सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

दीवाली की सफ़ाई और अपना व्यक्तिगत हड़प्पा

 प्रत्येक भारतीय के घर में उसका अपना पर्सनल हड़प्पा होता है. जहाँ पॉलिथीन(ऊप्स! थैला) से लेकर हीरे-जवाहरात तक हो सकते हैं. यहाँ आपको हर आकार-प्रकार की तमाम वस्तुएँ मिल जायेंगीं पर वो नहीं जो उस समय चाहिए होगी! वो तब मिलेगी जब आप पोंछे या डस्टिंग के लिए कोई पुराना कपड़ा ढूँढ रहे होंगे. यह भी तय है कि तब वो नामुराद कपड़ा नहीं मिलेगा क्योंकि एन उसी वक़्त पीछे से एक डिब्बा सरककर अपनी मुँह दिखाई स्वयं करवा रहा होगा, जिसे देख आपका मुँह खुला-का-खुला रह जाता है. आप ख़ुशी के मारे फूले नहीं समाते और जोर से आवाज़ लगाते हैं, "अरे, बेटा! दौड़कर आ! तेरा वो एडिडास वाले जूते का डिब्बा मिल गया है." बच्चा बेताबी में भागा-भागा आता है और झट से अपने पैर जूते में एंटर करता है, पर ये क्या?अरे, पैर जा ही नहीं रहे! बच्चा सारा दोष उस निर्जीव, भोले जूते पे मढ़ देता है. "मम्मी, ये जूता तो छोटा हो गया!" तभी माँ की स्मृतियों के तार झनझना उठते हैं कि हाय! ये तो अपन तीन साल पहले लाये थे! माँ लड़ियाते हुए कह उठती हैं, "धत, जूता तो वैसा ही है. तू ही बड़ा हो गया है. कोई बात नहीं, किसी को दे देंगे." इस तरह दान-पुण्य विभाग में एक आइटम और बढ़ जाता है. अब बच्चा भी सामान कुरेदने में अपना अमूल्य योगदान देने को तत्पर हो उठता है. यूँ भी छुट्टियों के समय बच्चों का ऐसे काम में बड़ा दिल लगता है. अब पढ़ाई से जी चुराने का इतना अच्छा मौक़ा भला कौन छोड़ेगा!  बच्चों के साथ होने से माँ को भी अच्छा लगता ही है. ख़ैर! अभी इमोशनल होने जैसा कुछ नहीं है.

तो बात ये थी कि ये पर्सनल 'हड़प्पा' और 'मोहन जोदड़ो' हर घर में पाया ही जाता है जिसे हम आंग्ल भाषा में 'स्टोर' कहते हैं. ये कम्बख़्त स्टोर वह स्थान है जहाँ हम घर का वह सामान जमा करते हैं जो न फेंका जाता है और न रखा! जिसके बारे में घर के किसी न किसी सदस्य को मजबूती से लगता है कि "ये एक न एक दिन अवश्य काम आएगा!" अब ये बात अलग है कि जिस दिन उस विशेष वस्तु की  जरुरत होती है वो नहीं मिलती! आप पूरा स्टोर खाली कर दें तब भी नहीं ही मिलेगी! दरअसल हड़प्पा का मूल भाव ही यही है कि उसकी ख़ुदाई में मिली सामग्री को आने वाली पीढ़ियाँ देखती और सराहती हैं.
 
