उसके हिस्से का प्यार मुझे मिले न मिले, पर मेरी हर ख़ुशी उसके नाम लिख देना चाहती हूँ और यह दुआ भी कि उसे किसी को मिस न करना पड़े कभी! मैं यह बात भी उसको समझाना चाहती हूँ कि उसे थोड़ा ठहरना चाहिए था क्योंकि कहकर ली गई विदाई, बिन कहे सदा के लिए अचानक चले जाने से कहीं बेहतर होती है!
पहाड़ की ऊँची चोटी मुझे उतनी प्रभावित नहीं करती जितनी कि वहाँ पहुँचने से पहले की यात्रा सुहाती है. वहाँ मैं कई मर्तबा रुक-रुककर न केवल अपनी श्वाँस को सामान्य करती हूँ बल्कि उस पल भर के ठहराव को भी खुलकर महसूस करती हूँ और अपने कैमरे में क़ैद भी. यहाँ रोज चढ़ने-उतरने वाले लोग जब डग भरते हुए आगे निकल जाते हैं तो मेरा मन उनके प्रति आदर से भर उठता है और उनके होठों के इर्दगिर्द उभरती दो लक़ीरें मुझमें अपार ऊर्जा का संचार कर देती हैं. रोज चढ़ने-उतरने वाले इन लोगों के मन में कभी भी इस काम को लेकर उबाऊपन नहीं दिखता. ये खुश हैं अपने-आपसे.
समंदर के साथ-साथ मीलों चलना चाहती हूँ ये जाने बिना कि न जाने उस आख़िरी छोर पर क्या होगा, कुछ होगा भी या नहीं! पर मैं उस तक पहुँचना चाहती हूँ. मछुआरे जाल फेंकते हैं, उनका समूह एक साथ गाते हुए एक-दूसरे का उत्साह बढ़ाता है. कभी नाव को किनारे लगाते समय सब पंक्तिबद्ध खड़े होकर रस्सी खींचते हैं. मैं ठिठककर उनके पास खड़ी हो सहायता करने की सोचती हूँ, ये जानते हुए भी कि इस रस्सी को थाम लेने भर से मैं इसे खींच नहीं पाऊँगी और यह प्रयास भी बेहद बचकाना है..... पर ऐसा करना अच्छा लगता है मुझे.
रेगिस्तान की भी अपनी अलग ही अदा है! यहाँ रेत के सुनहरे टीले जैसे 'आओ' कहकर अपनी ओर बुलाते हैं और दूर तक पसरी मृगतृष्णा किसी नटखट बच्चे-सा खेल खेलने लगती है. एक नन्हा पौधा भी अपार प्राण वायु का अनुभव करा जाता है और उसी के नीचे खेलता वो गोल मटोल लाल-काला सा कीड़ा किसी पुष्प की तरह मन को खिला देता है. रेगिस्तान के जहाज तसल्ली से लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं. बबलू, राजू, जेम्स बांड जैसे नाम धर ये झट से पर्यटकों से उम्र भर का रिश्ता जोड़ लेते हैं जिसे वो अपनी यात्रा की कहानियों में बार-बार दोहराते हैं.
कई बार सोचती हूँ कि बिना उठापटक, बिना राजनीति और लड़ाई-झगड़ों से दूर इन जंगलों, पहाड़ों, नदियों और रेगिस्तान की दुनिया में कितना प्रेम भरा है, कितनी सच्चाई है, कितनी एकता है. अपेक्षाएँ कम हैं, सो दुःख भी कम ही होंगे तभी तो इनकी औसत आयु हमसे ज्यादा है. तो फिर ये हमारे शहरों को ही क्या हो गया है कि इनकी भूख ही नहीं मिटती? रोज ही ये धरती का सीना क्यों चीर देते हैं? आख़िर कौन लील रहा है हमें? क्या हम स्वयं ही??
न जाने क्यों....मैं अब भी उस परी के मिलने की उम्मीद लिए अपनी Wish List रोज दोहरा लेती हूँ.
- प्रीति 'अज्ञात'
#Wish List #प्रकृति
सुंदर भाव
जवाब देंहटाएंसुंदर लेखन
धन्यवाद
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