शनिवार, 29 मार्च 2014

स्वप्न की दहलीज़ पर (लघु-कथा)



वो बरसों तक उसी दहलीज़ पर ही थी. भरे हुए नयनों से बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर शब्द गले तक आकर ही अपना दम घोंट लिया करते थे. कभी दो-चार अक्षर सकपकाकर बाहर आए भी, तो तिरस्कार ने तुरंत ही बेरहमी से उनका दमन किया. कहते हैं उसकी मुस्कान सबका दिल जीत लेती थी, लेकिन उसके दिल पर क्या बीत रही है, ये जानने की ज़हमत किसी ने कभी नहीं उठाई. सबकी अपनी एक दुनिया है और उससे जुड़ी ख्वाहिशें ! पलटकर देखने का वक़्त किसके पास होता है ?

पता नहीं क्यूँ और कैसे उस एक इंसान से उसने अपना जीवन जोड़ लिया, दहलीज़ के भीतर से ही ! उसका आना, हँसना-हंसाना अब खूब भाता था, इसे. दोनों घंटों बातें किया करते, सुख-दुख साझा करते, एक-दूसरे के आँसू पोंछते तो कभी साथ ठहाका लगाकर हंसते, जी लेते थे मिलती-जुलती सी अपनी ज़िंदगी में. क्या अपनी खुशी से जीना जुर्म था ? वो इंसान जो उम्र-भर दूसरों के लिए जिया, क्या अपने लिए कुछ अपने-से पल नहीं सहेज सकता ? 

शायद नहीं....समाज में रहकर तो बिल्कुल भी नहीं ! 'समाज' जो विडंबनाओं से पटा पड़ा है, जो अपने ही नियम-क़ानून की अपनी सुविधा से रोज धज्जियाँ उड़ाता है, जहाँ जुर्म की आँधियाँ हर गली-मोहल्ले में खुले-आम चलती हैं, जहाँ एक कुत्ते के भौंकने पर गोली मार देने का हुक़्म दिया जाता है और इंसानों के क़ातिल सीना-ताने घूमते हैं, जहाँ ज़मीन-जायदाद की रखवाली के लिए लोग सारी रात जगा करते हैं, और वहीं कहीं कोने में किसी की अस्मत तार-तार होती है, जिसकी चीखें-चिल्लाहटें कर्त्तव्यों का रुमाल ठूँसकर दबा दी जाती हैं ! हाँ, यही स्वार्थी समाज...जीते-जागते लोगों के मरे हुए वज़ूद की दुनिया ! ये कुछ कमजोर और डरपोक-से सपनों को पल में ही मसल देती है, चींटी की तरह !

वो समझदार था, दुनियादारी से वाक़िफ़ भी. उससे इसकी ये हालत देखी न गई....सो, चला गया; अपने विकल्प के साथ ! 
वो भी चली गई, डूबती साँसों और अपने इस छोटे और अधूरे स्वप्न के साथ ! आज घर की दहलीज़ पर लाश है,उसकी. खुली हुई आँखें इंतज़ार की गवाह हैं, पर पैर घर के भीतर की ही तरफ.....उस पार न तो जा सकी और न ही जाना चाहा था उसने ! दोषी भी वही थी, स्वीकार लिया था उसने बुझे मन से. और हाँ, आज अपना 'समाज' भी हितैषी की तरह मौज़ूद है वहाँ, चुपचाप नये किस्से-कहानियाँ बुनता हुआ. कोई मीडिया को देख उदासी का ढोंग रच रहा है, तो कोई अकेलेपन से उभरी इसकी मायूसी को लाचारी का नाम देने में लगा है. किसी ने इसे राष्ट्रीय क्षति बताकर जाते-जाते इज़्ज़त देने की कोशिश भी की. वहीं अंदर गहनों का हिसाब-किताब चालू है. कुछ बच्चे बेतरह रो रहे हैं, उन्हें ढाँढस बंधाने के लिए किसी ने उनकी खाने की थाली में एक चॉकलेट रखकर सरका दी है. सुना है, कोई वकील भी आया है, मृत्यु के प्रमाण-पत्र का काग़ज़ लेकर.....!
काश ! उसकी आँखें कभी कोई सपना न बुनतीं...काश! नींदों में ख़्वाब शामिल न होते...काश  सपनों और ख़्वाहिशों का भी जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र होता ! काश ! ये काश न होता !

