शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

घटिया नेता, घटिया सोच

दृश्य: एक व्यक्ति कहता है "एक कहावत है कि यदि आप रेप रोक नहीं सकते हैं तो लेटो और मजे लो!" यह सुनकर सामने कुर्सी पर बैठा तथाकथित सम्माननीय व्यक्ति ठहाका लगाने लगता है और फिर उसका साथ देने को इस हँसी में अनगिनत भद्दी आवाजें शामिल हो जाती हैं।

यह किसी C- ग्रेड फ़िल्म की पटकथा नहीं बल्कि कर्नाटक विधानसभा से प्रसारित निर्लज्जता की जीती जागती तस्वीर है। इन आदमियों और बलात्कारियों के बीच में कितना अंतर है, यह आप तय कीजिए! मैं इतना ही कहूँगी कि जानवरों का चेहरा इनसे बेहद खूबसूरत है।
हाँ, हम स्त्रियाँ चाहें तो फिर एक बार इस अश्लील हँसी पर शर्मिंदा हो सकते हैं जो गाहे-बगाहे हमारे कानों में अक्सर पड़ती ही रहती है।
हमने इस बात पर हैरान होना तो अब छोड़ ही दिया है कि जिस देश में हर रोज बलात्कार होते हैं वहाँ तमाम कानूनों के बाद भी बलात्कारियों को सजा क्योँ नहीं होती! फाँसी तो बहुत दूर की बात है। नेताओं को तो इन खबरों से ही फ़र्क़ नहीं पड़ता! और पड़े भी क्यों? सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जो हैं!
क्या हम भूल गए कि अपराधी नेता अकड़ के साथ कैसे मुस्कुराते घूमते हैं! ये बलात्कार करने के बाद, उस लड़की के पूरे परिवार को खत्म करने से नहीं हिचकते। कभी लड़कों से हुई गलती का नाम देकर बात को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करते हैं तो कभी उसके छोटे कपड़ों को दिखा उसके चरित्र पर ही उंगली उठा देते हैं। महिला नेताओं के चरित्र को लेकर, तथाकथित स्वामियों के विचार भी हाल ही में वायरल हुए थे। याद पड़ता है क्या, कि किसी मामले में इन नेताओं का कुछ बिगड़ा हो?
क्यों बिगड़ेगा भला! जब लगभग सभी की सोच इतनी ही छिछली और बजबजाती हुई हो! इस तरह की सारी घटनाएं, सभी दलों के लिए एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का सुनहरा मौका हैं। उससे अधिक और कुछ भी नहीं! कांग्रेस नेता ने बोल दिया तो बीजेपी को मजे आ गए, बीजेपी ने बोल दिया तो कांग्रेसी खेमे में खुशी की लहर दौड़ने लगती है। सजा की मांग, हमेशा सामने वाले के लिए ही की जाती है और अपने वाले पक्ष को बचाने की कोशिशें! यही राजनीति का चरित्र है जिसमें हम सबको पिसते रहना है।
स्त्रियों के प्रति अपमानजनक वक्तव्य यूँ ही बोलते जाते रहेंगे क्योंकि जिन्हें हमने चुना है उनका स्तर ही यही है। उन्हें न तो किसी के सम्मान से वास्ता है और न ही किसी प्रकार का संवेदनशील भाव ही उनके मन में कभी उपजता है। स्त्री को उसका अधिकार दिलाने वाले, सम्मान की बात करने वाले, बेटी-बहन को पूजने की सोच दिखाने वाले सब ढोंगी हैं। जरा सी भी हिम्मत हो तो सब बलात्कारियों को फांसी देकर दिखाएं!
यह भी प्रश्न है कि जो भरी सभा में स्त्रियों के प्रति इतनी भद्दी, निर्लज्ज सोच दिखाते हैं वे अपने आसपास या कार्यालय की स्त्रियों को किन नज़रों से देखते होंगे, कहने की जरूरत नहीं! लेकिन इनके आसपास के लोगों और समाज को अब इनसे ही सावधान रहने की जरूरत अवश्य है!
क्यों न इन सब हँसने वालों के हाथ-पैर बाँधकर इन्हें सड़कों पे घसीटा जाए कि "आप कुछ कर नहीं सकते हो न! इसलिए एन्जॉय करो!"
जिस दिन अपराधी को धर्म, जाति और राजनीति से परे देखकर सजा दी जाने लगेगी, तब ही समझिएगा कि कहीं कुछ उम्मीद बाकी है। वरना हत्या, बलात्कार जैसे मामलों पर यूँ ही ठहाके लगते रहेंगे!
एक बात और, यह जिस दिन की घटना है उस दिन निर्भया कांड की बरसी थी! 16 दिसंबर याद है न? पर मरी हुई आत्माओं को इससे भी क्या लेना-देना!

बुधवार, 10 नवंबर 2021

Rohtang Pass & Atal Tunnel

जैसे पहाड़ का जीवन आसान नहीं, वैसे ही पहाड़ों पर जाना भी आसान नहीं। खासतौर से उनके लिए जो साल के 365 दिनों में से 360 दिन भुट्टे की तरह धीमी आँच पर सिकते रहते हैं। 30- 35 डिग्री के तापमान से माइनस पर पहुंच जाना पूरे तंत्र को हिला देता है। उस पर यदि आपको पहाड़ी इलाकों में चक्कर और उल्टी की समस्या हो, तब तो क्या खाक़ ही मज़ा आएगा! लेकिन इतने पर भी राहत कहाँ, अभी तो दुर्गम, खतरनाक रास्तों पर चलना शेष है। न चाहते हुए भी, बार-बार नज़रें गहरी खाई को देखती हैं और कलेजा बैठने लगता है। मुमकिन है कि जब आप रोहतांग की 13000 फ़ीट से भी अधिक ऊँचाई पर पहुंचें तो इन सब परेशानियों से जूझना पड़े।

लेकिन यदि आप अपने आसपास के अद्भुत वातावरण को देखेंगे तो आँखें भय को भूल प्रसन्नता से भर उठेंगी। हरियाली आपके शरीर के एक-एक ऊतक को नई चेतना देगी। आसमान मुस्कुराकर कहेगा, "ये देखो मेरा असल और निखरा हुआ रूप। इतना ही सुंदर, निर्मल हूँ मैं।" पहाड़ से इठलाते, ठुमकते हुए नीचे आता झरना, आपके हाथों में पानी की बोतल देख खिलखिलाकर हँसेगा कि ये शहरों के लोग कितने अज़ीब होते हैं! चेहरे को चूमती ठंडी हवा भी आपकी उड़ती हवाइयों को देख ठिलठिला उठेगी कि यार! तुमने टोपी केवल पहनी ही नहीं है, तुम खुद ही टोपा हो। 

हम चार क़दम चल अपनी धौंकनी सी चलती साँसों को पनाह देने के लिए कहीं ठहर जाते हैं कि तब तक हमसे दोगुनी उम्र का इंसान सरपट चलता आगे निकल जाता है। वो आगे है क्योंकि उसने शुरू से ही प्रकृति से प्रेम किया, उसकी गोद में खेला। उसे नष्ट नहीं किया। इसके बदले में प्रकृति ने उसे अथाह ताकत और ऊर्जा से भर दिया है। वो उन पहाड़ों पर सामान लादे हुए भी हिरण सा चलता है, जहां हम अपने आप को भी नहीं संभाल पाते। बार-बार लड़खड़ाते हैं। जिम में की जाने वाली तमाम मेहनत यहाँ पानी भरती नज़र आती है। 

असल में तो प्रकृति का आनंद लेने की पहली शर्त ही यही है कि आप उसमें खो जाओ, डूब जाओ प्रेम की तरह। फिर आपको हर जगह वही दिखेगा। मुस्कान भीतर से निकलेगी और दिल मोहब्बत से खिल उठेगा।

पहाड़ पर रहने वालों को प्रेम से जीना आता है, वो मुश्किलों को गिनाकर भाग्य को कोसते नहीं। बल्कि उनसे प्रेम कर उसे अपना जीवन बना लेते हैं। ये मुश्किलें ही उनका रोज़गार हैं, उनकी मुस्कान हैं। दिल का सुकून है।

ये पहाड़ एक प्रेमी की खुली हुई बाँहें हैं, जिनके शीतल घेरे में जीवन का हर तनाव, उड़न छू हो जाता है। ज़िंदगी और भी प्यारी लगने लगती है। ये गहरी खाइयाँ इसका मोल पल भर में समझा जाती हैं। आप आँखें मूँद अपनी मोहब्बत को याद करते हैं। राह आसान लगने लगती है और दिल महक उठता है। प्रेम, आपको ज़िंदा रखने और ज़िंदादिली बनाए रखने की सबसे खूबसूरत वज़ह है। आगे बढ़ने का हौसला भी यही देता है।

- प्रीति अज्ञात

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मंगलवार, 12 अक्टूबर 2021

#कमला#नापसंद #अमिताभ ने अपने प्रशंसकों की लाज रख ली!

 बीते कई वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है कि भिया का जन्मदिन आया और हमने उन्हें विश नहीं किया। यूँ तो हमारी शुभकामनाओं से उन्हें अंतर भी क्या पड़ना है! कौन सा वो उन तक पहुँचती ही रही हैं! उन्हें तो ये भी कहाँ पता होगा कि बचपन से लेकर आज तक यदि हम किसी हीरो की बुराई सुनकर दुनिया से भिड़ गए हैं तो वो अमिताभ ही हैं। इधर किसी ने उनके बारे में कुछ गलत कहा और हम कमर कसके बिना लट्ठ, युद्ध के लिए तैयार हो जाते।

सामने वाले से तुरंत ही उनकी भाषा, व्यवहार, व्यक्तित्व, संतुलित-अनुशासित जीवन, कर्मठता की तमाम कहानियाँ और विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के लिए किये गए कार्यों की सूची लेकर लड़ बैठते। अभिनय के मामले में तो कोई क्या ही कहेगा उनके बारे में। 50 वर्षों से जो व्यक्ति निरंतर काम कर रहा है। टीवी और फ़िल्मों का सरताज़ बना बैठा है। उसे नमन कर, उससे केवल प्रेरणा ली जा सकती है पर उसने भारतीय फ़िल्म उद्योग को क्या दिया है, इस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता।

अब अमिताभ बच्चन जैसा तो बना ही नहीं जा सकता! दूसरा कोई अमिताभ न हुआ है और न हो सकता है। होने की जरूरत भी क्या है! गायकी में जो लता हैं, खेल के मैदान में जो सचिन हैं, आसमान में जैसे सूरज-चाँद हैं वैसे ही अपने भिया भी हैं। सबसे अनोखे, अलबेले, हँसाने-रुलाने वाले, जिन्हें नाचना न आता हो, उनको भी नचाने वाले। पाषाण हृदय को संवेदना से भर देने वाले, उदासी भरे दिल में उम्मीद की मुस्कान भरने वाले, जुझारूपन से हर लक्ष्य को हासिल करने वाले! दुनिया को ये सिखाने वाले कि अदाएं कॉपी नहीं की जातीं, स्वयं बनानी होती हैं। प्रेरणा की कोई मूरत होती तो उसकी शक्ल अमिताभ से हूबहू मिलती।

ये अपने भिया ही हैं जिनके कारण हमें फ़िल्मों से बेशुमार मोहब्बत हुई। ये भी सीखा कि अपने-आप पर और अपनी मेहनत पर भरोसा कैसे किया जाता है! बोलने का सलीक़ा क्या होता है! भाषा का सबसे सुंदर रूप कैसा होता है! लोग चाहे लाख आरोप लगाएं, आपकी चुप्पी उन पर हमेशा भारी क्यों पड़ती है। आखिर व्यक्ति के स्थान पर जब उसका काम बोले, तो दुनिया झुकती ही है। अमिताभ के सामने भी झुकी।

बॉलीवुड के अमित जी वही शख्स हैं, जिनके कारण हमने ब्लॉग-लेखन शुरू किया क्योंकि कहीं पढ़ा था कि वे ब्लॉग लिखते हैं। हमें तो पहले ब्लॉग का अर्थ भी नहीं पता था। उससे पहले हम डायरी लिखा करती थे। कविता-शविता भी लिख लिया करते थे। मन में विचारों की खूब रेलमपेल चलती तो नोटबुक में कूचुर-पुचुर लिख लेते। लो जी, हो गई जय राम जी की। 

जिस दिन भिया के ब्लॉग का मालूम हुआ, अपन ने भी ब्लॉग बनाया। उस समय तो निपट अनाड़ी थे, ऑनलाइन कुछ भी करना नहीं आता था। 2010 में जैसे-तैसे लैपटॉप ऑन करना सीखे थे। अब भी कोई बहुत खिलाड़ी नहीं बन गए हैं पर हिम्मत नहीं हारते हैं। हाँ, खुद पर झुँझलाते जरूर हैं। ज़्यादा दुखी हुए तो तनिक रो लिए और फिर उठ खड़े हुए।

अब आप इसे फ़िल्मों का असर समझिए, हमारा उनके प्रति दीवानापन या कुछ और पर हमने  हमारे इस हीरो से बहुत सीखा है। और सीखना तो अच्छा ही होता है न!