अब प्रश्न यह उठता है कि ये ' प्राइवेट हड़प्पा' होता ही क्यों है? बहुत शोध के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अपन लोग मल्टीप्लेक्स में भले ही 200 रुपये की पॉपकॉर्न बाल्टी भकोस लें या 80 के एक समोसे से अपनी स्वादेन्द्रियों को तृप्ति के अद्भुत भाव से रूबरू करायें और फिर सोशल मीडिया पर प्याज के बढ़ते दामों को लेकर गंभीर स्टेटस चिपकायें पर एक्चुअली में भारतीय बहुत सोच विचार के घर चलाते हैं. तभी तो हम टूथपेस्ट के ख़त्म हो जाने पर भी उसे दबोच-दबोचकर तब तक उसके प्राण हरते रहते हैं जब तक कि वो काग़ज़ की तरह flat होकर स्वयं ही इस जालिम दुनिया को अलविदा न कह दे! मैंने तो उसे हथौड़ी से पीटते लोग भी देखे हैं. हाय मोरे रब्बा!
और शैम्पू वाला काम तो आप भी करते हो न? याद करो वो दिन जब आपने जमकर बालों में तेल चपोड़ा था और शैम्पू की बोतल को हाथ में लेते ही फुसफुस हवा की मधुर ध्वनि निकली थी. फिर आपने कैसे उसमें पानी भर, जमकर मिक्सर की तरह हिलाया था! इतना शैम्पू बन गया था कि अगली तीन बार आपने उससे अपना काम चला लिया होगा. तभी तो आपने इस कला में निपुणता की डिग्री प्राप्त की थी.
बचे हुए नींबू के चौदह सौ प्रयोग और माचिस की तीली को बचाने का सुख कोई हम गृहिणियों से पूछे. पूरे दो पैसे बचाते हैं हम लोग.

तो भैया, 'अपना नंबर आएगा' की इसी बहुमूल्य सोच के आधार पर तमाम वस्तुयें स्टोर में सुरक्षित रख दी जाती हैं. तीन टाँग वाली टेबल को स्टूल बनाने के विचार से, टूटे स्टूल को पट्टा बनाने के विचार से और टूटे पट्टे को टूटे कचरेदान का ढक्कन बनाने के विचार से. पुराने कपड़ों को बदलकर बर्तन मिलते हैं और पुराने बर्तनों को बदलकर नया कुकर आ सकता है. पुरानी साड़ियों का दुबर बनेगा और वो पिचका वाला तकिया और थोड़ी उधड़ी जयपुरी रजाई दिल्ली वाली आंटी जी के ड्राईवर के लिए सुरक्षित रख दी जाती है. बेचारा कैसे सोयेगा वरना!
 हम भारतीयों की महानता के एकाध किस्से थोड़े ही न हैं! पुराने फ्लॉवर पॉट, डिज़ाइनर मटका यह सोचकर नहीं फेंका जाता कि एक दिन इसमें ग़ुलाब का पौधा होगा या फिर मनीप्लांट की लहलहाती बेल. पुरानी चादरें ब्याह-शादी में काम आयेंगी, सो उन्हें भी सँभाल लिया जाता है. केबल का तार, प्लग, आयरन, स्पीकर और भी न जाने क्या-क्या इस स्टोर में भरा जाता है. अजी! स्टोर कहाँ! अलादीन अंकल का चिराग़, भानुमती आंटी जी का पिटारा है ये तो. हर असंभव प्रश्न और विलुप्त वस्तु का एक ही इकलौता जवाब है, "स्टोर में मिलेगी!"
बच्चे भी पुरानी पुस्तकें इसमें टिका देते हैं कि रेफ़रेंस में लगेंगीं कभी. जबकि सच्चाई यह है कि भयानक पाठ्यक्रम के चलते वे करेंट बुक्स को ही जैसे-तैसे निबटा पाते हैं! उस पर जरुरत हुई भी तो स्टोर के अरब महासागर में गोते लगा पुरानी क़िताब रुपी मोती को ढूँढने से बेहतर और सरल वे अपने गूगल भैया को मानते हैं.
  
इस स्टोर में जाना मौत के कुँए में मोटर साइकिल चलाने से भी ज्यादा रिस्की है. इसकी सफ़ाई भी कोई एक दिन में ख़त्म नहीं होती! इसमें मिले सामान को पाकर गृहयुद्ध हो जाते हैं कि ये तब क्यों नहीं मिला था जब इसके बिना दुनिया उजाड़ थी. पर क्या करें, दीवाली का दस्तूर है कि सफ़ाई तो होगी! अब आपको इस दौरान सफ़ाइयाँ देनी पड़ें तो आप अपनी प्रॉब्लम ख़ुद समझ लो! हमने थोड़े ही न कहा था कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में सेंध लगाकर अपने 'पर्सनल हड़प्पा' की रियासतों का यूँ विस्तार करो! 😀
- प्रीति 'अज्ञात'

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

बापू और शास्त्री जी बार-बार जन्म नहीं लेते!

