गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

जब रावण की लगी लंका!

कल का दिन रावण के लिए कुछ ठीक नहीं गया। माना कि उसकी पुण्यतिथि की शुभकामनाओं वाला दिन था पर इसका ये मतलब थोड़े न कि हर कोई उसे लपेटे में ले ले। जिसे देखो, वही ज्ञान दिए जा रहा था। चलो, ज्ञान वाली बात तो फिर भी क़ाबिले बर्दाश्त है लेकिन उसके व्यक्तित्व से जो खिलवाड़ हुआ, उसका क्या? जो भी हुआ, पूरा घटनाक्रम उसकी मर्यादा के घोर विरुद्ध था। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि उक्त घटना के बाद, कल रात्रि से लंकेश न केवल आहत अनुभव कर रहे थे बल्कि उन्होंने इस कृत्य की कड़ी निंदा भी की। संवाददाताओं से चर्चा के दौरान नम आँखों से उन्होंने अपना दुख व्यक्त किया। साथ ही यह भी स्वीकार किया कि वे नाहक ही अपनी बुद्धि और शक्ति पर घमंड कर बैठे थे और भगवान जी से पंगा लेने की धृष्टता कर डाली थी। तब उन्हें क़तई इल्म नहीं था कि कलयुग में उनसे भी बड़े सूरमां जन्म लेंगे और बड़ी बेदर्दी से उन्हें भिगो-भिगोकर मारेंगे!
भिया! ये कोई मुहावरा नहीं है! सौ फ़ीसदी सच्ची बात है! बताइए तो, पहले कागजों पर लाखों खर्च कर माचोमैन वाला लुक देने के लिए खपच्चियों का फ्रेम बनवाया गया। उस पर बढ़िया रंगरोगन कर उन्हें खूब सजाया भी गया। चेहरे पर गुरूर का जो भभका पसरा था, उसकी छटा ही निराली थी लेकिन मुई बारिश ने पुतले के साथ हुए सौतेले व्यवहार और भ्रष्टाचार की सारी कलई खोल दी! रावण के दुख की कोई लक्ष्मण रेखा ही न थी। बोला,"कैसे अभियंता हो? इत्ते रुपैया में तो मैंने लंका खड़ी कर दी थी। तुम खर्चने के बाद भी मुझे ठीक से खड़ा नहीं कर पा रहे हो! असुर मित्रों ने बताया कि एक जगह तो मैं खड़े-खड़े ही लुढ़क लिया। यहाँ गल रहा हूँ, वहाँ ढह रहा हूँ। ये कौन सा युग है भाई! हमारी कोई इज़्ज़त फ़िज़्ज़त बची है कि नहीं? कहीं लोग ठेले पे लिए घूम रहे, कोई कौड़ी के भाव बेच रहा तो कोई लाखों में! हमारी डिग्निटी तो मेंटेन करो। ग़ज़ब स्यापा मचा रखा है! क्या यही दिन देखना बाकी रह गया था।" एक किशोर जो ध्यानपूर्वक सारी बातें सुन रहा था, सवा दो इंच की दूरी बनाते हुए उसने रावण जी के घुटने टच कर चरण स्पर्श वाला पोज़ दिया और बड़ी गंभीरता से बोला, “अब इज़्ज़त फ़िज़्ज़त आउटडेटेड हैं बाउजी। विकास के दौर में पूर्वजों की फ़ज़ीहत का जमाना है। किसी की जयंती हो या पुण्यतिथि, हम तो इसी भाव के साथ सेलीब्रेट करते हैं अब। आप तो वैसे भी सत्यापित बुरे प्राणी हो।“
“ओह! मेरे राम ने भी ऐसा न कहा था कभी।“ रावण रुँधे गले से बोला। अब दुख तो जायज था। उस पर इधर दस में से 8 सिरों के हेलमेट (मुकुट) गलकर, पीठ पर चिपक, समय पूर्व ही सामूहिक रूप से भगवान को प्यारे हो गए। देह पर लिपटी रंगीन पन्नियों ने भी अनायास ही विलुप्त होकर सारे तंत्रों का पर्दाफाश कर दिया। हृदय, फेफड़े, यकृत, आमाशय, पित्ताशय एक दूसरे को हैलो करने की नाकाम कोशिश कर एक दूसरे से यूँ टकराते रहे जैसे इंटरव्यू की पंक्ति में लगे बंदे एक-दूसरे से टकराते हैं। कुल मिलाकर परस्पर संशय भाव और अपने अस्तित्व के संघर्ष की पूरी कहानी उस खोखले ढांचे के हर हिज्जे से बयां हो रही थी। अपनी यह गत देखकर माननीय रावण जी स्वयं लज्जित मुद्रा में थे। पूरे समय वे यह कामना करते रहे कि कब धरती फटे और उन्हें अपनी पनाह में ले ले! आत्महत्या का कुत्सित विचार रह-रहकर उनके तंत्रिका तंत्र को उद्वेलित किए जा रहा था। लेकिन ऐसे कैसे! अभी तो अपमान का सीक्वल आना शेष था।
