मंगलवार, 4 अगस्त 2020

भारत-चीन तनाव के बीच ह्वेनसांग के आँसुओं की क़ीमत कौन समझेगा?


आज भारत-चीन तनाव के चलते एक पौराणिक कथा अत्यधिक प्रासंगिक लगने लगी है जब 1400 साल पहले चीनी यात्री ह्वेनसांग का भारत आगमन हुआ था. वो समय था जब पूरा विश्व भारतीय संस्कृति से प्रभावित था.

क्या है वह किस्सा?
यह चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल की घटना है. ह्वेनसांग ने भारतवर्ष के कई प्रमुख स्थानों की यात्रा की तथा वे लोगों के व्यवहार, भारतीय संस्कृति और परम्पराओं से अवगत हुए. हमारे धर्मग्रंथों और इतिहास के प्रति भी उनकी बहुत रुचि थी और उनके पास इनका अच्छा-ख़ासा संग्रह भी था. स्वदेश लौटने से पहले उन्होंने अपने अनुभव सम्राट हर्ष के साथ साझा किये और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की. हर्षवर्धन ने भी उन्हें सम्मानित कर विविध उपहार दिए, साथ ही उनके सकुशल अपने देश पहुँचने हेतु नौका एवं 20 योद्धा सैनिकों की भी उचित व्यवस्था की. 
ह्वेनसांग के प्रस्थान के समय सम्राट ने अपने योद्धाओं से कहा, "इस नौका में कई भारतीय धर्मग्रंथ एवं ऐतिहासिक वस्तुएँ हैं जो हमारी संस्कृति का प्रतीक हैं. इनकी रक्षा करना आप सभी का कर्तव्य है". 

कई दिनों तक उनकी सुखद यात्रा चलती रही लेकिन एक दिन समुद्र में भयंकर तूफ़ान आया और नौका डोलने लगी. सभी भयभीत हो गए. घबराकर प्रधान नाविक ने कहा, " नौका में भार अधिक हो गया है. शीघ्र ही ये पुस्तकें एवं ऐतिहासिक वस्तुओं को समुद्र में फेंक अपने प्राणों की रक्षा कीजिए". 
यह सुनकर सैनिकों के नायक ने कहा, "यह हमारा अग्निपरीक्षा काल है. इन सभी वस्तुओं के रक्षण द्वारा भारतीय संस्कृति की रक्षा करना हमारा प्रधान कर्तव्य है. इन्हीं ग्रंथों से तो लोगों को हमारी सभ्यता और परम्पराओं का ज्ञान होगा! इसकी रक्षा के लिए हम अपने प्राण भी समर्पित कर सकते हैं". अपने नायक के ये वचन सुनते ही तुरंत सभी योद्धाओं ने एक साथ पानी में छलांग लगा दी. 
अकस्मात हुई इस घटना से ह्वेनसांग हतप्रभ हो गए. संस्कृति की रक्षा हेतु भारतीय वीरों के त्याग और बलिदान को देख उनकी आँखों से अविरल अश्रुधार बहने लगी. 

'वसुधैव कुटुंबकम्' ही हमारा मूल स्वभाव है 
यह मात्र भावविह्वल कर देने वाली कथा भर ही नहीं है बल्कि यह हमारी प्राचीन संस्कृति और संस्कारों की प्रतिनिधि कहानी के रूप में भी उभरती है. यह इस तथ्य को और सुदृढ़ करती है कि जब-जब संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपने जीवन को भी दाँव पर लगा देने का अवसर आया है, तब-तब हमारे समर्पित वीरों ने बिना किसी हिचकिचाहट के संस्कृति को ही चुना. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि इस वीर गाथा के साक्षी उस देश के यात्री ह्वेनसांग के आँसू हैं जो देश (चीन) आज हम पर आँखें तरेरने का दुस्साहस कर रहा है. 
हम भारतीय अब तक अपने उन संस्कारों को नहीं भूले हैं. हमने हर बार दुश्मन देश से आये लोगों का खुलकर स्वागत किया है और किसी भी वैमनस्यता को पीछे रख, सदैव ही प्रेमपूर्वक दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. यह न केवल हमारे शांतिप्रिय होने की बल्कि सहज विश्वास की भी पुष्टि करता है. 'वसुधैव कुटुंबकम्' हमारे मूल स्वभाव में निहित है.
 
अतिथि देवो भव:
उपर्युक्त पूरी घटना यह भी सिद्ध करती है कि हमारे देश में अतिथियों को मान देने की परम्परा सदियों से चली आ रही है और आज तक क़ायम है. माना कि उस समय हमारा देश सोने की चिड़िया था और घर आये अतिथि को हम बेशक़ीमती उपहारों से लादकर ही विदा करते थे लेकिन अतिथि सत्कार का यह भाव आज भी हमारी संस्कृति का उतना ही अहम् हिस्सा है. हम उस अटूट संस्कृति के भी सम्पुष्ट वाहक रहे हैं जहाँ देशधर्म, देशहित सबसे पहले है.

हिन्दी चीनी भाई-भाई'?
चाहे वह नेहरू जी के समय 'हिन्दी चीनी भाई-भाई' का नारा हो या शी जिनपिंग के साथ मोदी जी का झूला झूलना, यह सब हमारा भरोसा, अपनत्व भाव और पुरानी कटुता को भूलकर आगे बढ़ना ही प्रदर्शित करता है. हम हर किसी के व्यवहार को रणनीति की दृष्टि से नहीं देखते बल्कि उस पर पूरा भरोसा करते हैं. जो भी हमसे मित्रवत होकर मिला, हमने उसे गले ही लगाया है. 
हम आज भी सारी कड़वाहट को पीछे छोड़ते हुए चाइनीज़ सामान को अपना पूरा बाज़ार दे देते हैं. उनके उत्पादों के लिए पलक -पाँवड़े बिछाए रखते हैं. देश भर में उनके होर्डिंग्स टांग लेते हैं. 

चीन ने ह्वेनसांग के आँसुओं से क्या सीखा? 
ह्वेनसांग ने अपने देश जाकर नम आँखों से इन तमाम पुस्तकों का अनुवाद किया. ‘सी-यू-की’ ग्रन्थ उनकी भारत यात्रा का विवरण हैं जिसमें उन्होंने भारत की आर्थिक, सामाजिक, औद्योगिक दशा एवं संस्कृति का विस्तार से वर्णन किया है. लेकिन लगता है चीन ने ह्वेनसांग के आँसुओं से कुछ नहीं सीखा, तभी तो वह बंजर जमीन के टुकड़े के लिए आँखें तरेरने लगा है. उसे सीमा के विस्तार में दिलचस्पी है, भले ही इस प्रक्रिया में उनके दिल सिकुड़ते चले जाएँ! 

हमारे लद्दाख में चीनियों की ऊलजलूल और फ़ितूर भरी शर्मनाक़ हरक़तों से इनके पूर्वजों की आत्माएँ भी शर्मिंदा होती होंगी. चीन का वर्तमान रवैया, ह्वेनसांग की भावनाओं का अपमान है, उस संवेदनशील हृदय की अवहेलना है. हमारी संस्कृति को समझने के लिए चीन को ह्वेनसांग की आँखों से हमें देखना होगा। उनसे बहे आँसुओं से सीखना होगा! विचारणीय है कि आख़िर चीनियों के लिए ह्वेनसांग के आँसुओं की क़ीमत है ही क्या! 
- प्रीति 'अज्ञात'
iChowk में प्रकाशित -
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1 टिप्पणी:

  1. इन आसूँओं की कीमत केवल उदार और अनन्य अतिथिप्रेमी भारतीय जानते हैं . कीड़ों मकोड़ों के भक्षक चीनी नहीं |

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