इस बार 'कमला पसंद' के विज्ञापन में उन्हें देखकर हम बेहद आहत थे। कुछ भी कहते-सुनते नहीं बन रहा था। कंपनी कुछ भी कहकर विज्ञापन करवा ले पर सब जानते हैं कि बात तो पान-मसाले की ही हो रही। पहली बार हमारे प्रिय कलाकार के एक निर्णय से हम निराश थे। मन को समझाया कि अंततः वे एक कलाकार हैं और इस निर्णय के पीछे आर्थिक आधार भी हो सकता है। लेकिन गलत तो गलत ही है फिर भी। यह भी लग रहा था कि उनके विरोधियों को उन्हें बहुत कुछ कहने का अवसर मिल गया। हम तो अब क्या ही बोलेंगे, किसी से उनके लिए क्या ही लड़ सकेंगे! परेशान तो हम खुद इतने थे कि इतने दिनों से इस विषय पर कुछ बोलते ही नहीं बन रहा था। दुख भी था और गुस्सा भी बहुत आ रहा था। सो, हमने उन्हें विश किया ही नहीं! हालाँकि भीतर से बहुत खराब भी लगता रहा। 

ये जानते हुए भी कि उन्हें कौन सा हमारी शुभकामनाओं के मिलने- न मिलने का फ़र्क़ पड़ने वाला है, अपने-आप के इस व्यवहार से थोड़ा मलाल भी रहा। 

दिन इसी ऊहापोह में गुज़रा और थोड़ा व्यस्त भी रहा। लेकिन अभी आधा घंटे पहले पढ़ी एक खबर ने दिल खुश कर दिया है। पता चला है कि जब अमिताभ उस ब्रांड से जुड़े थे, तो उन्हें नहीं पता था कि वह भी सरोगेट एडवर्टाइज़िंग के अंतर्गत आता है। फ़िलहाल भिया ने उस ब्रांड के साथ अपना कॉन्ट्रैक्ट समाप्त कर दिया है एवं प्रमोशन के लिए मिले पैसे भी लौटा दिए हैं। अब आप इसे कमलानापसंद कहिए जी!

अमित जी, ये खबर खुशी की लहर लेकर आई है। आपने हमारे जैसे करोड़ों प्रशंसकों की लाज रख ली! थोड़ी देर से ही सही, पर आपको जन्मदिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं!

आप शतायु हों!

आप न पढ़ें, कोई गम नहीं! लेकिन अब दिल को बहुत हल्का महसूस हो रहा। 

- प्रीति 'अज्ञात'

#अमिताभबच्चन #कमलापसंद #कमला#नापसंद #अमिताभ #बिगB #Amitabh #प्रीतिअज्ञात #preetiagyaat #newblogpost 



रविवार, 19 सितंबर 2021

Cadbury का #GoodLuckGirls लैंगिक समानता के पक्षधर समाज की सचित्र, संगीतमय व्याख्या है.


अभी तक फ़िल्मों के रीमेक खूब देखे हैं हमने. लेकिन विज्ञापन का भी रीमेक बन सकता है और वो भी ऐसे विज्ञापन का, जो अपने समय का सबसे पसंदीदा विज्ञापन रहा हो! यह बात जरूर चौंकाती है. लेकिन कैडबरी ने ऐसा कर दिखाया और वो भी इतनी खूबसूरती से कि इस बार भी मुँह से वाह, वाह ही निकलती रही. इतनी नरमी और सहजता के साथ, लैंगिक समानता के संदेश को दिलों तक पहुँचा देने के लिए कैडबरी और विज्ञापन एजेंसी Ogilvy की पूरी क्रिएटिव टीम को सलाम बनता है. 

यह विज्ञापन लैंगिक रूढ़ियों और खेल से जुड़ी धारणाओं में परिवर्तन का जश्न है. इसने यह भी सिखाया कि नारी-सशक्तिकरण की बातें केवल चर्चाओं, रैलियों और आंदोलन के माध्यम से ही नहीं कही जातीं, उन्हें कलात्मक तरीके से सबकी भावनाओं को स्पर्श करते हुए भी बखूबी कहा जा सकता है. यह बदलते समय की न्यूनतम समय में की गई प्रभावी, उत्कृष्ट प्रस्तुति है.  
हो सकता है, आपने मूल विज्ञापन के समय को जिया हो और थोड़े नॉस्टैल्जिक होकर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' कहने लगें. लेकिन ये तो मानेंगे ही कि कैडबरी डेयरी मिल्क का ये नया विज्ञापन कहीं भी पुराने से उन्नीस नहीं ठहरता! संगीत और शब्द वही होने के बावजूद भी इसका असर रत्ती भर भी कम नहीं हुआ है. वही चिर-परिचित संगीत अब भी आपके मन के तारों को पहले सा छेड़, भावुक कर जाता है. 

आपको याद है न! लगभग 3 दशक पूर्व ऐसी ही मोहब्बत की खुशबू एक स्टेडियम में फैली थी. ऐसा ही अचरज हम सबकी आँखों में भरा था. विज्ञापनों की दुनिया में तहलका मचा था और बच्चा-बच्चा गुनगुनाने लगा था-
कुछ बात है हम सभी में
बात है, खास है, स्वाद है 
क्या स्वाद है ज़िंदगी में 
हूबहू यही दृश्य था. स्टेडियम में मैच चल रहा है. 99 पर खेलते हुए खिलाड़ी लड़के ने बॉउन्ड्री के पार जाने को गेंद हवा में उछाल दी है. फील्डर, कैच पकड़ने को दौड़ रहा है. दर्शक दीर्घा में जोश है और उत्सुकता भी. इसी बीच दिल में धड़कती साँसों और हाथ में कैडबरी डेयरी मिल्क को थामे हुए एक चेहरा स्क्रीन पर उभरता है. इस चेहरे से जैसे सबकी साँसें जुड़ गई हैं. 
छक्का लगता है. फ्लोरल टॉप पहने वो लड़की अब सुरक्षा घेरे को तोड़ मैदान में आ जाती है. वो खुशी से झूमकर नाचती है तो लगता है जैसे सारी दुनिया से बेपरवाह होकर वो तो बस अपने प्रेमी के शतक का उत्सव मना रही है. इधर प्रेमी के चेहरे की चमक, खिलती हँसी और उस पर लड़की के लिए उमड़ता प्यार अलग ही सबका दिल लूटे ले रहा था. तभी पार्श्व में धुन बज उठती है 'कुछ खास है ज़िंदगी में'. उसके साथ ही जीत के जश्न में कैडबरी डेयरी मिल्क की मिठास घुल जाती है. 'असली स्वाद ज़िंदगी का' की टैगलाइन के साथ दोनों गले लग जाते हैं.


अहा! जो भी इस विज्ञापन को देखता, भीतर तक खिल उठता. उसका मन महकने लगता. यह था ही इतने क़माल का. सब कुछ बेहद स्वाभाविक था इसमें. और इसी स्वाभाविकता ने उसे सबसे खास बना दिया था. देखा जाए तो इस विज्ञापन ने ही यह धारणा ध्वस्त की, कि चॉकलेट केवल बच्चे खाते हैं. अब हर कोई उसे खाना चाहता था, हर लड़का-लड़की अपने जीवन में उल्लास की मधुरता को यूँ ही जीना चाहते थे. हाथ में कैडबरी थामे लड़का-लड़की मोहब्बत की जीवंत तस्वीर बन गए थे. 

अब कैडबरी के नये विज्ञापन ने वो पुरानी यादें तो ताजा की हीं. साथ ही एक संदेश देकर इसे नए आयाम भी प्रदान कर दिए हैं. इस नए विज्ञापन में भूमिकाएं बदल गई हैं. सब कुछ वही है. बस लड़के-लड़की के रोल उलट दिए गए हैं. इस बार पिच पर एक महिला क्रिकेटर है और दर्शक-दीर्घा में पुरुष उसके लिए प्रार्थना कर रहा है. कहने को ये जरा सी बात भी लग सकती है लेकिन इस एक परिवर्तन ने भावनाओं का जैसे ज्वार ही ला दिया है. यह विज्ञापन अब केवल कैडबरी डेयरी मिल्क की ही बात नहीं कर रहा, बल्कि ये भी कह रहा है कि देखो! समय बदल गया है. देखो, हमारी लड़कियाँ भी अब खूब खेल रहीं हैं. प्रगति कर रही हैं. समाज में बदलाव आया है.अभी तक तो लड़कियाँ ही लड़कों का हौसला बढ़ाती रहीं, उनकी तारीफ़ में गदगद होती रहीं. लेकिन अब दर्शक दीर्घा में खुशी से कूदते इस लड़के से समझो कि लड़कियों को हौसला यूँ दिया जाता है. साथी की जीत में यूँ जश्न मनाया जाता है. 

बेशक़ इस नए विज्ञापन में जीत की भावना वही है, सफ़लता को उसी जोशोखरोश के साथ मनाया गया है लेकिन इस बार जो भाव और जुड़ गया है वो है हमारे समाज में स्त्रियों की प्रगति का, उन्हें सम्मान देने का, उनकी उपलब्धियों की जय-जयकार करने का. यह नए भारत का विज्ञापन है, उम्मीद का विज्ञापन है,  #GoodLuckGirls hashtag के साथ यह लैंगिक समानता के पक्षधर बनते समाज की सचित्र, संगीतमय व्याख्या है. 
इसे ichowk पर भी पढ़ा जा सकता है -


#CadburyDairyMilk #GoodLuckGirls #KuchAchhaHoJaayeKuchMeethaHoJaaye #Ogilvy #DairyMilk #chocolate #nostalgia #iconic_Ad_is_back #preetiagyaat #newblogpost #iChowk

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

#SidNaaz का Sid हमेशा-हमेशा को चला गया.

 सिद्धार्थ शुक्ला के निधन की खबर पर सहसा विश्वास नहीं होता! एक प्रतिभाशाली, उदीयमान कलाकार जिसने अभी सफ़लता के पायदान पर आगे बढ़ना शुरू ही किया था कि अचानक ही  उसके जीवन का अस्त हो गया. पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त दिखने वाले, व्यायाम को अपनी नियमित जीवन शैली का हिस्सा बनाने वाले सफ़ल अभिनेता का यूँ असमय चले जाना बेहद दुखद है. उनके परिवार का सोच कलेजा भर आता है. उस माँ पर क्या बीती होगी जिसने एक बेहद ज़हीन बेटा खो दिया, उन बहिनों का क्या हाल हुआ होगा जिनका प्यारा भाई अगली राखी पर अब साथ न होगा! कल तक जो हमारे साथ था, वो आज से नहीं है; जीवन की क्षणभंगुरता का यह रूप बुरी तरह से भयभीत कर देता है. 

मैं टीवी धारावाहिक नहीं देखती. जब संभव हो तो रियलिटी शोज़ या टॉक शोज़ जरूर देख लेती हूँ. सिद्धार्थ को मैंने बिग बॉस के माध्यम से ही जाना. यद्यपि उस समय तक मैंने यह शो देखना छोड़ दिया था. लेकिन जब इसकी खबरें बहुत आने लगीं तो पुनः उत्सुकता हुई. इस उत्सुकता का नाम था,शहनाज़. सिद्धार्थ के प्रेम में दीवानी हुई एक चुलबुली लड़की. सब इस लड़की के बारे में बहुत कुछ कहते लेकिन मेरा उस पर यक़ीन सदा ही बना रहता. वो चाहे किसी से भी बात करे, कुछ भी कहे, लड़े-झगड़े पर अपने सिड के प्रेम में दीवानी थी वो. उसकी आँखों में, उसके चेहरे पर, उसके व्यवहार में, उसके गुस्से में हर जगह उसका सिड था. 

कभी जब सिद्धार्थ उससे रूठ जाता या उसकी बातों को अहमियत नहीं देता तो मुझे बहुत खराब लगता था. मैं सोचती कि माना शहनाज़ की हरकतें बचकानी हैं पर तू उसका प्यार तो देख! माना वो थोड़ी अल्हड़, नादान है पर उसकी दीवानगी तो देख! वो जो भी कर रही है, सब तेरी ही अटेंशन पाने को! उस जैसी प्यार करने वाली नसीब वालों को ही मिलती है. यक़ीनन सिड भी इस बात को समझता था और शहनाज़ की तरफ़ बेपरवाही दिखाते हुए भी उसकी बहुत परवाह करता था. शहनाज़ उसके पीछे-पीछे घूमती और ये उसकी किसी बात से रूठा होता तो लाख मनाने पर भी न मानता. वो मुँह फुलाकर बैठ जाती तो सामने इग्नोर करता. लेकिन दूर से ही उसे प्यार भरी नज़रों से निहारना न भूलता! उसकी भावनाओं की कद्र करता. 

जब ये दोनों साथ होते तो जैसे पूरा घर मुस्काता. बिग बॉस के ज़र्रे-ज़र्रे में मोहब्बत गूँजती. सारा घर खुश रहता. कभी-कभी सिड, शहनाज़ को उसकी गलतियों के बारे में समझाता और वो मान  भी जाती. हाँ, तुनककर ऐसा जरूर कहती कि 'तू ये बात तब भी तो प्यार से बोल सकता था न!'  सिड कभी मुस्कुराता, कभी हँसता और कभी उसे देखते हुए शून्य में खो जाता. यूँ लगता, जैसे गढ़ रहा है इस रिश्ते को. उसे  भावनाओं का सम्मान करना आता था. रिश्तों की अहमियत का खूब अहसास था उसे. इन दोनों के बीच का रिश्ता दोस्ती था या प्यार, ये जानने में मुझे कभी दिलचस्पी नहीं रही. लेकिन इतना जरूर जानती थी कि यह बेहद खूबसूरत दिल का रिश्ता है. ये रिश्ते नाम के मोहताज़ नहीं होते. ऊपर से बनकर आते हैं. सदा साथ रहने को. आज ये भरम टूट गया है. 

सिद्धार्थ शुक्ला का जाना उनके परिवार के लिए कितना असहनीय होगा, ये हम जानते हैं. लेकिन आज एक खिलखिलाती लड़की के चेहरे से उसकी मुस्कान छीन ली गई है. उसको मनाने वाला एक साथी चला गया है. उसकी बातों पर हँसने-छेड़ने और उसे दुलारने वाला दोस्त चला गया. शहनाज़ के दिल का शहजादा चला गया. सिडनाज़ का सिड हमेशा-हमेशा को चला गया. लड़की, इस दुख को सहन करने की हिम्मत रखना तुम!