आज जबकि सम्पूर्ण देश महात्मा गाँधी की 150 वीं जयंती को धूमधाम से मनाने की तैयारियों में लगा है, ऐसे में धोती, लाठी और चश्मे से अपनी पहचान बनाने वाले हमारे सादगी पसंद बापू न जाने क्या प्रतिक्रिया देते! संभवतः वे सबके स्नेह और भावनाओं का आदर करते हुए उनके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते और मुस्कुराते हुए कहते, "ये पैसा गरीबों के काम भी तो आ सकता था न!"बापू को जब भी सोचा तो वही स्मित मुस्कान लिए प्रिय दादू- सा कोई चेहरा दिखाई दिया जो सदैव सही राह पर चलना सिखाता है। जिसके पास प्रत्येक समस्या का समाधान है और वो भी बिना मारपीट के समर्थन के! जिसका निश्छल, शांत स्वभाव और शालीन भाषा ऐसे अपनेपन में बाँध लेती है कि पल भर को भी यह महसूस नहीं होता कि ये दुनिया के सबसे महान व्यक्ति हैं।

'राष्ट्रपिता' कोई यूँ ही नहीं बन जाता, संस्कारों को लहू के साथ घोल एक पूरा जीवन जीना होता है। सबका सम्मान करना, किसी को भी नीचा न दिखाना, विरोधियों को धैर्यपूर्वक सुनना और सहजता से उनकी हर जिज्ञासा को शांत करना भी इसके अपरिहार्य गुण हैं। जो वास्तविक 'शान्तिदूत' होते हैं वे इसकी चर्चा करने से कहीं अधिक इसे स्वयं के जीवन में ढाल एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जो स्वच्छता की बात करते हैं वे अपने परिसर को स्वच्छ बनाए रखने में पूरा योगदान देते हैं। तात्पर्य यह कि आत्मस्तुति से कोसों दूर रहने वाले, अपने जीवन से जग को प्रकाशवान करने वाले, सच्चाई के मसीहा और हम सबके बापू ने अपने आप को 'महात्मा' सिद्ध करने का प्रयास कभी नहीं किया लेकिन फिर भी वे दुनिया भर में 'महात्मा गाँधी' कहलाए। विश्वशांति के लिए एवं भारत के सही मायनों में उत्थान के लिए गाँधी आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि 'गाँधी' जी व्यक्ति भर ही नहीं बल्कि समग्र विचारधारा है।

एक समय था जब गाँधी जी, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने का आह्वान करते और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाता था। अब वही भीड़ हत्याओं का सामूहिक उत्सव मनाती है। बात श्रीराम के नाम से विमुख हो 'हे राम!' तक पहुँच चुकी है।  
आज अगर गाँधी जी होते तो देश में विज्ञान और तकनीक के विकास को देख एक क्षण को मंत्रमुग्ध भले ही हो जाते लेकिन उन्हें यह देख अत्यधिक दुःख एवं पीड़ा अवश्य होती कि सबको शिक्षा, बराबरी का अधिकार, ग़रीबी, बेरोज़गारी,अस्पृश्यता, भेदभाव से मुक्ति इत्यादि जिन-जिन मुद्दों के लिए वे उम्रभर संघर्ष करते रहे वे सब आज भी जस-के-तस मुँह बाए खड़े हैं। भौतिक विकास जितना हुआ उससे कहीं अधिक मानसिक एवं नैतिक ह्रास हो चुका है। 