एक-एक कर बारिश उनके वस्त्रों को लीलती रही और फिर वह समय भी आया जिसकी कल्पना भी उनको सिहरा रही थी। अब उनकी देह पर कुछ भी शेष न था। वो अभिमान, वो चमक, वो अट्टहास सब एक बारिश के आगे मिमियाए पड़े थे। उसने तो जल निकास की उत्तम व्यवस्थाओं को देखा था, सो इस बुरेमानुस को क्या पता कि इत्ती बारिश में तो हियाँ बाढ़ में अपन मय रसोई बह लेते हैं।
खैर! रावण जी के नाम पर फिलहाल 300 से 2000 रुपये प्रति फुट (शहरानुसार) की दर से बना जो ढिशक्याऊं ढाँचा सामने दृश्यमान था, उसमें और ट्रेन से यात्रा करते समय रास्ते में कान के बाले से पहने हुए बिजली के जो बड़े-बड़े खंभे मिलते हैं न; में कोई फ़र्क़ न था। दूर कहीं गीत बज रहा था, "बाबूजी, जरा धीरे चलो/ बिजली खड़ी यहाँ बिजली खड़ी" अंकल जी ने दबे स्वर में कहा कि "जी बिजली नहीं, जे तो हम हैं। एक जमाने में हमारे नाम का जलवा था। पूरी लंका थरथर कांपती थी। युगों का जुलम देखो, हमारी ही लंका लग गई।"
उस पर सितम यह कि जिन मुख्य अतिथि महोदय को तीर-ए-नाभि के अभूतपूर्व प्रदर्शन हेतु पधारना था, उनकी दूर-दूर तक कोई ख़बर न थी। रावण अचंभे में था कि कैसा जमाना आ गया है! कहाँ तो सदियों पूर्व मुझ तक पहुँचने के लिए समुद्र पर पुल निर्मित कर लिया गया था और इन ससुरों से एक बारिश न संभल रही! क्या खाक तरक्की की है इन मानुसों ने! हमारे वनमानुष इनसे ज्यादा बुद्धिमान थे। उसने मन ही मन भन्नाया, 'तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएं!" तत्पश्चात ईश्वर को पुनः याद करते हुए उनके कमेंट बॉक्स में नमन लिखा। इनबॉक्स में संदेसा भेजा कि अब और प्रतीक्षा न करवाओ, और इम्तिहान मत लो न पिलीज़! बस जल्दी से छाता देकर नेता जी को भिजवाओ। ऊ का है न कि बारिस में हमार नाभि तो न मिलिहे पर साहिब पधारें तो हमका तनिक मोक्ष ही मिल जाही!
कहीं खेत में खड़े बिजूके की तरह उसकी प्राण प्रतिष्ठा भी की गई। उसे स्वयं, अपने निजी व्यक्तित्व को देख जोर की हँसी आ गई कि काश! मैं सचमुच इतना हँसमुख, छरहरा और क्यूटी पाई होता तो कोई मेरी लंका न लगाता! उसने वहाँ खड़े एक युवक से पूछा कि "भई,जब करोड़ों में राशि आबंटित की गई है तो मुझे सैकड़ों में क्यों निबटा दिया? देखो, कितना कुपोषित लग रहा हूँ! सब मेरा उपहास उड़ा रहे!" युवक ने अट्टहास करते हुए कहा कि "तुम्हारा तो दहन ही होना है। इतना पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत?" उसके इतना कहते ही सब हँसने लगे। हर दिशा से अट्टहास की गूँज वातावरण को और अश्लील बना रही थी। जिधर देखो, उसे स्वयं से भी अधिक भयावह चेहरे नज़र आ रहे थे। अब रावण के दुख का पारावार न था।
क्रोधाग्नि और अपमान की ज्वाला में धधकते हुए उसने बगल में खड़े पुलिस वाले की जेब से कट्टा निकाल अपने कान संख्या क्रमांक 1 में डाल ट्रिगर दबा दिया। कुल जमा 19 कनपुरिया मार्गों से गुजरती हुई गोली जब 20 वें कर्णपटल से बाहर निकली तो उसके होश फाख्ता थे। पसीने से लथपथ हाँफते हुए गोली बोली कि “भिया कौन गली में भेज दिए थे हमको? एक तीर से दो शिकार तक तो बात समझ आती है, तुमने 20 की बैंड बजवा दी! अब हमको एनर्जी ड्रिंक लगेगा।” तभी जमीन पर लहराते, गश खाते रावण जी बोल उठे, “क्षमा करें मैम! पर मैं एक ही हूँ। न जाने किस ग्रह पर मेरी आत्मा विचरण कर रही है कि अब तक शांति न मिल सकी! हे राम! अब मुझे इस ब्रह्मांड से मुक्ति दे दो!”
रावण के मुखारविंद से 'हे राम' की ध्वनि उच्चरित होते ही आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी और एक बार फिर रावण को अपार जनसमूह के साथ विदाई दी गई। सभी ने बुराई पर अच्छाई की जीत को महिमामण्डित कर मामले को रफ़ा दफ़ा किया।


