बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

बापू और शास्त्री जी बार-बार जन्म नहीं लेते!

आज जबकि सम्पूर्ण देश महात्मा गाँधी की 150 वीं जयंती को धूमधाम से मनाने की तैयारियों में लगा है, ऐसे में धोती, लाठी और चश्मे से अपनी पहचान बनाने वाले हमारे सादगी पसंद बापू न जाने क्या प्रतिक्रिया देते! संभवतः वे सबके स्नेह और भावनाओं का आदर करते हुए उनके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते और मुस्कुराते हुए कहते, "ये पैसा गरीबों के काम भी तो आ सकता था न!"बापू को जब भी सोचा तो वही स्मित मुस्कान लिए प्रिय दादू- सा कोई चेहरा दिखाई दिया जो सदैव सही राह पर चलना सिखाता है। जिसके पास प्रत्येक समस्या का समाधान है और वो भी बिना मारपीट के समर्थन के! जिसका निश्छल, शांत स्वभाव और शालीन भाषा ऐसे अपनेपन में बाँध लेती है कि पल भर को भी यह महसूस नहीं होता कि ये दुनिया के सबसे महान व्यक्ति हैं।

'राष्ट्रपिता' कोई यूँ ही नहीं बन जाता, संस्कारों को लहू के साथ घोल एक पूरा जीवन जीना होता है। सबका सम्मान करना, किसी को भी नीचा न दिखाना, विरोधियों को धैर्यपूर्वक सुनना और सहजता से उनकी हर जिज्ञासा को शांत करना भी इसके अपरिहार्य गुण हैं। जो वास्तविक 'शान्तिदूत' होते हैं वे इसकी चर्चा करने से कहीं अधिक इसे स्वयं के जीवन में ढाल एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जो स्वच्छता की बात करते हैं वे अपने परिसर को स्वच्छ बनाए रखने में पूरा योगदान देते हैं। तात्पर्य यह कि आत्मस्तुति से कोसों दूर रहने वाले, अपने जीवन से जग को प्रकाशवान करने वाले, सच्चाई के मसीहा और हम सबके बापू ने अपने आप को 'महात्मा' सिद्ध करने का प्रयास कभी नहीं किया लेकिन फिर भी वे दुनिया भर में 'महात्मा गाँधी' कहलाए। विश्वशांति के लिए एवं भारत के सही मायनों में उत्थान के लिए गाँधी आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि 'गाँधी' जी व्यक्ति भर ही नहीं बल्कि समग्र विचारधारा है।

एक समय था जब गाँधी जी, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने का आह्वान करते और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाता था। अब वही भीड़ हत्याओं का सामूहिक उत्सव मनाती है। बात श्रीराम के नाम से विमुख हो 'हे राम!' तक पहुँच चुकी है।  
आज अगर गाँधी जी होते तो देश में विज्ञान और तकनीक के विकास को देख एक क्षण को मंत्रमुग्ध भले ही हो जाते लेकिन उन्हें यह देख अत्यधिक दुःख एवं पीड़ा अवश्य होती कि सबको शिक्षा, बराबरी का अधिकार, ग़रीबी, बेरोज़गारी,अस्पृश्यता, भेदभाव से मुक्ति इत्यादि जिन-जिन मुद्दों के लिए वे उम्रभर संघर्ष करते रहे वे सब आज भी जस-के-तस मुँह बाए खड़े हैं। भौतिक विकास जितना हुआ उससे कहीं अधिक मानसिक एवं नैतिक ह्रास हो चुका है। 

गाँधी जी जिन सिद्धांतों पर चलने की बात करते थे, उस पर अभी भी कुछ लोग टिके हुए हैं। वे गाँधी जी के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं। वे एक थप्पड़ के बाद दूसरा गाल भले ही आगे न करें, पर अपशब्द एवं हिंसा का प्रयोग नहीं करते एवं अपने सत्य के साथ अडिग खड़े रहते हैं। यही 'गाँधीगिरी' है जो अब यदाकदा ही देखने को मिलती है। जब गाँधी जी के हत्यारे के समर्थक राजनीति में प्रवेश करने लगें तो लोगों की गिरती मानसिकता और कुत्सित सोच समझने के लिए किसी अन्य जीवंत प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती है! दुर्भाग्य से उस समय ऐसा महसूस होता है कि अब सत्य और अहिंसा की विदाई का समय आ गया है. गाँधी जी यदि आज जीवित होते तो वे स्वयं ही आगे बढ़कर इन विजेताओं को बधाई देते और इस देश से चले जाते! 

गाँधी जी जिस सच के साथ खड़े होने का हौसला युवाओं में भरते रहे, आज वही सच बोलने में लोग लड़खड़ाने लगे हैं क्योंकि 'सच' को जेल जाते और 'झूठ' को ईनाम पाते सबने देखा है। बापू का वो भारत जहाँ सर्वधर्मसमभाव सबके ह्रदय में था, जहाँ सब बराबर थे, सबको जीने का हक़ था और जहाँ बुराई के रावण का दहन होता आया है। जहाँ  सत्य और अहिंसा को ही हथियार मान पूजा जाता है...उस भारत की तस्वीर में वो पहले सा नूर अभी नहीं दिखता पर इनसे सच्चे भारतीयों का हौसला टूट जाए, ऐसा भी नहीं! क्योंकि प्रिय बापू ने कहा था -
"जब मैं निराश होता हूँ, मैं याद कर लेता हूँ कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है। इसके बारे में सोचो- हमेशा।"
"मैं मरने के लिए तैयार हूँ, पर ऐसी कोई वज़ह नहीं है जिसके लिए मैं मारने को तैयार रहूँ।"
"आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है; अगर सागर की कुछ बूँदें गन्दी हैं, तो सागर गन्दा नहीं हो जाता।"
गाँधी जी सशरीर तो नहीं रहे पर हम सबके भीतर वे सदैव कहीं-न-कहीं जीवित बने रहें, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

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स्वतंत्रता पूर्व का किस्सा है।* "स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय जी ने 'सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाना था। आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री जी भी शामिल थे। उनको घरखर्च के लिए सोसाइटी की तरफ से 50 रुपए प्रतिमाह दिए जाते थे। जब वे जेल में थे तो वहाँ से एक उन्होंने पत्र में अपनी पत्नी को पूछा कि क्या उन्हें ये रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घरखर्च के लिए पर्याप्त हैं? ललिता जी ने उत्तर दिया कि यह धनराशि उनके लिए पर्याप्त है क्योंकि वे तो केवल 40 रुपये ही ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बच जाते हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत 'सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी' को पत्र लिखकर सूचित किया कि उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में चल रहा है अतः उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और शेष 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिए जाएँ।"

ऐसे थे, देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पद पर विराजमान, अत्यंत सरल स्वभाव एवं ईमानदार छवि वाले सर्वप्रिय शास्त्री जी। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी, महात्मा गाँधी के विचारों तथा जीवनशैली से अत्यंत प्रभावित थे। 'जय जवान, जय किसान' का नारा देने वाले शास्त्री जी के विचार एवं जीवनशैली देशवासियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।
वे कहा करते थे,
''जो शासन करते हैं उन्‍हें देखना चाहिए कि लोग प्रशासन पर  किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं। अंतत: जनता ही मुखिया होती है।''
उनका यह विचार आज भी कितना प्रासंगिक हैं -
'देश की तरक्की के लिए हमे आपस में लड़ने की बजाय गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना होगा।''

बापू और शास्त्री जी बार-बार जन्म नहीं लेते! सादर नमन
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* शास्त्री जी का प्रसंग गूगल से साभार 

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