गाँधी जी जिन सिद्धांतों पर चलने की बात करते थे, उस पर अभी भी कुछ लोग टिके हुए हैं। वे गाँधी जी के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं। वे एक थप्पड़ के बाद दूसरा गाल भले ही आगे न करें, पर अपशब्द एवं हिंसा का प्रयोग नहीं करते एवं अपने सत्य के साथ अडिग खड़े रहते हैं। यही 'गाँधीगिरी' है जो अब यदाकदा ही देखने को मिलती है। जब गाँधी जी के हत्यारे के समर्थक राजनीति में प्रवेश करने लगें तो लोगों की गिरती मानसिकता और कुत्सित सोच समझने के लिए किसी अन्य जीवंत प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती है! दुर्भाग्य से उस समय ऐसा महसूस होता है कि अब सत्य और अहिंसा की विदाई का समय आ गया है. गाँधी जी यदि आज जीवित होते तो वे स्वयं ही आगे बढ़कर इन विजेताओं को बधाई देते और इस देश से चले जाते! 

गाँधी जी जिस सच के साथ खड़े होने का हौसला युवाओं में भरते रहे, आज वही सच बोलने में लोग लड़खड़ाने लगे हैं क्योंकि 'सच' को जेल जाते और 'झूठ' को ईनाम पाते सबने देखा है। बापू का वो भारत जहाँ सर्वधर्मसमभाव सबके ह्रदय में था, जहाँ सब बराबर थे, सबको जीने का हक़ था और जहाँ बुराई के रावण का दहन होता आया है। जहाँ  सत्य और अहिंसा को ही हथियार मान पूजा जाता है...उस भारत की तस्वीर में वो पहले सा नूर अभी नहीं दिखता पर इनसे सच्चे भारतीयों का हौसला टूट जाए, ऐसा भी नहीं! क्योंकि प्रिय बापू ने कहा था -
"जब मैं निराश होता हूँ, मैं याद कर लेता हूँ कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है। इसके बारे में सोचो- हमेशा।"
"मैं मरने के लिए तैयार हूँ, पर ऐसी कोई वज़ह नहीं है जिसके लिए मैं मारने को तैयार रहूँ।"
"आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है; अगर सागर की कुछ बूँदें गन्दी हैं, तो सागर गन्दा नहीं हो जाता।"
गाँधी जी सशरीर तो नहीं रहे पर हम सबके भीतर वे सदैव कहीं-न-कहीं जीवित बने रहें, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

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स्वतंत्रता पूर्व का किस्सा है।* "स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय जी ने 'सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाना था। आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री जी भी शामिल थे। उनको घरखर्च के लिए सोसाइटी की तरफ से 50 रुपए प्रतिमाह दिए जाते थे। जब वे जेल में थे तो वहाँ से एक उन्होंने पत्र में अपनी पत्नी को पूछा कि क्या उन्हें ये रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घरखर्च के लिए पर्याप्त हैं? ललिता जी ने उत्तर दिया कि यह धनराशि उनके लिए पर्याप्त है क्योंकि वे तो केवल 40 रुपये ही ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बच जाते हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत 'सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी' को पत्र लिखकर सूचित किया कि उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में चल रहा है अतः उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और शेष 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिए जाएँ।"

ऐसे थे, देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पद पर विराजमान, अत्यंत सरल स्वभाव एवं ईमानदार छवि वाले सर्वप्रिय शास्त्री जी। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी, महात्मा गाँधी के विचारों तथा जीवनशैली से अत्यंत प्रभावित थे। 'जय जवान, जय किसान' का नारा देने वाले शास्त्री जी के विचार एवं जीवनशैली देशवासियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।
वे कहा करते थे,
''जो शासन करते हैं उन्‍हें देखना चाहिए कि लोग प्रशासन पर  किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं। अंतत: जनता ही मुखिया होती है।''
उनका यह विचार आज भी कितना प्रासंगिक हैं -
'देश की तरक्की के लिए हमे आपस में लड़ने की बजाय गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना होगा।''

बापू और शास्त्री जी बार-बार जन्म नहीं लेते! सादर नमन
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* शास्त्री जी का प्रसंग गूगल से साभार