शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

मिट्टी के रंग



एक समय था, जब दिए सुनते ही मिट्टी की कटोरी से निकलती रौशनी बिखेरती बाती की तस्वीर आँखों में चमक भर देती थी। दीवाली से दिए का और कुम्हार से माटी का ये रिश्ता भी कितना अद्भुत है। पहले सड़क किनारे लगी दीवारविहीन दुकानों में घड़े, सुराही, चिड़ियों के पानी का सकोरा, कुल्हड़ बस गिनी-चुनी वस्तुएँ ही दिखाई देतीं थीं। भीषण गर्मी और दीपावली के समय पर इनका व्यवसाय चला करता था या यूँ कहिये कि उस समय की कमाई से ही पूरा वर्ष गुजारना होता था। 
लेकिन अब समय बदल चुका है। न जाने कितने आईडियाज़ यहाँ साकार होते हैं। मिट्टी अब रंगीन होकर हर सांचे में ढलने लगी है। घर हो या बगिया, सबकी सजावट के सामान यहाँ मिल जाएँगे। मैं गई तो थी डिजाईन और वर्क का आईडिया लेने.....पर न जाने क्या-क्या बटोर लाई और उस पर उन काका का आशीर्वाद, दीवाली के एडवांस बोनस की तरह मुझे ख़ुद ही नसीब हो गया। 

कालू भाई प्रजापति जी (काका) 40 वर्षों से यही कर रहे हैं, उनके पिता भी यही काम करते थे और अब काका के तीनों बेटों ने यह विरासत संभाल ली है। बारहवीं तक पढ़ चुका उनका पोता आकाश भी हँसता हुआ दिन भर साथ लगा रहता है। मिट्टी से बनी वस्तुएँ, तो नुक़सान होना भी तय है। मेरे इसी सवाल पर काका ने बड़ी सहजता से बताया कि पहले बहुत परेशानी थी पर अब हम एडवांस ले लेते हैं। महंगाई बढ़ रही और बनाने में भी बहुत खर्च होता है। मकान भी बनाना है उन्हें।
मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि उनके ग्राहक ट्रक भर सामान ले जाते हैं। कुछ इनकी पूरी टीम बनाती है और कुछ कच्चा माल  दिल्ली, गोरखपुर, कलकत्ता से आता है। जिसका रंगरोगन यहाँ होता है। कुल मिलाकर हमारे आपके घरों की रोशनी की पहली किरण यहीं से निकलती है। 

तमाम परेशानियों, स्वप्नों और अथक परिश्रम के बीच झलकती इनके चेहरे की तसल्ली ज़िंदगी की ख़ूबसूरती की आश्वस्ति देती प्रतीत होती है। अब और भला इस दुनिया में रक्खा ही क्या है। थोड़े सपने, थोड़ी उम्मीदें और फिर कुछ ईमानदार कोशिशें.....हो जायेगी सबकी दुनिया ज़िंदाबाद! 
-प्रीति 'अज्ञात'

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