- प्रीति अज्ञात 

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 कुछ तो अच्छे कर्म रहे ही होंगे जो सुबह-सुबह ऐसी दुर्लभ ख़बर से सामना हुआ -

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खड़े वाहन में घुस गया सांप 

अल्मोड़ा। करबला के पास खड़ी Dl2FCG0555 में रविवार की देर शाम सांप घुस आया।

कार में बैठने से पहले वाहन स्वामी की नजर सांप में पड़ गई। इस बीच मौके पर लोगों की भीड़ जमा हो गई। इधर मौके पर वन विभाग की टीम पहुंची। काफी देर के रेस्क्यू में तेंदुए की जान नहीं बच सकी। संवाद

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हे ईश्वर! क्या यही दिन देखने के लिए हमें जीवित रख छोड़ा है? आदरणीय पत्रकार जी, एक सलाह हमारी भी सुनो. यदि इसमें एक पंक्ति और जोड़ देते कि 'फिर भारी जनसमूह के साथ कछुए की शवयात्रा निकाली गई'. क़सम से, तब तो मज़ा ही आ जाता इसे पढ़ने का!

भई! बहुत समाचार पढ़े हैं, टीवी पर भी देखे-सुने. अनगिनत फ़िल्में देखीं पर कहानी में ऐसा खतरनाक मोड़! तौबा रे तौबा! बाहुबली की पटकथा भी इसके आगे पानी भरती नज़र आए. सच!अब तक कितने बड़े रोमांच से वंचित थे हम! लेकिन हम भी कुछ कम नहीं! पत्रकार बिरादरी के साथ अंतिम साँस तक खड़े रहेंगे. तभी तो नियति के इस क्रूर मज़ाक को पढ़ने के बाद भी हार नहीं मानी है और इस अद्भुत, अकल्पनीय, अलौकिक समाचार के संदर्भ में कुछ निष्कर्ष प्राप्त कर ही लिए हैं -

1. हो सकता है, उस साँप का नाम 'तेंदुआ' हो और उसके मम्मी-पापा ने उसके गले में इस नाम का locket लटका रखा हो. 

2. ये भी संभव है कि गाड़ी तेंदुआ चला रहा था. अब चूँकि साँप को गाड़ी मालिक से ही बदला लेना था. तो उसने तेंदुए को काट लिया होगा. जिसके परिणामस्वरूप उस तेंदुए की ही लाश प्राप्त हुई. इस दुखद पल में साँप का उल्लेख, उचित नहीं था. 

3. कार की अंतिम तीन डिजिट 555 है. शास्त्रों में इस तरह के अंकों को शुभ एवं मंगलकारी बताया गया है. अतएव वह कार भी चमत्कारी हो सकती है. तात्पर्य यह कि घुसा तो साँप ही पर वो तेंदुआ बनकर बाहर निकला. 

4. क्या पता वह किसी सुप्रसिद्ध, जनहित में प्रसारित होने वाले, ज्ञानवर्धक धारावाहिक की इच्छाधारी नागिन हो, जो कि सेट से बाहर हवा खाने निकल आई थी. फिर उसे मुँह की खानी पड़ी. अब एकता उसके घरवालों पर कितना गुस्सा करेगी, सोचकर अपना तो दिल ही बैठा जा रहा. 

5.उस कार में रजनीकांत बैठे थे तो न्यूज उनके लेवल की बनाई गई है. कृपया, धैर्य रखें. अब इसका सीक्वल आएगा. 

6. नागपंचमी अभी-अभी निकली है. जन-साधारण की भावनाएं आहत न हों, इसलिए क्लाइमैक्स बदल दिया गया है.  

7. हो न हो, ये वन विभाग की कारस्तानी है जिसने एक पहले से मरे तेंदुए को दूसरे दरवाजे से घुसेड़ दिया और साँप को सीट बेल्ट की जगह लटका दिया. 

8. संभवतः नौकरी सिफ़ारिश की है और बंदा कर-करके परेशान हो गया है. अब आत्मनिर्भर बनने का इच्छुक होगा. 

9. तालिबानी सिर पर खड़े थे और उनके हथियारों को देख घबराहट में साँप को तेंदुआ बन प्राण तजने पड़े. 

10. अच्छा, इस ख़बर का शीर्षक भी बड़ा रोचक है -'खड़े वाहन में घुस गया सांप'मतलब ये कहना चाह रहे कि सामान्यतः तो वो चलती ट्रेन को जंप मारकर पकड़ता आया है. पर इसकी जुर्रत तो देखो! मुआ, अबकी बार खड़े वाहन में भी घुस गया. वैसे आनंद में सौ गुना वृद्धि चाहिए तो आप इस 'समाचार' का एक-एक शब्द गौर से पढ़िए. हर शब्द में क्रांति भरी हुई है. 

11. जिस विकास को पाने के लिए हम तड़प रहे थे, सनसनी फैलाता हुआ अंततः वो मिल ही गया। देखो, देखो वो आ गया! हा हा हहा हा 

जो भी सच हो जी, पर भगवान के लिए कोई उस साँप का भी इंटरव्यू ले लो. न जाने उसके दिल पर क्या बीती होगी.  बताओ तो, उसके काम का क्रेडिट कोई और ले गया!क्या वो अब लौटेगा? क्या वो तेंदुआ का रूप धर, अपने खोए हुए सम्मान को प्राप्त करने की चेष्टा करेगा? ये कुछ प्रश्न हैं जिनके उत्तरों की तलाश जारी है. 

हम जैसे कुंठित लेखक का दुख: जो भी सच हो जी, पर ऐसी खबरें अगर लिखी जा रहीं हैं और उसके बाद ससम्मान छापी भी जा रहीं हैं! तो हम क्या बुरे हैं! हमने ऐसे कौन से पाप कर दिए, जो बेरोज़गारी का दंश झेल रहे और ऐसे लेखन वाले तनख्वाह पा रहे! ये हम जैसे मासूम लेखकों की भावनाओं के साथ भीषण खिलवाड़ है, मानसिक उत्पीड़न की पराकाष्ठा है जी! अब आप तो हम पर देशद्रोह का आरोप लगाकर पाकिस्तान ही भेज दो. अरे, सॉरी. अबकी तो तालिबान भेजने का टर्न चल रहा न!

- प्रीति अज्ञात 

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शनिवार, 7 अगस्त 2021

...और मैडल चाहिए? तो उन्हें 'घर संभालने' की अनिवार्य शर्त से मुक्ति दिलाइये

'लड़की घर भी संभाल लेगी, और मैडल भी जीत लेगी'. टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला एथलीटों के उत्कृष्ट प्रदर्शन से उत्साहित लोग सोशल मीडिया पर कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया दे  रहे हैं. मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से कही गई ये बात तथ्यात्मक रूप से बिल्कुल सही है. लड़कियों के लिए हमारे समाज में जिस तरह का वातावरण मौजूद है, उन्हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए कई सामंजस्य बैठाने पड़ते हैं. 'घर संभालने' की अदृश्य जिम्मेदारी का दबाव उनमें से एक है. फिलहाल इस बात को मैं महिला-पुरुष वाली डिबेट में नहीं ले जाना चाहती. और ओलंपिक में पदक जीतने के साथ देश का मान बढ़ा रही बेटियों के आनंद में अपनी खुशी को महसूस करना चाहती हूँ. क्योंकि, इन खिलाड़ियों के पूरे होते सपने लाखों-करोड़ों लड़कियों को सपने दे रहे हैं.

हम भारतीय इस बात को भलीभाँति जानते और समझते हैं कि इस देश की स्त्रियों में प्रतिभा और लगन की कोई कमी नहीं. उनकी क्षमता अपार है और अवसर प्राप्त होते ही वे यह सिद्ध भी कर देती हैं. उनके नाम छपते ये प्रशस्ति-पत्र इसी तथ्य को प्रमाणित करने का उपक्रम भर हैं. एक स्त्री की तो दिनचर्या ही यही है कि वह कई मोर्चों पर एक साथ खड़ी होती है और सफ़लता प्राप्त करती है. बहुकार्यण एवं समय प्रबंधन में उसका कोई सानी नहीं!.....

हाँ, कामकाजी हो या घरेलू महिला, घर-गृहस्थी उसकी प्राथमिकता में सदा ही रहे हैं. या ये समझिए कि समाज की सीख ही ऐसी है कि पुरुषों ने ऐसे उत्तरदायित्वों को स्त्रियों के भरोसे रख छोड़ा है. सदियों से हमारी परंपरा भी तो यही रही है कि पुरुष बाहर काम करते हैं और स्त्रियाँ घर संभालती आई हैं. जब समय परिवर्तित हुआ और स्त्रियों ने घोंसले के बाहर निकल अपने पंख पसारना प्रारंभ किये, तब भी शर्त यही थी कि उनकी अपनी उड़ान में घर पीछे नहीं छूटना है.

स्त्रियों को यह भी पता है कि इस उड़ान में सफ़ल होना उनके लिए कितना आवश्यक है वरना जगहँसाई से पहले, घर की स्त्रियों के कटाक्ष ही उनके पर कतरने को पर्याप्त हैं. इसलिए वह जब एक लक्ष्य साधने का दृढ़ निश्चय करती है तो उससे पहले अपने हौसले और सक्षमता को सौ बार तोलती-परखती भी है. सामाजिक परिदृश्य में उसका स्थान कहाँ निश्चित किया गया है, इस तथ्य से भी वह परिचित है ही.

सर्वविदित है कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का सिर उठाकर चलना, महत्वपूर्ण मुद्दों पर बोलना और अपनी स्वतंत्रता की बात करना तक कुछ लोगों को खल जाता है. हम उस देश के निवासी हैं जहाँ आज भी कुछ स्थानों पर मात्र अपनी पसंद के कपड़े पहनने से लड़कियाँ मार दी जाती हैं. दूसरी जाति में या मनचाहे लड़के से प्रेम-विवाह परिवारों को हज़म नहीँ होता! जहाँ बेटी का जन्म ही बोझ लगने लगता है या फिर भ्रूणावस्था में ही उसे 'गिरा' दिया जाता है. जहाँ दहेज के नाम पर उसकी हत्या होती है, रात में निकलने पर उसके साथ बलात्कार किया जाता है. उस पर लड़कों की गंदी निगाह का कारण उनकी विकृत सोच नहीं बल्कि लड़की का पहनावा सिद्ध कर दिया जाता है. वहाँ यदि लड़कियों का प्रदर्शन अच्छा होगा तो प्रशंसा तो होगी ही. क्योंकि हमको पता है कि इनका जीवन एक अंतहीन बाधा-दौड़ से कम नहीं!

जब हम कहते हैं कि 'लड़कियों ने फिर बाजी मारी' तब यह दोनों लिंगों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा मानकर नहीं कहा जाता. बल्कि यह तो उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कहा जाता है, जहाँ हमें पता होता है कि आज भी कई लड़कियाँ, घरेलू काम में हाथ बँटाते हुए और तमाम कठिनाइयों से जूझते हुए इतना सब कर रही हैं.
महिला खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाते हुए भी जो पंक्ति लिखी गई है, उसमें भी प्राथमिकता घर संभालने को ही मिली है. क्या लड़कों का उत्साहवर्धन करते हुए भी यही कहा जाता है? नहीं, क्योंकि वे मुक्त हैं हर भार से. ऐसे समाज से जब कोई स्त्री ओलंपिक में पदक जीतकर लाती है तो उसकी पीठ थपथपा इस प्रजाति पर गर्व करना स्वाभाविकहै और आवश्यक भी. जिससे उन सबको प्रोत्साहन मिले, जिनके हृदय में अभी कहीं कोई अचकचाहट है. उन्हें भी एहसास हो कि राह उतनी भी कठिन नहीं, जितना वे माने बैठी हैं. बस पहला क़दम रखने भर की देर है. अभी लड़कियों का मनोबल ऊँचा करने का समय इसलिए भी है क्योंकि आत्मविश्वास पाने का संघर्ष वे ही कर रही हैं. जब ये सब आम हो जाएगा. देश के हर राज्य से ऐसी खबरें प्रायः आया करेंगी और हमें इसकी आदत हो जाएगी, तब ही इस तरह के मुख्य शीर्षक बनने पर विराम लगेगा. लेकिन इस प्रक्रिया से पुरुष रूपी राजा को विचलित नहीं होना है. उसकी जगह सुनिश्चित है. बस, रानी के लिए अपने साथ एक सिंहासन और बनवा लेना है.

आपने भी तो कितनी बार ऐसी शीर्ष पंक्तियों को हमेशा ही आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ देखा- पढ़ा होगा, जहाँ लिखा हो- 'अब लड़कियाँ भी चलाएंगी विमान', 'भारत की पहली महिला ट्रक ड्राइवर'. पेट्रोल पंप में काम करती लड़कियों को देखकर भी यकायक चौंक जाते हैं न! क्योंकि ये सब काम तो हम पुरुषोचित मानकर बैठे हैं! लड़कियों ने भारोत्तोलन और मुक्केबाजी जैसे खेलों में पदक जीते हैं. जो शारीरिक क्षमता भी प्रदर्शित करते हैं. अब कल्पना करो कि प्रायः अपने घरों में जब वजन उठाने का कोई काम होता है तो पिता, पति, भाई या बेटे को बुलाया जाता है. क्या कोई परिवार अपनी लड़की के बचपन में ये सोच सकता है कि ये बड़ी होकर पहलवानी या मुक्केबाजी करेगी! उसे तो हम सौम्यता की मूरत बनाते हैं. लेकिन अब ये सूरत बदल रही है.

इस बदलती सूरत का शानदार नज़ारा यह है कि टोक्यो ओलंपिक में भारोत्तोलन में मीराबाई चानू ने शानदार प्रदर्शन कर देश को पहला पदक दिला दिया. बैडमिंटन स्पर्धा में पीवी सिंधु दो बार ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनी. एक तरफ भारतीय पुरुष हॉकी टीम सेमीफाइनल में पहुँची, उधर भारतीय महिला हॉकी टीम ने भी ओलंपिक में पहली बार सेमीफाइनल में जगह बनाकर इतिहास रच दिया है. पूल चरण में संघर्षरत यह टीम बाद में पूरी शक्ति के साथ ऐसा खेली कि सब देखते रह गए. इसकी कप्तान रानी रामपाल से लेकर गोलकीपर सविता तक लगभग सभी की ओलंपिक तक पहुँचने की कहानी काफ़ी संघर्ष भरी रही है.

