बुधवार, 24 सितंबर 2025

आलू की सब्जी

 

एक बार का बड़ा मजेदार किस्सा है। यह जब घटित हुआ था, तब बहुत दुखदायी था लेकिन अब सोचकर भी हँसी आती है। तो हुआ यूँ कि हर रोज की तरह उस दिन भी हमने लंच तैयार किया। पूरा खाना टेबल पर रख दिया और बच्चों को लेने बस-स्टॉप पहुँच गए। बच्चे जूनियर स्कूल में थे और 1.30 बजे उनकी बस आ जाती थी। बच्चे बस से उतरकर सबसे पहले यही पूछते कि आज लंच में क्या है? सो उस दिन भी पूछा। अपन ने ठसक से बताया कि आज तो तुम दोनों की पसंद के 'दम आलू' बनाए हैं। यहाँ यह बताती चलूँ कि सब्जियों के मामले में दोनों बच्चों की पसंद बिल्कुल अलग है। तो रोज अलग-अलग सब्जी बनती थी लेकिन 'आलू' उनकी एकता का प्रतीक बनकर उभरता और मेरे लिए राहत सामग्री।  

'दम आलू' सुनते ही बच्चे उछल पड़े और स्वाद बनाते हुए ठुमक-ठुमककर हम तीनों घर की ओर बढ़ चले। भिया! पाँच मिनट में ही दोनों बच्चे डायनिंग टेबल पर जमा हो चुके थे। मम्मी जी भी खाने की प्रतीक्षा में थीं। अपन ने दाल परोसना शुरू ही किया था कि दोनों एक सुर में बोल उठे, "मम्मी, बस सब्जी दो। उसी से खाएंगे।" हमने भी मन ही मन सोचा कि "कोई बात नहीं बच्चू! इसी दाल को आटे में गूँधकर शाम को निबटा दूँगी। अभी तुम्हें हमारी recycle कला का अंदाज़ा ही कहाँ हैं!"

मुस्कुराते हुए हमने स्टील के टिफ़िन को खोलने के लिए हाथ बढ़ाया। लेकिन यह क्या! टिफ़िन बाबू तो सरकारी ठेके के बाजू वाले नाले में पड़े बंदे की तरह एकदम टाइट थे। "हेहेहे, अभी खोलती हूँ", कहते हुए हमने थोड़ा जोर लगाया। पर क्या मज़ाल कि ढक्कन खुल जाए। फिर किचन में जाकर चाकू लाए कि तनिक घुसेड़ के ढक्कन उचका लें तो कुछ काम बने! पर हियाँ तो ढक्कन ने मुँह ऐसा भींचा हुआ था कि तनिक साँस भी न जा सके। अब का करें, भैया! बच्चों के सूखे, निराश चेहरे और मम्मी जी की व्यग्रता चरम पर थी। भूख फुफकारें मार रही थी। अपन 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' वाले राष्ट्रीय सुविचार को अपने निजी दिल में सँजोये अपने ही व्यक्तिगत हाथों से अभी भी जुटे हुए थे। चारों ओर से तमाम रायें (रायचंदों की) हमें मदहोश कर रहीं थीं। चिड़चिड़ाहट ने हमारी मुस्कान में बेदर्दी से सेंध लगा दी थी। इतना थक गए कि कुछ पल के लिए टिफ़िन को टेबल पर रख दिया और उसे घूरने लगे। मानो, हमारी थकेली आग्नेय दृष्टि से लज्जिताकर ढक्कन खुदै उछलकर प्राण तज देगा। उसे शर्मिंदा न होना था , सो न हुआ। 
बेटी ने कहा, "मम्मी, इसे लुढ़का लो।" हमें लगा कि बस इतने ही बुरे दिन आ गए हैं कि सपरिवार सब्जी को जमीन से चाटकर खाएंगे।  "अरे, फैल जाएगी न" हमने भन्नाकर कहा। तो बेटे साब बोले, "मम्मी, बड़ी वाली ट्रे में ठोकते हुए लुढ़काते हैं। उसमें फैलेगी तो खा भी सकते हैं न?" अब ये वाला आइडिया थोड़ा ठीक लगा। फिर क्या था, मैंने ट्रे संभाली, बेटा कभी टिफ़िन के ढक्कन को तो कभी टिफ़िन को ठोकता, लुढ़काता आगे बढ़ाता और बेटी हमारा हौसला बुलंद करती। मम्मी जी मन मसोसकर हमारा बेहूदा तमाशा देखती रहीं। आखिर ये सब्जी तो उन्हें भी पसंद थी। 

इस नौटंकी के बाद भी पराजय पेट के द्वार पर खड़ी दिख रही थी। अचानक हमको, हमारे नाना जी वाला मंत्र याद आया - टिफ़िन को पानी में रखने का। "बस, तुम लोग 5 मिनट रुको। देखना, कैसे फटाक से खुलेगा।" अपुन का खोया आत्मविश्वास अचानक कंधे पर गर्दन धर फिर मुस्कियाया। एक परात में पानी भरा और उसमें माननीय टिफ़िन जी के स्नान का प्रबंध किया गया। दस मिनट बाद भी फिर वही 'मौत का कुआं' सामने। जैसे सब्जी वाला टिफ़िन धरती माँ के गर्भ में ही समा चुका हो। 

अब तो बच्चों के भी बेसुध होने का पल आ चुका था। मम्मी जी भी दो-तीन बार कह चुकी थीं, "अरे! जो है, वही दे दो।" बताइए, लोग समझौता करने को भी तैयार थे। हारकर, खिसियाई नजरों से अपना यही मौलिक मुँह लिए हम उठे। आखिरी कोशिश करते हुए सब्जी वाले टिफ़िन को फ्रीज़र में रखा और सबको बिना सब्ज़ी वाला खाना परोस दिया। लोकतंत्र में विकल्प तो होते ही हैं। तो लो, ये दही है, अचार है, सलाद है। 
बच्चों की प्लेट में वही तिरस्कृत दाल थी। स्वाद बनाने को हमरे नौनिहालों ने रतलामी सेव और ले लिए थे क्योंकि दही दोनों ही नहीं खाते थे। हमें अब भी यह उम्मीद थी कि खाना खत्म होने से पहले टिफ़िन खुल ही जाएगा और हमारे हाथ का जादू, पल भर में माहौल खुशनुमा कर देगा। पर काहे होगा खुशनुमा! वही बुझे चेहरों से सबने खाना खाया। दूसरी सब्जी के बनने का धैर्य भी दम तोड़ चुका था। 
तो उस दिन पेट की संसद दही, अचार और रतलामी सेव से ही चली। और दम आलू जी हम सबका माइक बंद कर शान से बोले कि "आज की कार्यवाही स्थगित की जाती है। कल फिर प्रयास कीजिए।"
दही इस बात से खुश कि आज उन्हें मम्मी जी की थाली में चरित्र भूमिका की बजाए मुख्य भूमिका निभाने का मौका मिला। मिक्स अचार भी जैसे खिल्ली उड़ाते हुए कह रहा हो कि "जब असली सरकार फेल हो जाए तो गठबंधन सरकार ही काम आती है। खी खी खी।"

इधर हम अब तक इस बात पर खुद को माफ़ नहीं कर पा रहे थे कि बदतमीज टिफ़िन का ढक्कन हमने लगाया ही क्यों? जबकि ऐसा ही एक अनुभव पुलाव के साथ हम झेल चुके थे। लेकिन तब स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में थी। इस बार तो मामला बहुत खराब हुआ। 
यह सीख भी मिली कि 'दम आलू, कभी-कभी दम ही निकाल देता है।' और यह भी कि  भिया! 'कोशिश करने वालों की खूब हार होती है और बेइज्जती भी जमकर होती है इसलिए तुम ज्यादा कोशिश न करते हुए फटाफट दूसरी सब्जी बना लेना।' तब zomato /swiggy नहीं थे साब जी। कहा न, घटना हड़प्पाकालीन है। 
डिनर टाइम पर जब उसी टिफ़िन की ओर लजाते हुए, हाथ बढ़ाया तो वे ऐसे खुले कि मानो, हम बंद ही कब हुए थे, जी!
- प्रीति अज्ञात 

रविवार, 21 सितंबर 2025

रविवार की सुबह का कोमल राग


रविवार की सुबह में जो महक है वह किसी और सुबह में नहीं होती। यह एक अतिरिक्त स्निग्धता और कोमलता से भरी सुबह है जिसमें बहती हवा और ठाठ से पसरती रोशनी मानव हृदय के भीतर भी उजास भरती प्रतीत होती है। अगर सप्ताह के दिन मोबाइल के अलार्म की ध्वनि, किचन में कुकर की बजती सीटी और फुटपाथ पर चलते तेज़ कदमों की आहट हैं, तो रविवार इस व्यस्तता से भरे पलों में ली गई चैन की लंबी साँस है जो जीवन की मशीनरी में एक विराम देकर कुछ आराम पाती है। इसमें शांति और मनमर्जी की निजी अठखेलियाँ हैं।

छुट्टी की इस सुबह की सुंदरता सबसे पहले उसकी नीरवता में महसूस होती है। सड़कें जो प्रायः यातायात से गुलज़ार रहती थीं, अब कुछ यूँ खामोश लगती हैं, मानो दुनिया ने शांति- समझौते पर सहमति जताई हो। यहाँ तक कि पक्षी भी अलग तरह से गाते प्रतीत होते हैं। वे आँगन, खिड़कियों में तसल्ली से बैठते हैं, मानो उन्हें भी समय की ढीली लगाम का एहसास हो और पता हो कि आज खिड़कियाँ फटाक से बंद नहीं होंगी। कोई उन्हें दाना-पानी देना भूलेगा नहीं। सूरज चचा पर्दों से झाँकते, झिझकते अंदर आते हैं और दीवारों पर सुनहरी चित्रकारी बना फैल जाते हैं। वे चाहते हैं कि पर्दे खिसकाकर उन्हें आमंत्रित किया जाए तो ही अपना राग छेड़ेंगे।  

इस सुबह जागने में भी एक आत्मीयता होती है। इतराता हुआ आलस घेर लेता है और आप अचानक नहीं उठते, बल्कि आराम से कुछ सोचते हुए उठते हैं। कुछ क्षण बिस्तर पर यूँ ही बैठे रहते हैं जैसे कोई पत्ता शांत पानी की सतह पर तैर रहा हो। शरीर हल्का महसूस करता है, आत्मा ज़्यादा स्वतंत्र महसूस करती है क्योंकि उसे पता है कि आगे आने वाले घंटे किसी ज़िम्मेदारी के बंधन में अटके हुए नहीं हैं। यह आज़ादी सूक्ष्म होते हुए भी गहन लगती है और इसे हम धीरे-धीरे चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, केतली से दोबारा कप भरते हुए एक  उत्सव की तरह जीते हैं।

रविवार, सूर्य का दिन है। एक अनोखी लय होती है इसमें। सोच रही हूँ कि इसे इतवार क्यों कहते होंगे? कहीं इतराने से ही तो यह इतवार नहीं बन गया? आज के दिन रसोई में कोई हड़बड़ी और जल्दी-जल्दी टिफिन की पैकिंग नहीं बल्कि रौनक और गर्मजोशी होती है। नाश्ते की खुशबू धीरे-धीरे फैलती है, प्यालों की खनक आवाज देती है और एक-एक कर सारे सदस्य डायनिंग तक खिंचे चले आते हैं। किसी के लिए पोहा-जलेबी का दिन है तो कोई समोसा-कचौड़ी से रात भर का व्रत तोड़ता है। कहीं कॉफ़ी का बड़ा मग है तो कहीं कुल्हड़ में दमकती चाय। स्वाद चाहे जो भी हो, रविवार की सुबह का नाश्ता शरीर को नहीं, बल्कि आत्मा को पोषित करता है।

दूसरे दिनों में, ज़िंदगी तेज़ी से गुज़रती है; फूलों के पास से बिना नज़र घुमाए निकल जाते हैं, पक्षियों की आवाज़ जैसे सुनाई ही नहीं पड़ती। साँसें चलती तो हैं पर उन्हें जिया नहीं जाता। लेकिन रविवार की सुबह इंद्रियों को धीमा कर देती है। यह वो दिन है जहाँ पौधे आमंत्रित करते हैं। हम देखते हैं कि कैसे हौले से सूरज की रोशनी पत्तों को एक चमक के साथ स्पर्श करती है, कैसे ओस घास पर लुढ़कती है, कैसे हवा शीतलता और उम्मीद लेकर इर्दगिर्द चक्कर काटती है।

रविवार की सुबह केवल काम से छुट्टी ही नहीं, बल्कि स्वयं के होने का एक कोमल स्मरण भी है। बच्चों के लिए, रविवार की सुबह मौज-मस्ती की होती है। किसी गली में क्रिकेट के बल्ले की आवाज़, तो कहीं ज़मीन पर फुटबॉल की धमक के साथ जमकर हो-हल्ला। स्कूल यूनिफॉर्म और पढ़ाई से मुक्ति का बिगुल तो शनिवार रात को ही फूँक दिया जाता है। माता-पिता के लिए बिना घड़ी देखे अखबार पढ़ना, दिन को बदलते हुए देखना और थोड़ी आरामतलबी से बैठना रविवार है तो बुज़ुर्गों के लिए यह स्मृतियों में उतर जाना और लाडलों को यह समझाना है कि कैसे कभी परिवार भरे-भरे भी होते थे। रविवार की सुबह सबकी होती है। हाँ, लेकिन हर दिल से यह उसके ही अंदाज़ में बात करती है।

इस सुबह में प्रार्थनाएँ हैं, पवित्रता है और कृतज्ञता का भाव भी स्वाभाविक रूप से उमड़ पड़ता है। हम इस जीवन के लिए, क्षणिक विश्राम के लिए कृतज्ञ होते हैं।

यह भी सच है कि आज़ादी के घंटे मधुर हैं पर क्षणभंगुर भी हैं। दिन आगे बढ़ेगा, सप्ताह वापस आएगा, और दायित्व की चक्की फिर घूमेगी। शायद यही जागरूकता रविवार की सुबह को इतना अनमोल बनाती है। यह गोधूलि बेला या पारिजात के  फूलों की तरह सुंदर है। इसका उपहार हर छह दिन बाद की उपस्थिति है।

जैसे-जैसे अगली सुबह होती है, दुनिया फिर से हलचल मचाने लगती है। दुकानें खुलती हैं, सड़कें अपनी सरसराहट में फिर लौट आती हैं और सुनहरी खामोशी दिन की हजारों आवाज़ों में विलीन हो जाती है। लेकिन दिल अपने भीतर रविवार की कृपा का अवशेष समेटे रहता है। आने वाले हफ़्ते  को जीने के लिए एक शांत शक्ति हमें रीचार्ज कर देती है।

रविवार की सुबह की खूबसूरती सिर्फ़ उसकी शांति में ही नहीं, बल्कि सीख में भी निहित है। सीख, जो हमें याद दिलाती है कि ज़िंदगी केवल एक अनवरत दौड़ नहीं है। इसका आनंद तसल्ली से उठने में, चिड़ियों की चहचहाहट में, चाय की खुशबू में, साथ की गर्माहट में और बिना जल्दबाजी के जीने की सरल क्रिया में लिया जा सकता है। सीख, हौले से कहती है कि समय, जब कर्तव्य से मुक्त होता है, तो खालीपन नहीं बल्कि आनंद और प्रचुरता से भर जाता है।

हमारे जीवन में, रविवार की सुबह एक सौम्य प्रस्तावना है। यह समय एक विराम है जो आत्मा को जीवन की ऑर्केस्ट्रा के फिर से शुरू होने से पहले खुद को लय में लाने का मौका देता है। यद्यपि यह तेज़ी से बीत जाता है, लेकिन इसका मृदु, कोमल, शाश्वत संगीत हमारा हौसला बनाए रखता है।

- प्रीति अज्ञात

आज 'स्वदेश सप्तक' में प्रकाशित 


रविवार, 24 अगस्त 2025

सबका राज़दार लाल डिब्बा

 


लाल लैटर बॉक्स का जाना हमारी सामूहिक स्मृतियों में दर्ज एक महत्वपूर्ण अध्याय के मिट जाने जैसा है। ऐसा अध्याय जिसे अल्फ़ा नौनिहालों ने कभी पढ़ा ही नहीं! शायद आगे की पीढ़ियाँ अपने बच्चों को बतायें कि 21वीं सदी से पहले सड़क के किनारे मौसम की हर मार सहता एक लाल डिब्बा हुआ करता था जो गाँव-शहर में सबका राज़दार था। वे बच्चे हैरान हो उस किस्से को ऐसे ही सुनेंगे जैसे हमने कबूतरों द्वारा संदेश पहुँचाने की तमाम गाथाओं को सुना था। फिर एक दिन धातु से बने इस डिब्बे को किसी संग्रहालय में भी रख दिया जाएगा और गाइड, पर्यटकों को अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड के अंतर किसी वीडियो द्वारा समझा रहा होगा। यह वो इतिहास है जिसे हम बनता हुआ देख रहे हैं।

जाने कितनी ही यादें हैं जो लैटर बॉक्स और चिट्ठियों से जुडी हैं। अंतर्देशीय की तहों में मूक  भावनाएं लिपटी रहती थीं। हम छोटे-छोटे अक्षरों में लिखते कि ज्यादा कह सकें। संक्षिप्त में लिखना हो, तब भी पोस्टकार्ड को डिब्बे में सरकाते समय एक बार और पढ़ लिया जाता। लिफाफों का वजन तौला जाता। प्रेम की तमाम चिट्ठियां सबकी आँखों से बचाकर चुपचाप लेटर बॉक्स में डाल दी जातीं और मन-ही-मन उनके सुरक्षित पहुँचने की प्रार्थना भी की जाती। फिर धड़कते दिल से पत्र के उत्तर का इंतज़ार होता। कितने ही शहरों के पिनकोड ज़बानी याद थे।

लैटर बॉक्स मानवीय भावनाओं का मौन साक्षी रहा है। अतः उसकी विदाई किसी भौतिक वस्तु की विदाई नहीं बल्कि एक अनुभूति और जुड़ाव की विदाई है। यही तो था जो शहर में गए बेटे को उसके गाँव से और ससुराल में बैठी बेटी को उसके मायके से जोड़ता था। छात्रावास में रहने वाले बच्चे माँ की रसोई याद करते और पिता चिट्ठियों में तमाम सलाह लिख इसी लैटर बॉक्स में उड़ेल दिया करते। डाकिया इनके बीच जादूगरी का काम करता और कभी सुख तो कभी दुःख बाँट आता। वह तो नियति का वाहक ही रहा। उसकी साइकिल की मधुर घंटी किसी पवित्र ध्वनि से कमतर न थी। वह परिवार का सदस्य ही माना गया जिसकी राह सभी ताका करते। उसने हमारे जीवन की खुशियों और त्रासदियों को देखा। अच्छा रिजल्ट आने पर मिठाई खाने को कहा और हर आँसू के बोझ को मौन हो सहता रहा। आजकल वह घंटी भी खामोश है। यांत्रिक तेजी से रोज अलग चेहरों के साथ कूरियर डिलीवरी आती है पर वो गर्मजोशी, वो अपनापन और मुस्कान गायब है। ये वाहक, सामान तो अवश्य पहुँचाते हैं पर फिर भी इनकी उपस्थिति उस गहराई से दर्ज़ नहीं हो पाती।

अब पलक झपकते ही संदेश तो पहुँच जाते हैं पर भावनाएं सुप्त रहती हैं। न प्रतीक्षा की गहराई का अहसास है और न भाषा के विस्तार की आवश्यकता। नई पीढ़ी की बातचीत किसी ख़ुफ़िया एजेंसी के संदेश जैसी है जहाँ 'ओके' भी 'के' रह गया है। पहले शब्द लापरवाही से नहीं उछाले जाते थे, एक अंतरंगता हुआ करती थी।

यह तर्क दिया जायेगा कि डिजिटल संचार त्वरित और कुशल है। हाँ, सो तो है पर इसने हमसे आत्मीयता छीन ली है। हम इतने अधिक जुड़े हैं कि  भावनात्मक दूरियाँ बढ़ती जा रहीं हैं। निरंतर सम्पर्क के इस युग में अकेलापन सबसे बड़ी समस्या है। अवसाद एक व्यापक बीमारी की तरह फैला हुआ है।

तक़नीक ने हमसे वो धैर्य भाव छीन लिया जो प्रतीक्षा से आता है। पत्र लिखने की कोमलता और उससे जुडी संवेदना, पत्र को पाने की प्रसन्नता अब कहाँ है? पत्र,  समय का भार ढोता था। हमें दूरी का सम्मान करना और उत्तर की प्रत्याशा का आनंद लेना सिखाता था। कितना विचित्र है कि मोबाइल पढ़े गए मैसेज को अनसीन करने का विकल्प देता है। संवेदनशीलता में यह गिरावट चिंताजनक है।

इस लाल पत्र पेटी का जाना एक और विरासत के क्षरण का संकेत दे रहा है जहाँ पत्र इतिहास की तरह संजोये जाते 
थे।  एक लकड़ी के गट्टे में लोहे का मोटा तार लगा होता जिसमें पढ़ लिए जाने के बाद पत्र फंसाए जाते थे।  यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक है कि कुछ खास पत्र गद्दे के नीचे अलमारी में कहीं छुपा भी लिए जाते थे और निकालकर बार-बार पढ़े जाते। ये जीवंतता ई मेल के फोल्डर से नहीं आती साहिब। तात्कालिकता के उत्साह ने सब कुछ सतही बना दिया है जहाँ चिंतन से कहीं अधिक प्रतिक्रिया पर जोर है और वह भी सबसे पहले देनी है। यह तथ्य तक़नीक का विरोध नहीं क्योंकि समाज तो आगे बढ़ता ही है। लेकिन इस प्रगति में हमें उन मूल्यों को नहीं खोना चाहिए जिन्होंने गहन मानवीय संबंधों की नींव रखी थी। हम समुदाय से व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं। हमारे सामाजिक ताने-बाने से सहजता, सौम्यता भी खिसकती जा रही है। आइए कोशिश करें कि संचार क्रांति के इस युग में लैटर बॉक्स या अन्य वस्तुएँ भले ही यादों की संदूकची बनती रहें पर उनसे जुड़े अहसास और आत्मीयता मिटने न पाए। 

- प्रीति अज्ञात

*24 अगस्त 2025 को स्वदेश में प्रकाशित 

रविवार, 17 अगस्त 2025

‘शोले’ @ 50: एक चिरस्थायी सिनेमाई महाकाव्य की अद्भुत गाथा




कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें आप देखते हैं
 और कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें आप विरासत में पाते हैं। ‘‘शोले’’  दूसरी श्रेणी में आती है—पीढ़ियों से चली आ रही एक ऐसी विरासत जिसकी लपटें आधी सदी बाद भी कम नहीं हुईं।

वह 15 अगस्त 1975 का समय था। भारत आपातकाल के बोझ से जूझ रहा था और कहीं दूर  रामगढ़ के काल्पनिक गाँव में एक तूफ़ान चुपचाप अंगड़ाई ले रहा था। उस दिन ’शोले’ ने सिल्वर स्क्रीन पर धमाकेदार एंट्री की और भारतीय सिनेमा के डीएनए को हमेशा के लिए बदल दिया। तभी तो पचास साल बाद भी इसकी चिंगारी हमारी सामूहिक स्मृति में आज तक सुलगती है।

‘शोले’ ने एक ब्लॉकबस्टर के रूप में न केवल हमारे चेतन और अवचेतन में अपनी जगह बनाई, बल्कि यह फिल्म भारत की सांस्कृतिक, पौराणिक कथाओं का स्थायी अध्याय बन गई।

प्रश्न यह है कि फिल्में तो कई ब्लॉकबस्टर हुईं तो फिर ‘शोले’ को इतनी महान भारतीय फ़िल्म क्या क्यों माना जाता है?  इसका उत्तर आँकड़ों में नहीं (हालाँकि वे चौंका देने वाले हैं) बल्कि कहानी, अभिनय और आत्मा के अद्वितीय संगम में निहित है।

रमेश सिप्पी ने सिर्फ़ एक फ़िल्म का निर्देशन नहीं किया; उन्होंने आग और पानी से एक मिथक गढ़ा। धूप से झुलसती पहाड़ियों से लेकर राधा के आँगन के भयावह सन्नाटे तक,  हर फ्रेम एक अनोखी शाश्वतता के भार से चमक रहा था। यह डाकुओं और पुलिसवालों की कहानी ही नहीं थी यह एक आधुनिक सिनेमाई महाकाव्य था, जिसे गोलियों, बिखर सपनों और नई उम्मीदों से बुना गया था।

रामगढ़ का धूल भरा परिदृश्य लगभग पौराणिक गाथाओं से मेल खाता लगता था जहाँ नैतिकता और क्रूरता दोनों ही घोड़े पर सवार थी, दोस्ती गोलियों की बौछार के मध्य गढ़ी जा रही थी। यहाँ खलनायक भी नायकों की तरह अमर हो जाते थे।

ठाकुर का फौलादी हाथ और उसका कट जाना सिर्फ़ कथानक का मोड़ नहीं था; यह नियति द्वारा शक्तिहीन कर दी गई न्याय व्यवस्था का प्रतीक था। गब्बर सिंह लोककथाओं के किसी क्रूर राक्षस की तरह पर्दे पर दहाड़ता हुआ सिर्फ़ एक खलनायक नहीं, बल्कि भय की परिभाषा बन गया। उसकी हँसी दुष्टतापूर्ण और भयावह थी। उसने सिर्फ़ कालिया को गोली नहीं मारी, बल्कि देश के दुःस्वप्नों में अपनी स्थायी जगह बना ली। ‘नहीं तो गब्बर आ जाएगा’ महज संवाद नहीं, चेतावनी बन गया।

और फिर थे दो छोटे-मोटे भाड़े के सिपाही जय और वीरू  जो अटूट दोस्ती के प्रतीक बन गए। वीरू, तूफ़ानी और बच्चों जैसी शरारतों से भरा, अपनी बसंती के साथ कहानी में हल्की, खुशमिज़ाज रोशनी भरता रहा। इधर मौन और सुलगता हुआ जय जब राधा की मौजूदगी में हारमोनिका बजाता था, तो खामोशी एक किरदार बन जाती थी। जब वह मरा, तो दर्शकों के बीच कुछ ऐसा टूट गया जो पचास साल बाद भी पूरी तरह से भर नहीं पाया है।

बसंती और राधा दो विरोधाभासी सभ्यताओं की तरह खड़ी थीं। एक ध्वनि का तूफ़ान और विद्रोही, दूसरी मौन का मंदिर और पार दुःख से भरी। राधा की आँखें खामोशी में वह सब कह गई जो संवाद कभी नहीं कह सकते थे। पितृसत्ता के बीच तांगा चलाती हुई बसंती जीवन-शक्ति का विस्फोट थी।  मानो वह अपनी नियति खुद तय कर रही हो। उसका तांगा सिर्फ़ एक वाहन नहीं, आज़ादी का रथ था। बंदूकधारी पुरुषों वाली फ़िल्म में, उसकी आवाज़  की धमक सबसे ज़ोरदार थी।

सलीम-जावेद के बिना ’शोले’ की बात अधूरी है। ‘कितने आदमी थे? भारत का सबसे ज़्यादा दोहराया जाने वाला प्रश्न बन गया। ‘’जो डर गया, समझो मर गया’ एक दर्शन बन गया।
‘अब तेरा क्या होगा, कालिया? से लेकर सांभा के एकमात्र संवाद तक हर पंक्ति जैसे राष्ट्रीय स्मृति में दर्ज हो गई। जिन्होंने शोले नहीं देखी, उन्हें धिक्कारा जाने लगा। मानो फिर उनकी सिनेमाई समझ  पर  प्रश्नचिह्न ही लग गया। 

इसके हर किरदार में गंभीरता थी। यहाँ तक कि क्षणभंगुर किरदारों में भी। चाहे वो सूरमा भोपाली का अतिरंजित हास्य हो, जेलर असरानी की व्यंग्यात्मक झलक  और सांभा, जिसे अमर होने के लिए बस एक पंक्ति की ज़रूरत थी। यहाँ कोई भी परछाइयों में रहने को तैयार नहीं था। रामगढ़ का हर कोना, हर चरित्र, अपनी कहानी पूरी ठसक से कहता था।

उस पर आर.डी. बर्मन का संगीत फिल्म की धड़कन बन आज भी गूँजता हैये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेतो जैसे दोस्ती का राष्ट्रगान बन गया। “होली के दिन” में बसंती की ऊर्जा और राधा के मौन में छुपी धुनें, दोनों ही कालजयी हैं। और उस पर हारमोनिका की धुन के साथ जय का खामोश गीत, हवा में उस विदाई की याद की तरह तैरता रहता है जिसकी टीस से हम कभी उबर नहीं पाए। मौन का ऐसा इस्तेमाल यक़ीनन साहसिक था।  

आपातकाल के दौरान आई इस फिल्म ने बिना नारे लगाए, न्याय और विद्रोह की बात कही। सेंसरशिप के दौर में, यह बिना आवाज़ ऊँची किए भी दहाड़ती रही। जय-वीरू की लड़ाई सिर्फ़ ईनाम के लिए नहीं थी, यह अन्याय और आंतरिक राक्षसों के ख़िलाफ़ थी।

तभी तो पचास साल बाद ’शोले’ केवल एक फ़िल्म नहीं रह गई बल्कि उसकी सीमाओं से भी  कहीं आगे निकल गई है। ‘शोले’ को मापने के लिए कोई मीटर नहीं है। यह एक लोकगीत, एक चलचित्रीय शास्त्र है जो आज भी बोलता है, परिवारों में बाँचा जाता है। हर पीढ़ी इसमें अपना अर्थ ढूंढती है। यह हमारी भाषा, मुहावरों, मीम्स, व्हाट्सएप स्टिकर्स, रंगमंच और पेंटिंग्स तक में समा गई है।

जब जय मरता है, तब हम सिर्फ़ एक नायक नहीं खोते बल्कि यह भ्रम भी खो देते हैं कि सभी महान कहानियों का सुखद, आदर्श अंत होना चाहिए।
हम इसे बार-बार देखते हैं, उद्धृत करते हैं, गुनगुनाते हैं। क्योंकि ’शोले’  भूलने की नहीं, बल्कि याद रखने की गाथा है।

जय की खामोशी में, वीरू की मस्ती में, बसंती के बड़बोलेपन में, गब्बर के अट्टहास में, राधा के विलाप में, ठाकुर के अंतिम प्रहार में, टॉस के सिक्के में एक ऐसी आग मिलती है जो कभी बुझती नहीं। हम कहाँ भूले हैं वो 'जेल में सुरंग' वाला दृश्य, 'हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसे ही नहीं हैकह गौरवान्वित होता भोपाली और बसंती के रिश्ते वाले किस्से में 'आय हाय! बस यही एक कमी रह गई थी तुम्हारे दोस्त में!’ कहती तुनकती हुई मौसी! सांभा, कालिया, अहमद, रहीम चाचा और उनकी वह डूबती आवाज़ - 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?' आज भी अमर है। ‘शोले’ पर कई पुस्तकें लिखी जा सकती हैं। 

आज भी ‘शोले’  की लगाईं आग उसी रफ़्तार से जलती है।

- प्रीति अज्ञात
अहमदाबाद, गुजरात
संपर्क - preetiagyaat@gmail.com

        * 17 अगस्त 2025 के स्वदेश 'सप्तक' में प्रकाशित