शनिवार, 1 सितंबर 2018

गोलगप्पा: हाय! इस पर किसी को प्यार क्यों न आये भला!

हम भारतीयों को तीन बातों से बड़ी तृप्ति मिलती है-पहला गोलगप्पे खाने से, दूसरा पाकिस्तान को हराने से और तीसरा फ्री में कुछ मिल जाने से.आज पहले की बात करते हैं -
गोलगप्पा, ज़िंदाबाद है, ज़िंदाबाद था और ज़िंदाबाद रहेगा!
वैसे तो गोलगप्पा किसी परिचय का मोहताज़ नहीं और यदि आपने अब तक इसका नाम नहीं सुना है तो आपको स्वयं ही अपने ऊपर देशद्रोह का आरोप मढ़, चुल्लू भर पानी ले यह देश छोड़ देना चाहिए. कुल मिलाकर लानत है आपकी भारतीयता पर! भई, गोलगप्पे का भी अपना इतिहास है, समझिये उसे पर पिलीज़ बदलियेगा मत!
सब जानते हैं कि हरदिल अजीज गोलगप्पे को देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. पानी पूरी, पकौड़ी, पानी के बताशे, गुपचुप, पुचका, गोलगप्पे, फुल्की और कितने नामों से इसे पहचाना जाता है पर 'नाम जो भी, स्वाद वही चटपटा!'  

'गोलगप्पा' ये नाम ही इतना क्यूट है जैसे कि कोई गोलू-मटोलू बच्चा मुँह फुलाये बैठा हो. हाय! इस पर किसी को प्यार क्यों न आये भला!
गोलगप्पे की कहानी इतनी पुरानी है कि कभी-कभी तो लगता है कि जैसे यह सतयुग से चला आ रहा है. उफ़ ये छोटे-छोटे पुचके जब आलू और चने के साथ तीखे, चटपटे पानी में  लहालोट होते हैं तब हर भारतीय की स्वाद कलिकायें एक ही सुर में जयगान करती हैं "गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त". 
हमारा पाचन तंत्र भी बचपन से इस तरह ही डेवलॅप होता रहा है कि उसमें गोलगप्पे के लिए विशिष्ट स्थान स्वतः ही आरक्षित रहता आया है. अच्छी बात ये है कि अब तक इस पर किसी क़ौम ने अपना कॉपीराइट नहीं ठोका है वरना तो सियासतदां इस पर भी बैन लगा इसे पाचन सुरक्षा के लिए ख़तरा बता रफ़ा-दफ़ा कर दिए होते! ख़ुदा न करे पर यदि किसी ने इसके विरुद्ध एक क़दम भी उठाया न तो उसे इस देश की तमाम जिह्वा कलिकाओं का ऐसा श्राप लगेगा, ऐसा श्राप लगेगा कि वह अपनी सुधबुध के साथ सारे स्वाद भी खो बैठेगा. यूँ मैं धरना, आंदोलन टाइप बातों में क़तई विश्वास नहीं करती पर भइया गोलगप्पे की साख़ पे आँच भी आई न तो फिर हम क्रांतिकारी बनने में एक पल की भी देरी नहीं करेंगे.

ये सब हम यूँ ही नहीं कह रहे! दरअसल गोलगप्पे से देशवासियों का असीम भावनात्मक जुड़ाव रहा है. यही एक ऐसा फास्टफूड है जिसने अमीर-गरीब, ऊँच-नीच की गहरी खाई को पाटने का काम किया है. यह उम्र, जाति, धर्म का भेदभाव किये बिना सबको एक ही रेट में, एक-सा स्वाद देता है. यहाँ साइकिल सवार हो या बड़ी गाड़ी के मालिक सब एक साथ पंक्तिबद्ध नज़र आते हैं. कोई असल का भिक्षुक हो या करोड़पति; कटोरी तो साब जी सबके हाथ में होती ही है.
महँगाई चाहे कितनी भी बढ़ गई हो पर यही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जो अब भी सबके लिए अफोर्डेबल है. दस रुपये में कोई चार देता है तो कोई छह, उस पर मसाला वाली अलग से. इतनी उदारता तो उदारवादी संगठनों में भी देखने को नहीं मिलती.  और जहाँ तक विकास की बात है तो वो भी इसने जमकर कर लिया है. पहले रेगुलर मसाला पानी ही आता था और हम खुश हो गटागट पी लिया करते थे पर फिर भी इसने अपने विकास का ग्राफ ऊँचा चढ़ा पुदीना, नींबू, अदरक, लहसुन, जीरा, हाज़मा हज़म के फ्लेवर भी इसमें जोड़ दिए हैं. ये जो लास्ट वाला 'हाज़मा हज़म' है न, ये उन जागरूक नागरिकों के लिए ईज़ाद किया गया है जो अपने बढ़ते वज़न को लेकर चिंता पुराण खोल लेते हैं. हाज़मा हज़म खाते ही इन्हें गोलगप्पे खाने के अपराध बोध से कुछ इस तरह मुक्ति मिल जाती है जैसे कोई महापापी पुष्कर में डुबकी लगा स्वयं को संत महात्मा की केटेगरी में डाल मुख पर वज्रदंती मुस्कान फेंट लेता है.