मैरीकॉम ने बॉक्सिंग चुना और देश को इसमें पहले मैडल भी दिला चुकी हैं. इस बार भी उनका प्रदर्शन अद्भुत रहा. मैडल भले ही फिसल गया परंतु काँटे की टक्कर दी है उन्होंने. मैरीकॉम ने 2012 के लंदन ओलंपिक में मुक्केबाजी में कांस्य पदक जीता था.और इस बार लवलीना बोरगोहेन का भी पदक जीतना तय है. इन दोनों मुक्केबाजों की कहानी भी प्रेरणा का विषय है क्योंकि उनके परिवारों ने अपनी बेटियों के खेल को प्राथमिकता दी. मैरीकॉम ने बॉक्सिंग में ऊँचा मुकाम पाने के बाद जीवन साथी चुना. उसने खेल और मैडल को लक्ष्य बनाया यदि उसके दिमाग में घर संभालने का ख्याल होता तो शायद आज वो वहाँ नहीं जा पाती, जहाँ गई हैं.

 इस बात से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि अन्य राज्यों की अपेक्षा उत्तर-पूर्वी राज्यों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर है. लेकिन दक्षिण और हरियाणा की लड़कियाँ भी कमाल कर रही हैं. कह सकते हैं कि खेलों का जहाँ-जहाँ मान है, वे संस्कृति में ढल गए हैं और लड़कियों अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं वहाँ से उम्मीद की किरणें प्रस्फुटित हो रही हैं. लड़कियों के मन से घर संभालने का दबाव निकालने का यही समय है. अभिभावकों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए कि उनके बच्चों को यदि खेल में रुचि है, तो वे उन्हें प्रोत्साहित करें. टोक्यो ओलंपिक की उपलब्धियों इसी काम में आनी चाहिए.

एक बात और, कभी-कभी गरीब पृष्ठभूमि वाले लड़के-लड़कियों के लिए स्पोर्ट्स नौकरी पाने का जरिया होता है. लेकिन, इक्कीसवीं सदी की लड़कियों के सपने बड़े हैं. वे नौकरी से आगे ओलंपिक मैडल को लक्ष्य बना रही हैं.
'हमें बेटी बचाओ' को एक कोरा आह्वान नहीं समझना है. बेटियों के सपनों को बचाना है, उन्हें उनका अपना आसमान चुनने का अधिकार देना है. 'बेटी पढ़ाओ' की जब बात करें तो चुपके से उनका मन भी पढ़ लेना है. उनकी आँखों में सुख की इक मीठी झील भी छोड़ देनी है. यक़ीन मानिए जिस दिन इस देश की सारी बेटियाँ अपनी मर्ज़ी से जी सकेंगीं, अच्छे दिन भी आ जाएंगे. हमारी परियों को थोड़ा-सा आसमान तो दीजिये, वो उस पर मैडल टांक देंगी. ओलंपिक तो क्या हम दुनिया की किसी भी पदक तालिका में इतना पीछे नहीं रहेंगे कि इकाई में प्राप्त पदकों पर ही अपने भाग्य को सराहने लगें. लेकिन हमारे जिन खिलाड़ियों ने हमें ये गौरवशाली पल दिए और वहाँ तक पहुँचे, उनको इस देश का सौ-सौ बार सलाम.

- प्रीति अज्ञात 

हस्ताक्षर पत्रिका में मेरा संपादकीय -

https://hastaksher.com/tokyo-olympic-2020-give-them-freedom-our-girls-will-bring-more-medals-editorial-by-preeti-agyaat/

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रविवार, 1 अगस्त 2021

#FriendshipDay: दोस्ती के अटूट बंधन की पाठशाला है फ़िल्म 'दोस्ती'

दोस्ती की जब-जब बात आती है तो मेरे मन में दो बेहद प्यारे लड़कों की तस्वीर तैर जाती है. मृदुल मुस्कान, सौम्य व्यक्तित्व, रेशम-सा हृदय लिए ये दोनों, दोस्ती के सबसे उत्कृष्ट मानदंडों की सूची मेरे हाथों में थमा गए थे जैसे. बचपन के इस सपने को मैंने हृदय में सँजो लिया था कि जब मित्रता करुँगी तो यूँ ही निभाऊँगी जैसे रामू और मोहन ने निभाई थी. मन ही मन कल्पनाओं के सारे रंग चुनने लगती थी.  'मित्रता दिवस' हो और 'दोस्ती' फ़िल्म को याद न करूँ, हो ही नहीं सकता!

स्मृति-पटल पर उस समय की मेरी आयु तो दर्ज़ नहीं हो रही पर हाँ, मैं किशोरी ही रही होऊँगी. बात अलीगढ़ (उ. प्र.) की है. गर्मी की छुट्टियों में वहाँ ताईजी-ताऊजी के पास हम सब प्रतिवर्ष जाते थे. वहाँ खूब धमाचौकड़ी होती और फिर अचानक से बच्चे फ़िल्म देखने का कार्यक्रम तय कर लेते. ऐसी ही एक ग्रीष्म दोपहरी में 'दोस्ती' फ़िल्म देखने का योग बना. 

सिनेमा-हॉल में प्रवेश करते समय मुझे एक क्षण को भी यह भान न था कि मैं आज अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ दस फ़िल्मों में से एक देखने जा रही हूँ. लेकिन इस अद्भुत और कालजयी फ़िल्म ने जैसे चौंका दिया मुझे. इसे देखने के बाद जाने कितने महीनों तक इसकी पटकथा मेरे साथ चलती रही. इसने मेरी भावनाओं को इस हद तक उद्वेलित किया कि मैं आज भी इस फ़िल्म को याद करती हूँ. इसे देखने के बाद मैंने अपने व्यक्तित्व को आकार देना प्रारंभ किया. और हाँ, पहला माउथ ऑर्गन भी खरीदा.

यह फ़िल्म सच्ची मित्रता के सभी आयामों को अनूठे ढंग से चित्रित करती है. मूल रूप से यह दो गरीब लड़कों, मोहन और रामू की अटूट दोस्ती की कहानी है. उनमें से एक दृष्टिहीन और एक अपंग है. सड़कों पर भटकते हुए रामू की मुलाकात मोहन से होती है. रामू माउथ ऑर्गन बहुत अच्छा बजाता है, पढ़ने की भी बहुत इच्छा रखता है. मोहन अच्छा गाता है. साथ में वे एक-दूसरे की कठिनाइयाँ समझते हैं, एक-दूसरे को सांत्वना देते हैं और भरसक साथ निभाते हैं. ये दोनों एक ऐसे जीवन को स्वाभिमान के साथ जीने को प्रयासरत हैं जिसे दूसरे दयनीय समझते हैं. मोहन को अपनी खोई बहन की तलाश है, और रामू को शिक्षा की. ये दोनों दोस्त किन-किन कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए जीवन जीते हैं, इनकी मित्रता कैसे धर्मसंकट से होकर गुजरती है. कैसे नए रिश्तों के कारण ये बिछुड़ने के कगार पर आ जाते हैं. यही फिल्म में दिखाया गया है. लेकिन इसके अन्य पात्र भी पटकथा में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. फिर चाहे वो बहन-बहनोई हों, शिक्षक-छात्र हों या एक गुड़िया जैसी बच्ची.

इस फ़िल्म में मनुष्य की प्रत्येक भावना को इतनी सरलता से, लेकिन वृहद रूप से चित्रित और रेखांकित किया गया है जो लगभग 6 दशक बीत जाने के बाद भी कहीं देखने को नहीं मिलता. मित्रता पर ऐसी कोई फ़िल्म आज तक बनी ही नहीं जिसने मुझे इस हद तक भावुक कर दिया. इससे पहले मैं किसी फ़िल्म में एक पल भी नहीं रोई थी लेकिन इसमें तो जैसे बाँध बह निकला था.  मानवीय संबंधों के सबसे शुद्ध और प्रबल भाव का चित्रण है इसमें. दोस्ती और मानवता की इस उल्लेखनीय कहानी में दोनों अभिनेताओं सुधीर कुमार और सुशील कुमार ने ऐसा अभिनय किया है जैसे कि वे इस भूमिका के लिए ही जन्मे हों. दृष्टिहीन लड़के की भूमिका निभाने वाले सुधीर कुमार की आँखें तो इतनी सुंदर हैं कि बयान नहीँ किया जा सकता. पूरी फ़िल्म में यह बेचैनी साथ चलती है कि ये लड़का देख क्यों नहीं सकता!

दोस्ती का गीत-संगीत रिश्तों के धागे में मोती की तरह पिरोया गया है. मजरुह सुल्तानपुरी द्वारा रचित गीतों में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपने संगीत से जान फूँक दी है. इन शानदार गीतों के सरल और अर्थपूर्ण बोल अत्यधिक दक्षता के साथ कहानी को अपने साथ लेकर चलते हैं. राजश्री बैनर के ताराचंद बड़जात्या इसके निर्माता हैं. निर्देशन सत्येन बोस का है.

कहते हैं कि अपने असाधारण अभिनय और कमाल की कहानी के कारण यह एक बड़ी ब्लॉकबस्टर रही थी. और क्यों न हो, जब स्वर सम्राट मोहम्मद रफी ने इसमें वो 5 गीत गाए हों जिन्हें हम अब तक गुनगुनाते हैं. लता मंगेशकर का गाया  गीत 'गुड़िया, हमसे रूठी रहोगी, कब तक न हँसोगी' हर माता-पिता ने अपनी बेटी को मनाते हुए गाया होगा. गीतों के शब्द- शब्द दिल में उतरते हैं. 'मेरी दोस्ती मेरा प्यार' सुनकर कैसे अपने दोस्तों पर गर्व होने लगता है.और 'चाहूँगा मैं तुझे साँझ-सवेरे', से तो न केवल दोस्त बल्कि प्रेमी भी निश्छल मन से किसी को प्रेम करते हुए बिछोह का दर्द महसूस करते हैं,  'मेरा तो जो भी क़दम है' में जो परवाह है उसे रफ़ी साब ने कैसे जीवन दे दिया है! 'जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे' को सुन दिल से एक आह आज भी निकलती है. हम इन सारे थोड़े उदास भावों से गुजर ही रहे होते हैं कि 'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है' गीत आपको हौले से सहला जाता है और आपका निराश हृदय अनायास ही उम्मीद की जगमगाती किरणों से प्रकाशमान हो उठता है.

इस फिल्म की श्रेष्ठता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म को उस वर्ष  के प्रतिष्ठित फिल्मफेयर अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ फिल्म, कहानी, संवाद, संगीतकार, गायक, गीतकार के पूरे 6 पुरस्कार  इसके नाम हुए.  

 दोस्ती पर सैकड़ों फ़िल्में बनी हैं. उनमें से कुछ अच्छी भी हैं. लेकिन इससे श्रेष्ठ, भावनात्मक रूप से प्रबल, अविस्मरणीय गीत-संगीत और अभिनय से सजी प्रेरणास्पद फ़िल्म मैंने आज तक नहीं देखी! हृदयस्पर्शी सिनेमा का अनमोल एवं उत्कृष्ट उदाहरण है यह फ़िल्म.

राजश्री बैनर ने अपनी फ़िल्मों में सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, परिवार, संवेदनाओं को शीर्ष पर रखकर सदैव ही भावनात्मक पक्ष को प्रबल रखा है. आश्चर्य इस बात का है कि जहाँ आज फ़िल्मकारों  द्वारा कहानी की मांग को कारण बताकर अनर्गल सामग्री को सिनेमा में सम्मिलित कर लिया जाता है. वहाँ यह फ़िल्म निर्माण कंपनी अब तक अपनी उसी आन, बान और शान के साथ साफ़ सुथरी खड़ी हुई है. प्रशंसनीय है कि राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्में आज भी न केवल इस परंपरा को निभा रही हैं और सफ़ल भी हो रही हैं.

हो सकता है कि 1964 में बनी इस फ़िल्म 'दोस्ती' को देखने पर संवाद अदायगी थोड़ी बचकानी लगे. यह बहुत पुरानी फ़िल्म है और तब से अब तक संवादों के लहजे में बहुत परिवर्तन आ चुका है. लेकिन भावनात्मक रूप से यह अब भी उतना ही गहरा प्रभाव डालने में सक्षम है. यदि आप अच्छी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं तो इसे अपनी सूची में अवश्य सम्मिलित करें. यह निश्चित रूप से आपके बेहतरीन गुजारे ढाई-तीन घंटों की यादों में से एक होगी. ये आपको दर्शनशास्त्र नहीं समझाती,  सुनहरे स्वप्न नहीं दिखाती, कुछ अविश्वसनीय बात भी नहीं कहती बस दो इंसानों का संघर्ष भरा जीवन सामने रख देती है. दोस्ती के अटूट बंधन की पाठशाला है यह फ़िल्म.  रिश्तों के सबसे मधुर और उच्च भाव दोस्ती को यह  इस तरह रखती है कि कहानी के दोनों पात्रों से आपका भीतर तक जुड़ाव हो जाता है. उनके दुख आपकी आँखों से झर झर बहने लगते हैं. पर आप ईश्वर से यह प्रार्थना भी अवश्य कर रहे होते हैं कि आप भी किसी से इसी तरह दोस्ती निभाएं. आपके जीवन में भी कोई ऐसा दोस्त आए जिस पर आप यूँ  भरोसा कर सकें. आखिर दोस्तों में ही तो जीवन बसता है न!

