रविवार, 17 अगस्त 2025

‘शोले’ @ 50: एक चिरस्थायी सिनेमाई महाकाव्य की अद्भुत गाथा




कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें आप देखते हैं
 और कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें आप विरासत में पाते हैं। ‘‘शोले’’  दूसरी श्रेणी में आती है—पीढ़ियों से चली आ रही एक ऐसी विरासत जिसकी लपटें आधी सदी बाद भी कम नहीं हुईं।

वह 15 अगस्त 1975 का समय था। भारत आपातकाल के बोझ से जूझ रहा था और कहीं दूर  रामगढ़ के काल्पनिक गाँव में एक तूफ़ान चुपचाप अंगड़ाई ले रहा था। उस दिन ’शोले’ ने सिल्वर स्क्रीन पर धमाकेदार एंट्री की और भारतीय सिनेमा के डीएनए को हमेशा के लिए बदल दिया। तभी तो पचास साल बाद भी इसकी चिंगारी हमारी सामूहिक स्मृति में आज तक सुलगती है।

‘शोले’ ने एक ब्लॉकबस्टर के रूप में न केवल हमारे चेतन और अवचेतन में अपनी जगह बनाई, बल्कि यह फिल्म भारत की सांस्कृतिक, पौराणिक कथाओं का स्थायी अध्याय बन गई।

प्रश्न यह है कि फिल्में तो कई ब्लॉकबस्टर हुईं तो फिर ‘शोले’ को इतनी महान भारतीय फ़िल्म क्या क्यों माना जाता है?  इसका उत्तर आँकड़ों में नहीं (हालाँकि वे चौंका देने वाले हैं) बल्कि कहानी, अभिनय और आत्मा के अद्वितीय संगम में निहित है।

रमेश सिप्पी ने सिर्फ़ एक फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया; उन्होंने आग और पानी से एक मिथक गढ़ा। धूप से झुलसती पहाड़ियों से लेकर राधा के आँगन के भयावह सन्नाटे तक,  हर फ्रेम एक अनोखी शाश्वतता के भार से चमक रहा था। यह डाकुओं और पुलिसवालों की कहानी ही नहीं थी यह एक आधुनिक सिनेमाई महाकाव्य था, जिसे गोलियों, बिखर सपनों और नई उम्मीदों से बुना गया था।

रामगढ़ का धूल भरा परिदृश्य लगभग पौराणिक गाथाओं से मेल खाता लगता था जहाँ नैतिकता और क्रूरता दोनों ही घोड़े पर सवार थी, दोस्ती गोलियों की बौछार के मध्य गढ़ी जा रही थी। यहाँ खलनायक भी नायकों की तरह अमर हो जाते थे।

ठाकुर का फौलादी हाथ और उसका कट जाना सिर्फ़ कथानक का मोड़ नहीं था; यह नियति द्वारा शक्तिहीन कर दी गई न्याय व्यवस्था का प्रतीक था। गब्बर सिंह लोककथाओं के किसी क्रूर राक्षस की तरह पर्दे पर दहाड़ता हुआ सिर्फ़ एक खलनायक नहीं, बल्कि भय की परिभाषा बन गया। उसकी हँसी दुष्टतापूर्ण और भयावह थी। उसने सिर्फ़ कालिया को गोली नहीं मारी, बल्कि देश के दुःस्वप्नों में अपनी स्थायी जगह बना ली। ‘नहीं तो गब्बर आ जाएगा’ महज संवाद नहीं, चेतावनी बन गया।

और फिर थे दो छोटे-मोटे भाड़े के सिपाही जय और वीरू  जो अटूट दोस्ती के प्रतीक बन गए। वीरू, तूफ़ानी और बच्चों जैसी शरारतों से भरा, अपनी बसंती के साथ कहानी में हल्की, खुशमिज़ाज रोशनी भरता रहा। इधर मौन और सुलगता हुआ जय जब राधा की मौजूदगी में हारमोनिका बजाता था, तो खामोशी एक किरदार बन जाती थी। जब वह मरा, तो दर्शकों के बीच कुछ ऐसा टूट गया जो पचास साल बाद भी पूरी तरह से भर नहीं पाया है।

बसंती और राधा दो विरोधाभासी सभ्यताओं की तरह खड़ी थीं। एक ध्वनि का तूफ़ान और विद्रोही, दूसरी मौन का मंदिर और पार दुःख से भरी। राधा की आँखें खामोशी में वह सब कह गई जो संवाद कभी नहीं कह सकते थे। पितृसत्ता के बीच तांगा चलाती हुई बसंती जीवन-शक्ति का विस्फोट थी।  मानो वह अपनी नियति खुद तय कर रही हो। उसका तांगा सिर्फ़ एक वाहन नहीं, आज़ादी का रथ था। बंदूकधारी पुरुषों वाली फ़िल्म में, उसकी आवाज़  की धमक सबसे ज़ोरदार थी।

