शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016

एक क्लिक और खेल ख़त्म



जबसे महसूस करना शुरू किया, तभी से लेखनी साथी बनी हुई है। अच्छे-बुरे, सुंदर-बदसूरत, यादगार, यहां तक कि आत्मा की गहराईयों तक चीरकर रख देने वाले हर पल को भी लिखकर संजो लेने की ये अजीब-सी आदत कब पड़ गई; मैं भी नहीं जानती। जिगरी दोस्त की तरह कैमरा भी हर जगह साथ चलता रहा। घर-परिवार, स्कूल, मित्र, बच्चों के जन्म से लेकर उनका पहला क़दम, पहला जन्मदिन, स्कूल का पहला दिन, ईनाम, नटखट शरारतें, त्यौहारों की मस्ती, अलग-अलग स्थानों की यात्रा, पशु, पक्षी, नदी, समुद्र, रेत, प्रकृति की गोद में समाये अनगिनत खूबसूरत सजीव-निर्जीव लम्हों को हर क्लिक के साथ मन की और काग़जी एलबम पर तीन दशकों से चस्पा करती रही हूँ।
   
कम्प्यूटर क्रांति के उद्भव के साथ मेरी सोच में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया था और मैं अपने इस देसीपन से कभी लज्जित भी नहीं होती थी। बल्कि हरेक को टोकती, कि डिजिटल न बनो, इसमें वो फील नहीं आता। बहुत चिढ़ होती थी, जब कहीं लिखकर रखने के बजाय सबको उसे मोबाइल या कम्प्यूटर में 'सेव' करते देखती। तुरंत गुस्से में बोलती, "आलसीपन की हद है, लाओ मैं ही लिखे देती हूँ। मोबाइल खो गया तो!" हर तरफ मशीनी दुनिया में डूबते इंसानों को देखना अब अवसाद के करीब पहुंचने लगा था। न चिट्ठियों के उत्तर मिलते, न फोन पर पहले-सी लम्बी बातें होतीं। डिजिटल दुःख, डिजिटल हँसी, पसंद-नापसंद एक अंगूठे की मोहताज़, चार किताबों को पढ़ नया सीखने की जगह अब गूगल सब खोजने लगा था। संवेदनाओं का जैसे मशीनीकरण हो गया हो।
आश्चर्य इस बात का भी हुआ करता कि हर सुख-सुविधा के बीच रहते हुए समय का रोना अब और भी अधिक क्यों बढ़ता जा रहा है। लेकिन इन्हीं सबसे खीजते हुए मेरा स्वयं कब इस दुनिया में प्रवेश हो गया, पता ही न चला। शुरू-शुरू में यहाँ रहते हुए भी मैंनें पुरानी आदतें छोड़ीं न थीं। यही कहती,"जब इंसानियत से भरोसा उठ चुका तो इस मुई मशीन पे भरोसा काहे करूं?" पर कहते हैं न परिस्थितियों के आगे सिर झुकाना ही पड़ता है। मैंनें भी जल्दी ही झुका दिया था। यही व्यस्तता और समय न मिलने की जानी-पहचानी दुहाई देकर। 

धीरे-धीरे वही सब बातें जिनके लिए दूसरों को टोका करती थी, मैं भी करने लगी। सारे फोटोज कम्प्यूटर में अलग-अलग फोल्डर बना डाल दिए, पिछले दस वर्षों में कोई भी फोटो डेवेलप नहीं करवाया, सिवाय बच्चों के स्कूल में भेजे जाने वाले फैमिली फोटो के, क्योंकि ये तो मजबूरी था। फोटो को ट्रांसफर करते ही , कैमरा से डिलीट करना भी सीख गई, कि स्पेस बना रहे। एक अधूरा उपन्यास, कुछ कहानियाँ और सैकड़ों कविताओं की फाइल बनाकर सारे ड्राफ्ट भी ट्रैश में डाल सदा के लिए विलुप्त कर दिए। व्यवस्थित रहने और सफाई की ये बुरी आदत भी बचपन से ही है।