प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 23 मार्च 2014

'एक राष्ट्र, एक सोच....एक दल'

राजनीति और इससे जुड़ी बातें मुझे आज तक समझ नहीं आईं. जितना ही समझने की कोशिश की और उलझती चली गई. एक तरफ तो सभी पार्टियाँ राष्ट्रीय-एकता और राष्ट्र-हित की भावनाओं का समर्थन करतीं हैं, वहीं दूसरी और उन्हें आपस में ही लड़ते और व्यक्तिगत हितों के लिए आम जनता को हर संभव तरीके से बेवकूफ़ बनाते हुए भी देखा जा सकता है.
न जाने कितने करोड़ रुपये तो चुनाव प्रचार के नाम पर ही पचा लिए जाते हैं. मीडिया और हम सबका समय व्यर्थ गया, सो अलग ! और परिणाम ???? वही चुने गये लोगों के प्रति आक्रोश जताती जनता !

कितना अच्छा हो, अगर इतने सारे दल ही न हों. हमारे नेता भी 'दल-बदलू' के ठप्पे से बच जाएँगे. बस एक ही पार्टी हो - 'राष्ट्र-हित पार्टी' ! हर राज्य में एक ही तरह की सकारात्मक सोच वाले लोगों की सत्ता ! इनमें गाँधी जी की सच्चाई हो, भगत सिंह सी देश-भक्ति और मंगल पांडे सा जुनून ! बहुत से उदाहरण हैं, गर लिखने बैठे तो ! पर आज के सन्दर्भ में एक ऐसी पार्टी की कल्पना नहीं की जा सकती क्या , जिसमें अटल जी जैसी संवेदनशीलता, अब्दुल कलाम जी जैसी दूरदर्शिता, मोदी जी सी कर्मठता, केजरीवाल जी की तरह परिवर्तन की ललक, राहुल गाँधी की युवा सोच और अन्ना जी की सहनशीलता वाली विचारधारा के लोग शामिल हों ! ये सभी लोग ही अपना-अपना राग, धर्म और आपसी द्वेष छोड़कर क्यूँ नहीं 'एक' हो सकते ??? अगर वाक़ई देश की फ़िक्र है, तो इस सन्दर्भ में सोचना ही होगा...... "एक राष्ट्र, एक सोच, एक दल" और इसका मक़सद - शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधाएँ सभी देशवासियों के लिए उपलब्ध कराना और भारत को एक स्वच्छ और भ्रष्टाचार-मुक्त राष्ट्र बनाना ! ग़रीबी अपने आप ही दूर हो जाएगी !

* शायद आप सभी को यह एक सपना ही लगे, पर जो सोचा जा सकता है....उसे पूरा भी किया जा सकता है ! वर्षों पहले कौन इस बात पर यक़ीन करता, कि घर बैठे-बैठे ही हम दूसरे शहर, देश में रहने वाले प्रियजनों को देख सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं ! बात सिर्फ़ 'सोचने' की ही है, संभव सब है !

प्रीति 'अज्ञात'

रविवार, 16 मार्च 2014

'ज़िंदगी'....जीने के लिए ही तो बनी है !

'आत्महत्या' एक प्रकार की हत्या ही है. फ़र्क बस इतना ही है, कि इसमें इंसान अपने मरने के तरीके खुद चुनता है; माहौल तो दूसरे या उसके अपने ही तैयार कर देते हैं. 'हत्या' में, हत्यारे को उस व्यक्ति की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं; इसलिए वो उसे मार डालता है. 'आत्महत्या' में, ख़ुद ही पता होता है; कि उपस्थिति के कोई मायने ही नहीं ! एक नज़र से, यही ज़्यादा समझदार सा लगता है या फिर कोई बहुत ही बड़ा बेवकूफ़ !

मैं हमेशा से ही 'आत्महत्या' करने वालों से नफ़रत करने वाली और इस कृत्य की घोर विरोधी रही हूँ, क्योंकि मुझे लगता आया है; कि उन्हें उन अपनों की परवाह ही नहीं, इसीलिए ये कायरता भरा कदम उठाते हैं. लेकिन कभी-कभी एक अप्रत्याशित सी सहानुभूति भी होती है, उनसे ! हो सकता है, उन्हें भी यही महसूस होता हो; कि अपनों को ही उनकी फिक़्र नहीं ! अगर मरने से पहले, कोई उन्हें ये अहसास करा देता कि उनकी मौजूदगी कितनी अहं है..तो वो शायद कभी ऐसा करते ही नहीं ! काश, कोई किसी को कभी ऐसा करने को मजबूर न करे ! दिल से न सही, एक 'भ्रम' की तरह भी कोई, किसी का हमेशा के लिए हो सके....तो कुछ ज़िंदगियाँ, कुछ वर्ष और जी सकें ! अकेलापन भी मार ही देता है, इंसान को ! ये 'मौत' भीतर ही होती है, हर रोज ! कभी समाज का भय, तो कभी व्यक्ति-विशेष से बिछोह का. कभी किसी की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाना बुरा लगता है, तो कभी अपने ही उत्तरदायित्वों के निर्वाह में कमी सी लगती है. 'अपेक्षा' और 'उपेक्षा' दोनों ही हर रूप में घातक हैं. इनसे बच गये, तो भाग्यशाली हैं. वैसे ऐसा हो पाना भी मुश्किल सा ही है.