सलीम-जावेद के बिना ’शोले’ की बात अधूरी है। ‘कितने आदमी थे? भारत का सबसे ज़्यादा दोहराया जाने वाला प्रश्न बन गया। ‘’जो डर गया, समझो मर गया’ एक दर्शन बन गया।
‘अब तेरा क्या होगा, कालिया? से लेकर सांभा के एकमात्र संवाद तक हर पंक्ति जैसे राष्ट्रीय स्मृति में दर्ज हो गई। जिन्होंने शोले नहीं देखी, उन्हें धिक्कारा जाने लगा। मानो फिर उनकी सिनेमाई समझ  पर  प्रश्नचिह्न ही लग गया। 

इसके हर किरदार में गंभीरता थी। यहाँ तक कि क्षणभंगुर किरदारों में भी। चाहे वो सूरमा भोपाली का अतिरंजित हास्य हो, जेलर असरानी की व्यंग्यात्मक झलक  और सांभा, जिसे अमर होने के लिए बस एक पंक्ति की ज़रूरत थी। यहाँ कोई भी परछाइयों में रहने को तैयार नहीं था। रामगढ़ का हर कोना, हर चरित्र, अपनी कहानी पूरी ठसक से कहता था।

उस पर आर.डी. बर्मन का संगीत फिल्म की धड़कन बन आज भी गूँजता हैये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेतो जैसे दोस्ती का राष्ट्रगान बन गया। “होली के दिन” में बसंती की ऊर्जा और राधा के मौन में छुपी धुनें, दोनों ही कालजयी हैं। और उस पर हारमोनिका की धुन के साथ जय का खामोश गीत, हवा में उस विदाई की याद की तरह तैरता रहता है जिसकी टीस से हम कभी उबर नहीं पाए। मौन का ऐसा इस्तेमाल यक़ीनन साहसिक था।  

आपातकाल के दौरान आई इस फिल्म ने बिना नारे लगाए, न्याय और विद्रोह की बात कही। सेंसरशिप के दौर में, यह बिना आवाज़ ऊँची किए भी दहाड़ती रही। जय-वीरू की लड़ाई सिर्फ़ ईनाम के लिए नहीं थी, यह अन्याय और आंतरिक राक्षसों के ख़िलाफ़ थी।

तभी तो पचास साल बाद ’शोले’ केवल एक फ़िल्म नहीं रह गई बल्कि उसकी सीमाओं से भी  कहीं आगे निकल गई है। ‘शोले’ को मापने के लिए कोई मीटर नहीं है। यह एक लोकगीत, एक चलचित्रीय शास्त्र है जो आज भी बोलता है, परिवारों में बाँचा जाता है। हर पीढ़ी इसमें अपना अर्थ ढूंढती है। यह हमारी भाषा, मुहावरों, मीम्स, व्हाट्सएप स्टिकर्स, रंगमंच और पेंटिंग्स तक में समा गई है।

जब जय मरता है, तब हम सिर्फ़ एक नायक नहीं खोते बल्कि यह भ्रम भी खो देते हैं कि सभी महान कहानियों का सुखद, आदर्श अंत होना चाहिए।
हम इसे बार-बार देखते हैं, उद्धृत करते हैं, गुनगुनाते हैं। क्योंकि ’शोले’  भूलने की नहीं, बल्कि याद रखने की गाथा है।

जय की खामोशी में, वीरू की मस्ती में, बसंती के बड़बोलेपन में, गब्बर के अट्टहास में, राधा के विलाप में, ठाकुर के अंतिम प्रहार में, टॉस के सिक्के में एक ऐसी आग मिलती है जो कभी बुझती नहीं। हम कहाँ भूले हैं वो 'जेल में सुरंग' वाला दृश्य, 'हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसे ही नहीं हैकह गौरवान्वित होता भोपाली और बसंती के रिश्ते वाले किस्से में 'आय हाय! बस यही एक कमी रह गई थी तुम्हारे दोस्त में!’ कहती तुनकती हुई मौसी! सांभा, कालिया, अहमद, रहीम चाचा और उनकी वह डूबती आवाज़ - 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?' आज भी अमर है। ‘शोले’ पर कई पुस्तकें लिखी जा सकती हैं। 

आज भी ‘शोले’  की लगाईं आग उसी रफ़्तार से जलती है।

- प्रीति अज्ञात
अहमदाबाद, गुजरात
संपर्क - preetiagyaat@gmail.com

        * 17 अगस्त 2025 के स्वदेश 'सप्तक' में प्रकाशित