सोमवार, 4 जनवरी 2016

लेखन मेरी प्राणवायु

शब्द ही शब्द मंडराते हैं हर तरफ, सहेजना चाहती हूँ उन्हें, गागर में सागर की तरह, वक़्त की धूल कभी आँखों में किरकिरी बन नमी ला देती है, तो कभी इस धूल को एक ही झटके में झाड़ फटाक से खड़ा हो उठता है मन, जरा-सी ख़ुशी मिली नहीं कि बावलों-सा मीलों दूर नंगे पाँव दौड़ने लगता है, रेत में फूलों की ख़ुश्बू ढूंढ लेता है, घनघोर अन्धकार में भी यादों की मोमबत्तियाँ जला उजास भर देता है! पर उदासी में अपने ही खोदे कुँए में नीचे गहराई तक उतर जाता है, बीता हर दर्द टटोलता है, सहलाता है, भयभीत हो चीखता-चिल्लाता है! पुकार बाहरी द्वारों  से टकराकर और भी भीषण ध्वनि के साथ वापिस आ मुंह चिढ़ाने लगती है! दोनों हाथों को कानों से चिपकाकर, चढ़ने की कोशिश आसान नहीं होती। घिसटना किसे मंज़ूर है भला? चाहे हिरणी-सी मीलों दूर की दौड़ हो या जमीन के भीतर धंसी दुःख की खाई, दोनों ही जगहों से लौटना आसान नहीं होता, पर फिर भी, जिम्मेदारियों की रस्सी गले में फंदा बाँध ऊपर खींच ही लेती है! एक गहरी ख़राश, कुछ पलों का मौन, चीखता सन्नाटा और हारी कोशिशों का खिसियाता मुंह लिए लौट आता है तन, पुरानी दिनचर्या में शामिल होने के लिए! ठीक तभी मैं, स्वयं को भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिशों में जुटा पाती हूँ! मैं की-बोर्ड को अपना सबसे करीबी मित्र मान, अपनी हर बात उसके कानों में डाल थोड़ा मुक्त-सा महसूस करने लगती हूँ!

लेखन मेरी प्राणवायु है, ये कभी समाज की कुरीतियों और अपराधों के प्रति निकली हुई झुंझलाहट है तो कभी धर्मजाल के खेल में उलझते लोगों के लिए कुछ न कर पाने की बेबसी! ये घुटन को दूर करने की व्याकुलता है और नम आँखों पर हँसी बिखेर देने की ज़िद भी! कभी ये छोटे-छोटे पलों को जीने का अहसास बन एक मासूम बच्चे-सा मेरे काँधे पर झूलता हुआ बचपन है तो कभी खुशियों को कागज़ पर समेट देने की असीम उत्कंठा! पर इन सबके पीछे 'परिवर्तन' की एक उम्मीद आज भी कहीं जीवित है! लेखन मेरे लिए आत्म-संतुष्टि से कहीं ज्यादा 'प्रयास' है कि समाज में एक सकारात्मक और आशावादी सोच भी उत्पन्न कर सकूँ! संघर्षों से हारना मैंने सीखा ही नहीं, इसलिए यह यात्रा अब तक अनवरत जारी है क्योंकि जीवित हूँ अभी!
- प्रीति 'अज्ञात'

1 टिप्पणी:

  1. बिल्कुल... संघर्षों से हारा जाता भी नहीं, वह तो नई ऊर्जा प्रदान करता है, जीत के लिए...
    यात्रा जारी रहे...
    शुभकामनाएं....

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