना और न जाने ऐसी कितनी ही बेवकूफ़ियाँ ! कैसे जी लिया करते थे उन दिनों ! जिन्हें नींद नहीं आती, वो इन्हीं सुंदर पलों का तकिया लगाकर, मुस्कुराते हुए चैन से सो सकते हैं !

यादें धुंधली पड़ जाती हैं, पर कभी साथ नहीं छोड़तीं ! ये न मिटती हैं, न रूठती हैं, न लड़ती-झगड़ती हैं. हर हाल में दामन थामे रखतीं हैं ! कचोटती भी बहुत हैं, कुछ खुश्बूदार-सी यादें अकेलेपन की क़सक जीवित रखती हैं. पर जो यादें जीवन-पर्यंत अपना रूप नहीं बदलतीं, वो हैं बचपन की यादें ! नानी-दादी के यहाँ कुलाँचें भरकर दौड़ना. अपनी पसंद के खाने की फरमाइश करना, उनके साथ ज़िद मचाकर हर जगह जाने के लिए तैयार रहना, वो भागकर पलंग के नीचे घुसकर चुपचाप से अपनी चप्पल पहन आना और उनके पूछने पर हँस के कह देना कि "हम भी साथ जाएँगे". माँ पल्लू के नीचे से बोला करती कि रहने दे, क्यूँ परेशान कर रहे हो उन्हें ! और ऐसे में अचानक से दादाजी का ये कहना, "कोई बात नहीं, ले जाता हूँ". सुनते ही चेहरा कैसे चमचमाने लगता था ! बात-बेबात अपने ही माता-पिता को धमकाए रखना और फिर चुपके से दादी के पीछे छिप ऐसा मुँह बनाकर देखना, कि वो दोनों खुद ही आगे बढ़ गले लगाने को विवश हो जाएँ !
  
हम सब कभी-न-कभी बल्कि ज़्यादातर ही, ज़िंदगी को कोसा करते हैं..अपने संघर्ष, मुश्किल भरे दिन, आर्थिक हालात और बचपन की खोई मासूमियत को याद कर अपने-आप को और भी परेशान करते हैं. पर दरअसल हमें इसी बचपन का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, क्योंकि इसी ने हमें जीना सिखाया ! पूरे वर्ष आप कहीं भी घूमें,पर ग्रीष्म-अवकाश  में बच्चों को ननिहाल-ददिहाल ज़रूर ले जाएँ ! जीवन और इससे जुड़े कितने ही लोग , कितनी यादें दे जाते हैं, वक़्त के साथ कभी वो ज़ख्म बनती हैं, कभी मरहम...लेकिन बचपन की यादें कभी अपना रंग नहीं बदलतीं, ये जीवित ही रहती हैं, मरते दम तक...ज़िंदा रखें इन्हें, अपने-अपने घरों में ! कुछ ऐसी यादें, जिनके सहारे आप जी सकें.....! ये जब तक साथ हैं, मरने नहीं देंगीं ! चाहें वो एक दिन की हों या बरसों की...... !
तो क्यूँ न सॅंजो लिया जाए, कुछ और सुनहरी यादों को, जी लेते हैं कुछ और बेहतरीन पल, जोड़ लेते हैं कुछ और मधुर स्मृतियाँ, अपने वर्तमान को भरपूर समय देकर, इसे और भी सुंदर बनाकर ! क्योंकि ज़िंदगी अभी बाकी है.......!

- प्रीति 'अज्ञात'
तस्वीर : एक मित्र से साभार !

11 टिप्‍पणियां:

  1. हर दिन यादों में इजाफा होता ही रहता है ...
    हर छोटी सी चीज से यादें कैसे जुड़ जाती है कोई नहीं जनता

    लाजवाब आलेख :)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, बिल्कुल..हर पल एक नई याद जोड़ देता है ! शुक्रिया, रोहित जी ! :)

      हटाएं
  2. सुन्दर !यादें हमारा अक्ष ,अक्श
    दोनों ही हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. zindagi abhi waakai mein baaki hai...
    bahut sundar rachna...!!

    welcome to my 100th post :

    http://raaz-o-niyaaz.blogspot.com/2014/09/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं