बुधवार, 18 अप्रैल 2018

आज आवाज उठी है, तो कल क़दम भी उठेंगे!

तीन दिन बाद अभी-अभी फेसबुक log in किया और आते ही वही सब तस्वीरें फ़िर सामने हैं जिन्हें देखने भर से  आप उस भीषण पीड़ा को सोच सिहर उठते हो। ऐसे में कुछ अजीबो-ग़रीब पोस्ट मन विचलित कर रहीं हैं जो प्रोफाइल तस्वीर को ब्लैक रखने वालों के विरुद्ध लिखी गई हैं। हद है! यह भी कोई मुद्दा है??
अपनी प्रोफाइल में तस्वीर के स्थान पर काला रंग रखें या मोमबत्तियाँ, मैं इनके समर्थन में न भी रहूँ पर विरोधी तो क़तई नहीं हूँ। संवेदनाएँ व्यक्त करने, दुःख जताने का सबका अपना तरीक़ा होता है, इसकी खिल्ली उड़ाना भी स्त्री-भावना का अपमान ही होगा। अपनी चौखट से ही सही, पर कम-से-कम वह साथ तो खड़ी है! आख़िर कितने लोग हैं जो घर-बार छोड़कर धरने पर बैठ सकते हैं?
जो इसे दिखावा कह रहे हैं, क्या वे बीते दिनों में एक बार भी हँसे नहीं? भूखे रहे? अपने नियमित कामकाज छोड़ बैठे रहे?
सच बात तो यह है कि इस असहनीय और इस जैसी कई घटनाओं के बाद भी सबकी दिनचर्या सामान्य ही चल रही है। यही नियति है हम सबकी। 

वो जो विरोध के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन के कुछ पल साझा कर रहीं हैं आप चाहें तो उनकी ख़ुशी में ख़ुश हो सकते हैं। आप उनकी ईमानदारी के क़ायल भी हो सकते हैं कि वे जो हैं, वही दर्शा भी रहीं! 
भारतीय गृहिणियाँ, घटनाओं के विरोध में अपनी आवाज उठा पा रहीं हैं, यह भी कोई कम तसल्ली की बात नहीं! इंतज़ार कीजिए, अब वो समय भी दूर नहीं जब ये बाहर निकल अपनी समस्याओं से निबटना भी स्वयं सीख जाएँगीं और अपराधियों को सबक़ देना भी!
आज आवाज उठी है, तो कल क़दम भी उठेंगे!

अच्छी सोच वाले और स्त्री को इंसान समझने वाले पुरुषों की भी कोई कमी नहीं और वे इस मुद्दे पर खुलकर बोल भी रहे हैं। इन काली डीपियों को देखकर यह जरूर सोचती हूँ कि कितना अच्छा होता ग़र यह विरोध उन पुरुषों द्वारा किया जाता! जो किसी भी विषय पर बोलने से बचते रहे हैं, वे अपना पक्ष स्पष्ट करने का कोई तो सशक्त माध्यम चुनें!

इधर एक ख़बर पढ़ने में आई कि किसी गाँव में पंचायत के निर्णय का पालन करते हुए वहाँ की लड़कियाँ न मोबाइल रख सकती हैं और न स्कर्ट पहन सकती हैं! बात तो तब होती जब सरपंच महोदय पुरुषों के मोबाइल रखने पर पाबंदी लगाते, उन्हें घर से बाहर निकलने की मनाही करते पर वे ऐसा क्यों करते! उन्हें भी ख़ूब पता है कि पुरुष तो जन्म से ही......    
मैं उन अपराधियों के घरों का भी सोच रही हूँ जो पुलिस के शिकंजे से बाहर हैं। कैसे उनके परिवार के लोग उन्हें बर्दाश्त कर पा रहे होंगे? खाना बनाते समय उनकी बीवियाँ क्या सोचती होंगी? उनकी माँ और बहिन क्या उनकी सलामती की दुआ अब भी माँगती होंगी और ईश्वर न करे! पर यदि उनके घर में कोई बेटी है तो उसे नींद कैसे आती होगी? क्या वो भय से चीखने- चिल्लाने न लग जाती होगी? ख़तरा तो इन्हें भी अब महसूस होता होगा। क्या पता कितनी पीड़ा के ये स्वयं साक्षी रहे हों! आख़िर ये लोग अपने-अपने घरों के अपराधी का पेट भरने के बजाय उसे स्वयं ही मौत के घाट क्यों नहीं उतार देते??? 
- प्रीति 'अज्ञात'

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