HAPPY FRIENDSHIP DAY! 💕

- प्रीति अज्ञात 

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*पोस्टर विकिपीडिया से साभार

शनिवार, 31 जुलाई 2021

बापू के नाम पत्र

प्रिय बापू
सादर चरण स्पर्श

आज जब मुझे आपको यह पत्र लिखने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है तो ऐसे में मेरी प्रसन्नता अपने चरम पर है। मैं स्वयं को संयत नहीं कर पा रही हूँ कि इतने कम शब्दों में सब कुछ कैसे कह दूँ। वे बातें, वे किस्से जो मैं बीते लम्बे समय से आपको सुनाने की इच्छा रखती रही हूँ, न जाने इन पन्नों पर ठीक से उतर पायेंगे भी या नहीं! पर प्रयास अवश्य करुँगी। मेरी इस व्यग्रता के दो प्रमुख कारण हैं, प्रथम यह कि मेरे अब तक के जीवन में यदि मैंने किसी के आदर्शों को हृदय से अपनाया है तो वह आप ही हैं, बापू। आप सशरीर मेरे साथ उपस्थित न भी होकर परछाई की तरह सदैव साथ चलते हैं। मेरी समस्याओं का समाधान हैं आप! दुःख की उदास घड़ी में मेरे चेहरे की मुस्कान हैं आप! घनघोर निराशा के स्याह अँधेरों में किसी झिर्री से प्रविष्ट होती प्रकाश की एकमात्र किरण हैं आप! मेरी टूटी उम्मीदों का हौसला हैं आप!
द्वितीय कारण मेरा पत्र-लेखन के प्रति अपार प्रेम है। जब मैं छोटी थी न, तो अपने घर-परिवार, मित्रों को ख़ूब पत्र लिखा करती थी। उनके जन्मदिवस, वर्षगाँठ इत्यादि पर अपने हाथों से बनाये 'शुभकामना-पत्र' भी भेजा करती। यहाँ तक कि मम्मी और भैया की ओर से भी पत्र लिख दिया करती थी। सबको अच्छा लगता तो मेरी ख़ुशी भी दोगुनी बढ़ जाती। उस समय का जीवन मुझे बहुत आसान लगता था। कोई जल्दी नहीं थी। पत्र पहुँचने में अपना निश्चित समय लेते और प्रत्युत्तर कब आएगा; मैं हिसाब लगा लिया करती थी। वे कितने अच्छे दिन थे न बापू! अब तो बेचैनियाँ, प्रतीक्षा, प्रसन्नता ये सब भाव मोबाइल और उसके इमोजी ने निगल लिए हैं। अब आप सोचते होंगे कि ये 'मोबाइल', 'इमोजी' क्या बला हैं? जब हम मिलेंगे न तो दिखाऊँगी और आपको सिखा भी दूँगी। वैसे देश को ये नई तरह की व्याधि लगी है बापू, घर-मित्र-परिवार से विमुख हो सोशल बनने की! ये जो उपकरण है न, ये एक ही क्षण में सारे समाचार दुनिया भर में प्रसारित कर देता है। तस्वीरें खींचता है, भेज देता है और तो और...सामने बैठे हों ऐसे बात भी कर सकते हैं इसके द्वारा। इसको वीडियो चैटिंग कहते हैं। कितना अच्छा होता न, अगर ये आजादी की लड़ाई के समय साथ होता! संगठित होने में कितनी आसानी होती! सत्याग्रह आंदोलन और दांडी यात्रा के ख़ूब अपडेट्स होते! ये सब पढ़कर आप हँस रहे होंगे, मुझे भी बताने में बहुत आनंद आ रहा है। हाँ, एक सच्ची बात और कह दूँ कि इस मोबाइल के लाभ भी कम नहीं। यूँ समझिये कि विज्ञान की तरह यह भी विनाशकारी और लाभदायक दोनों है। सब अपनी-अपनी मानसिकता के आधार पर इसका प्रयोग करते हैं। 

बापू, मेरा और आपका साथ बहुत पुराना है। माता-पिता ने हमेशा सादा जीवन एवं सद्कार्यों को अपनाया तो हम बच्चों (मैं और मेरा भाई) में भी ये संस्कार स्वतः आ गए। 'सत्य' और 'अहिंसा' का प्रथम पाठ भी मैंने घर से ही सीखा और अब तक उस पर अडिग हूँ। बचपन में ही एक दिन मेरे माता-पिता ने बताया था कि वे आपके रास्ते पर चल रहे हैं और ये सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, प्रार्थना सब आपके ही विचार हैं जिनका वे सदैव अनुकरण करते आये हैं। तब मुझे बहुत अच्छा लगा था क्योंकि आपकी तस्वीर को जब भी देखती थी तो मेरे प्यारे दादू का चेहरा दिखाई देता था। वे मुझसे अपार स्नेह करते थे। जब थोड़ी बड़ी हुई तो पापा ने आपकी दो पुस्तकें 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' (आत्मकथा) और 'मेरे सपनों का भारत' पढ़ने को दीं। तब से ये दोनों ही मेरी प्रिय पुस्तकों में से हैं।
 
पता नहीं, मुझे आपसे ये कहना चाहिए भी या नहीं.... पर बापू, अत्यंत भारी हृदय के साथ आपको यह सूचना दे रही हूँ कि वो भारत जिसका आप स्वप्न देखा करते थे और जिस स्वप्न को हम भारतवासियों ने भी आत्मसात कर अपनी आँखों में भर लिया था, हमें अब तक उस भारत की प्रतीक्षा है। न जाने ऐसा क्या हुआ है और क्यों हुआ है बापू, कि मनुष्य बहुत स्वार्थी हो चला है। झूठ का बोलबाला है और हिंसा तो ऐसी कि आप भी घबराकर आँखें मूँद लें! मैं तो कई बार जब भेदभाव और छुआछूत के बुरे समाचार अखबार में पढ़ती हूँ तो फूट-फूटकर रोने लगती हूँ कि हम बापू के आदर्शों को क्यों न संभाल सके!
सच! अब जबकि पूरा देश आपकी 150वीं जयंती मना रहा है तो ऐसे में यह तथ्य और भी दरकता है कि जिन बापू ने हमें आजादी दी, हम उनको क्या दे सके! आपकी विरासत को सहेजना तो हमारी ही जिम्मेदारी थी न! ऐसे में आपकी और भी याद आती है और लगता है कि देश ने आपको कितना निराश किया। आपके हत्यारे के समर्थकों को जब पढ़ती सुनती हूँ तो मुझे बहुत बुरा लगता है और जाकर उन पर अपना क्रोध जाहिर करने का मन भी करता है। लेकिन ऐसे में भी आप ही मुझे रोक लेते हो! अब आप सोच रहे होंगे कि आप तो मुझे जानते तक नहीं, तो रोकेंगे कैसे भला? हा, हा, हा...बापू ये आपकी 'गाँधीगिरी' ही है जो मुझ पर सदैव हावी रहती है और मैं किसी से झगड़ा नहीं कर पाती। मैं ही नहीं, इस देश के जन-जन के लहू में आप संस्कारों की तरह बहते हैं। तभी तो हम आपको 'राष्ट्रपिता' कहते हैं।

एक अच्छी बात बताऊँ, आपको? पता है ये लोग जो हिंसा और असत्य के समर्थक हैं, ये बस मुट्ठी भर ही हैं। परेशानी ये है कि अच्छी ख़बरें दिखाई जानी कम हो गई हैं। ऐसे में बुराई चहुँ ओर दृष्टिगोचर होती है एवं उसी की चर्चा अधिक होती है। बीते कुछ वर्षों से मैं और मेरे साथियों ने यह बीड़ा उठाया है कि हम समाज में 'अच्छा भी होता है' की तस्वीर पेश करें। कर रहे हैं बापू और सफलता भी मिल रही है। हमसे बहुत लोग हैं जो एक ऐसे  सकारात्मक समाज की संकल्पना करते हैं जिसमें प्रेम हो, भाईचारा हो और सारे भेदभाव से ऊपर उठकर सत्य और अहिंसा की लाठी के साथ चलने की ललक हो।

इसी बात से एक किस्सा याद आया। मैंने आपको तस्वीरों में हमेशा धोती पहने, लाठी और चश्मे के साथ ही देखा था। बचपन में ही एक बार जब टीवी पर गाँधी फ़िल्म आई, तब परिवार के साथ मैं भी उत्सुकता से दूरदर्शन के सामने जम गई थी। पूरी फ़िल्म देखते समय मुझे यही लगता रहा कि ये आप ही हो और आपकी हत्या के दृश्य को देखकर मैं चीखने लगी थी। सबने समझाया कि ये पिक्चर है और ये अभिनेता हैं जो कि आपकी भूमिका अदा कर रहे हैं। मैं कई दिनों तक आश्चर्य में रही कि कोई मेरे बापू जैसा कैसे दिख सकता है? बड़े होने पर सारी बातें समझ आने लगीं। हाँ, एक बात अवश्य पूछूंगी आपसे कि आप सिनेमा के विरोधी क्यों थे? देखिये तो, अगर फ़िल्में न होतीं तो आज की पीढ़ी आपसे कैसे मिलती? कैसे विस्तार से जान पाती? मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आप आज के समय में होते तो सिनेमा के समर्थन में होते क्योंकि इन दिनों कई ऐसे निर्माता-निर्देशक हैं जो यथार्थ दिखाने का साहस रखते हैं और युवा पीढ़ी उनकी ख़ासी प्रशंसक है। आप पर एक मजेदार फ़िल्म भी बनी थी, जिसे देखकर आप भी बहुत हँसते-खिलखिलाते। उसमें गाँधीगिरी से ही सब समस्याओं का समाधान बताया गया था और 'जादू की झप्पी' से किसी का भी दुःख साझा करने का प्रयास दिखाया गया था। इसे विश्व भर में बहुत सराहना मिली और  इतना अधिक पसंद किया गया था कि मुझे यक़ीन हो गया था कि जिन बापू को हमसे पहले की पीढ़ी स्नेह करती थी, वे वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे क्योंकि गाँधी मात्र नाम नहीं, समग्र विचारधारा है और विचार कभी मरते नहीं! वे अमर हो जाते हैं, सदा-सदा के लिए!

बापू आपको जब भी सोचा तो वही स्मित मुस्कान लिए प्रिय दादू- सा कोई चेहरा दिखाई दिया जो सदैव सही राह पर चलना सिखाता है। जिसके पास प्रत्येक जिज्ञासा का हल है। जिसका निश्छल, शांत स्वभाव और शालीन भाषा ऐसे अपनेपन में बाँध लेती है कि पल भर को भी यह अनुभव नहीं होता कि ये दुनिया के सबसे महान व्यक्ति हैं।

आप जिन सिद्धांतों पर चलने की बात करते थे, उस पर अभी भी कुछ लोग टिके हुए हैं। वे आपके आदर्शों को अब भी अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं। वे एक थप्पड़ के बाद दूसरा गाल भले ही आगे न करें, पर अपशब्द एवं हिंसा का प्रयोग नहीं करते एवं अपने सत्य के साथ अडिग खड़े रहते हैं। यही 'गाँधीगिरी' है जो अब भी देखने को मिल जाती है।
बापू, आपका वो भारत जहाँ सर्वधर्मसमभाव सबके ह्रदय में था, जहाँ सब बराबर थे, सबको जीने का हक़ था और जहाँ बुराई के रावण का दहन होता आया है। जहाँ  सत्य और अहिंसा को ही हथियार मान पूजा जाता है...उस भारत की तस्वीर में वो पहले सा नूर अभी नहीं दिखता पर इनसे सच्चे भारतीयों का हौसला टूट जाए, ऐसा भी नहीं! क्योंकि हम आपकी कही इन बातों को अब तक भूले नहीं हैं -
"जब मैं निराश होता हूँ, मैं याद कर लेता हूँ कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है। इसके बारे में सोचो- हमेशा।"
"मैं मरने के लिए तैयार हूँ, पर ऐसी कोई वज़ह नहीं है जिसके लिए मैं मारने को तैयार रहूँ।"
"आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है; अगर सागर की कुछ बूँदें गन्दी हैं, तो सागर गन्दा नहीं हो जाता।"
सम्पूर्ण विश्व आपके विचारों का समर्थन करता है। आप और आपके विचार अमर हैं बापू। भारतवासियों के हृदय में आप सदा यूँ ही मुस्कुराते रहेंगें। 
शेष शुभ!
पूज्य बा को मेरा चरण-स्पर्श कहियेगा, छोटों तक स्नेहाशीष पहुँचे। 
पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में 
आपकी 
प्रीति 
19 नवम्बर 2019 को बापू के नाम लिखी इक चिट्ठी 
#बापू #पत्र  #अंतरराष्ट्रीयपत्रदिवस #प्रीति अज्ञात #पत्रलेखन #Newblogpost 


गुरुवार, 29 जुलाई 2021

बॉलीवुड की मसाला फ़िल्मों की मसालदानी के चुनिंदा मसाले

बीते दो दशकों में हिंदी फ़िल्मों में बहुत कुछ बदल गया है. आपको तो पता ही है कि पुरानी फ़िल्मों के विषय गिने-चुने ही हुआ करते थे. ये फ़िल्में घर-परिवार, रिश्ते या बदले की भावना को लेकर बनतीं. कुछेक में माँ की ममता, बड़े भैया का त्याग या पिता की मजबूरी की भावनात्मक कहानी भरपूर छलकती. कुछ में दो घरानों के बीच में दुश्मनी और उनके नौनिहालों की तड़पती मोहब्बत के तराने गूँजते. तो कहीं क्रूर जमींदार के कब्ज़े में, गरीब नायक/नायिका का घर या गहने होते. 

