बुधवार, 23 मई 2018

आश्वासनों के ऊँचें टाल पर संवेदनाएँ पहुँच पाती हैं क्या?


हमारे अपने देशवासी किन परेशानियों से जूझ रहे हैं, सीमाओं से सटे गांवों से पलायन को मजबूर ये शरणार्थी, शिविर में अपनी कहानी कहते हैं. यहाँ लोग किसी सरकारी अस्पताल के बरामदे की तरह एक साथ पड़े हैं. संवाददाता पूछता है, "सरकार खाना दे रही है?" उस समय एक स्त्री की यह बात आत्मा को भीतर तक झकझोर देती है जब वह रोती हुई कहती है कि "खाना तो घर में भी था, हमें अपना घर चाहिए. हमारे मवेशी भी भूखे हैं वहाँ!" समझना इतना जटिल नहीं कि जहाँ इंसान के रहने का स्थायी ठिकाना नहीं, वहाँ ये मवेशी तो भगवान भरोसे ही छूट जाते होंगे. ये मवेशी न केवल जान से प्यारे होते हैं बल्कि जीविका का साधन भी. कुछ जीवित कृशकाय अवस्था में मिलते होंगे और कुछ सदैव के लिए बिछुड़ जाते होंगें. आश्वासनों के ऊँचें टाल पर संवेदनाएँ कहाँ पहुँच पाती हैं! कभी अन्दर ही जूझती तो कभी, पलकों की कोरों से गिरती, हारकर फ़िसल जाती हैं.

अपने ही देश में विस्थापितों-सा जीवन जीने से अधिक दुखदायी और क्या हो सकता है भला! यहाँ बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे. उनकी आँखें भयाक्रांत हैं और वे 'भविष्य में क्या बनेंगे' से ज्यादा कहीं इस बात से चिंतित हैं कि "क्या वे बचेंगे?" उनके घरों की पक्की दीवारों में गोलीबारी से बने छिद्र ने इनका घर ही नहीं, बचपन भी बिखरा दिया है. यहाँ खिलौने नहीं, ईंटें,सीमेंट, रेती बिखरी पड़ी है. ये नए सपने नहीं देखते, बस टूटे हुए सपनों को रोज जोड़ने की मासूम कोशिश करते हैं. सपना भी इतना बड़ा और कल्पनातीत नहीं कि पूर्ण न हो सके. उस सपने में एक घर है, जहाँ मम्मी खाना बनाती है, बच्चों का टिफ़िन तैयार कर उन्हें प्यार से स्कूल भेजती है. बस-स्टॉप पर लेने आती है. शाम को पापा घर आते हैं और सब साथ में खाना खाते हैं. एक बच्चे की यह उम्मीद कहीं ज़्यादा तो नहीं? खाने-पीने, शिक्षा और सुरक्षा की भोली सी आशा!

क्या यह संभव नहीं कि बस्तियों को सीमाओं से पचास-साठ किलोमीटर की दूरी पर ही बसाया जाए? जिससे सब कुछ होने के बावजूद भी, इन्हें इस मजबूर खानाबदोश जीवन से मुक्ति मिले!

मैं कभी कश्मीर गई नहीं पर जाना चाहती थी. उन दिनों इतना घूमना-फिरना नहीं होता था और छुट्टियों का मतलब नानी या दादी का घर. पर फ़िल्मों ने इसकी ख़ूबसूरती को जिस तरीक़े से दिखाया है, उस तस्वीर को मैंनें अब तक दिल में बसा रखा है. जाऊँगी तो जरुर, पर तब ही; जब निश्चिन्त होकर ये गीत गुनगुना सकूँ. क्या ये निश्चिंतता हमें कभी नसीब होगी? दशक बीतते जा रहे, डर है कहीं हम और आने वाली पीढ़ियाँ भी न बीत जाएँ, तब तक........

इस ज़मीं से, आसमां से
फूलों के इस गुलसितां से
जाना मुश्किल है यहाँ से
तौबा ये हवा है या ज़ंजीर है
कितनी खूबसूरत....ये तस्वीर है
ये कश्मीर है, ये कश्मीर है

https://www.youtube.com/watch?v=h3yQJZagDTw
- प्रीति 'अज्ञात'


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