अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संवैधानिक अधिकार बताया जाता है और यह है भी। परन्तु सच्चाई सुनने के बाद की तिलमिलाहट भी जगजाहिर है। आख़िर क्या किया जाना चाहिए? इन सब बातों का समाधान बिना चर्चा हुए निकल पाना संभव है क्या? संशय इस बात का भी उतना ही है कि चर्चा करने से भी कुछ परिणाम सामने आ सकेंगे। लेखकों की सरेआम ह्त्या होती है, उनके साथ मारपीट की जाती है, अपराधी खुलेआम घूमते हैं। तमाम शिकायतों के बावजूद कहीं कुछ नहीं होता। ऐसे में निराशा और क्षोभ से भर कुछ साहित्यकार दुखित हृदय से अपना पुरस्कार लौटाने का साहस करते हैं और चंद अति उत्साही लोग उन पर ऐसे टूट पड़ते हैं, जैसे ये पुरस्कार उन्हें उनका मुंह बंद करने के लिए दिया गया था। क्या 'पुरस्कार' पाने के बाद लेखक को उन सभी का ग़ुलाम बन जाना चाहिए, जिन्होंने उसे इस सम्मान के लायक समझा? अब अपनी कलम से उसे सिर्फ उन सबके लिए 'प्रशस्ति-पत्र' बांटने होंगे? (यहाँ बात सत्तारूढ़/ विपक्ष दोनों की है) वो गलत को गलत न कहे? अन्याय को देख आँखें मूँद ले? लेखक, लिखता है। प्रशंसा, उसके शब्दों की होती है और पुरस्कार भी इसीलिए ही मिलते रहे हैं(ऐसा विश्वास आम जनता का होता है), लेकिन जब उसकी लेखनी पर ही प्रहार होने लगें तो उसके पास विरोध का कौन सा माध्यम शेष रहता है? लेखनी तो उससे छूट नहीं सकती और वो भारी हृदय से उस पुरस्कार को लौटाने का निर्णय लेता है। इसका राजनीति से क्या और कैसा तआल्लुक? दुर्भाग्य से यदि कोई नाता है तो ये अपने-आप में उन सारी संस्थाओं और प्रतिभाओं के अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न बनकर उभरेगा, जिसकी जवाबदेही हर हाल में बनती ही है। यहाँ प्रश्न पाठकों, समर्थकों की आस्था और अटूट विश्वास का भी है।
यदि कोई यह कह रहा है कि वो अपने देश में असुरक्षित महसूस कर रहा है तो क्या उसे समवेत स्वर में देशद्रोही क़रार कर देना सही है। क्या हम सचमुच इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में अपराध होते ही नहीं, न हत्या, न बलात्कार, न चोरी, न डाका, न लूटपाट, न झगडे, न आगजनी, न दंगे, न कोई खून-खराबा? क्या हम अन्याय को चुपचाप मुस्कुराकर हर बार झेल लेते हैं? कोई कभी कुछ नहीं कहता और न पलटवार करता है? हाँ, हम शांतिप्रिय हैं इसलिए हम अपराधियों को भी शरण देते हैं और सरेआम गोलियां बरसाने वाले आतंकवादी को भी वर्षों जेल में रख खूब-आवभगत कर उसकी सजा तय कर पाते हैं। कभी-कभी माफ़ भी कर देते हैं....पर इससे हौसले किसके बुलंद होते हैं? उन विघटनकारी ताक़तों और आतताइयों के ही तो!
दरअसल हमारी महानता ये है कि, हम अपनी दिनचर्या में यूँ वापिस लौट आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो कहीं! इतनी सहिष्णुता और उदारता देखी है कहीं?
बीते माह भी 'बीफ-बवाल' ने ख़ूब बवाल मचाया। आम भारतीय का ह्रदय इस कुतर्क को सुन तआज्जुब से भर जाता है कि वेदों ने गाय की वकालत ख़ूब की है और इंसानी मौत का वहाँ कोई ज़िक्र नहीं! पर इस बीच यह सच धुंधला जाता है कि बताने वालों ने पृष्ठों का चुनाव अपनी सुविधा से किया है।
दुःख होता है ये देखकर कि किसी धर्म विशेष के उल्लेख के साथ ही अब हर बात की चर्चा होती है कि फलाने धर्म के इतने लोग मरे, उनके इतने! इन्होंने उनके लोगों का धर्मांतरण कराया और और उन्होंने इनका! अत्यंत चिंता और विमर्श का विषय है कि ये बात सिर्फ इन धर्मों का झंडा लहराने वाले धर्मगुरु या सीधे-सीधे कहूँ तो, हिमायती लोग ही नहीं कर रहे बल्कि हर दल किसी-न-किसी तरह से ये ज़िक्र छेड़ ही देता है।
क्या मृत्यु से होने वाली पीड़ा भी अब धर्म की मोहताज़ हो गई है? गुण-दोष अब कर्म नहीं, धर्म के हिसाब से देखे जाने लगे हैं। हमारे धर्म का नहीं, मतलब हमारा है ही नहीं! इंसानी मौत का क्या? ख़त्म होती इंसानियत का क्या? दुश्मनों से देश की रक्षा की बात तो बहुत दूर, अपनी रोटियाँ सेंकते इन देशभक्षकों का क्या?
क्षमा चाहूँगी, धर्म के नाम पर अफवाह फैलाने वालों से; पर हुज़ूर ये 'आम सोच' नहीं है। वरना हम रोटियों को हाथ में लिए पहले यह तौलते कि उस खेत की माटी को न जाने किसने सींचा होगा! कौन उस बीज को रोपता होगा! न जाने किसने फसल काटी और बोरों में भरी होगी! कौन जाने किन-किनके हाथों से गुजरकर चक्कियों में पिस ये आटा हम तक पहुंचा है! साहेब, हम रोटी में अन्न-देवता को देखने वाली धरती के लोग हैं, जो इनका x-ray नहीं करते।
आम भारतीय तो, हिन्दू और मुसलमान की रोटियों के बीच की स्वादिष्ट filling* है। बिल्कुल, सैंडविच की तरह। कभी-कभी जब ये filling कम पड़ जाती है तो सुविधानुसार ब्रेड को घी लगाकर गरमा-गरम तवे पर सेंक खाया/खिलाया जाता है (दंगों की राजनीति में यही होता आया है).... सैंडविच का स्वाद सभी ले सकें, इसके लिए Filling का ब्रेड के समानुपाती होना अत्यंत आवश्यक है। वरना इस अवसर का लाभ उठा, अकेली ब्रेड को चबाने की ताक़ में बैठे लोग भी हमारे बीच ही उपस्थित हैं। इसलिए Filling को बढ़ाना अब हमारी नैतिक जिम्मेदारी और इस देश के प्रति कर्तव्य भी बनता है।
हमारा देश अपनी सच्चाई के लिए अभी भी जाना जाता है, इसकी पवित्रता की दुहाई दी जाती है, यहां की विविधता आज भी पर्यटकों को आकर्षित करती है।
इसलिए कभी-कभी ये स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हाँ, माहौल बिगड़ भी जाता है।
ये भी निःसंकोच कह ही देना चाहिए कि हम आपको पूरी सुरक्षा का आश्वासन देते हैं और जो दोषी है ( भले ही मेरा अपना है) उसके ख़िलाफ़ कार्यवाही होगी।
अपने देशवासियों को ढाँढस बंधाने में कोई परेशानी, कभी आनी ही नहीं चाहिए।
सच बोलने वाले से दुश्मन की तरह का व्यवहार, कैसे सही ठहराया जा सकता है भला!
हमारे घर का कोई सदस्य कभी हमें कहे कि उसे अच्छा नहीं लग रहा या उसका मन ठीक नहीं, तो क्या हम उसे घसीटकर बाहर कर देते हैं? उसके सिर पर हाथ फेर उसकी समस्या को जानने-सुलझाने की कोशिश नहीं करते? सच की स्वीकारोक्ति और अपनों को आगे बढ़, हाथ थामकर रोकने से बड़ा सुख और कोई नहीं! 'अहंकार' से बड़ा दुःख भी कोई और नहीं! निर्णय हमें ही करना है!
इस पर भी यदि हमें महसूस होता है कि कोई गुनहगार है, तो ये नहीं भूलना चाहिए कि उसने यह बात अपने देश में, अपने ही लोगों के बीच बैठकर उनके पूछे जाने पर कही है…दूसरे देश में जाकर हमारी सभ्यता और संस्कृति का मख़ौल नहीं उड़ाया। भेड़चाल में घुसने से पहले अपने मस्तिष्क को भी इस्तेमाल होने का मौका अवश्य देना चाहिए। हम फिल्म नहीं देखेंगे, उस उत्पाद को इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिसका विज्ञापन फलाने-ढिमके ने किया था। पर उस इंसान को तो अपने कार्य की कीमत मिल चुकी, क्या हम जाने-अनजाने में अपने ही देश का नुक़सान नहीं कर रहे? क्या यह ठीक वैसा ही मूर्खतापूर्ण कृत्य नहीं, जैसा कि कहीं दुर्घटना हो जाने पर उसके आसपास की गाड़ियों या राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट कर अपना रोष प्रकट किये जाने में होता रहा है? हमारे द्वारा चुनी गई उन मजबूत कुर्सियों पर विराजमान "हम तो लड़ाई करते ही नहीं" का वक्तव्य देने वाले राष्ट्र-भक्तों के बीच गाली-गलौज और जूतमपैजार को भी इसी श्रेणी में बेहिचक रखा जा सकता है।
किसी ने किसी बात पर अपनी राय दी नहीं कि "देश छोड़ दो" के नारे लगने लगते हैं। क्यों हम उस इंसान को समझ और पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही निष्कर्ष पर पहुँचने का धैर्य नहीं रख पाते? बात की पूँछ पकड़कर पीटना ओछी मानसिकता का परिचायक है और इस बात का भी कि आप हर उस इंसान को देश से बाहर निकालना चाहते हैं जिसकी राय आपसे अलहदा है। यही दुर्भाग्य है हमारे देश का, कि हम तथ्यों को जाँचे-परखे बिना ही कूदकर जज की कुर्सी पर बैठ जाना ज्यादा पसंद करते हैं और चुनिंदा मीडिया चैनल यहाँ उत्प्रेरक की सजग भूमिका निर्वहन के लिए सदैव तत्पर नज़र आते हैं। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब एक कोरा कागज़ी ढकोसला भर रह गई है?
एक मजेदार बात भी! कोई नेता अपने विरोधी के गले मिल गया तो उसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया! लोग तो दुश्मनों के भी गले मिलते हैं, उनके विचार भी मिलने लगे हैं ये एक तस्वीर कैसे तय कर सकती है? आप गले मिलें तो भाईचारा, गर हम मिलें तो नागवारा?