चुनिंदा फ़िल्में किसी उपन्यास पर भी आधारित होतीं या सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर बनाई जातीं. जिनमें छुआछूत, दहेज और स्त्री-विमर्श प्रधान विषय होते. इन बाद वालियों को प्रायः कलात्मक श्रेणी में डाल दिया जाता. मतलब तब इनके नाम सुनते ही हम जैसे बच्चे नाक-मुँह सिकोड़ लिया करते. हाँ, मसाला फ़िल्में बड़े चाव से देखी जाती थीं. जबकि भारतीय सब्जियों की तरह उनका मसाला पहले से ही तय रहता था और दर्शकों के लिए कुछ भी रहस्यमयी नहीं होता था. पर स्वाद तो स्वाद है, एक बार ज़बान पर चढ़ जाए बस!

1. इन फ़िल्मों की विशेषता यह थी कि हर दृश्य के साथ-साथ अगले दृश्य का अनुमान स्वतः होता जाता. लेकिन खलनायक का नायक के हाथों पिटना हम जैसे गाँधीवादी को भी एक अलग ही क़िस्म का सुख दिया करता. हर ढिशुम- ढिशुम के साथ मन से यही ध्वनि आती कि "और मार, और मार! ये इसी लायक़ है!". उधर अमिताच्चन जब प्राण या अमज़द खान को कूट रहे होते, इधर अपन सीट पर उछल-उछल तालियाँ पीट उन्हें प्रोत्साहित करते. लड़के लोग तो सीटी मार, सिक्के भी उछाल लिया करते थे. 

2. इनमें खलनायक का कुछ हसीनाओं के साथ घिरे रहकर, तेल मालिश कराने का दृश्य भी अवश्य रहता था. वो वनमानुष सा पड़ा रहता और इन्हीं सुंदरियों में से एक अंगूर का गुच्छा लिए उसे लपर-लपर खिला रही होती. उसी समय एक दूत (खबरी) का आगमन होता और उससे सूचना प्राप्त करते ही खलनायक के चेहरे पर कुटिल हँसी छा जाती. 

3. इन फ़िल्मों में जमकर तस्करी (स्मगलिंग) दिखाई जाती थी. इसमें काले कोट और काले गॉगल पहने एक मनुष्य चेहरे पर अति गंभीर भाव लिए ब्रीफकेस लेकर तीव्र गति से चलता. बस, दर्शक देखते ही तुरंत समझ जाते कि तस्कर (स्मगलर) है. यह वेशभूषा मन में इस हद तक घर कर चुकी है कि आज भी कोई इस तरह तैयार हो दिख जाए तो यही लगता है कि डॉन का कोई गुर्गा है. जिसे काली पहाड़ी के पीछे एक संकेत-शब्द (कोडवर्ड) बोलकर इस संदूकची का हस्तांतरण करना है. 

4. अच्छा, खलनायक भले ही कितना निर्दयी हो, पर उसके मन का एक कोना नृत्य और संगीत के प्रति समर्पित रहता. यही कारण था कि दुश्मन के अड्डे पर नायिका का नृत्य हर फ़िल्म का आवश्यक अंग बन जाता. आजकल तो नायिका स्वयं ही उचित अवसर देख 'आइटम नंबर' शुरू कर देती हैं. लेकिन उस समय ये विवशता में होता था. इधर नायिका अपनी कला प्रस्तुत करते हुए उनके हथियार, हथिया लेती और उधर गीत समाप्त होते ही नायक आ धमकता. उसके बाद दुष्चरित्रों की पिटाई का वर्णन पहले बिंदु में कर ही दिया गया है. 

पर हाँ, एक बड़ी कॉमन परेशानी थी. जैसे ही नायक सबको पीटकर सुस्ता रहा होता तभी अचानक से उसकी माँ दुश्मन के कब्ज़े में आ जाती! इतना क्रोध आता था न तब कि इतनी मुसीबत के समय माँ, घर से अपहरण करवाने निकली ही क्यों!
वो तो भला हो पुलिस का कि इतना कुछ निबट जाने के बाद अंततः आ ही जाती. उसे देखते ही दर्शक खलनायक से स्वयं ही बोलने लगते, "अपने हाथ ऊपर कर दो. अब तुमको कोई नहीं बचा सकता! पुलिस ने इस इलाके को चारों तरफ से घेर लिया है!".  

5. उन दिनों मेले में बिछड़ना भी आम था. तब मोबाइल तो थे नहीं. अतः ट्रैक करने के लिए सबके गले में एक सा लॉकेट डाल दिया जाता या फिर एक कॉमन पारिवारिक गीत होता जिसकी धुन हर सदस्य को पता होती. कभी- कभी एक फोटो होता जिसे दो टुकड़ों में बाँट दिया जाता. फ़िल्म जब समाप्ति के चरण में होती तब ये लोग वही गीत गाकर एक दूसरे को पहचानते. कभी लॉकेट खोल अचंभित हो भरे गले से 'भैया' कह बाँहें फैला मिलते तो कभी उन दो टुकड़ों को जोड़ पूरी तस्वीर बना लेते. दर्शक पूरी फ़िल्म में घबराते हुए बार-बार उन्हें याद दिलाते कि अरे यही तेरा भाई है. खैर! इन्हीं पलों की प्रतीक्षा में सब साँसें थामे रहते और अब कहीं जाकर इनकी प्रतीक्षा को विराम मिलता. प्रायः आँखें भी भर आया करतीं. 

6. प्रेम तो शाश्वत है. उसके बिना फ़िल्में कभी बनी ही नहीं. हाँ, समय के साथ प्रेम प्रदर्शन की  पद्धति जरूर परिवर्तित हो चली है. पहले पुस्तकों के गिरने-उठाने के मध्य आँखों-आँखों में कहानी का आरंभ होता था. दो फूलों के मिलन या बरसात होते ही ज्ञात हो जाता था कि अब अगला संवाद 'मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ', ही होगा. आजकल तो कहानी की माँग के बहाने जो हो जाए, कम है. 

7. उन फ़िल्मों में प्रेम त्रिकोण के समय एक ऐसा गाना भी होता था जिसमें नायक या तो नशे में या फिर आँखों पर मास्क सा लगाकर प्रेमगीत गाता. प्रेमिका अपने पिता या सौतेली माँ के घूरने के बावजूद भी हाथ छुड़ा, नायक के पास दौड़ी चली आती. दिल को चैन मिलता. आजकल 'तू प्यार है किसी और का', 'मेरा दिल भी कितना पागल है'  गीतों का दौर समाप्तप्राय है. 

8. ऐसे तो उस दौर से जुड़ी बहुत सी बातें हैं. पर चलते-चलते एक और याद करा देती हूँ. जब डॉक्टर ये कहता कि "इनको दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है'. तो उफ़! नायक मंदिर-मस्जिद की चौखट पर पहुँच ऐसे-ऐसे संवाद बोलता कि कलेजा मुँह को आता. तभी अचानक जोर-जोर से मंगल ध्वनियाँ वातावरण में गूँजने लगतीं और हम ये जान लेते कि 'हैप्पी एन्डिंग' होने वाली है. लेकिन जब हीरो अपनी माँ की गोदी में सिर रख लेता और बचपन याद करता तो जी भर आता. पूरे सिनेमा हॉल से सुबकने की आवाज आती क्योंकि इतिहास गवाह है कि इस पोज़ वाला नायक जीवित न रहा कभी! रुमाल निचोड़कर सुखाते कि फिर भीग जाता. बाहर निकलते समय सब बस एक ही बात कहते कि "यार, पिच्चर तो अच्छी थी पर हीरो को ज़िंदा रहना चैये था". 
- प्रीति अज्ञात 
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फोटो: गूगल 




मंगलवार, 27 जुलाई 2021

#Mimi : बधाई हो! हमारा सिनेमा बदल रहा है!

27 जुलाई को कृति सेनन के जन्मदिवस के अवसर पर उनकी फ़िल्म 'मिमी' नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ कर दी गई.  निर्धारित तिथि से चार दिन पहले आने के कारण, इस रिलीज़ को प्री-मैच्योर बेबी की उपमा भी दी गई है. लेकिन परिपक्वता की दृष्टि से यह फ़िल्म हर मायने में पूरी तरह खरी उतरती है. 

इधर हमारा समाज अभी तक इसी प्रश्न में ही उलझा हुआ है कि जन्म देने वाली या पालने वाली माँ में से कौन बड़ा! हम माता देवकी और मैया यशोदा की तुलना सदैव करते आए हैं. लेकिन अब विज्ञान ने हमारा सिर खुजाने को एक वज़ह और दे दी है- सरोगेट मदर. 

सरोगेसी पर आधारित इस फ़िल्म 'मिमी' का ट्रीटमेंट बेहद मनोरंजक तरीके से किया गया है. यह अपने पहले ही सीन से इस हद तक बाँध लेती है कि फिर आप एक पल को भी बीच में उठना नहीं चाहेंगे.  

बिना रोमांस और अश्लीलता के भी एक शानदार फ़िल्म बनाई जा सकती है. 

हिन्दी फ़िल्म हो और उसमें कोई प्रेम कहानी न हो! यह बात हम भारतीय दर्शकों को चौंका सकती है. मिमी ठीक ऐसी ही है. इसमें नायक-नायिका दोनों हैं पर उनमें प्रेम नहीं. दोनों दोस्त भी नहीं हैं. नायिका मिमी के बॉलीवुड को लेकर अपने सपने हैं और वह खूब पैसा कमाना चाहती है. नायक भानु भी यही चाहता है. एक विदेशी जोड़ा, सरोगेट मदर की तलाश में जयपुर आता है और जैसे इनके सपनों को मंज़िल मिल जाती है. बिना गरीबी का रोना रोए इस पूरी कहानी को बहुत ही सहजता से फ़िल्मांकित किया गया है. कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं और यह सारे इमोशन्स को बड़ी ही खूबसूरती से साथ लेकर चलती है. 

गंभीर विषय को गुदगुदाते हुए भी कहा जा सकता है. 

हम हिन्दी फ़िल्मों के दर्शक जब सरोगेसी विषय देखते हैं तो सीधे-सीधे दो बातें दिमाग़ में आती हैं, पहली तो यह कि चूँकि गंभीर और नया विषय है तो इसमें बहुत ज्यादा उपदेशात्मक या ज्ञान भरी बातें होंगीं. और दूसरी वही माँ की ममता से लबरेज़ महान भावनात्मक चित्रपट की तस्वीर आँखों में कौंध जाती है. क्या करें, हमने त्याग, बलिदान, तपस्या में डूबी हुई रोने-धोने की इतनी फ़िल्में देख रखी हैं कि सिवाय इसके और कुछ और सोच ही नहीं पाते! लेकिन जैसा कि मिमी की टैगलाइन में भी कहा गया है कि 'इट्स नथिंग लाइक व्हाट यू आर एक्सपेक्टिंग' तो हम भी यही कहेंगे कि ये हमारी घिसी-पिटी सोच से हटकर एकदम नए कलेवर में बनाई गई फ़िल्म है. 

 यह फ़िल्म ज्ञान तो देती है पर उपदेश नहीं. इसके संवादों पर आप मुस्कुराते हुए हामी भरते जाते हैं. हास्य का पुट देते हुए गंभीर विषय को सहजता से कैसे समझाया जा सकता है, यह फ़िल्म उसका सटीक, सशक्त उदाहरण है.

हिन्दू-मुस्लिम साथ में हँसते भी हैं.  

इस फ़िल्म में हिन्दू-मुस्लिम हैं पर उनके कट्टरपन को भुनाने की कोई चेष्टा नहीं की गई है. यहाँ एक-दूसरे को देखते ही उनका खून नहीं खौलता! लेकिन कुछ भी कहिए पर यह फ़िल्म भारतीय दर्शकों की नस जरूर पकड़ के रखती है. निर्देशक जानते हैं कि चोट भी कर दो और ज़ख्म दिखाई न पड़े. बल्कि यहाँ तो हमारी मानसिकता को सोच बार-बार हँसी ही आती है. एक स्थान पर भानु स्वयं को मुसलमान बताता है और उस की टैक्सी पर जय श्री राम लिखा देख दो लोगों के चौंकने का अभिनय सहज हास्य पैदा करता है. वहीं जब मिमी की माँ, स्थिति को समझे बिना मिमी के गर्भवती होने की खबर जान पछाड़ें खा छाती कूट रही होती है. तभी उसे पता चलता है कि लड़का मुसलमान नहीं है. उस वक़्त उसके चेहरे की प्रसन्नता देखते ही बनती है. वो सारे दुख भूल इस बात से सुकून महसूस करती है कि लड़की ने ज्यादा नाक नहीं कटाई! 

एक जगह मिमी की सहेली शमा के घर जब भानु मुस्लिम बनकर रहता है तो उससे नमाज़ के बारे में किये गए प्रश्न पेशानी पर बल नहीं डालते बल्कि भीतर तक गुदगुदा जाते हैं. 

हालाँकि यह फ़िल्म अपने मूल विषय सरोगेसी से एक पल को भी हटती नहीं लेकिन फिर भी घर-परिवार से जुड़े हर दृश्य से एक जुड़ाव सा महसूस होता है और संवाद अपने से लगते हैं. यक़ीनन यह फ़िल्म कई सामाजिक धारणाओं को बदलने का माद्दा रखती है.

मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों की खूबसूरती का संगम है यह फ़िल्म  

एक बच्चे के घर आने से कैसी रौनक आ जाती है और सब दुख बौने लगने लगते हैं, इसे अत्यंत भावुक और संवेदनशील तरीके से फिल्माया गया है. कई दृश्य ऐसे हैं जहाँ गला रुँधने को आता है पर अचानक ही कोई फुलझड़ी सी छूटती है और मन स्वयं को संभाल लेता है. बच्चे से जुड़ाव और मोह के सारे रंग तो हैं ही इसमें, पर इसके साथ ही बच्चे, रिश्ते कैसे जोड़ देते हैं यह भी बड़ी सरलता और संतुलित ढंग से दिखाया गया है. वहीं गोरे बच्चे को लेकर जो आकर्षण है, उसे दिखाने में भी निर्देशक ने कामयाबी हासिल की है. बकौल भानु, "रंगभेद से छुटकारा जाने कब मिलेगा". 

