'फेमिनिज्म' शब्द का प्रयोग हर युग में, हर तबके में, हर ओहदे पर बैठे लोगों द्वारा अलग-अलग विधियों से अलग-अलग प्रयोजनों के लिए किया जाता रहा है. 'स्त्रीत्व' के नाम पर खुद की महानता के गुणगान और हर बात में पुरुषों को दोषी ठहरा देना निहायत ही गलत है. हमारी और आपकी दुनिया में बहुत अच्छे और सुलझी सोच वाले पुरुष भी हैं, ये तो हम सभी मानते हैं. यह भी एक कटु सत्य है कि अत्याचार पुरुषों पर भी होते हैं, जिन्हें वो कह नहीं पाते! ‘स्त्री-सशक्तिकरण’ को बवाल समझने वालों के लिए यह जानना आवश्यक है कि यह संघर्ष पुरुष वर्ग के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ है, जिसमें समाज का हर वर्ग सम्मिलित है. इस पर कुंठा नहीं, विमर्श की आवश्यकता है. पुरुष हो या स्त्री, क्या फ़र्क़ पड़ता है. बस, दोनों में मानवता बची रहनी चाहिए!
पहले और अब की परम्पराओं में फ़र्क़ आ चुका है और सोच में भी. परिवर्तन गर हुआ है तो यही, कि अब स्त्री को अपनी समस्याओं पर बोलना आ गया है, झिझक खुलती जा रही है,वो multitasking करना भी जान गई है. लेकिन हर बात में झंडा फहराते हुए मोर्चा निकाल देना और बेफिजूल की नारेबाज़ी सही नहीं लगती! अबला, असहाय, निरीह अब पुराने गीत हैं. 'स्त्री-सशक्तिकरण' माने ये नहीं कि हमें हर वक़्त ‘युद्ध मोड’ में रहना है. अपने कर्त्तव्यों के पूर्ण निर्वहन के साथ, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक एवं सचेत रहकर सत्य के पक्ष में खड़े हो, अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना ही 'feminism' है. नारी आंदोलन, नारी अधिकारवाद, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्रीत्व ज़िंदाबाद के नाम पर हो रही तमाम रैलियों और टिमटिमाती मोमबत्तियों को मैं खारिज़ करती हूँ.हम जिस समाज का हिस्सा हैं, वहां नारी ने शोषित, उपेक्षित होना अपनी नियति मान लिया है. हृदय से वह उन्मुक्त, स्वतन्त्र रहना चाहती है, खुली हवा में विचरण करते हुए साँस लेना उसे भी खूब सुहाता है. अपनी शक्ति, अपनी सत्ता का भी बखूबी अहसास है उसे पर वो अंदर से भयभीत है, इसे अपने संस्कारों का दुरुपयोग समझती है. आसमाँ को छूकर लौट आने के बावज़ूद भी वो अपने पैर अपने मूल्यों की ज़मीन पर ही जमाए हुए है.
नारी की महत्ता में न जाने कितने ग्रन्थ लिखे गए लेकिन सच यह भी है कि आज के प्रगतिशील समाज में नारी कितनी ही ऊँचाइयाँ क्यों न छू ले, उसका शोषण बदस्तूर जारी है. हर क़दम पर उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है. दु:खद ये भी है कि इस लड़ाई की शुरुआत, प्राय: घर से ही होती है.
प्राय: हर घर में ही होता है कि छोटी-से-छोटी बात के लिए भी हम पुरुषों का मुँह देखते हैं. यहाँ तक कि कोई बच्चा यदि मेले में गुब्बारा माँग रहा है तो हम तुरंत उसे न दिलाकर पहले पूछते हैं सुनो, दिला दूँ क्या? ज्यादातर प्रश्नों के उत्तर में हम यही कहते हैं कि इनसे पूछकर बताऊँगी, या पापा से बात करती हूँ, भैया नाराज़ हो जाएँगे. हाँ, परिवार है, हमारे अपने संस्कार और सभ्यता है पर अरे, छोटी सी बात का निर्णय भी नहीं ले सकते क्या हम? सच कहूँ तो पुरुषों को इन सब बातों की परवाह ही नहीं होती. कभी उनसे पूछकर देखिये, कि खाने में क्या बना लूँ? जवाब आएगा, अरे कुछ भी बना लो! हम सबको यहाँ से शुरुआत करनी है, निर्णय लेने की स्वतंत्रता की. यहाँ से ही हमारे आत्मविश्वास का प्रारम्भ होगा.
हमारे आसपास की दुनिया पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि अशिक्षित वर्ग की स्त्रियाँ भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. कोई सब्जी बेचकर, कोई घर-घर काम करकर, मजदूरी करके पैसे कमा रही हैं, अपने परिवार का पेट भरती हैं. मैं मानती हूँ कि हमारा सामाजिक ढाँचा ऐसा है कि हर स्त्री घर के बाहर निकल काम नहीं कर सकती, सबकी जिम्मेदारियाँ और प्राथमिकताएँ अलग-अलग होती हैं. स्त्रियों के पास समय का अभाव हो सकता है लेकिन उनकी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता पर किसी को संदेह नहीं है. यदि आपमें कोई कला है तो यही समय है अपना हुनर दिखाने का. घर बैठे हुए भी हॉबी क्लास चला सकती हैं. इसके लिए सरकार द्वारा बनाई गई विभिन्न योजनाओं का लाभ लिया जा सकता है. वैसे भी पैसे की आवश्यकता न भी हो पर आत्म संतुष्टि जरूर मिलेगी. हमें उम्र भर यह कहते हुए कुंठित क्यों होना कि मेरी पढ़ाई तो चौके-चूल्हे में ही झोंक दी गई. आप उसके साथ भी बहुत कुछ कर सकती हैं बशर्ते आप अपने आप को भी प्राथमिकता सूची में स्थान दें. याद कीजिए, आखिरी बार कब आपका नाम लिया गया था? मम्मी, चाची, बुआ, मौसी, दीदी के रिश्तों से होते हुए कब ज़िन्दगी गुज़र जाती है पता भी नहीं चलता और एक दिन आपका नाम मात्र प्रमाणपत्र तक ही सीमित रह जाता है.
किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार होता है. कोई उस पर बुरी नज़र रखता है. कोई उसकी इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ करता है. आदि काल से यह सब किसी-न-किसी रूप में होता ही आ रहा है. प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप में हर युद्ध, कलह और विद्वेष का कारण स्त्री को ही बताया जाता रहा है. स्त्री देह को समाज और परिवार की नाक मानने की प्रथा भी संभवतः प्राचीन काल से ही रही होगी और उसका अपमान होते ही पूरे वंश की संवेदनाएँ आहत होना भी स्वाभाविक है. तभी तो बदनामी से तंग आकर और इन परिस्थितियों से छुटकारा पाने के लिए स्त्री आत्महत्या को एकमात्र विकल्प मानने लगी थी कि उसके परिजन का सम्मान बना रहे, भले ही उसे यह शरीर त्यागना पड़े!
लेकिन सवाल यह है कि आग में वो ही क्यों कूदे? सती-प्रथा हो या जौहर, एक नारी के लिए ये समाज की कुदृष्टि से बचने के लिए चुना गया अंतिम विकल्प है जो दुर्भाग्य से सामूहिक भी होता आया है. कितने दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण होते होंगे वो पल, जहाँ उसे इस बात का पूरा भरोसा हो जाता है कि उसके मान-सम्मान की रक्षा करने वाला कोई नहीं! और लोग इसे महानता कहकर अपनी शर्मिंदगी पर पर्दा डाल देते हैं! हाँ, वो सचमुच महान है पर पुरुष समाज से निराश भी!
कभी सुना है कि किसी स्त्री पर कुदृष्टि डालने वाले, उसका शारीरिक शोषण करने वाले किसी पुरुष ने आत्महत्या कर ली हो? या कोई सिर्फ़ इसलिए ही आग में जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गया क्योंकि वो अपनी पत्नी /प्रेमिका को बचा न सका?
समाज, परिवार और खानदान की इज़्ज़त के नाम पर स्त्रियों के मन-मस्तिष्क को सदियों से खोखला किया जाता रहा है. कितने आश्चर्य की बात है कि जिस स्त्री पर संदेह हुआ या जिसकी अस्मत लुटी, उसे ही दोषी ठहरा बाहर किया जाता रहा या फिर उसे आत्महत्या के लिए उकसाया गया. उस पर हम ऐसे लोगों को पूजते भी रहे हैं. वहीँ पुरुष की शानोशौकत में तो कोई कमी नहीं दिखती!
