इतिहास गवाह है, धार्मिकता की आड़ में सबसे ज़्यादा पाप और अत्याचार होते आए हैं।
अब 'प्रतिबंध' की राजनीति को लेकर सब कटिबद्ध हैं। सोशल-साइट्स पर बैन, फिल्मों पर बैन, पुस्तकों पर बैन और कुछ न बचा तो नौबत खाने-पीने तक आ गई है। वैसे ये शुरुआत 'मैगी' से हो चुकी है, पर तब कारण जायज़ था। इन दिनों शाकाहार बनाम माँसाहार का द्वंद्व, भारत/पाकिस्तान क्रिकेट मैच से भी ज्यादा टी.आर.पी. बटोर रहा है।
देखा जाए तो इससे अधिक मूर्खतापूर्ण और कोई घटना हो ही नहीं सकती! जहाँ आपके पड़ोसी या राजनीतिक दलों को आपकी थाली में परोसे भोजन की परवाह है। यदि बर्दाश्त नहीं तो सब अपना-अपना खाइए। न तो एक पक्ष को दूसरे की रसोई में माँस का लोथड़ा घुमाने की आवश्यकता है और न ही दूसरे पक्ष को उनकी थाली से उठाकर बाहर फेंकने की। एक-दूसरे के बर्तनों में झाँकने की तुक ही क्या है? जब जी करे, साथ बैठकर खाईये; न करे तो एक-दूसरे को न तो उलटी करवाएँ और न ही निवाला छीनने की कोशिश करें। फिर भी न समझ आये तो साथ बैठकर खाने की सभ्यता और उल्लास स्कूल के बच्चों से सीखें।
सभ्यता, संस्कृति और विकास की बातों के बीच इस तरह की घटनाएँ मन विचलित कर देती हैं। अवसरवादी संगठनों का देशभक्ति की बीन पर, हर बार की तरह इस मुद्दे पर भी ज़हर उगलने का प्रयास जारी है। सिर्फ एक राज्य के जय-जयकारे से, न तो आप आगे बढ़ेंगे और न ही राष्ट्र को बढ़ने देंगे! सवाल यह है कि ओछी मानसिकता वाले इन लोगों पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगता? देश को सुधारने का ठेका लेने वाले कभी खुद 'सुधार-गृह' की सैर पर जाकर जरूर देखें। ताज़ा हवा, उनके मन-मस्तिष्क को एक नई ताज़गी देगी और सकारात्मक सोच की कलियाँ भी अवश्य प्रस्फुटित होंगीं।
'धर्म' के नाम पर हत्या का समर्थन करने वाले लोगों की धार्मिकता का अंदाज़ा उनके इस व्यवहार और दक़ियानूसी सोच से ही लगाया जा सकता है। जिस 'धर्म' की आड़ में ये हिंसक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं, उन धार्मिक ग्रंथों के पन्ने भी तड़पकर रोज फड़फड़ाते होंगे और 'ईश्वर' स्वयं इनके गुनाहों को देख सन्न रह जाता होगा।
अपराधी, 'अपराधी' ही है। बहस, उसके जघन्य कृत्य पर होनी चाहिए। उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता। दोषी या निर्दोष होना क्या अब धर्म तय करेगा? लेकिन अब तक की सभी घटनाओं का सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है कि लोग अपराधी की ज़ात पर पहले गौर करते हैं और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है।
साधु, संत, बाबा, महात्मा, देवी और इस टाइप के सभी अति आदरणीय, महान एवं विशिष्ट देशभक्तों की बढ़ती पैदावार देखकर यह सिद्ध होता है कि इन्हें खाद-पानी देने वाले ज्ञानियों की भी कमी नहीं! इन महाऋषियों के शांत और संयमित स्वभाव का चित्रहार आये दिन किसी-न-किसी चैनल पर प्रसारित होता ही रहता है। बेहतर है इसे भी 'इंडस्ट्री' घोषित कर दिया जाए। जिसे जो बेहतर लगे, उसकी भक्ति में सराबोर होता रहे। फिर जनता को अपने 'लुटे' जाने का इतना अफ़सोस नहीं होगा। सब अपनी मर्ज़ी से फ़ीस चुकाकर बेवकूफ़ बनते रहेंगे। वैसे भी अंत में ये ठीकरा अशिक्षित और मूर्ख जनता के नाम पर ही फोड़ा जाता रहा है। शिक्षित वर्ग की 'क्लास' तो कभी ली ही नहीं गई।
इधर एक दलित परिवार को सरेआम निर्वस्त्र करने की घटना जितनी शर्मनाक और घृणित है उतना ही इसे बार-बार सोशल मीडिया पर शेयर करना भी निंदनीय है। वर्षों से यही होता आ रहा है। जो उन्होंने एक बार किया, आप वही लगातार दोहराकर किस नैतिकता का परिचय दे रहे हैं? कुछ लोग इसके समर्थन में ये बोलते भी दिखाई दिए कि बिना ऐसा करे हमें इनका दर्द समझ नहीं आएगा। सोचिये, यदि ऐसा आपके परिवार के साथ होता तो क्या तब भी आप इतनी ही संवेदनहीनता दिखा पाते? क्या तब आप इन नग्न तस्वीरों और वीडियो से सहानुभूति बटोरने या न्याय मिलने की उम्मीद रखते? नहीं न! सुनते ही मन कैसे बौखला जाता है!
