सोमवार, 13 मार्च 2017

बुरा न मानो, होली है!

मुझे होली में इंटेरेस्ट सिर्फ़ गुजिया खाने के लिए ही है। 
ये अकेला त्यौहार है जिससे मैं भागती फिरती हूँ। दरवाजे की घंटी बजते ही जी घबराने लगता है। तरह-तरह के बुरे ख़्याल गुजिया के अंदर से कुदक सरपट बाहर दौड़ने लगते हैं। दिल हैंडपंप सा धचाक-धचाक ऊपर-नीचे शंटिंग करने लगता है। मस्तिष्क की तमाम तंत्रिकाएँ, शिराओं और धमनियों में एक भूचाल-सा आ जाता है। और रगों में सहमता लहू, समस्त ज्ञानेन्द्रियों को दस्तक देता हुआ पूछता चलता है, "हाय अल्लाह, कौन आया होगा? कहीं उसके पास कीचड़ या कोलतार से भरी बाल्टी तो न होगी? हमें सिल्वर पेंट लगाकर रोबोट तो न बना देगा। फिर हम खुद को कैसे पहचानेंगे? हमारी पहले से ही ड्राई पड़ी स्किन अब घड़ियाल-सी तो न हो जायेगी? फिर चश्मे का क्या होगा?" उसके बाद तो जैसे चक्कर ही आने लगते हैं...आँखों के आगे मुआ अँधेरा ही दिखाई देता है। इतने बुरे ख़्यालों से और ज्यादा सोचा ही नहीं जाता।

बड़ा गुस्सा आता है बचपन में देखी गई होली पर। ओ मोहल्ले के हुल्लड़ी लड़कों, तुम इत्ता भयानक कैसे खेल लेते थे कि खुद को शीशे में देखने के बाद तुम्हारी ही चीख निकल जाती थी। आंटी जी भी तो तुम्हें किसी और का बच्चा समझ बाहर से ही रफ़ा-दफ़ा कर देती थीं। फिर तुम्हारी खिसियाती आवाज़ से उनको पता चलता था कि हाय, ये तो हमरा बिटवा ही निकला। हम जैसे फटटू तो बिन खेले ही सबकी शक्लें देख यक़ायक़ बेहोश हो जाते थे। आँख खोलते ही तुरंत बीमार वाली एक्टिंग करने लगते थे। क़सम से, ऐसा भयानक डर बैठा हुआ है कि मार्च को टच करते ही हम सीधा अप्रैल में पहुँच जाना चाहते हैं।

हाँ,  सच्ची! हमें उस दिन  दरवाजे की घंटी बजते ही ऐसा लगता है कि बिलकुल अभी-का-अभी धरती फटे और हम उसमें समा जाएँ। हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे जैसे और भी लोग जरूर होंगे, उन पर हमें एडवांस में ही बड़ा भयंकर वाला गर्व हो रहा है। तुमसे ही हमारा जीवन रोशन है।

और हाँ, जिनको होली खेलनी है, खूब खेलें। जमकर खेलें जी। संस्कृति का संरक्षण करना भी उत्ता ही जरुरी है। वैसे भी हमारा कोई बैर थोड़े ही न किसी से। सूखे रंगों से हमें भी कोई एतराज़ ना! बाक़ी सबसे डर लगता है तो अब हम का करें?

पर फिर भी हमारी इत्ती-सी एकदम ही टुच्ची टाइप सोच है कि रंग कैनवास पर ही अच्छे लगते हैं। बगिया के फूलों पर जंचते हैं और आसमान पर इंद्रधनुष फैले तो हाईला.....जैसे बौरा जाता है मनवा! पर ये क्या कि ख़ुद पर ही पोत लो। 
जाओ, अब मुँह न फुलाओ। हम सरकार थोड़े ही न, जो ban लगा देंगे। और सुनो, अगली पोस्ट पे मुँह धोकर आना। डेटॉल भी इस्तेमाल करना, हम माइंड नहीं करेंगे। हालाँकि हमें ब्रांड एंडोर्समेंट का एकहु रुपैया नहीं मिला है। ख़ैर....ज़िंदगी दुःक्खों का बड़का वाला पहाड़ बन गई है। 
चलो, कोई न! बर्दाश्त कर ही लेंगे जी। हमारी क्या? आधा किलो गुजिया के लिए सब कुछ मंज़ूर है हमका!
हैप्पी वाली होली, सबको। खूब खेलो...!
रंग दो सारा आसमान!
बुरा न मानो, होली है! बुरा मान भी जाओ, तो हम जिम्मेदारी काहे लें?
- प्रीति 'अज्ञात'


4 टिप्‍पणियां: