गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

#शहर से लौटते हुए

मैं अब भी उस छोटे से शहर की बड़ी राह जोहती हूँ. शहर जो हरियाते दरख़्तों से घिरी संकरी गलियों के इर्दगिर्द बसा था, इन दिनों कुछ चौड़ा नजर आता है. आदमियों से ज्यादा दुकानें हैं, लोग हैं, पर सब जल्दी में.  
अब कोई किसी से हंसकर बात नहीं करता. नाम जानती थी जिस दुकान वाले का; मैंने चहककर उसे आवाज़ दी "राजकुमार भैया, कैसे हो?"
वो हड़बड़ाकर हैरानी में इधर-उधर देखने लगा जैसे कि यह प्रश्न बेहद अप्रत्याशित था उसके लिए. मैंने भी अचकचाकर मुँह फेर लिया. 

स्कूल से जुडी कितनी ही यादें थीं. सारे टीचर्स, प्रिंसिपल, वो छुट्टी का घंटा बजाने वाली अम्माँ और बाहर पॉपिन्स, पिपरमेंट की गोली वाली दुकान. अरे हाँ, एक ठेला भी तो था चाट का. पच्चीस पैसे में आलू की दो गरमागरम टिक्कियाँ, वो भी चटपटी चटनी और चने के साथ. कैसे प्यार से फटाफट बनाता था.
स्कूल के प्रांगण में लगा वो नीम का पेड़, जिसके चबूतरे पर बैठ अजीब-सा सुकून मिलता था. यह सब सोचते हुए चलती जा रही थी कि जैसे धक्-से बैठ गया ह्रदय...स्कूल का वो बड़ा सा गेट और स्कूल का नामोनिशां तक न था. उसकी जगह एक बहुमंजिला काम्प्लेक्स ने ले ली थी. छूकर देखने को स्मृतियों के अवशेष तक न थे. गली ठसाठस भरी थी वाहनों से. उन्हीं के बीच बचती-बचाती निकलती कि अचानक ही एक दुपहिया वाहन से टक्कर हुई. वो चिल्लाया 
"दिखता नहीं है क्या?"
कहना चाहा मैंने भी चीखकर "हाँ, कुछ भी नहीं दिखता है अब 
न स्कूल है, न इमारत है, न वो ठेले और न ही हँसता दुकानदार,बताओ कहाँ गए सब!" 
पर मैं पनियाई आँखें लिए मौन, खिसियाकर रह गई
यूँ भी वो रुका ही नहीं था. 
भागते वक़्त में चीखने का समय सबके पास है, ठहरकर कौन सुनना चाहता है भला!
शहर भूल चूका है मुझे, इक मैं ही इसे क्यों न भूल सकी!
#शहर से लौटते हुए 
-प्रीति 'अज्ञात'

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