क्योंकि यह एक निर्धन और कमजोर वर्ग का किस्सा है, इसलिए इसका तमाशा बनाना सहज है। कोई बड़ा नेता, अभिनेता या उद्योगपति होता तो पैसों और ताक़त के बल पर इसे डिलीट करवा चुका होता। गरीबों का रहनुमा कोई नहीं होता! इस बार भी भीड़ न तो हटी, न ही किसी को रोकने की हिम्मत जुटा पाई। हाँ, निर्लज्जता से इस पूरी घटना को रिकॉर्ड करने की जिम्मेदारी उसे अच्छे से याद रही।
न तो किसी राजनीतिक दल को इस मुद्दे में दिलचस्पी होगी और न ही डिबेट के नाम पर दिन-रात चिंघाड़ने वाले मीडिया हाउस कोई पैनल बनाकर इस पर चर्चा करने वाले हैं। खुद को दबंग और जुझारू कहने वाले अधिकतर पत्रकार भी इन जगहों से चुपचाप निकल आना ज्यादा पसंद करते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर और निर्बल वर्ग की चिंता सिर्फ एक चुनावी सुविधाजनक विषय है। चूँकि इसमें न तो आमदनी है और न ही ख़बरों को बेचने के लिए आवश्यक मसाला, इसीलिए ये ख़बरें अब अत्यधिक आम हो चली हैं। न तो इनकी जांच होगी, न अपराधी को जेल होगी और न ही यहाँ किसी मुआवजे की उम्मीद है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इनका केस लड़ने कोई वकील आगे नहीं आता, कोई F.I.R. दर्ज़ नहीं होती! चीरहरण करने वाले इन दुशासनों के बीच रहते हुए ऐसे न जाने कितने परिवार, कब ख़त्म हो जाते हैं, कब उस घर की महिलाओं की अस्मत के साथ खिलवाड़ होता है , कब उन्हें चाकू से गोदकर उनकी लाश वहीँ सड़ते रहने को छोड़ दी जाती है, इसकी फ़िक्र करने वाला कोई नहीं। इस तरह के 'हादसों' की कहीं कवर स्टोरी नहीं बनती!
'न्याय' अब एक बहुमूल्य शब्द है, बिलकुल कोहिनूर हीरे की तरह! इसे पाने की उम्मीद लिए न जाने कितने जीवन नष्ट हो चुके या मौन कर दिए गए! कोई नहीं जानता। जानने से होगा भी क्या? संख्या बढ़ती ही रहेगी और हम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों को पलट, कुछ पल शून्य की तरफ निहारते हुए, मौन हो, भारी मन से उस पुस्तक को पुन: जगमगाते काँच की अल्मारी में रख उदासी-उदासी का पुराना खेल खेलेंगे।
अभी ही टेलीविज़न पर एक 'ब्रेकिंग न्यूज़' फ्लेश हुई, जिसका सार है…"कहीं संगीत को सीमाओं में बाँधने का काम जारी है!"
सामने दिख रही उस पुस्तक का शीर्षक अभी भी अपनी सार्थकता तलाशने को मुँह बाए खड़ा है…'मेरे सपनों का भारत!'
- प्रीति 'अज्ञात'
'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका, अक्टूबर, 2015 अंक का संपादकीय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें