सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

Bigg Boss

चित्र : गूगल से साभार !

कलर्स पर आने वाले कार्यक्रम, 'बिग बॉस' के बारे में सभी लोगों के अलग-अलग विचार होंगे. लेकिन मैंनें महसूस किया है, कि देशहित के लिए ऐसे कार्यक्रमों का होना अत्यंत ही आवश्यक है. बीते आठ वर्षों में इसके अभूतपूर्व योगदान और शिक्षा को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता ! आइए, अब निम्न बिंदुओं पर नज़र डालते हैं (ध्यान रहे, 'नज़र' लग न जाए)  :P -

* 'बिग बॉस' का पहला और सबसे ज़रूरी नियम है, 'हिन्दी में बात करना' ! यहाँ सिर्फ़ इस नियम का पालन ही नहीं होता, बल्कि इसका उल्लंघन करने वाले को कड़ी-से-कड़ी सज़ा देने की भी उचित व्यवस्था की गई है. कहीं और देखा है, ऐसा ? :)
* यहाँ स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं होता, और दोनों को ही घरेलू कामकाज...जैसे कपड़े धोना, बर्तन मांजना, झाड़ू-पोंछा करना उत्तम तरीके से सिखाया जाता है. ये न केवल इनके भविष्य के लिए उपयोगी सिद्ध होगा अपितु देशव्यापी सफाई-अभियान में भी इनके योगदान को बनाए रखने में सहायक सिद्ध होता है. :D
* किसी भी प्रकार की 'हिंसा' के लिए यहाँ कोई जगह नहीं, और यदि आप ऐसा करते हुए पाए गये तो आपके निष्कासन का कड़ा प्रावधान भी है. क़सम से, बड़ी बेइज़्ज़ती होती है ! ;)
* यहाँ सिर्फ़ 'सॉरी' कह देना ही काफ़ी नहीं, आपको आत्मग्लानि के समंदर में भीतर तक डूबना होता है, उसके बाद ही माफ़ी पर विचार किया जाता है. 'गाली-गलौज़' की भी जमकर भर्त्सना होती है. यानी आपके अंदर अच्छे संस्कार रहे, इस पक्ष पर भी पूरा ध्यान दिया गया है. :)
* ये कार्यक्रम 'शेअरिंग' भी सिखाता है, कम सामग्री होने पर उसका बँटवारा कैसे किया जाए. भूखे पेट कैसे रहा जाए इत्यादि. त्याग और बलिदान की अमर कहानियाँ भी इसमें अक़्सर देखने को मिलती हैं.
* यह आलस को बिल्कुल बढ़ावा नहीं देता, दिन में सोने की अनुमति किसी को भी नहीं मिलती. इसी कारण, कार्य करने के लिए अधिक समय मिलता है और फिटनेस भी बनी रहती है.
* इससे हमें 'राष्ट्रीय एकता' का संदेश भी मिलता है, विभिन्न प्रांतों, व्यवसायों, धर्मों और अलग-अलग रीति-रिवाजों को मानने वाले यहाँ एकजुट होकर रहते हैं. साथ में खाते-पीते, उठते-बैठते, नाचते-गाते हैं. इस कार्यक्रम में गीत-संगीत और नृत्य कला को भी महत्वपूर्ण माना गया है.
* चुगली करने वालों और झूठ बोलने वालों को यहाँ, हिक़ारत भरी नज़रों से भेदा जाता है, और फिर उनका सच सबको दिखाकर यह भी सिखाते हैं कि 'झूठ बोलना गंदी बात है' :P
*यह कार्यक्रम टीवी. मोबाइल, कंप्यूटर एवं इसी तरह के अन्य 'समय बर्बादू उपकरणों' के इस्तेमाल का घोर विरोध करता है, जिससे न केवल विद्धूत और समय की बचत होती है, बल्कि यह भी सीख मिलती है कि इन सबके बिना भी ज़िंदा रहा जा सकता है !
* यह संयुक्त परिवार में रहना सिखाता है और इंसानों को कुसंगतियों से दूर रहने की शिक्षा भी देता है.

इस तरह हम कह सकते हैं कि 'बिग बॉस' जैसे कार्यक्रम हमारे व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करते हैं. ये हमें न सिर्फ़ जीवन जीना सिखाते हैं बल्कि विषम परिस्थितियों से जूझने की प्रेरणा भी देते हैं. ऐसे कार्यक्रम हमेशा चलते रहें और इनका उपयोग हर भारतीय नागरिक के लिए किया जाए, जिससे वो जब तीन माह बाद इस घर से बाहर आएँ तो एक उत्तम नागरिक बन, समाज के निर्माण और देश के विकास में पूरा सहयोग करें.
:)
* इस प्रेरणात्मक निबंध का 'कलर्स' या किसी और से कोई लेना-देना नहीं है. इस पर केवल हमारा ही कॉपीराइट बनता है. चुराए जाने पर 'जेल' जाना पड़ सकता है और वो भी असली वाली ! :P
- प्रीति 'अज्ञात' द्वारा जनहित में जारी !

'सरल' या 'क्लिष्ट' ?


चित्र : गूगल से साभार !

'भाषा' क्या है और 'साहित्यिक भाषा' इससे कितनी अलग होनी चाहिए. इस बात पर बुद्धिजीवी कभी भी एकमत नहीं होते. पूरी तरह से किसी एक पक्ष का समर्थन देने में उनका संकोच स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है.. कुछ भाषाई क्लिष्टता को ही साहित्यिक रचना की प्रथम गुणवत्ता मानते हैं, जबकि कुछ इससे भिन्न सोच रखते हैं. मेरा स्वयं का तो यही मानना है, कि कठिनता, काव्य की सरसता में बाधा पैदा करती है. भाषा वही हो, जो अभिव्यक्ति में रुकावट न डाले. सरल, सहज भाषा यदि जनमानस के हृदय को सीधे-सीधे छू जाती है, तो इसका एकमात्र कारण यही है, कि ये न सिर्फ़ आसानी से समझ में आने वाली भाषा है, बल्कि इससे वह खुद को जुड़ा हुआ भी महसूस करता है. कठिन शब्दों के जान-बूझकर किए गये प्रयोग उस रचना के भाव को ही ख़त्म कर देते हैं, और पाठक अर्थ की खोज में उलझकर, लाचार अनुभव करता है.

यहाँ ये जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है, कि 'क्लिष्टता' है क्या ? इसकी कोई परिभाषा है भी या नहीं ? हम जा रहे हैं या प्रस्थान कर रहे हैं, भोजन कर लिया है या खाना खा लिया है, आने-जाने के साधन या आवागमन के, नीर या जल या केवल पानी ही, स्नान करना या नहा लेना.....हमारे रोज़मर्रा के जीवन में आसानी से घुले हुए शब्द ! जो कि किसी भी मायने में क्लिष्ट नहीं. लेकिन फिर भी संभव है कि आंग्ल भाषा में पढ़े हुए व्यक्ति को आवागमन, स्नान, भोजन, प्रस्थान जैसे शब्द कठिन लगें. पर ये इन शब्दों का दोष नहीं, अपितु पाठक का इनसे अपरिचित होना है. यहाँ इस बात की संभावनाएँ अधिक प्रबल हैं , कि हमारी अल्पज्ञता या अनभिज्ञता को हम दूसरे की क्लिष्टता का नाम देकर उस पर दोषारोपण का प्रयास कर रहे हों. ऐसी स्थिति में हमें तुरंत ही अपने शब्दकोष में वृद्धि करने की आवश्यकता है भाषाई व्यापकता हमेशा लाभकारी ही रहती है, और ज्ञान ने कभी किसी का नुकसान नहीं किया.

आजकल यह भी देखने में आता है, कि बहुत बड़े साहित्यकार, भाषा-विशारद और हर तरह से खुद को श्रेष्ठ मानने वाले लेखक कहीं-न-कहीं कुंठा के शिकार होते जा रहे हैं. क्योंकि उन्हें अपने से कम जानकार लोगों का प्रसिद्ध होना, पुरूस्कार पाना या वाह-वाही लूटना सहन नहीं होता. लेकिन वो ये नहीं समझ पाते, कि आम जनता वही पढ़ना चाहती है, जो उसे न सिर्फ़ अपना-सा लगे बल्कि जिसे पढ़ते समय उसे शब्दकोष न खोलना पड़े. भागते-दौड़ते जीवन में समयाभाव सबसे बड़ा रोना है, ऐसे में यदि कोई फ़ुर्सत के कुछ पल चुराकर लिखना-पढ़ना चाहे; वही बहुत बड़ी उपलब्धि है, और ऐसे में भाषाई अड़चन उसे साहित्य से विमुख भी कर सकती है. यहाँ यह कह देना भी प्रासंगिक होगा कि डेविड धवन सरीखे फिल्मकार बॉक्स-ऑफीस पर चाहे कितनी भी कमाई कर लोकप्रिय हो जाएँ, खूब धूम भी मचाएँ ; पर राष्ट्रीय पुरूस्कार सत्यजीत रॉय को ही मिलता है  इसलिए नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने में कंजूसी न दिखाएँ, क्योंकि प्रतिभावान इंसान का स्थान इससे नहीं डिगता ! अपने अंदर छुपी प्रतिभा को मारने वाले हम स्‍वयं ही होते हैं, कभी निराशा में तो कभी कुंठाग्रस्त होकर ! सूरज की रोशनी से सारी दुनिया जगमगाती है, लेकिन यही सूरज डूबने के बाद चाँद को रोशन कर देता है, पर महत्व दोनों का ही एक-दूसरे से है. प्रकाश दोनों से ही मिलता है, कोई जीवन देता है, तो कोई मरहम सा बनकर मन शीतल कर देता है.