बुधवार, 5 अक्टूबर 2022

‘विजयादशमी’ का संदेश वैश्विक है

विविध संस्कृतियों से सुसज्जित हमारा देश मूलतः उत्सवधर्मी देश है। जीवन में निरंतर उत्साह और उल्लास बना रहे, सब मिल-जुलकर सुख से रहें, ईर्ष्या-द्वेष का कोई भाव न हो और समाज में शांति-सद्भाव स्थापित रहे; त्योहार इसी संदेश के साथ हमारी परंपराओं में घुले-मिले हैं। ‘विजयादशमी’ भी ऐसा ही पर्व है। लेकिन सदियाँ गुजरती जा रहीं हैं पर मनमानी का रावण कहाँ मर पा रहा है! जिस मर्यादा की रक्षा हेतु पूरी रामायण रच दी गई, वह आज और भी अधिक टूट रही है। स्त्री के मान, आदर सत्कार की जो मर्यादा स्थापित की गई थी, वह पूर्णतः छिन्न-भिन्न हो चुकी है। लक्ष्मण रेखाएं रोज लांघी जा रहीं हैं। स्त्रियों के प्रति अपराध के आँकड़े अब शर्मिंदा करने लगे हैं। यह संघर्ष लंबा चला आ रहा है और ये लड़ाई भी अनंत है। क्या एक पुतले का दहन कर ही इतिश्री मान लें? भीतर के रावण का क्या? हम तो राम न बन सके लेकिन बहुरूपिया रावण हर जगह उपस्थित है।