भानु के कोई बच्चा नहीं लेकिन उसके पास सरोगेट मदर अफोर्ड करने के लिए पैसा भी नहीं है. एक दृश्य में वह कहता है कि 'बच्चों को पढ़ाने के लिए लोन लेते हैं, पैदा करने के लिए कौन लेगा!' लेकिन वहीं वो विदेशी जोड़े को एक फ़िट सरोगेट मदर दिलाने में कोई क़सर नहीं छोड़ता. एक अन्य जगह, जब मिमी बेहद निराश होकर उससे पूछती है कि वो अब तक उसका साथ क्यों दे रहा है?  तो उसका जवाब है कि "ड्राइवर हूँ,एक बार पैसेंजर को बिठा लिया तो हम उसे मंजिल पे छोडे बग़ैर वापिस नहीं लौटते". 

जीवन-दर्शन का पाठ भी है यहाँ कि "हम जो सोचते हैं वो ज़िंदगी नहीं होती है, हमारे साथ जो होता है वो ज़िंदगी होती है". 

ज़बरदस्त कलाकारों का कॉम्बो पैक है यह फ़िल्म.  

मिमी के माता-पिता के रूप में सुप्रिया पाठक और मनोज पाहवा का अभिनय, अभिभूत कर देता है. उनके चेहरे के हाव भाव ही आधी बात कह जाते हैं. मिमी की सहेली शमा के रूप में सई बेहद प्रभावित करती हैं. उनकी बोलती आँखें दीप्ति नवल और स्मिता पाटिल की याद दिलाती हैं. पंकज त्रिपाठी के बारे में तो अब क्या ही और कितना कहा जाए! हर फ़िल्म में वे अपनी कला से दर्शकों का दिल जीत लेते हैं. उनके लिए एक ही बात बार-बार ज़हन में आती है कि 'एक ही दिल है, कितनी बार जीतोगे!' 

कृति सेनन ने मिमी के चरित्र में जान फूँक दी है. जहाँ भी उनका ज़िक्र होगा, मिमी खुद ब खुद उधर चली आएगी. यह फ़िल्म उनके करिअर में मील का पत्थर तो साबित होगी ही, साथ ही अब उनको ध्यान में रखते हुए कहानी भी लिखी जाया करेंगीं.   

इस फ़िल्म की सफलता में इसकी ज़बरदस्त स्टार कास्ट का होना भी जरूर गिना जाएगा. हर कलाकार ऐसा है जिसकी जगह और किसी को सोचा ही नहीं जा सकता! सबने अपना-अपना रोल दमदार तरीक़े से निभाया है. जीत का सेहरा कलाकारों के सिर बाँधते हुए, तालियों की गड़गड़ाहट इसके निर्देशक लक्ष्मण उटेकर के लिए भी होनी चाहिए. क्योंकि उन्होंने ही यह साबित किया कि गंभीर विषय पर चर्चा मुस्कुराते हुए हो, तो उसका असर गहरा और प्रभावी होता है. ए.आर.रहमान का नाम देख यदि अपेक्षाएं हावी न हों तो गीत संगीत ठीक-ठाक है. यद्यपि फ़िल्म के इस पक्ष पर अधिक ध्यान नहीं जाता क्योंकि हमारा मन तो इस कहानी से इतर कहीं भटकता ही नहीं! 

एक बार फिर याद दिला रहे हैं  कि पहली फ़ुरसत में ही इसे देख डालिए, क्योंकि 'इट्स नथिंग लाइक व्हाट यू आर एक्सपेक्टिंग'. 

बधाई हो! हमारा सिनेमा बदल रहा है!

- प्रीति अज्ञात 

आप इसे यहाँ भी पढ़ सकते हैँ -

https://www.ichowk.in/cinema/mimi-movie-review-on-netflix-pankaj-tripathi-kriti-sanon-starrer-mimi-is-one-of-the-best-film-in-recent-time-reasons-stating-why/story/1/20971.html

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फोटो: साभार गूगल 



गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मन दौड़ने लगता है....

बीते समय में एक ज्ञान हमने बहुत अच्छे से ले लिया है कि जब तक किसी बात को कहने के लिए दिल स्वयं राजी न हो, जुबां पे ताला लगाकर रखना चाहिए. बिना सोचे-समझे कुछ भी बोल देने से लेने के देने पड़ जाते हैं. यूँ तो इस संदर्भ से जुड़े कई किस्से हैं लेकिन अभी आपको ताजातरीन घटना सुनाती हूँ. 
एक दिन रफ़ी साब की बात चल रही थी. चर्चा में पूरी तरह सहभागिता दर्शाते हुए हमने आगे होकर कह दिया कि किशोर और रफ़ी का कोई मुक़ाबला ही नहीं! गायन के मामले में मोहम्मद रफ़ी का अंदाज़ तो अद्भुत है ही, लेकिन किशोर दा भी कहीं उन्नीस नहीं ठहरते जबकि उन्होंने तो संगीत की विधिवत शिक्षा भी नहीं ली है. अब शायद तब हमारी बुद्धि ही भ्रष्ट हो चली थी जो हमने इसमें एक पंक्ति और जोड़ दी कि 'मुकेश मुझे उनसे कम पसंद हैं." मेरा यह मानना है कि जब कोई 'कम पसंद' कहता है तो वह उस इंसान की आलोचना नहीं कर रहा होता बल्कि अपना रुझान बताना चाहता है. लेकिन मित्रों के सामने इतनी आसानी से कोई बात कह बचकर निकल जाओ तो लानत है ऐसी मित्रता पर! 
रफ़ी-किशोर की प्रशंसा तत्काल समाप्त करके मित्र की सुई मुकेश पर अटक गई. उन्होंने हमारी बात को सुन तुरंत ही जिस टोन में 'अच्छा!' कहा, हम समझ गए कि "अबकी कुल्हाड़ी पर सीधे ही पैर मार लिया है हमने, बचना मुश्किल है". उनकी खतरनाक मुखमुद्रा देख हमें अपनी गलती का जरूरत से ज्यादा ही एहसास हो गया था. सच्चाई यह है कि मुकेश ने राज कपूर जी के जितने भी गाने गाए हैं, हमने जमकर सुने हैं और सदैव दिल से उनके प्रशंसक रहे हैं. इसके अलावा भी बेशुमार बेहतरीन गीत हैं उनके. 

तो हमने बात संभालते हुए कहा, "अरे! मेरा ये मतलब नहीं था. राज कपूर जी की तो आवाज़ थे वे. आवारा, श्री 420, संगम, मेरा नाम जोकर, अनाड़ी और कितनी ही अनगिनत फ़िल्मों का पार्श्वगायन उन्होंने किया है. जिस देश में गंगा बहती है का 'होठों पे सच्चाई रहती है' गीत तो हम भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि गीत मानते हैं. 
तुमको क्या पता, जब हमको प्रेम हुआ था न तो हमने अपने प्रेमी को सबसे पहले यही गीत सुनाया था, "खयालों में किसी के, इस तरह आया नहीं करते" और चिट्ठी लिखकर हम दोनों ने परस्पर "फूल तुम्हें भेजा है खत में" भी गुनगुनाया था. सावन के महीने में पवन ने उन दिनों भी खूब सोर किया था. हमारे नसीब में बिछोह था जिसके कारण रो-रोकर "छोड़ गए बालम, हमें हाय अकेला छोड़ गए" का सहारा भी हमने लिया ही है". 

हमारे दुख को दरकिनार कर मित्र ने दूसरी गोली दागी. "राज कपूर जी की तो आवाज़ थे वे!!!" ये कहकर आप क्या सिद्ध करना चाह रही हैं? दिलीप कुमार से लेकर अमिताभ तक सबको सुपरहिट गाने दिए हैं उन्होंने". अब हम समझ गए कि उन्होंने हमारी बात सीधे दिल पर ले ली है, समझाने का कोई फायदा नहीं! हाथ जोड़कर शब्द वापिस लेना ही एकमात्र उपाय बचता है. शर्मिंदगी में सिर को जमीन में गाड़ते हुए भरे गले से हमने कहा कि 'हाँ, दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा', 'कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है', 'मैं पल दो पल का शायर हूँ, मुझे भी बेहद प्रिय हैं. उन्होंने तो मनोज कुमार, संजीव कुमार, राजेश खन्ना सबके लिए शानदार गाया है. 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए', 'महबूब मेरे', 'धीरे-धीरे बोल कोई सुन न ले', 'कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे', 'इक प्यार का नगमा है','सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं', 'चल अकेला' और ऐसे ही शानदार सैकड़ों गीत उनके खाते में हैं. तभी तो उनकी आवाज़ को 'गोल्डन वॉयस' कहा जाता है". हमने उनकी जानकारी में इज़ाफ़ा कर रिरियाते हुए अपनी खिसियाहट दूर करने की एक और नाकाम कोशिश की. 

खैर! दिल का मामला था और वो भी संगीत से जुड़ा. दोनों पक्षों का भावुक होना स्वाभाविक था.  हम मौन होकर 'दोस्त दोस्त न रहा', 'सजन रे झूठ मत बोलो', 'सजनवा बैरी हो गए हमार' जैसे दर्द भरे नगमों में डूब गए. उस दिन इतने गहरे दुख और सदमे में चले गए थे कि स्वयं ईश्वर ने आकर हमारी स्मृति से सभी गायकों को विलुप्त कर केवल मुकेश को छोड़ दिया था. हम तबसे यही सिद्ध करे जा रहे हैं कि वे मेरे भी प्रिय गायक हैं. 
लेकिन सच तो ये है कि हम उन्हें दीवानों की तरह चाहते हैं. हमारे दुख को उन्होंने अल्फ़ाज़ दिए हैं. 'वक़्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते', 'दीवानों से ये मत पूछो', 'मुझको इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो' ने हमारे आँसुओं को खूब कांधा दिया है. 
उस दिन जरूर हम, अपनी बात हम ठीक से रख नहीं पाए थे, इसलिए मित्र की नाराज़गी छलक पड़ी. बाद में उनको हमने ग्रुप छोड़ते हुए 'हम छोड़ चले हैं महफ़िल को, याद आए कभी तो मत रोना' गीत व्हाट्स एप कर दिया था.  जिस पर उन्होंने सहृदयता दिखाते हुए हमें मुस्कान वाला इमोजी भेजा था. 

लेकिन मुकेश जी, आप तक हमारा प्यार पहुँचे. सैकड़ों गीतों के साथ-साथ, आपके लंदन अल्बर्ट हॉल वाले कार्यक्रम का कैसेट भी था घर में, जिसे सुनकर हम बड़े हुए हैं. पता नहीं कैसा जादू है आपकी गायकी में कि हजारों बार सुनकर भी जी नहीं भरता! आपके गीत इतना चलाते थे कि कई बार कैसेट की रील उलझ जाती. फिर जैसे-तैसे उसमें पेंसिल फंसा धीरे-धीरे घुमाते और ठीक करके ही दम लेते थे. जब तक ठीक न होता, मुँह लटका ही रहता था. 
आप सबके प्रिय गायक हैं और हमेशा रहेंगे. मन टेप रिकॉर्डर और कैसेट के जमाने की स्मृतियों के पन्ने पलट रहा है. एक बार फिर रजनीगंधा महक रहा है. आप मन के भीतर उतर आए हैं, रील गोल गोल घूमने लगी है -
कई बार यूँ भी देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता है
अन्जानी प्यास के पीछे
अन्जानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता है....  
- प्रीति अज्ञात 
#मुकेश #mukesh_birthday #newblogpost #preeti_agyaat #हिन्दीफ़िल्मसंगीत #हिन्दी_गाने #मुकेशस्मृति 




बुधवार, 21 जुलाई 2021

चाय में डूबे बिस्कुट की भी अपनी एक कहानी है

आलू गोभी, कढ़ी चावल, छोले कुलचे की तरह एक और भारतीय जोड़ी है चाय-बिस्कुट की. लेकिन इन दोनों का किस्सा ही अलग है. हम ये बात आज तक नहीं समझ सके कि चाय के साथ अगर बिस्कुट या टोस्ट आता है तो उसको डुबोना किसलिए है? आखिर इनके मेलजोल की प्रथा कब से प्रारंभ हुई? अब सुबह-सुबह बिस्कुट महाराज हाथ से ऐसे फिसले जैसे गंगा नहाने घाट से उतर गए हों. खुद तो डूबे ही सनम, हमारी सुबह भी ले डूबे हैं. हम तो इतने आहत हैं कि क्या ही कहें!

सच मानिए, जीवन में असली दर्द की पहचान तो तब होती है जब सुबह की पहली चाय के साथ अपना बिस्कुट खुदकुशी कर ले. आप सबने भी यह दुख कभी न कभी झेला ही होगा! ये भी जानते ही होंगे कि यही दर्द तब नासूर बन जाता है जब उस दिवंगत बिस्कुट को बचाने के चक्कर में, बचा हुआ भी डूब जाए! आज इस गहरे ज़ख्म की पीड़ा की प्रक्रिया से इतना बुरी तरह गुजरे हैं हम. क़सम से पहली बार तो दिल पर पत्थर रख लिया था हमने और वक़्त के इस घनघोर सितम को चुपचाप सह गए थे. लेकिन दूसरी बार तो यूँ लगा जैसे बचाव दल (रेस्क्यू टीम) का एक बंदा खामखां शहीद हो गया. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उसे तो बचाया जा सकता था!  लेकिन अब अफ़सोस के सिवाय और कुछ हाथ न था. इस गरीब के किचन में वही दो बिस्कुट शेष थे जो आज साथ छोड़ गए. गए भी तो वहाँ, जहाँ से आज तक कोई भी साबुत न लौटकर आ सका. ज्ञानी लोगों ने तो कब का बता दिया था कि कमान से निकला तीर, मुँह से निकले शब्द और चाय में डूबे बिस्कुट को लौटा पाना असंभव है. अब मति तो हमारी ही मारी गई थी कि ज्ञानियों की बातों को हल्के में ले लिया. 

अच्छा! अब आप सोच रहे होंगे कि हमने कौन सा बिस्कुट लिया था. तो हमें यह बताने में रत्ती भर भी संकोच की अनुभूति नहीं हो रही कि ये वही आयताकार खाद्य पदार्थ है जो कि सृष्टि के निर्माण के समय से ही इस धरती पर विद्यमान है. जी, हाँ पारले- G. हमारा तो यह भी मानना है कि ईश्वर ने जब मनुष्य को इस धरती पर भेजा तो टोसे में केतली भर चाय और पारले- G का पैकेट साथ बाँध दिया था. हो सकता है, उन्होंने स्वयं भी अपनी थकान दूर करने के लिए यही खा कर आराम किया हो. तभी तो इसे वरदान प्राप्त है कि युग आते-जाते रहेंगे पर तुम सदैव, सर्वत्र उपस्थित रहोगे.

अब ऐसा भी नहीं कि हमने इसके विकल्प न तलाशे हों. गोल मैरी ट्राई किया पर वो पूरा बैरी निकला. क्रेक्जैक और 50-50 टाइप  को तो स्वयं चाय ने ही ठुकरा दिया. बोली, "मुझे पाने वाले में कुछ तो क़शिश और मौलिकता होना माँगता है बेबी! ये सब तो मोनको की कॉपी करके बड़े हुए हैं". कई चॉकलेटी बंदे भी इस स्वयंवर में आए लेकिन अपने लावा को भीतर ही घोल पराजित हुए. इधर ये कमबख्त पारले यह सोच मंद-मंद मुस्कुराता रहा, मानो कह रहा हो, "अजी, हमसे बचकर कहाँ जाइएगा, जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा!" जाने किस फॉर्मूले से बना है कि इसके सिवाय और कुछ जँचता ही नहीं! या फिर चाय ही नहीं चाहती होगी कि उसके जीवन में कोई नयापन आए. उसे बदलाव की चाहत ही न रही. शायद उसी बोरिंग लाइफ की अभ्यस्त हो चली है.

लेकिन तनिक विचारिए, उस चाय के दिल पर क्या बीती होगी जिसे अपनी बाँहों में समाए उसका प्रेमी चल बसा. आखिर चाय और मुँह के बीच फ़ासला था ही कितना! वैसे भी उस समय कप टेबल और मुख के मध्य स्थान पर लहराती उंगलियों के चंगुल में था. बस, जरा सी ही दूरी तो तय करनी थी. लेकिन ये बेवफ़ा अपनी प्रिया का साथ न दे सका और दो क़दम चले बिना ही एन मौके पर दम तोड़ गया.

यद्यपि हमें इससे सहानुभूति भी कुछ कम नहीं. हमारा वैचारिक गुरु भी यही है. एक बार जब हम अपने प्रेमी की स्मृतियों में औंधे पड़े टसुए बहा रहे थे तब इसी ने सचेत किया था. कह रहा था कि किसी में ज्यादा डूबोगी, तो टूट जाओगी. और आज, खुद ही ऐसा डूबा, ऐसा डूबा कि कोई न बचा सका. आज के जमाने में कोई नैतिक शिक्षा लेना तो नहीं चाहता, पर भावुक मन से बस इतना ही कहेंगे कि मोहब्बत में 'दो ज़िस्म एक जां की तरह' ऐसा डूबो, ऐसा डूबो कि अलग करना मुश्किल हो जाए. इश्क़ करो तो चाय-बिस्कुट की तरह एकाकार हो जाओ.

खैर! यह हादसा ऐसा है जो हम सबके साथ कभी न कभी हुआ है. सच कहूँ तो चाय में डूबा बिस्कुट हमारी भारतीयता की पहचान है. यही वह भीषण दुख और दर्द से भरा रिश्ता है जिसने हम सबको एक सूत्र में बाँधे रखा है. लेकिन अगर डूबने से डर लगता है तो जरा संभलकर रहिए.

कहीं पढ़ा था, "चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते". लेकिन हम कहते हैं, उन पर से ध्यान नहीं हटना चाहिए. न जाने कब उन्हें हमारे सहारे की जरूरत पड़ जाए.  हाँ, लेकिन डूबे हुओं के किस्से मन को भीतर से तोड़ देते हैं! डूबे हुए बिस्कुट को निकालने में संघर्षरत इंसान को देख हमारा तो कलेजा एकदम से फट जाता है जी.  

अच्छा, चलते-चलते एक जरूरी बात और बताते चलें कि अंग्रेजी के 'बिस्किट' सर, हिन्दी पट्टी में आते ही 'बिस्कुट' भाईसाब बन जाते हैं क्योंकि हम लोग चुटुर पुटुर चीज़ों को कुटुर -कुटुर खाते हैं. 

- प्रीति 'अज्ञात'

20/07/2021 

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शनिवार, 10 जुलाई 2021

जब चोर की चिट्ठी ने हमें भावुक कर दिया!

कुछ खबरें ऐसी होती हैं जिन्हें जानने के बाद हम जैसे होमो सेपिएन्स बेहद कन्फ्यूज़ हो जाते हैं. मतलब रत्ती भर भी समझ नहीं आता कि भावुक होकर प्राण तज दें या केवल सिर धुनकर ही इस दिल की बेचैनी को क़रार दें!. 

बताइए, ये भी कोई बात हुई कि एक बंदे ने चोरी की और उसपे सॉरी नोट भी छोड़ गया! कि "मैं मजबूर हूँ. जैसे ही पैसे जमा होंगे, सूद समेत तुम्हारे पास फेंक जाऊँगा. मैं अच्छा इंसान हूँ".  हालांकि इसमें 'फेंकना' शब्द पर मुझे घोर आपत्ति है, थोड़ी शालीन भाषा का प्रयोग किया जा सकता था. पर कोई न! जल्दी में बेचारे के मुँह से निकल गई होगी. वरना उफ़्स! इतना क्यूट और मासूम चोर, न भूतो न भविष्यति! 

मुझे तो लग रहा कि इसका पत्र पढ़कर पीड़ित पक्ष भी एक-दूसरे के गले लग बिलख-बिलख रोया होगा. शायद आँखों ही आँखों में परस्पर बधाई का आदान-प्रदान भी कर लिया हो कि हम कितने भाग्यशाली हैं जो एक चरित्रवान, संवेदनशील और ईमानदार चोर ने हमारा घर चुना. घर की एक-एक ईंट अपने भाग्य को सराह रही होगी कि कैसे एक देवदूत ने उन्हें स्पर्श कर दैवीय बना दिया. 

अच्छा! ये भी इतिहास में पहली बार ही दर्ज़ समझिए कि जब चोर ने अपने ही पर्सनल हाथों से अपना चरित्र प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया हो. सोचिए, चोरी के उन नाजुक क्षणों में जहाँ एक-एक पल कीमती होता है. साँसों की मद्धम आवाज़ भी गुस्ताख महसूस होती है, वहाँ इस मासूम ने चिट्ठी लिखते समय अपनी जान की तनिक भी परवाह न की. हे युवक! तेरी इस वीरता की कहानी पाठ्यपुस्तक का हिस्सा बनेगी. 
सिर्फ़ इतना ही नहीं मैं तो यह सोचकर भी परेशान हूँ कि हिन्दी साहित्य इस बाँके जवान के निश्छल कृत्य से कैसे उऋण हो सकेगा! आखिर उसने रुपये उठाने के साथ-साथ, लुप्त होती पत्र-लेखन विधा को पुनर्जीवित करने का बीड़ा भी तो उठाया है. 

ओ मोरे खुदा! ओ माय भगवन! मतलब इन जैसे लोग हम डिजिटल कार्ड वालों को तो डायरेक्ट गिल्ट में ही मार के चले गए! क्या बताएं! एक जमाने में हम भी दो-दो किलोमीटर लंबी चिट्ठियां लिखा करते थे. अब लज्जा से मुंडी जमीन में धंसी जा रही है. तरन्नुम में सोचती हूँ "हम कितने मासूम थे, क्या से क्या हो गए देखते-देखते!" 
खैर! कलेजे पर पत्थर रख हमने इन मजबूर महाशय को कोसने की बजाय इनकी प्रशंसा का मन बना ही लिया था. अभी प्रशस्ति पत्र का प्रारूप दिमाग की अटरिया में उमड़-घुमड़ ही रहा था कि हाय रे! हमारे कोमल दिल पर एक और आकस्मिक भारी जुलुम हो गया. अब इसे भाग्य की विडंबना कहें या अपने अथाह पनौतीपन की जानी-पहचानी कंटिन्यूटी. पता चला, मामला भिंड (म. प्र.) का है. 

अब साब! लेट मी क्लियर माय ऑरिजिनल मन की बात, कि मामला जब जन्मभूमि (माना कि हम राम जी नहीं, पर कहीं तो पैदा हुए हैं न!) से जुड़ा हो तो संवेदनशीलता अलग ही लेवल पर भभककर बाहर आने को दौड़ती है. आपने एकदम ठीक समझा, भिंडी ऋषि की यह पावन भूमि इस नाचीज़ की अवतरण स्थली भी है. भई, यहाँ का अपना एक समृद्ध इतिहास है. गौरी सरोवर है, किला है. ग़ज़ब की खूबसूरती है, गुलाब की पत्तियों से महकते लिपटे पेड़े तो दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं ही. यहाँ की प्रतिभाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में खूब नाम कमाकर शहर को गौरवान्वित किया है. एक तो आपके सामने अभी है ही. खी खी खी. 

हमें पता है आप मन में क्या सोच रहे हैं! तो सुनिए, ये जो थोड़ी इमेज खराब हुई भी है वो इस चक्कर में कि यहाँ नेक डाकू-वाकू हो गए थे कभी. जैसा कि हमने अभी ही अपने भावपूर्ण उद्बोधन में कहा कि जगह तो लल्लन टॉप है. उसी को विस्तार देते हुए बता रहे हैं कि इधर इटावा वाली साइड में जो बीहड़ है न, वो पहले विला टाइप फ़ील देता था. तो कुछेक दस्यु सम्राट और साम्राज्ञी भी इसी चक्कर में यहाँ सेटल हो गए थे. मल्लब उन की और उनकी बंदूक की पदचाप यहाँ की फिज़ाओं में बेतहाशा गूँजी हैं. लेकिन इस भ्रम में न रहिएगा कि इसके लिए केवल भिंड ही जिम्मेदार है. न, बेटा न! ऐसी मिस्टेक गलती से भी मत करना!
आपने लक्ष्मी-प्यारे, शंकर-जयकिशन, नदीम-श्रवण, सलीम सुलेमान, विशाल-शेखर आदि की संगीत जोड़ी का नाम तो सुना ही होगा.  बस, ठीक वैसे ही हमाई जन्मस्थली की भी जोड़ी याने द्वय है जी. लोग जब डाकुओं का जिक्र करते हैं न, तो बड़े सम्मानपूर्वक भिंड-मुरैना एक साथ जपा जाता है. 

वैसे विषय से इतर एक बात बताएं आपको? पर पिलीज़ पहले प्रॉमिस कीजिए कि आप इसको घमंड समझ, हमको सेलिब्रिटी समझने की भूल कतई न करेंगे. वो बात ये है कि हमको भी दस्यु सुंदरी फूलन देवी और श्री मलखान सिंह जी के साक्षात दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है. पर वो कहानी फिर कभी! अभी जरा चोरी की इस प्रेरणास्पद घटना पर ठीक से पिरकास डाल लें!

तो आगे का किस्सा ये है कि आदरणीय चौर्य महोदय ने अपनी वीरगाथा सुनाते हुए एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी भी दी. सूत्रों से बात करते हुए उन्होंने बताया कि उन्होंने 'धूम-3' के नायक की तरह 'अच्छा काम' किया है. उनके लिखे पत्र में भी धूम-3 और उनके अच्छे इंसान होने की पुष्टि की गई है. लेकिन अंदर की खबर यह है कि पुलिस कुछ पुष्टि स्वयं ही करने की इच्छुक पाई गई है. हो सकता है कि भिंड पुलिस ने ही ससम्मान इस नवयुवक के माथे पर लड्डू उगाके उस को सूद समेत घर लौटाने का मन बना लिया हो. 

जो भी हो, देश भर के अखबारों में इस अच्छे इंसान की धूम मची है. चोरी वोरी की बात कौन करे! वो तो रोज का किस्सा है जी. अपन को तो सेंटीमेंटल होना जमता है. तभी तो खुशी से मेरी शुष्क आँखें छलक उठी हैं. इंतज़ार की घड़ियाँ समाप्त हुईं. अंततः हमारे भिंड के अच्छे दिन आ ही गए! हौसला न छोड़ना. आपके भी आएंगे. 

रात के तीन बजा चाहते हैं. लेकिन सुंदर कल्पनाओं से मन का आँगन सजा हुआ है. हौले-हौले सतयुग में लौट रहे हैं हम. इस सतत प्रक्रिया के मध्य में सिबाका फिर से बिनाका गीतमाला बन चुकी है. अपने अमीन सयानी जी चहकते हुए कह रहे हैं, ऊँ हूँ आहा, तो भाइयों और बहनों, इस बार चार छलाँगे ऊपर लगाता हुआ पायदान नंबर एक पर पहुँचा है, ये गाना -
दुख भरे दिन बीते रे भैया 
अब सुख आयो रे 
रंग जीवन में नया लायो रे 
आए हाए दुख भरे दिन बीते रे भैया, बीते रे भैयाआआ 
- प्रीति अज्ञात 
फोटो: न्यूज का स्क्रीन शॉट लिया है. चिट्ठी हमारे घर नहीं आई थी. 
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