तमाम जिम्मेदारी, दुनियादारी, सुख-दुःख की छाँव तले कम-से-कम ये सब सुरक्षित बने थे और अब कुछ क़दम आगे बढ़ना था कि परसों ही सब उम्मीदों पर एक ही झटके में पानी फिर गया। दवाई का डिब्बा और पानी का गिलास बस अभी मेज पर रखा ही था, कि न जाने कैसे हाथ लगा और पूरा एक गिलास पानी, प्यासे की-बोर्ड ने एक ही झटके में गटक डाला। तुरंत ऑफ किया, न्यूज़पेपर से सुखाया, धूप में रखा, ड्रायर भी चलाया। बैटरी और हार्ड डिस्क को निकाल चावल में डाला...लेकिन हर एक कोशिश व्यर्थ ही गई। एक टूटते रिश्ते की तरह बेवफ़ा कम्प्यूटर ने मुझसे सदा के लिए अलविदा कह दिया।

हालत यह है कि आज मेरे पास मेरे ही बच्चों की पिछले सात-आठ वर्षों से खींची गई दो-तीन हजार तस्वीरों में से कोई तस्वीर नहीं, उनके स्पोर्ट्स डे, तमाम कार्यक्रमों, ऑडिओ, वीडियो के नाम पर शून्य हूँ अब। प्रकृति से जुड़े तीन सौ से भी अधिक बेहतरीन चित्रों का अलबम, तमाम यात्राएँ, वर्षों का लेखन सब कुछ खत्म हो चुका है। कितनी स्मृतियाँ, इन सबसे जुड़ी थीं। कुछ अफसोस भी थे, जो सामने आकर टीस दिया करते थे, लेकिन अपनों से मिला दर्द भी अपना ही होता है। उसे फेंका नहीं जा सकता। अरमान और सपनों को मारो गोली,तो भी कितना कुछ था इस कम्प्यूटर में, जो अपना था। लेखन भी जब तक जीवित हूँ, घर की खेती जैसा है पर उन तस्वीरों को कहाँ से लाऊँ, जिनकी उम्र निकल चुकी। सब कुछ जानते, समझते हुए भी मैंनें इन्हें कहीं और क्यूँ नहीं सहेजा; इस बात का दुःख किसी नजदीकी की मृत्यु जैसा है जो अब जीवन भर मुझे सालता रहेगा। 

लेकिन अफसोस से भी क्या होगा, क्या कर सकेंगे? उसी दिनचर्या के बीचोंबीच यकायक बुक्का फाड़ के एकाध हफ्ते रोना-धोना चलेगा, कुछ महीने तक उदासियाँ भीतर धंसी रह जायेंगीं, सालों इसका मातम मनाया जाएगा। जो कहते हैं 'जब ईश्वर देता है तो छप्पर फाड़के देता है।' वो ये नहीं जानते कि ये छीनता भी इसी अंदाज़ से है। कम-से-कम मेरा पिछले तीन वर्षों का अनुभव तो यही कहता है।
हाँ, पर इतना जरूर है कि अब जब कैमरा कुछ क्लिक करेगा, तो उसका प्रिंट जरूर निकलेगा। कलम अब डायरी के पन्नों को इस स्क्रीन से पहले चूमेगी। उसके बाद ही इस धोखेबाज़ कम्प्यूटर को कोई दस्तक़ दी जाएगी, यूँ मतलबी लोगों की तरह, प्राथमिकता की पायदान से तो ये कबका उतर चुका है।

मैं अपनी पुरानी देसी दुनिया में ज्यादा खुश थी। यहाँ सब आभासी है। इश्क़ के डिजिटल अफ़सानों की तरह, एक क्लिक और खेल ख़त्म!   
- प्रीति 'अज्ञात'

*वैसे मैं आसानी से उम्मीद छोड़ती नहीं, हो सकता है कि जो खोया वो अब कभी न मिले, पर मिलने की सम्भावना भी उतनी ही शेष है। इस घटना को आप सबसे साझा करने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि ऐसा आपके साथ कभी न हो। इससे सीख लें, अपना ध्यान रखें और तक़नीकी दुनिया को जरूरत से ज्यादा भाव न दें। और हाँ, बैकअप जरूर रखें क्योंकि इस ग़लतफ़हमी से बाहर निकलना बहुत आवश्यक है कि जो अब तक न हुआ वो कभी न होगा। 
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