'नंदन और कादम्बिनी अब प्रकाशित नहीं होंगी', ये जानकर एक झटका सा लगा! यूँ मैंने वर्षों से नंदन पत्रिका नहीं देखी लेकिन मेरे अवचेतन मन का अटूट हिस्सा यह सदा ही रही है. एक रिश्ता होता है न जैसे दिल का! जहाँ साथ न होकर भी हर समय साथ चलता है कोई! बस,वही समझ लीजिए. नंदन का बंद होना यूँ लग रहा, जैसे आज उन्हीं मधुर स्मृतियों में से किसी ने कोई सुनहरा पन्ना अचानक ही खींच लिया हो! इसके साथ ही बाल साहित्य का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो चुका है.
दरअसल बुक रीडिंग की लत वाली एक पूरी पीढ़ी है जिसके साथी रहे हैं, चम्पक, लोटपोट, चंदामामा, नंदन, पराग, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और कादम्बिनी. मैं भी उसी पीढ़ी का हिस्सा हूँ. बचपन से लेकर अब तक उम्र के प्रत्येक पड़ाव पर पत्रिकाओं से गहरा रिश्ता रहा है. यही कारण है कि जब भी बीते समय के बियावान में भटकती हूँ, सुनहरे पन्ने फड़फड़ाते हैं और कागज़ों की ख़ुश्बू स्वतः ही साथ चलने लगती है. यूँ बचपन की सूची में सुमन-सौरभ, क्रिकेट सम्राट, राजन-इक़बाल का भी बोलबाला रहा. बाद में प्रतियोगिता दर्पण, रीडर्स डाइजेस्ट भी जुड़ गए. फिर कुछ स्त्री प्रधान पत्रिकाएँ भीं. पापा हमेशा कहते कि "अच्छी भाषा सीखनी है तो कादम्बिनी पढ़ा करो." प्रारम्भ में ये मुझे उतनी पसंद नहीं थी पर जैसे-जैसे आयु बढ़ी, उसके साथ-साथ सोच भी परिष्कृत होती गई. परिणाम यह हुआ कि कादम्बिनी का लम्बा साथ बीते वर्ष तक रहा जबकि नंदन किशोरावस्था को पार करते-करते छूट गई थी. कादम्बिनी में चित्र को देखकर चार पंक्तियाँ रचना मुझे बहुत अच्छा लगता था. बड़ी हुई तो इसके साथ और कई पत्रिकाओं में प्रकाशित होने का सुखद अहसास भी जिया है मैंने. उस समय यह सुख अलग ही लेवल का हुआ करता था.बच्चों के बीच नंदन की लोकप्रियता का कारण इसके पाठकों की पसंद का पूरा-पूरा ख्याल रखा जाना था. संपादकीय भी अपनत्व भरा होता था. कुल मिलाकर इसमें प्रत्येक बच्चे के लिए रुचिकर सामग्री थी. स्थाई स्तम्भ 'तेनालीराम', 'चीटू-नीटू' और 'आप कितने बुद्धिमान हैं' सबसे पहले पढ़े जाते. चित्र में कमियाँ ढूँढ स्वयं को बुद्धिमान मान लेना बहुत आनंद देता था. उसके बाद इसकी कहानियों का नंबर आता. बाल-समाचार भी होते थे.
नंदन की एक टैग लाइन हुआ करती थी. न जाने अभी उसमें थी या नहीं लेकिन बचपन में पढ़ी ये पंक्तियाँ मुझे अब तक याद हैं, "जो बच्चे नंदन पढ़ते हैं, जीवन में आगे बढ़ते हैं." ये न भी लिखा गया होता, तब भी ये पत्रिका प्रिय थी मुझे. हाँ, इन पंक्तियों का भाव मुझे अत्यधिक प्रेरणा देता था.
उस समय पुस्तकों से श्रेष्ठ साथ कुछ लगा ही नहीं कभी! पढ़ने की ग़ज़ब भूख थी!. पत्रिकाएँ आतीं और हम बहिन-भाई उस पर झपट पड़ते. किसको कौन सी पत्रिका पहले मिलेगी, इस बात पर ही कुत्ते-बिल्ली सा लड़ बैठते. अधिकतम दो दिनों में सारी पत्रिकाएँ चट हो जातीं. इसके बाद तृप्ति हेतु प्रतिदिन, किराए से पच्चीस पैसे के दो-तीन कॉमिक्स लाए जाते. बचपन की बहुत प्यारी साथी थीं पत्रिकाएं. उनकी ऐसी प्रतीक्षा और ललक अब नहीं दिखती क्योंकि इनसे कहीं अधिक विकल्प उपस्थित हैं.
समय के साथ परिवर्तन होना अवश्यंभावी है. मुद्रित पत्रिकाओं का पाठक वर्ग पुराना है जिसका कागज़ से मोह छूटता ही नहीं! नई पीढ़ी विकास का इंटरनेट संस्करण है. ये ई.बुक/ किंडल को प्राथमिकता देती है या फिर अंग्रेज़ी की पुस्तकों को. इसमें उनका कोई दोष नहीं. जब कक्षाओं का स्वरुप बदल चुका है, परीक्षाएँ ऑनलाइन हो रहीं, ऐसे में इन्हें पुस्तकें भी डिजिटल ही पसंद आएंगी.
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों को बचपन में तो हम हिन्दी की ख़ूब पुस्तकें पढ़ने को देते हैं, बेडटाइम स्टोरीज भी सुनाते हैं लेकिन उसके बाद बच्चे अपनी पसंद स्वयं तय कर लेते हैं. उनके पास विकल्प बहुतायत में हैं. यद्यपि ये पौराणिक कथाएं भी पढ़ते हैं और हैरी पॉटर भी. इनके लिए दसियों तरह के कार्टून चैनल उपलब्ध हुए, फिर वीडियो गेम्स आ गए. उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स का प्रचलन बढ़ा. अब मोबाइल है, ज्ञान बाँटने को व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी है. एक तो इंटरनेट की विशाल दुनिया, उस पर हॉबी क्लास के चक्कर! इन सबके आगे हिंदी पत्रिकाओं का महत्व गौण होता चला गया. प्राथमिकताएँ बदलती रहीं. इन परिस्थितियों में पत्रिकाएँ बंद न हों तो क्या हों फिर! फिर भी कहूँगी कि इनके ऑनलाइन संस्करण पर विचार करना चाहिए.
कितना कुछ है जो पीछे रह गया, कितना कुछ है जो बदल चुका. कभी-कभी तो लगता है कि एक दिन केवल यादें ही शेष रह जाएंगी और दिखाने को कुछ भी साथ न होगा! बीतता जा रहा समय शनै: शनै: इन यादों की तस्वीर भी धुँधली कर देगा! बस, एक गैजेट भर बचेगा हाथ में, वही दुनिया से जोड़े रखेगा! इस यात्रा और ऐसे कई अवसान के साक्षी हमें ही होना है.
मुद्रित पत्रिकाओं की समाप्ति की प्रक्रिया इसी का दुखद पक्ष है. इसे स्वीकारने के सिवाय अब और उपाय भी क्या है!
- प्रीति 'अज्ञात'
#नंदन #कादम्बिनी #प्रीतिअज्ञात
करीब तीस वर्षों तक कादम्बिनी जमा करता रहा। जब से रूप बदला फ़िर अच्छा नहीं लगा। लेकिन अभी भी रखी हुई हैं पुस्तकलय में घर के । दु खद समय ।
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंइसका कारण भी हम जैसे पाठक ही हैं जो सोशल मीडिया में खोकर अपने बचपन की साथी इन सुंदर मनभावन और ज्ञानवर्धक पत्रिकाओं को बिसरा बैठे | पर सचमुच बहुत दुखद है ये समाचार | मेरे पास भी अप्रैल 1988 के दो अंक और एक 2000 सितम्बर अंक रखा हुआ है कादम्बिनी का और नंदन के दो तीन अंक जो मैंने मंगवाए भी पर मेरे लाख चाहने के बावजूद बच्चों ने नहीं पढ़े और आगे मैंने कभी कोशिश नहीं नहीं की | भावपूर्ण लेख | इन्हें प्रिंट में ना सही डिजिटल रूप में तो जीवित रखा जा सकता है | |
जवाब देंहटाएं