एक समय था जब मैं बहुत फ़िल्में देखती थी। अच्छी फिल्मों के शानदार सीन दिलो-दिमाग पर अगली अच्छी फिल्म देख लेने तक छाए रहते थे। किसी के गीत, गुनगुनाने लायक तो किसी का कोई डायलॉग सर पर सवार रहता था। एक्शन और हॉरर फिल्मों से हमेशा परहेज किया है मैनें। मैं सरदर्द लेने या भयभीत होने के लिए थिएटर में नहीं जाती।:P
कुछ ऐसी फ़िल्में भी होती हैं, जिनका असर वर्षों रहता है। मेरे ख्याल से रियलिस्टिक सिनेमा में यह बात होती ही है।
उन दिनों जब दूरदर्शन ही अकेला दर्शन देता था, एक मूवी आई थी उस पर 'एक रुका हुआ फैसला'...आज भी याद करती हूँ तो बस एक ही शब्द दिमाग में गूंजता है,'वाह!' यह पंकज कपूर जी के फैन होने की शुरुआत थी। उसके बाद सारांश, डैडी ने ऐसा जादुई असर छोड़ा कि वो अनुपम खेर द्वारा अभिनीत, बेटे की अस्थियों के लिए टूटकर रोने वाला मार्मिक दृश्य हो या कि 'आईना मुझसे मेरी पहली-सी सूरत मांगे......!' गीत के समय दी गई स्पीच, आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भारतीय फिल्म उद्योग ने हमको ऐसी सैकड़ों फ़िल्में और कलाकार दिए हैं, जिनके नाम हम सदियों गर्व के साथ लेते रहेंगे। खैर..ये चर्चा फिर कभी!
समय के साथ फ़िल्में देखना कब छूट गया, पता ही न चला। ज़िन्दगी की बदलती तस्वीरों के साथ वक़्त बहता रहा। पर इधर बीते दो-तीन वर्षों में मैरी कॉम, कहानी, मांझी देखने के बाद महसूस हुआ कि अच्छी फिल्मों को न देखना मेरी सबसे बड़ी बेवकूफी रही। कितना कुछ सिखा जाती हैं ये फ़िल्में हमें। एक अलग-सी संतुष्टि भी मिलती है इनसे।
'नीरजा' की बातें और उसकी बहादुरी के किस्से बचपन की गलियों से होकर गुजरे हैं। उन दिनों की बहुत-सी बातें, अखबारों की सुर्खियां जेहन में अब भी ताजा हैं। आज जब इस फिल्म को देखने का मन बनाया तो अंदाज नहीं था कि थिएटर को सुबकियों में इस क़दर डूबा पाऊँगी। सुबह के शो में अलबत्ता तो दर्शक होते ही नहीं या फिर सात-आठ चेहरे ही नजर आते हैं। आज पचास से अधिक जोड़ी नम आँखें थीं और एक मिनी थिएटर में इस वक़्त, इतने लोगों को देख काफी तसल्ली मिली।
ओह्ह. नीरजा! तुम सामने होतीं तो आज तुम्हें गले लगा लेती। कितना रुलाया है तुमने यार! मेरा दिल रो रहा, उस माँ के लिए जिसके शब्दों में तुम्हारे लिए कितना गर्व था! मुझे भी है, बेहद गर्व है तुम पर! शबाना आज़मी जी ने ये क़िरदार बखूबी निभाया है, सोनम कपूर का कार्य भी सराहनीय रहा!
लेकिन वही अफ़सोस, वही शिकायत उस अदृश्य शक्ति से कि अच्छे लोगों को चैन से जीने क्यों नहीं देता?? दुनिया जहान के दर्द, तकलीफें उनके हिस्से ही क्यों?? तुम्हारी शहादत को सलाम नीरजा!
काश, अपने ही देश को आग में फूंकते लोग तुम-सा सोच भी पाते तो इंसान कहलाते!
- © 2016 प्रीति 'अज्ञात'
कुछ ऐसी फ़िल्में भी होती हैं, जिनका असर वर्षों रहता है। मेरे ख्याल से रियलिस्टिक सिनेमा में यह बात होती ही है।
उन दिनों जब दूरदर्शन ही अकेला दर्शन देता था, एक मूवी आई थी उस पर 'एक रुका हुआ फैसला'...आज भी याद करती हूँ तो बस एक ही शब्द दिमाग में गूंजता है,'वाह!' यह पंकज कपूर जी के फैन होने की शुरुआत थी। उसके बाद सारांश, डैडी ने ऐसा जादुई असर छोड़ा कि वो अनुपम खेर द्वारा अभिनीत, बेटे की अस्थियों के लिए टूटकर रोने वाला मार्मिक दृश्य हो या कि 'आईना मुझसे मेरी पहली-सी सूरत मांगे......!' गीत के समय दी गई स्पीच, आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भारतीय फिल्म उद्योग ने हमको ऐसी सैकड़ों फ़िल्में और कलाकार दिए हैं, जिनके नाम हम सदियों गर्व के साथ लेते रहेंगे। खैर..ये चर्चा फिर कभी!
समय के साथ फ़िल्में देखना कब छूट गया, पता ही न चला। ज़िन्दगी की बदलती तस्वीरों के साथ वक़्त बहता रहा। पर इधर बीते दो-तीन वर्षों में मैरी कॉम, कहानी, मांझी देखने के बाद महसूस हुआ कि अच्छी फिल्मों को न देखना मेरी सबसे बड़ी बेवकूफी रही। कितना कुछ सिखा जाती हैं ये फ़िल्में हमें। एक अलग-सी संतुष्टि भी मिलती है इनसे।
'नीरजा' की बातें और उसकी बहादुरी के किस्से बचपन की गलियों से होकर गुजरे हैं। उन दिनों की बहुत-सी बातें, अखबारों की सुर्खियां जेहन में अब भी ताजा हैं। आज जब इस फिल्म को देखने का मन बनाया तो अंदाज नहीं था कि थिएटर को सुबकियों में इस क़दर डूबा पाऊँगी। सुबह के शो में अलबत्ता तो दर्शक होते ही नहीं या फिर सात-आठ चेहरे ही नजर आते हैं। आज पचास से अधिक जोड़ी नम आँखें थीं और एक मिनी थिएटर में इस वक़्त, इतने लोगों को देख काफी तसल्ली मिली।
ओह्ह. नीरजा! तुम सामने होतीं तो आज तुम्हें गले लगा लेती। कितना रुलाया है तुमने यार! मेरा दिल रो रहा, उस माँ के लिए जिसके शब्दों में तुम्हारे लिए कितना गर्व था! मुझे भी है, बेहद गर्व है तुम पर! शबाना आज़मी जी ने ये क़िरदार बखूबी निभाया है, सोनम कपूर का कार्य भी सराहनीय रहा!
लेकिन वही अफ़सोस, वही शिकायत उस अदृश्य शक्ति से कि अच्छे लोगों को चैन से जीने क्यों नहीं देता?? दुनिया जहान के दर्द, तकलीफें उनके हिस्से ही क्यों?? तुम्हारी शहादत को सलाम नीरजा!
काश, अपने ही देश को आग में फूंकते लोग तुम-सा सोच भी पाते तो इंसान कहलाते!
- © 2016 प्रीति 'अज्ञात'
मुझे भी इस फिल्म को देखने कि जिज्ञासा है |
जवाब देंहटाएं