लेखन में हिन्दी, उर्दू, अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी सहजता से हो रहा है, यदि यह काव्य की माँग है, तो रचना के अंत में उन शब्दों के अर्थ लिखकर न सिर्फ़ पाठक को परेशान होने से बचाया जा सकता है बल्कि उसकी रूचि भी बढ़ाई जा सकती है. 
टीवी और समाचार पत्रों की लोकप्रियता इसीलिए अब तक बनी हुई है, क्योंकि ये जनमानस की भाषा में बात करते और लिखते हैं. इनकी विशिष्टता इनकी सर्वजन सुबोधता और लचीला होना ही है. ये विज्ञान और प्रोद्धौगिकी की भाषा में बात नहीं करते. इसीलिए आम जनता इनसे आज भी उतनी ही जुड़ी हुई है, जितना कि वर्षों पहले हुआ करती थी.

ज़रा सोचकर देखिए, यदि हमारे ग्रंथों के सरल भाषा में अनुवाद उपलब्ध न होते, साधारण शब्दों में उनकी व्याख्या न की गई होती, तो कितनों ने उन्हें पढ़ा होता ? पहले समाज में हर वर्ग का एक निश्चित कार्य हुआ करता था, विभाजन बेहद स्पष्ट था. संभवत: ज्ञान पाकर, उस पर अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिए भी उस समय इसका क्लिष्टीकरण एक अहम मुद्दा रहा होगा ! पर अब परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी हों, पर इतना परिवर्तन तो आ ही चुका है, कि शिक्षा और भाषाई स्वतंत्रता हम सभी को प्राप्त हो चुकी है, लेकिन हाँ, हमें भाषा का स्तर नहीं गिराना चाहिए बल्कि इसके प्रयोगवादी स्वरूप को और विकसित करने में अपना पूरा योगदान देना चाहिए. हरेक के लेखन की अपनी एक शैली होती है और वही उसकी पहचान भी बनती है, ऐसे में सबको अपने तरीके से अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है. बस, भाषाई नीरसता से बचें, पर इसकी पवित्रता पर आँच भी न आने दें.  यह अपने मूल उद्देश्य संप्रेषण में पूरी तरह से सक्षम बनी रहे. और समयानुसार समृद्ध भी होती रहे.

भाषा न तो अभिजात्य वर्ग की बपौती है और न ही शब्दों की फ़िज़ूलखर्ची ! तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी......जो भी हैं, सब भाषा है, पाठक से करीबी रिश्ता बनाने के लिए ईमानदार, और संवेदनशील होना बेहद ज़रूरी है, उससे बतियाना भी ज़रूरी है. बस यही प्रयत्न कीजिए, कि भाषा पर संकट न आए, हमारा आपका उससे करीबी रिश्ता बना रहे, अभिव्यक्ति के तरीके भिन्न हो सकते हैं पर हृदय में जो भी भाव उठें, जैसी भी अनुभूति हो, उसे व्यक्त ज़रूर करें. चाहे सरल हो या क्लिष्ट; वही भाषा अपनाएँ, जो आपकी अपनी हो. क्योंकि बनावटी सामान ज़्यादा दिन नहीं चलता और उसकी असलियत भी सबके सामने आते देर नहीं लगती. पाठक और लेखक के बीच भी एक रिश्ता बन जाता है, जहाँ नियमित पाठक, बिना व्याख्या के ही चंद पंक्तियों से सब कुछ समझ जाते हैं. ये भी एक तरह का संवाद ही तो हुआ ! 'संवाद' जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा है. संवादहीनता रिश्तों को तिल-तिलकर मरने को छोड़ देती है, वहीं कुछ पलों का संवाद इसी गहरी खाई को कब भर दे, पता भी नहीं चलता.....'लेखन' और 'रिश्ते' जबरन संभव नहीं, इनके लिए दिल से जुड़ा होना पहला नियम है और शायद आख़िरी भी ! ईमानदारी और समर्पण के बिना इन्हें ज़्यादा दिनों तक नहीं खींचा जा सकता ! ईश्वर आपका लेखन और जीवन सफल बनाए,, आपका घर-परिवार हमेशा खुशियों से भरा रहे, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ

- प्रीति 'अज्ञात'
* 'साहित्य रागिनी वेब पत्रिका' मई अंक (2014), के लिए लिखा गया, मेरा संपादकीय :)
http://www.sahityaragini.com/rachna.php?id=320

रविवार, 5 अक्टूबर 2014

एक सीधा, खूबसूरत, हरियाली से आच्छादित रास्ता, कि जिसे देख उम्र-भर चलते रहने का ही मन करे ! मंज़िल तक पहुँचने के बाद, पाने के लिए और बचता भी क्या है ! दु:ख तब होता है, जब इन्हीं सुंदर राहों पर अचानक ही कोई घुमावदार मोड़ आ जाए. ऐसे में ये लाचार, बेबस मन, भौंचक्का-सा आँखें फाडे जीवन की भूल-भुलैइयाँ को समझने की हर असफल कोशिश में हताश हो उठता है. पर अब इन गलियों में भटकते रहने के सिवाय और कोई उपाय ही नहीं. न साथ कोई, जो हौसला दे. खूबसूरत राहें भी तन्हा कहाँ सुहाती हैं, दिल ख़ालीपन से भर डूबने लगता है, बेचैन हो मचलता भी है......और एक दिन, ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है, उन्हीं अंधेरी, संकरी गलियों में, जहाँ अपनी परछाई भी साथ नहीं देती. उस समय बचपन में हज़ारों बार सुनी एक बात के मायने समझ आने लगते हैं, कि 'जो जैसा दिखता है, वैसा होता नहीं'....पर कहते हैं, न 'जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है' सो ये भटकन भी वापिस उसी तरफ खींच लाती है, जहाँ से 'जीवन' कभी शुरू हुआ था. सीख भी मिलती है, कि कुछ लोगों का जन्म, दूसरों के लिए ही हुआ है. उदासी तो यूँ भी व्यक्तिगत ही हुआ करती है, कौन महसूस कर पाया है, इसे ? दूर भी वही कर सकता है, जिसकी वजह से ये उदासी है या फिर हम स्वयं ही !

लेकिन ये घने, छायादार वृक्ष, बिन कहे ही कितना कह जाते हैं, इस हरियाली का जीवन कितना नि: स्वार्थ है ! ये हरीतिमा, फूल-फल से लदे वृक्ष, मुसाफिरों को छाया देते हैं, अपनेपन का एहसास कराते हैं , बिन किराए, कुछ पल चैन से बैठने की तसल्ली देते हैं. इन्हें अपने होने का मतलब पता है, ये शिकायत नहीं करते, ये जानते हुए भी, कि कोई राहगीर पलटकर उनकी तरफ वापिस कभी नहीं आएगा. उन्हें ये भी पता है कि, दिन की चटक रोशनी में ही हमें उनकी ज़रूरत महसूस होती है. रात के काले, गहरे अंधेरे के छाते ही, यही भयावह दिखने लगता है, असल ज़िंदगी की तरह !

सीखना ही होगा, इस वृक्ष से.... जिसकी ज़िंदगी अपनी नहीं, खुशियाँ अपनी नहीं...निराशा के अंधेरे, आँखों की नमी को दूसरों की मुस्कान में तब्दील होता देखकर ही सुकून पाता रहा है, जब तक ये जीवित है, प्राणवायु भी देता है कि हमारे अस्तित्व को ख़तरा न रहे !

न जन्म अपना है और न मृत्यु पर वश है, तो इन राहों पर भी अधिकार क्यूँ जताएँ हम, 
बेहतर है, आख़िरी बार भी हारकर खुद से ही
आओ, चलो.... अब 'वृक्ष' बन जाएँ हम ! :)
- प्रीति 'अज्ञात'

* 'ताजमहल' परिसर भी उतना ही खूबसूरत है, जितना 'ताजमहल' है और ये चित्र वहीं का है, ज़रा सोचिए अगर ये 'ताजमहल' किसी रेगिस्तान में होता, तब भी क्या इतना ही कीमती लगता ? कहने का तात्पर्य बस यही है, कि 'सौन्दर्य' यूँ ही नहीं निखरता...आसपास का सकारात्मक वातावरण भी उसमें सहयोग देता है ! :) 
BE POSITIVE !