आख़िरी बात : मेरी जमीं, मेरी मिट्टी, मेरा शरीर, मेरी सोच, मेरी मानसिकता, मेरा पर्यावरण, मेरा व्यक्तित्व, मेरा धर्म, मेरा समाज, मेरा प्रांत, मेरा देश और इसमें बसी मेरी रूह शत-प्रतिशत भारतीय है। इस पर कभी सवाल न उठाना! मैं विश्व-बंधुत्व भाव का भी हृदय से उतना ही सम्मान करती हूँ। गर्व है मुझे अपनी भारतीयता पर और मैं चाहती हूँ कि प्रत्येक भारतवासी अपने देश का सम्मान करे। लेकिन एक परिवार के सदस्य की तरह, जहाँ कमी लगे वहाँ बिना किसी भय के निःसंकोच बोलने का अधिकार भी उसे उतना ही है। सुधार की गुंजाइश कभी ख़त्म नहीं होती। सकारात्मक परिवर्तन के लिए, विचारों की सकारात्मकता भी उतनी ही आवश्यक है।
चेन्नई में जिस तरह सारा देश एक हो गया है, देखकर गर्व होता है। मुसीबत के समय देशवासियों ने हमेशा एक-दूसरे का साथ दिया है और आगे भी देते ही रहेंगे। ये हमारी अपनी संस्कृति है, इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं। कोई अदृश्य शक्ति गर है, तो उससे यही प्रार्थना है कि एकता दिखाने के लिए हमें कभी प्राकृतिक आपदाओं की आवश्यकता न पड़े। हमारे देश के गौरवशाली अस्तित्व की मिसाल सदैव कायम रहे।
नववर्ष की आहट, गुनगुनी सर्दी की मुस्कुराहट, सर्द-सी कुछ यादें, थोड़ी भुनी मूंगफली और एक कुल्हड़ गरम चाय के साथ
विदा दिसम्बर, विदा 2015 :)
- प्रीति 'अज्ञात'
http://hastaksher.com/rachna.php?id=230
* Filling(भरावन) ही लिखा है, feeling नहीं
यदि कोई यह कह रहा है कि वो अपने देश में असुरक्षित महसूस कर रहा है तो क्या उसे समवेत स्वर में देशद्रोही क़रार कर देना सही है। क्या हम सचमुच इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में अपराध होते ही नहीं, न हत्या, न बलात्कार, न चोरी, न डाका, न लूटपाट, न झगडे, न आगजनी, न दंगे, न कोई खून-खराबा? क्या हम अन्याय को चुपचाप मुस्कुराकर हर बार झेल लेते हैं? कोई कभी कुछ नहीं कहता और न पलटवार करता है? हाँ, हम शांतिप्रिय हैं इसलिए हम अपराधियों को भी शरण देते हैं और सरेआम गोलियां बरसाने वाले आतंकवादी को भी वर्षों जेल में रख खूब-आवभगत कर उसकी सजा तय कर पाते हैं। कभी-कभी माफ़ भी कर देते हैं....पर इससे हौसले किसके बुलंद होते हैं? उन विघटनकारी ताक़तों और आतताइयों के ही तो!
दरअसल हमारी महानता ये है कि, हम अपनी दिनचर्या में यूँ वापिस लौट आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो कहीं! इतनी सहिष्णुता और उदारता देखी है कहीं?
बीते माह भी 'बीफ-बवाल' ने ख़ूब बवाल मचाया। आम भारतीय का ह्रदय इस कुतर्क को सुन तआज्जुब से भर जाता है कि वेदों ने गाय की वकालत ख़ूब की है और इंसानी मौत का वहाँ कोई ज़िक्र नहीं! पर इस बीच यह सच धुंधला जाता है कि बताने वालों ने पृष्ठों का चुनाव अपनी सुविधा से किया है।
दुःख होता है ये देखकर कि किसी धर्म विशेष के उल्लेख के साथ ही अब हर बात की चर्चा होती है कि फलाने धर्म के इतने लोग मरे, उनके इतने! इन्होंने उनके लोगों का धर्मांतरण कराया और और उन्होंने इनका! अत्यंत चिंता और विमर्श का विषय है कि ये बात सिर्फ इन धर्मों का झंडा लहराने वाले धर्मगुरु या सीधे-सीधे कहूँ तो, हिमायती लोग ही नहीं कर रहे बल्कि हर दल किसी-न-किसी तरह से ये ज़िक्र छेड़ ही देता है।
क्या मृत्यु से होने वाली पीड़ा भी अब धर्म की मोहताज़ हो गई है? गुण-दोष अब कर्म नहीं, धर्म के हिसाब से देखे जाने लगे हैं। हमारे धर्म का नहीं, मतलब हमारा है ही नहीं! इंसानी मौत का क्या? ख़त्म होती इंसानियत का क्या? दुश्मनों से देश की रक्षा की बात तो बहुत दूर, अपनी रोटियाँ सेंकते इन देशभक्षकों का क्या?
क्षमा चाहूँगी, धर्म के नाम पर अफवाह फैलाने वालों से; पर हुज़ूर ये 'आम सोच' नहीं है। वरना हम रोटियों को हाथ में लिए पहले यह तौलते कि उस खेत की माटी को न जाने किसने सींचा होगा! कौन उस बीज को रोपता होगा! न जाने किसने फसल काटी और बोरों में भरी होगी! कौन जाने किन-किनके हाथों से गुजरकर चक्कियों में पिस ये आटा हम तक पहुंचा है! साहेब, हम रोटी में अन्न-देवता को देखने वाली धरती के लोग हैं, जो इनका x-ray नहीं करते।
आम भारतीय तो, हिन्दू और मुसलमान की रोटियों के बीच की स्वादिष्ट filling* है। बिल्कुल, सैंडविच की तरह। कभी-कभी जब ये filling कम पड़ जाती है तो सुविधानुसार ब्रेड को घी लगाकर गरमा-गरम तवे पर सेंक खाया/खिलाया जाता है (दंगों की राजनीति में यही होता आया है).... सैंडविच का स्वाद सभी ले सकें, इसके लिए Filling का ब्रेड के समानुपाती होना अत्यंत आवश्यक है। वरना इस अवसर का लाभ उठा, अकेली ब्रेड को चबाने की ताक़ में बैठे लोग भी हमारे बीच ही उपस्थित हैं। इसलिए Filling को बढ़ाना अब हमारी नैतिक जिम्मेदारी और इस देश के प्रति कर्तव्य भी बनता है।
हमारा देश अपनी सच्चाई के लिए अभी भी जाना जाता है, इसकी पवित्रता की दुहाई दी जाती है, यहां की विविधता आज भी पर्यटकों को आकर्षित करती है।
इसलिए कभी-कभी ये स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हाँ, माहौल बिगड़ भी जाता है।
ये भी निःसंकोच कह ही देना चाहिए कि हम आपको पूरी सुरक्षा का आश्वासन देते हैं और जो दोषी है ( भले ही मेरा अपना है) उसके ख़िलाफ़ कार्यवाही होगी।
अपने देशवासियों को ढाँढस बंधाने में कोई परेशानी, कभी आनी ही नहीं चाहिए।
सच बोलने वाले से दुश्मन की तरह का व्यवहार, कैसे सही ठहराया जा सकता है भला!
हमारे घर का कोई सदस्य कभी हमें कहे कि उसे अच्छा नहीं लग रहा या उसका मन ठीक नहीं, तो क्या हम उसे घसीटकर बाहर कर देते हैं? उसके सिर पर हाथ फेर उसकी समस्या को जानने-सुलझाने की कोशिश नहीं करते? सच की स्वीकारोक्ति और अपनों को आगे बढ़, हाथ थामकर रोकने से बड़ा सुख और कोई नहीं! 'अहंकार' से बड़ा दुःख भी कोई और नहीं! निर्णय हमें ही करना है!
इस पर भी यदि हमें महसूस होता है कि कोई गुनहगार है, तो ये नहीं भूलना चाहिए कि उसने यह बात अपने देश में, अपने ही लोगों के बीच बैठकर उनके पूछे जाने पर कही है…दूसरे देश में जाकर हमारी सभ्यता और संस्कृति का मख़ौल नहीं उड़ाया। भेड़चाल में घुसने से पहले अपने मस्तिष्क को भी इस्तेमाल होने का मौका अवश्य देना चाहिए। हम फिल्म नहीं देखेंगे, उस उत्पाद को इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिसका विज्ञापन फलाने-ढिमके ने किया था। पर उस इंसान को तो अपने कार्य की कीमत मिल चुकी, क्या हम जाने-अनजाने में अपने ही देश का नुक़सान नहीं कर रहे? क्या यह ठीक वैसा ही मूर्खतापूर्ण कृत्य नहीं, जैसा कि कहीं दुर्घटना हो जाने पर उसके आसपास की गाड़ियों या राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट कर अपना रोष प्रकट किये जाने में होता रहा है? हमारे द्वारा चुनी गई उन मजबूत कुर्सियों पर विराजमान "हम तो लड़ाई करते ही नहीं" का वक्तव्य देने वाले राष्ट्र-भक्तों के बीच गाली-गलौज और जूतमपैजार को भी इसी श्रेणी में बेहिचक रखा जा सकता है।
किसी ने किसी बात पर अपनी राय दी नहीं कि "देश छोड़ दो" के नारे लगने लगते हैं। क्यों हम उस इंसान को समझ और पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही निष्कर्ष पर पहुँचने का धैर्य नहीं रख पाते? बात की पूँछ पकड़कर पीटना ओछी मानसिकता का परिचायक है और इस बात का भी कि आप हर उस इंसान को देश से बाहर निकालना चाहते हैं जिसकी राय आपसे अलहदा है। यही दुर्भाग्य है हमारे देश का, कि हम तथ्यों को जाँचे-परखे बिना ही कूदकर जज की कुर्सी पर बैठ जाना ज्यादा पसंद करते हैं और चुनिंदा मीडिया चैनल यहाँ उत्प्रेरक की सजग भूमिका निर्वहन के लिए सदैव तत्पर नज़र आते हैं। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब एक कोरा कागज़ी ढकोसला भर रह गई है?
एक मजेदार बात भी! कोई नेता अपने विरोधी के गले मिल गया तो उसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया! लोग तो दुश्मनों के भी गले मिलते हैं, उनके विचार भी मिलने लगे हैं ये एक तस्वीर कैसे तय कर सकती है? आप गले मिलें तो भाईचारा, गर हम मिलें तो नागवारा?
आख़िरी बात : मेरी जमीं, मेरी मिट्टी, मेरा शरीर, मेरी सोच, मेरी मानसिकता, मेरा पर्यावरण, मेरा व्यक्तित्व, मेरा धर्म, मेरा समाज, मेरा प्रांत, मेरा देश और इसमें बसी मेरी रूह शत-प्रतिशत भारतीय है। इस पर कभी सवाल न उठाना! मैं विश्व-बंधुत्व भाव का भी हृदय से उतना ही सम्मान करती हूँ। गर्व है मुझे अपनी भारतीयता पर और मैं चाहती हूँ कि प्रत्येक भारतवासी अपने देश का सम्मान करे। लेकिन एक परिवार के सदस्य की तरह, जहाँ कमी लगे वहाँ बिना किसी भय के निःसंकोच बोलने का अधिकार भी उसे उतना ही है। सुधार की गुंजाइश कभी ख़त्म नहीं होती। सकारात्मक परिवर्तन के लिए, विचारों की सकारात्मकता भी उतनी ही आवश्यक है।
चेन्नई में जिस तरह सारा देश एक हो गया है, देखकर गर्व होता है। मुसीबत के समय देशवासियों ने हमेशा एक-दूसरे का साथ दिया है और आगे भी देते ही रहेंगे। ये हमारी अपनी संस्कृति है, इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं। कोई अदृश्य शक्ति गर है, तो उससे यही प्रार्थना है कि एकता दिखाने के लिए हमें कभी प्राकृतिक आपदाओं की आवश्यकता न पड़े। हमारे देश के गौरवशाली अस्तित्व की मिसाल सदैव कायम रहे।
नववर्ष की आहट, गुनगुनी सर्दी की मुस्कुराहट, सर्द-सी कुछ यादें, थोड़ी भुनी मूंगफली और एक कुल्हड़ गरम चाय के साथ
विदा दिसम्बर, विदा 2015 :)
- प्रीति 'अज्ञात'
http://hastaksher.com/rachna.php?id=230
* Filling(भरावन) ही लिखा है, feeling नहीं
very deep and emotional composition
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