‘विजयादशमी’ या ‘दशहरा’ मात्र धार्मिक उत्सव नहीं है और न ही यह राम और रावण के बीच हुए युद्ध के अंतिम दिवस की गाथा भर है! बल्कि इसमें सम्पूर्ण मानव जाति के लिए सामाजिक संदेश निहित है। देखा जाए तो यह धर्म निरपेक्ष, जाति निरपेक्ष, पंथ निरपेक्ष त्योहार है जिसे विश्व भर में मनाया जाना चाहिए। इसलिए ‘विजयादशमी’ को मैं एक वैश्विक त्योहार और मानवता के लिए संदेशवाहक की तरह देखती हूँ। संदेश यह कि जीवन में चाहे कितनी ही कठिन परिस्थितियों से क्यों न गुजरना पड़े, अंततः जीत सत्य की ही होती है। सत्य को हथियार बनाकर चलने वाला व्यक्ति चाहे घने जंगलों में हो या उसके मार्ग में अथाह समुद्र भी क्यों न आ जाए, वह समस्त दुर्गम राहों को अपनी बुद्धि, कौशल, दृढ़ता और सच्चाई की शक्ति के साथ पार कर सकता है। सत्य, निर्भीक, अटल होता है इसलिए उसे झुकाने का दुस्साहस करने वाला भी एक बिंदु पर आकर अपनी पराजय स्वीकार कर, उसके सामने नतमस्तक हो ही जाता है।
जब हम एक कहानी सुनते हैं कि कैसे महलों को त्याग जंगल में निकले दो लोग, एक पराक्रमी राजा को परास्त कर विजयी भाव धारण करते हैं तो यह वीर गाथा असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में प्रस्तुत होती है। लेकिन इससे यह सीख भी मिलती है कि यदि किसी के विचार उत्तम हों और उद्देश्य पवित्र तो प्रत्येक समस्या का समाधान निकलेगा। वहीं कोई भले ही बलवान हो लेकिन उद्देश्य अपवित्र है, तो वह अपनी पूरी सेना के साथ मिलकर भी उसे नहीं पा सकता! रावण प्रकांड विद्वान और महाबलशाली था, जिसने घोर तपस्या से अमरत्व भी प्राप्त कर लिया था लेकिन फिर भी वन-वन भटकते प्रभु श्रीराम के सामने उसकी एक न चली। कारण स्पष्ट है कि उसके भीतर अहंकार था, कुछ पाने की कुचेष्टा थी, बल के प्रयोग से सब कुछ हासिल कर लेने का दंभ ही उसकी मृत्यु का कारण बना।
लंकाधिपति, दशानन की महानता को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। हम यह जानते हैं कि वह इतना बुद्धिमान था कि दस सिर उसके ज्ञान का प्रतीक हैं। यह भी हमारे अधिकार में है कि हम कोई भी स्रोत को सच मानकर स्वीकार करें। लेकिन भले किसी भी ग्रंथ से इस गाथा को पढ़ें, प्रत्येक से सीख एक सी ही मिलेगी कि अच्छाई के प्रकाश के समक्ष, स्याह बुराई का विनाश सुनिश्चित है। दुराचार के ऊपर सदाचार ही जीतता है और घमंड को टूटते देर नहीं लगती! यह भी ज्ञान मिलता है कि मायामोह से दूर, सच्चा व्यक्ति भले ही अकेला प्रतीत हो लेकिन उसका साथ देने को पूरी सृष्टि आ खड़ी होती है। हम इस तथ्य को भी गांठ बाँध लेते हैं कि जब हमारे परिजन, शुभचिंतक समझाते हैं तो उसे ध्यान से सुनना, समझना चाहिए। रावण से यहीं गलती हुई। उसे तीनों लोकों ने समझाया, अपवित्र कार्य करने से रोका परंतु उसने किसी की एक न सुनी। परिणाम सबके सामने है जिसे हम और हमारे पूर्वज सदियों से सुनते, गुनते आ रहे हैं।
यह भी मान्यता है कि रावण को मोक्ष चाहिए था, इसलिए ऐसा हुआ। लेकिन क्या सचमुच मिला? प्रतिवर्ष रावण दहन होता है और उस दृश्य को आँखों में भर हम धन्य अनुभव करते हैं। बात यहीं पर समाप्त भी हो जाती है। लेकिन बुराई का अंत देखकर प्रसन्न होने वाले भी बुराई नहीं छोड़ते! मन का रावण कभी नहीं मरता! बल्कि अब तो भीषण हिंसा और अन्याय का ऐसा कलयुगी दौर चला है कि सतयुग के पापी भी शर्म से सिर झुका लें। घोर पाप की वीभत्स घटनाएं अब तक जारी हैं। कोई सुरक्षित अशोक वाटिका भी नहीं है और न ही प्रिय का संदेश लेकर आने वाले हनुमान। राम लौटकर नहीं आए हैं और आज के रावणों ने अन्याय और अत्याचार की समस्त सीमाएं लांघ ली हैं।
‘विजयादशमी’ के पावन दिवस पर यदि हम अपने लिए सुख की अपेक्षा रखते हैं तो कुछ भावों को अवश्य ही आत्मसात कर लेना चाहिए। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि अच्छाई और बुराई दोनों ही हमारे भीतर है, हम इसमें से क्या चुनना चाहेंगे? क्योंकि हमारा चुनाव ही हमारे जीवन की दिशा और दशा तय करता है। गुण-दोष हम सबके अंदर हैं। हमें हमारे दोषों को स्वीकार कर उन्हें सुधारने का गुण विकसित करना होगा।
जीवन में मानसिक द्वन्द्व आते ही दुख भी संग आता है। कोई हमारा साथी है या दुश्मन, उससे इतना अंतर नहीं पड़ता जितना कि भीतर का दुख सालने लगता है। उस दुख के साथ कैसे रहना है, यह हमको सीखना है। हमारे भीतर ऐसा कोई भी भाव न रहे जो हमें सत्य से दूर ले जाए, हम हिंसा और बल के प्रयोग से कुछ भी न जीतना चाहें, व्यर्थ के अहंकार का दहन कर हम सद्भाव, प्रेम और निश्छल हृदय से अपना जीवन जीने का संकल्प लें; वही हमारी ‘विजयादशमी’ है।
'हस्ताक्षर' अक्टूबर अंक संपादकीय
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चित्र: विकिपीडिया से