ऐसा क्यों है कि पीड़िता को ही जीने की जद्दोज़हद करनी पड़ती है और गुनहगार आसान ज़िन्दगी जीता है?
क्यों स्त्री को अपने अधिकारों के लिए पुरुष का मुंह ताकना पड़ता है?
दोषी पुरुष क्यों आसानी से समाज में स्वीकारा जाता है?
क्या है इज़्ज़त की परिभाषा? जो कपड़े उतारने वाले इंसान से ज्यादा, पीड़िता से छीन ली जाती है. क्या ये कोई सामान है कि कोई लूटकर चला गया? ग़र है तो दोषी लूटने वाला हुआ या कि लुटने वाला?
धिक्कार है, इस तथाकथित सभ्य समाज पर जो पीड़िता के दर्द को समझने की बजाय, उसके ज़ख्मों को और भी नोच देता है.
लानत है उन अपनों पर भी, जो उसके साथ खड़े होने के बदले सदा के लिए उससे नाता तोड़ लेते हैं.
स्त्री की शक्ति का स्त्रियों को स्वयं भी अनुमान नहीं होता पर वो हर दर्दनाक हादसे से उबर सकती हैं अगर बाद में उसका मानसिक बलात्कार न किया जाए.
आपके शब्द किसी को आगे बढ़ने का हौसला दे सकते हैं, किसी की ज़िंदगी संवार सकते हैं. दर्द कम हो, न हो पर ये विश्वास भी प्राणवायु की तरह काम करता है कि "जिस पर बीती, वो तिरस्कृत नहीं किया जा सकता. एक भयावह हादसा, किसी वर्तमान रिश्ते को ख़त्म करने की वजह नहीं बन सकता. पीड़िता भी एक आम इंसान की तरह जीने की, हँसने की उतनी ही हक़दार है जितनी कि पहले हुआ करती थी."
हमारा समाज और इसकी सीखें ही कुछ ऐसी हैं कि उम्र के किसी भी मोड़ पर हममें से कई लोग कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं शारीरिक शोषण, मानसिक उत्पीड़न और घरेलू हिंसा का शिकार होते रहे हैं! अकेलेपन का भय, असुरक्षा की भावना और सामाजिक नियम स्त्रियों को चुप रहने और अत्याचार के विरुद्ध न बोलने को मजबूर करते रहे हैं! पर कभी सोचा है कि उन बच्चों का क्या, जो आप से सीख रहे हैं! आने वाली पीढ़ियों को हम क्या देकर जाएंगे? चुप्पी???
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.8.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत ही संतुलित, वस्तुनिष्ठ और सार्थक बौद्धिक खुराक! साधुवाद!!!
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ अगस्त २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सटीक।
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूबसूरत सृजन प्रीति जी ।सही कहा आपनें हम आनें वाली पीढी को क्या देकर जाएंगे ,जो हमसे सीख रहे है ,जरूरत है अभी से इस पर काम शुरू किया जाए ताकि आने वाली पीढी को वो सब ना झेलना पडे । यह संघर्ष पुरुष वर्ग के प्रति नहीं है अपितु सामाजिक ढांचे के खिलाफ है ।
जवाब देंहटाएंसही कहा । अति उत्तम ।
जवाब देंहटाएंयहाँ महिलाएं भी कम दोषी नहीं। जिन्होंने कलम थाम रखी है वे भी किसी दूसरी महिला के साथ किये गए अपमान अथवा अनुचित व्यवहार के बाद ऐसा चुप साध लेती हैं मानो उनके साथ ऐसा व्यवहार कभी हो ही नहीं सकता। इसीलिये मुझे महिला समानता के लिए लिखे गए लेख और कविताएँ मात्र शब्दाम्बर नज़र आने लगे हैं और मैंने इस तरह की पोस्टों पर लिखना बंद कर दिया है। ये बस बस बौद्धिक खुराक का सामान भर हैं। जो शब्दों में किसी दूसरी महिला के लिए लड़ने मे सक्षम नहीं, असल जीवन में कहाँ किसी महिला के साथ खड़ी हो पाती होंगी। अब पुरुषों पर दोषारोपण का समय चला गया।
जवाब देंहटाएंशत प्रति शत सहमत!
हटाएं🙏🙏🙏🙏
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंछोटी मुँह से छोटी बात कहूँ तो आलेख वास्तविकता से सराबोर है। पर यह आलेख मोर्चाबंदी या घेराबंदी-पसन्द महिलाओं के लिए तो शत्-प्रतिशत नागवार गुजरने वाली ही है।
जवाब देंहटाएंस्त्री सशक्तिकरण शब्द जितना ही ज्यादा बार उजागर करते हैं, चाहे जिस भी वजह से हो, स्त्री को कमज़ोर, दिव्यांग, अपाहिज़ आदि स्वीकार करने को ही बल मिलता है। निर्बल मानते हैं, तभी तो सशक्तिकरण की बात आती है।
पर औरत के द्वारा अपने बच्चे को गुब्बारे दिलाने के लिए मेले में अपने किसी पुरुष सम्बन्धी से पूछ भर लेने से आत्मविश्वास के निर्बल हो जाने का भय संशय भरा लगता है। कई दफ़ा या प्रायः पुरुष भी बाज़ार में अपनी कमीज़ खरीदते वक्त अपनी धर्मपत्नी या प्रेमिका से पूछ क्र कमीज़ का रंग या डिजाइन तय करते हैं। बाइक या कार खरीदते वक्त बज़ट तो उनका होता है, पर रंग अपनी स्त्री रिश्तेदार से पूछ कर तय करते हैं, तो इस से उस पुरुष का आत्मविश्वास घट नहीं जाना चाहिए। बल्कि यह तो उनके आपसी आदर्श प्यार और सामन्जस्य को ही उजागर करता है .. शायद ...।
रही बात अशिक्षित वर्ग की स्त्रियों के आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की, तो दरअसल उन परिस्थितियों में वस्तुस्थिति कुछ और ही होती है। वह उनकी आत्मनिर्भरता कम, मज़बूरी कुछ ज्यादा ही होती है, जो उन्हें सब्जी बेचने, बाई का काम करने, ठेला लगाने या दिहाड़ी पर काम करने के लिए मज़बूर करती है। अधिकांश परिस्थितियों में आर्थिक रूप से अपने धर्मपति पर निर्भर हो कर स्त्री आत्मनिर्भर महसूस करती है .. शायद ...। यह नारी-पुरुष के युगों पुराने "घर के भीतर" और "घर के बाहर" की परिधि वाले सामाजिक ढाँचा की ही देन है, जो कमोबेश आज भी हमारे पुरुष-प्रधान समाज पर हाबी है। पर निरन्तर परिस्थितियां बदली हैं और बदल भी रही हैं।
दोनों में मानवता सर्वोपरि हो, सही है, ऐसे में सच में सोच दोनों को बदलने होंगे। फिर वही आपसी आदर्श प्रेम और सामन्जस्य पर बात आकर ठहरती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता से भी ज्यादा जरुरी है .. शायद ... मानसिक उन्मुक्तता। बच्चे ( लड़का अपनी नौकरी या व्यापार आरम्भ करने के पहले और लड़की भी अपनी नौकरी, व्यापार शुरू करने या शादी के पहले तक ) भी तो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं ही होते हैं, पर उनके आत्मविश्वास में तो कमी नहीं झलकती कभी भी। अपनी हर यथोचित आवश्यकता वह हक़ से पूरी कर या करवा ही लेते हैं .. शायद ...
वैसे भी स्त्री कमतर अगर स्वयं को ना माने तो, वास्तव में वो है भी तो नहीं। क़ुदरत ने जो उन्हें अनुपम वरदान दिए हैं, जिस की वजह से पुरुष जिसे अपनी वंश-बेल कह कर अपनी गर्दन अकड़ाता है; सच में तो स्त्री को अपनी गर्दन अकड़ाने की जरूरत है।
यह एक विडंबना है हमारे सनातनी समाज की कि इसी वरदान को हमारे पुरुष-प्रधान समाज ने अपभ्रंश कर के अभिशाप घोषित कर रखा है। स्त्रियाँ भी इसके लिए बराबर की दोषी हैं, कई दफ़ा। जिस बात से उन्हें आत्मग्लानि नहीं होनी चाहिए और उस बात पर भी आत्मग्लानि महसूस की जाए तो , कभी भी ये ढाँचा नहीं बदल सकता। हाँ, बेशक़ ये अछूत हो जाने वाली, नापाक हो जाने वाली, कोरी होने वाली एकतरफा पुरुष-प्रधान मानसिकता को बदलनी होगी। सब को जानने, समझने या जीने का बराबर का हक़ है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष ...