आप जब तक एक विशिष्ट पक्ष के सुर में सुर मिला रहे हैं, आप सही हैं. उसके विरोध में बोलते ही आप झूठे, मक़्क़ार, धोखेबाज़ या जयचंद मान लिए जाते हैं. असहमति का स्थान अब कोरा ढोंग भर है. न्यायाधीश एंकर्स के द्वारा आपको बुलाया जाना भी एक तरह से अपमान रणनीति का हिस्सा ही है. आप नहीं जाएंगे तो कह दिया जाएगा कि "हिम्मत ही नहीं कि हमारे प्रश्नों का सामना करें". ग़र चले गए तो शाब्दिक हिंसा से आपका पूरा व्यक्तित्व छलनी कर दिया जाता है और विरोधी कुटिल हँसी हँसते नज़र आते हैं. आप मरें या जियें, उनकी बला से! आपके परिवार का मातम उनकी TRP को एक नई उछाल देता है.
मीडिया जिस तरह से चाटुकारिता की समस्त सीमाओं को लांघ चुकी है वह सर्वविदित है. चर्चा उन्हीं विषयों पर होगी, उन्हीं किस्सों को लंबा खींचा जाएगा जिससे आक़ाओं का हित सधता हो. अन्यथा आपकी मृत्यु 20 सेकंड की ख़बर से अधिक कोई मायने नहीं रखती. हाँ, मानसिक लिंचिंग के दोषी घड़ियाली आँसू बहाते अवश्य दिख जाएंगे जिसे देख अचानक ही
एक बड़ा समूह, उनके संवेदनशील और भावुक हृदय की बलैयाँ लेने को आतुर हो उठेगा.
नियम यही है कि जो राजनीति में जीवित रहना है तो पत्थर या बेशर्म बन जाइये! बहुत से लोग
हैं
उधर, जिन्हें देख प्रेरणा ली जा सकती है. चैनल्स पर हो रही चीख-पुकार तो थमने से रही. गाली-गलौज़, मारकुटाई का सीधा प्रसारण आने ही लगा है. बचा ही क्या है!
हाँ, जहाँ तक आम दर्शकों का सवाल है तो अब टीवी को स्थायी रूप से विदाई देने का उचित समय आ चुका है वरना ये हमारे आपसी रिश्तों को भी एक दिन लील लेगा.
ये काल ही कुछ ऐसा है कि या तो हम अपने प्रियजनों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए, जो कुछ भी घट रहा उससे आँखें मूँद लें या फिर किसी दिन चुपचाप इस धरती में समा जाएँ!
चुप्पियाँ भीतर ही भीतर अब तोड़ने लगी हैं. लेकिन यदि आप भयभीत हैं तो अपने नाम के साथ जुड़ा लेखक शब्द हटा दीजिए.
- प्रीति 'अज्ञात'
#टीवी #बहस
प्रभास जोशी सरीखे कुछेक लोगों को छोड़कर तो मीडिया हमेशा चाटुकार रही है। पहले पता नहीं चलता था। अब सोशल मीडिया के कारण पता चलने लगा है। शर्मनाक तो यह है की अब खुलकर गुटबंदी हो गयी है। किसी न किसी गुट की गोद में जाकर मीडिया बैठ गयी है। चूल्हा-चौकी और दाना-पानी का जो सवाल है। बाक़ी महंगायी डायन मार गयी!
जवाब देंहटाएंकभी मीडिया का काम न्याय के लिए खड़ा होना था , पर आज वह खुद ही जज और खुद ही अदालत बन बैठा है | जो तथ्य पुलिस या अधिवक्ता नहीं जुटा पाते , वे ये लोग सरलता से जुटा लेते हैं | अतिथियों को बुलाकर सम्मानित अतिथियों के कपडे सरे मंच उतारने में इन्हें महारत हासिल है | क्यों न्यायपालिका इन बकवास बहस कार्यक्रमों के लिए कोई नैतिक मापदंड निर्धारित करती ? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हो रहे इस तमाशे में देश के एक संवेदनशील और होनहार युवा नेता को सदा के लिए मौत की नींद में सुला दिया इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा ? पूछता है भारत -- पूछता है भारत चिल्लाने वालों को कोई क्यों नहीं पूछता कि वे कब से भारत का चेहरा बन गये ?
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