अच्छा, हम लोग वैसे तो बचपन से ही लम्बी- लम्बी लाइनों में लगने को प्रशिक्षित हैं लेकिन यही वो मुई नासपीटी जगह है जहाँ हमारे सब्र का बाँध टूट जाता है. प्रतीक्षा में खड़े लोग गोलगप्पे देने वाले को यूँ तकते हैं जैसे चकोर ने भी आज तक चाँद को न देखा होगा. 'अच्छे दिन कब आयेंगे?' की चिंता में घुलते लोग भी सब कुछ भूल यही जाप करते हैं कि 'मेरा नंबर कब आएगा?'. कुछ एक्टिविस्ट टाइप लोग तो ये भी गिनते रहते हैं कि फलां हमारे बाद आया, कहीं इसका नंबर पहले न लग जाए. इसी को सत्यापित करने की कोशिश में वो ठेले वाले की ओर लाचार, प्रश्नवाचक नज़रों से से देखते हैं और फिर उसकी मुंडी के सकारात्मक मुद्रा में मात्र दस डिग्री के कोण से झुक जाने पर ही ये अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होकर साक्षात् विजयी भाव को धारण करते हैं.
 फिर भी प्रतीक्षारत लोग खड़े-खड़े प्रश्नों के इस दावानल से तो जूझते ही रहते हैं. 'भैया, मसाला तो और है न?'
 'उफ्फ, ये लोग कित्ता खाते हैं!'
'अपन पाँच  मिनट पहले आ जाते, तो अच्छा था. कहीं ठेला ही न बंद कर दे!' 
और जब अपना टर्न आया तो....हे हे हे, भैया आलू और भरो न थोड़ा सा, नमक भी डाल दो और आराम से खिलाओ, इत्ती जल्दी-जल्दी मत दो, हमको ट्रेन नहीं पकड़नी है....खी खी खी. दोना रखा करो. उसमें खाने में और मज़ा आता है.
इश्श! इतना अपनापन झलकता है कि उई माँ! कहीं नज़र ही न लग जाए इस अपनापे को!
और फिर प्रथम गोलगप्पे के मुँह में जाते ही अहा! सारी क़ायनात एक तरफ....कैसा चमचमाता है, ये चेहरा, सारी दुनिया का नूर छलकता है! जुबां मस्तिष्क तक ये गीत भेजने को लालायित हो उठती है, "तुम आ गए हो, नूर आ गया है/ नहीं तो चराग़ों से लौ जा रही थी" उधर से भी लपककर तुरंत जवाब आता है,"जीने की तुमसे, वजह मिल गई है बड़ी बेवजह ज़िन्दगी जा रही थी." 

नैतिक शिक्षा: उपर्युक्त वर्णन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सत्ता और विपक्ष को एकसूत्र में बाँधने का काम गोलगप्पा ही कर सकता है. इसी के मंच पर खड़े होकर समस्त भारतवासी एक दिखाई देते हैं. अतः हमें इसे राष्ट्रीय स्वाद्कलिका योजना के तहत राष्ट्रीय तेजाहार (फ़ास्ट फ़ूड) घोषित करवाने के लिए संगठित होना ही पड़ेगा. जय भारत!
- प्रीति 'अज्ञात'
पोस्ट इंडिया टुडे ग्रुप के ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म, iChowk पर पढ़ें- 

8 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, नए दौर की गुलामी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. राष्ट्रीय तेजाहार गोलगप्पा
    बहुत खूब कही आपने

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