रविवार, 2 अक्टूबर 2022

बुलेटप्रूफ है गाँधीवाद, गाँधी भी नहीं मरे थे!

 कैसी विडंबना है कि जिस व्यक्ति की जयंती सारी दुनिया अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाती है, उनकी मृत्यु हिंसात्मक तरीक़े से हुई. यह गाँधी जी की ही हत्या नहीं थी यह उस विचार, उस सिद्धांत की हत्या का कुत्सित प्रयास भी था जिसे गाँधी ने अपने जीवन का मूल आधार बनाया था. उनके हत्यारों ने भले ही एक निर्जीव देह को देख उस समय उत्सव मना लिया हो लेकिन वे हमारे बापू को नहीं मार सके! यदि वो तीन गोली नहीं लगती, तो शायद गाँधी जी बाद में किसी रोग या अन्‍य प्राकृतिक कारण से स्‍वर्ग सिधारते. लेकिन जिस तरह उनकी हत्‍या हुई, उसने अहिंसावाद को और भी अधिक गहरे से रेखांकित कर दिया. कारण स्पष्ट है कि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, हमारे बापू का अस्तित्व केवल मोहनदास करमचंद गाँधी तक ही सीमित नहीं था. वे अपने विचारों के साथ तब भी सर्वप्रिय थे और आज भी जनमानस में बसे हैं. जैसे देह के निष्प्राण होने के पश्चात अजर-अमर, आत्मा जीवित रहती है वैसे ही गाँधी भी हम सबके हृदय में विद्यमान हैं. हर सच्चे भारतीय की रग में उनके सत्य का राग प्रवाहित होता है, अहिंसा की रागिनी धड़कती है. गाँधी सदैव प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि गाँधी मात्र एक व्यक्ति नहीं, सम्पूर्ण विचारधारा है.

आपने भी यह ख़बर सुनी होगी कि बापू के सम्मान में ब्रिटेन की सरकार ने एक सिक्का जारी करने की घोषणा की थी. निस्संदेह यह उनका सम्मान तो है ही लेकिन एक तथ्य और भी है. वो यह कि अंग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचारों, प्रताड़ना और अमानवीय कुकृत्यों से इतिहास रंगा पड़ा है. इस शर्मिंदगी से बचने और स्वयं पर लगे कलंक को धोने के लिए भी यह एक आवश्यक क़दम था. अमेरिका में भी एक अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद वहाँ की जनता ने आंदोलन प्रारंभ कर दिया था और तबसे नस्लवाद का वैश्विक विरोध तेजी पकड़ रहा है.  विचारणीय है कि जहाँ आज सारी दुनिया भूल सुधार के तमाम यत्न कर रही है ऐसे में हम कहाँ हैं और किन बातों पर लड़ रहे हैं?

दुर्भाग्य है कि विश्व भर में पूजनीय और सबको सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले गाँधी जी का विरोध करने वाले लोग, उनके अपने ही देश में पनप रहे हैं. घृणा के बीज बो रहे हैं. एक ओर हम राष्ट्रप्रेम की माला जपते हैं और दूसरी तरफ़ राष्ट्रपिता को अपशब्द कहने वालों के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती नहीं दिखती! न जाने, देश के प्रति यह किस तरह का प्रेम है जो शहीदों के अपमान को यूँ सहन कर लेता है!

आज भी ऐसे लोग मिल जाते हैं जो गाँधी जी का नाम सुनते ही मुँह बिचकाकर कहते हैं कि आजादी चरखा चलाने और लाठी से नहीं मिली! हाँ, भई मानते हैं कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान अतुलनीय एवं अविस्मरणीय है. देश को आजाद कराना किसी एक व्यक्ति के बस की बात हो भी नहीं सकती! महत्वपूर्ण है, लालच से दूर रह अपने उसूलों पर चलना. शांति से अपनी बात कहना, सबकी राह प्रशस्त करना. गाँधी विरोधी  यह भूल जाते हैं कि गाँधी का व्यक्तित्व और कहन का प्रकार बहुआयामी है और जैसा वह समझ रहे यह उससे इतर और विशाल भी है.

चरखा प्रतीक है स्वावलम्बन और स्वाभिमान का, स्वदेशी उत्पाद को बढ़ावा देने का. गाँधी जी अपना काम स्वयं करने में विश्वास रखते थे. स्वच्छता पसंद थे. यदि हम भारतीयों ने मात्र ये दो बातें भी आत्मसात कर ली होतीं तो आज उनके निधन के सात दशक बाद ‘आत्मनिर्भर भारत’ या ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का राग अलापने की कोई आवश्यकता नहीं होती. इन संस्कारों की नींव बहुत पहले ही पड़ गई थी. हमारे पूर्वजों ने तो सदैव ही हमें उच्चतम जीवन मूल्यों को हस्तांतरित किया है ये हमारी मूर्खता रही कि हम ही उन्हें समय पर न सहेज सके और न ही उन्हें अपनाने की कोई सार्थक चेष्टा ही की.

साबरमती आश्रम में प्रायः गाँधीवादी उम्रदराज़ लोगों से मिलना होता है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने बापू पर बहुत शोधकार्य किया है. वे आँखों में चमक लिए उनकी बात करते हैं तो मन को बहुत अच्छा लगता है. कुछ चेहरों पर निराशा की झलक उदास भी कर जाती है, जब वे बुझे ह्रदय के साथ ये कहते हैं कि “आज के दौर में शांति और अहिंसा की बात करना मूर्खता एवं अपना उपहास करवाने से अधिक कुछ नहीं!” मैं उनकी बातों को सुन बेहद शर्मिंदा महसूस करती हूँ कि जिस दौर की ये बात कर रहे हैं, हमने उसे क्या बना दिया!

सोचती हूँ कि जब हम अपराध के विरोध में खुलकर न बोले तो अपराधी ही तो हुए न! अन्याय को देख हमने अपनी ज़ुबान सिल ली, तो फिर हम न्यायप्रिय कैसे हुए? झूठ को जीतते देख ताली बजाने वाले, किस मुँह से ‘सत्यमेव जयते’ कह सकेंगे? मैं मुस्कुराते हुए उन लोगों से बस इतना ही कहती हूँ कि “अरे! आप चिंता न कीजिए, सब अच्छा होगा. बुरे दौर का भी अंत तय ही होता है. गाँधी जी की विचारधारा हताश भले ही दिख रही है पर जीवित है अभी और सदैव रहेगी”. न जाने मैं उन्हें कह रही होती हूँ या स्वयं को ही आश्वस्त करने का प्रयास करती हूँ लेकिन हर बार बापू की मूर्ति को प्रणाम करते हुए जब उनका शांत चेहरा और मृदु मुस्कान दिखती है तो उम्मीद फिर जवां होने लगती है. विचारों में दृढ़ता आती है और हृदय पुकार उठता है ‘सत्यमेव जयते’.

विश्वास गहराने लगता है जिस व्यक्ति की  निर्मम हत्या भी उसके द्वारा प्रज्ज्वलित अहिंसा की मशाल न बुझा सकी, वह हमारे बीच से भला कैसे जा सकता है कभी! सदियाँ बीतती जाएंगी लेकिन सभ्यता की नज़ीर बन गाँधी एवं उनका बुलेटप्रूफ गाँधीवाद सदा स्थापित रहेगा. उनके हत्यारों को इससे बड़ा तमाचा और क्या होगा!

- प्रीति अज्ञात 

'हस्ताक्षर' 2021 अंक का संपादकीय 

इसे आप इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं -

https://hastaksher.com/no-one-can-kill-gandhi-and-gandhism-it-will-remain-alive-forever-editorial-by-preeti-agyaat/

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