'एकला चलो रे.....' सुनने में अच्छा ज़रूर लगता है, पर कौन, कब तक, कितनी दूर तक अकेला चल पाया है..इसका हिसाब-किताब कहीं नहीं ! हाँ, जिसने भी इस मंत्र को समझ लिया, वही जी गया.... ! कतरा-कतरा ज़िंदगी तो रोज ही बिखरती है, और रोज ही उसे समेटना भी ज़रूरी है. बहुत रहस्यवादी है, ये दुनिया और इसमें बसे सभी लोग. क़िस्मत वाले हैं, वो .......जो इसमें खुलकर हँस लेते हैं ! कौन जाने, उस हँसी की तहों में, कितने दर्द दफ़न हैं !
खैर....ख़ुदा करे, आपके सभी अपने, आपके करीब और हमेशा सलामत रहें ! 'ज़िंदगी'....जीने के लिए ही तो बनी है! इससे कैसी नाराज़गी !


प्रीति 'अज्ञात'

सोमवार, 10 मार्च 2014

लत लग गई...... :P

लोग कहते हैं, कि लड़के हमेशा लड़कियों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाया करते हैं. पर मुझे ऐसा क्यूँ लगता है कि ये प्रथा तो हमारी पृथ्वी जी ने शुरू की है. :P देखो तो ज़रा, बरसों से सूरज के चारों तरफ चक्कर लगाए ही जा रही है और अब तक हार नहीं मानी. लेकिन इस दुष्ट 'सूरज' को आजतक ये बात समझ नहीं आई दिखती है, जब देखो तब लाल-पीला हुए आएगा और जाते समय भी वही अकड़! दिन में भी तमतमाया ही घूमता है! :/ हद है, इत्ती ऐंठ किस बात की ? कभी तो 'Down To Earth' हो जाओ रे! :) तेरा कित्ता इलाज करवाया, गॉगल्स (बादल) भी लगवाए. पर तेरा कुछ नहीं हो सकता, दूर रहकर जलाया ही कर बस! ध्यान रख, मेरे बिना तू भी बहुत बोर होगा, क्या करेगा वहाँ अकेला आसमान में टॅंगकर! खैर, जा अभी तो; शाम के ७ बजने को हैं, अब कहीं जाके डूब ही मर ! हाँ, नहीं तो.....! :P :D

Moral : ओये, आ जइयो कल फिर से... Same time, Same satellite. , उफ्फ्फतेरी आदत जो पड़ गई है. :)

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

होता है, जी....

कई बार ऐसा होता है न, कि कोई इन्सान हमें अपने-आप से भी ज़्यादा ज़रूरी लगने लगता है, हर-वक़्त जेहन में वही एक नाम घूमता रहता है और जो कहीं वो नाम लिखा भी दिख जाए, तो दिल की धड़कनें अचानक बढ़ जाती हैं, चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान छा जाती है और फिर हम अचानक सामान्य दिखने की भरसक कोशिश भी करते हैं. डर जो लगता है कि कोई हाल-ए-दिल पढ़ न ले. उफ्फ...ऐसे FATTU बनने की क्या ज़रूरत है? जिस प्रेम को पाने में लोगों की उमर बीत जाती है, आप उसके बेहद करीब हैं, बस उस एक शख़्स से कहना ही तो शेष है.....जाओ, कह दो आज ही जाकर उसे; "मुख्तसर सी बात है......." और हाँ, फिर थामे रखना उस हाथ को, विश्वास कभी टूटने न देना !
Trust Me , करूण रस के कवि बनने से बेहतर विकल्प है ये ! बाकी आपकी क़िस्मत, खुल गई तो हमारी दुआएँ आपके साथ और न खुली तो बद्दुआएँ क़बूल हैं हमें, पर कोशिश करने में क्या हर्ज़ है ! 
"एक जीवन: आधा बीत चुका दुनिया के हिसाब से.... अब तो जी लो बचा-खुचा, अपनी ख़्वाबों की किताब से"
प्रीति 'अज्ञात'