मंगलवार, 28 अगस्त 2018

भुजरियाँ

मध्यप्रदेश में रक्षाबंधन के अगले दिन एक बड़ा प्यारा पर्व मनाया जाता है, भुजरिया। इसे भुजरियाँ या कजलिया भी कहा जाता है। संभवतः यह अन्य प्रान्तों में भी किसी न किसी रूप में मनाया जाता होगा पर मैंने इसे भिंड में ही देखा-समझा।
इसमें अन्न के दानों (गेहूँ, धान, जौ इत्यादि) को छोटे-छोटे गमलों, टोकरी में बो देते हैं, प्रतिदिन स्त्रियाँ इन्हें पानी देकर देखभाल करती और पूजती हैं। जब इनसे पौधे निकलते हैं तो गीत गाये जाते हैं और यह सब एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। इसे सिराने के लिए नदी-तालाबों तक लोग समूह में बड़े उत्साह के साथ पहुँचते हैं। यह अच्छी फसल की कामना का प्रतीकात्मक त्योहार तो है ही पर इसमें भी लोग होली-ईद की तरह गले लगते हैं और सारी कटुता भुलाकर मित्र बन जाते हैं। 

मुझे इतना ही याद है कि इस दिन घर में बहुत आना-जाना लगा रहता था। सब आते, भुजरियाँ देते और बदले में हम भी उन्हें अपनी भुजरियाँ देते। आने वाले लोग या तो पैर छूते या भुजरियाँ कान के पास लगाते, यह उम्र के हिसाब से तय होता था। हम भी ऐसा ही करते थे। 
बच्चों में इस पर्व को लेकर ख़ास ख़ुशी होती थी एक तो छुट्टी मिलती, उस पर सारे दिन घूमने का मामला भी सेट रहता। हाँ, बारिश बहुत हुआ करती थी इस दिन, पर लोगों का उत्साह सदैव ही इस पर भारी रहा करता था।

'नदिया के पार' के एक गीत 'कौन दिसा में लेके चला रे बटुहिया' का एक रीमिक्स भी बनाया था मैंने, जिसका मुखड़ा था -
कौन दिसा में लेके चलारे भुजरियाँ
ओये चटर-पटर, ये सुहानी सी मटर 
ज़रा खावन दे, खाआवन दे
मन भरमाये बड़ी तेज ये दुपरिया 
कहीं खाई जो मटर, दिन जायेगा गुज़र
भैंसा हाँकन दे, हाँकन देएए
हाँ, एक बात और! मैं छोटी थी और उस समय इस एक बात पर मुझे बहुत हँसी आती थी कि जब भी भुजरियों का लेन- देन होता; दोनों पक्ष हाथ जोड़कर एक-दूसरे से 'नमस्ते' जरुर कहते। मुझे ये औपचारिकता बहुत अजीब लगती और मैं नमस्ते कहने के साथ ही ठिलठिल कर खूब हँसती थी।
यूँ मैं तो बेवज़ह भी जमकर हँसती हूँ। 
अच्छा, नमस्ते 😎🙏
- प्रीति 'अज्ञात'
* पक्की बात है कि अब कुछ लोगों को यह गीत गुनगुनाने की इच्छा हो रही होगी। ल्यो, लिंक दे रहे -
https://www.youtube.com/watch?v=x3iVHlSoJAs

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