हम जिस दुनिया में रह रहे हैं वहाँ के लोगों ने अब तक हुई तमाम महामारियों के किस्से भर ही सुने हैं। लेकिन इन किस्सों को सुनना और उन्हें स्वयं जीना, उनका हिस्सा बनना एक अलग ही स्तर का अनुभव है। एक ऐसा दुखद अनुभव, जिसे कोई कभी भी नहीं जीना चाहेगा! सब चाहते हैं कि उनके जीवन की पुस्तक से, दर्द के तमाम पृष्ठ उखाड़ फेंक दिए जाएँ लेकिन कोरोना महामारी और इसकी पीड़ा, अब एक लिखित दस्तावेज़ की तरह हमारी जीवन दैनंदिनी में दर्ज़ हो चुकी है। ये एक ऐसा दुःख है जो न चाहते हुए भी सबके गले पड़ गया है। निश्चित रूप से 2020 में दुनिया भर के कई लोगों के जीवन में कुछ अच्छा भी हुआ ही होगा लेकिन कोविड-19 का प्रकोप हर खुशी पर भारी ही रहा! इसने न केवल सामान्य दिनचर्या को ही प्रभावित किया बल्कि मनुष्य को आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। नियमों का उल्लंघन और 'जो होगा, देखा जायेगा!' की मानसिकता इसी कुंठा से उपजा व्यवहार है जिसे किसी भी मायने में सही नहीं ठहराया जा सकता। इसके दुष्परिणाम भी मानव जाति को ही भोगने होंगे, हम भोग भी रहे हैं।
लॉकडाउन ने, न केवल उस समय ही तमाम दुकानदारों की कमर तोड़ दी थी बल्कि अब तक भी वे इससे उबर नहीं सके हैं। उत्सवों की रौनक़ कम होने और विवाह एवं अन्य आयोजनों में सीमित संख्या के नियम से बाज़ार बहुत अधिक प्रभावित हुआ है। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी मुसीबत की सर्वाधिक मार निर्धन को ही झेलनी पड़ी।सबसे अधिक फ़ाका उस निम्न वर्ग के ही हिस्से आया है, जिन्हें रोज़ सुबह उठकर उस दिन के चूल्हे का इंतज़ाम करना पड़ता था। उनका रोज़गार छूटा और इस बीमारी ने उनके हाथों से रोटियाँ ही छीन लीं। संक्रमण न होते हुए भी वे इसकी चपेट में आ गए।
'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है' की अवधारणा का सबसे पुष्ट प्रमाण इस वर्ष ही देखने को मिला, जब दूर शहर में रहने वाले लोग अपने प्रियजनों से मिलने की बेचैनी को महीनों जीते रहे। रोजी-रोटी कमाने गए लोग या विद्यार्थी अपने घर न जा सके! बेटियाँ मायके की दहलीज़ को छू लेने भर को तरसती रहीं! बच्चे, ददिहाल-ननिहाल के स्नेह आंगन से वंचित रहे। प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से मिलने की तीव्र उत्कंठा को ह्रदय में ही दबाए रहे! इसी सबके बीच मृत्यु का निर्मम तांडव भी चलता रहा। न जाने क्या-क्या बीता होगा उन दिलों पर, जो किसी अपने को खोने के बाद बिछोह के इस कठिन समय में उससे लिपटकर रो भी न सके, बिलखते हुए ये भी न कह सके कि 'तू हमें छोड़ यूँ चला क्यों गया?' इतनी हताशा और निराशा का अनुभव पहले कभी न हुआ कि जब हमारा कोई अपना हमसे बिछुड़े और हम उसे स्पर्श तक भी न कर सकें,मृतात्मा के अंतिम दर्शन तक को भी तरस जाएँ! सच! बड़ा ही दुखद समय रहा उन घरों में, जहाँ उन्हें अपने प्रियजन की निष्प्राण देह तक न देखने को मिली! अंतिम विदाई में जो उसके साथ दो क़दम भी न चल सके! कैसा दुर्भाग्य है ये कि लाशें किसी सामान की तरह पैक की जानें लगीं। उन्हें छू लेना भर भी किसी बीमारी के विस्फ़ोट का कारण लगने लगा।
बीमारी हो या मृत्यु, ह्रदय की तमाम संवेदनाओं को जागृत कर ही देती है लेकिन कोविड ने मनुष्य के इस भाव को भी लील लिया। एक-दूसरे के प्रति संदेह और दुर्व्यवहार की सैकड़ों घटनाओं से सोशल मीडिया भरा पड़ा है। कल तक जो अपना था, आज उसके लिए ह्रदय कैसा निष्ठुर सा हो गया! कुछ मरीज़ जो शायद अपनी रोग प्रतिरोधक शक्ति के चलते इस बीमारी को मात दे भी सकते थे, वो अपनों की दुर्भावना के शिकार हुए। इसके साथ ही मानसिकता का सबसे कुत्सित भाव भी देखने को मिला।जहाँ लाशों के गहने चोरी, उनसे बलात्कार और उनके अंगों को निकाल बेचने की तमाम भयावह घटनाओं ने मनुष्यता को और भी बदरंग, शर्मसार कर दिया। एक ओर जहाँ इस बीमारी ने जैसे जीवन के सारे अच्छे-बुरे रंगों से एक साथ साक्षात्कार करा दिया है तो वहीं कुछ नाम किसी नायक की तरह उभरे और उनकी हृदयस्पर्शी कहानियाँ हमारा मन भिगोती रहीं। इंसानियत पर हमारा विश्वास बनाए रखने में उन सभी का योगदान भुलाए नहीं भूलता, जो इस दुरूह समय में पूरी कर्त्तव्यपरायणता के साथ डटे रहे। इसमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लाखों-करोड़ों नाम सम्मिलित हैं जिन्हें यह बीमारी भी विचलित न कर सकी और वे पूरी निष्ठा और समर्पण से अपना काम करते रहे। यही वे लोग हैं जो इस दुनिया को जीने योग्य बनाते हैं, मानव को उसकी मानवता से जोड़े रखने का सशक्त उदाहरण बन प्रस्तुत होते हैं।
वैक्सीन की प्रतीक्षा का अंत बस होने को है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह कोई संजीवनी-बूटी नहीं है। समस्त देशवासियों को उपलब्ध होने में ही एक वर्ष से अधिक का समय लग जाएगा। हमारे तंत्र में इसकी डोज़ पहुँचते ही ये हमें 'कोरोना-प्रूफ़' नहीं कर देती! पहले इक्कीस दिन तो रोगप्रतिकारक (एंटीबॉडीज़) बनने की प्रक्रिया को प्रेरित करने में लगते हैं और उसके बाद के तीन सप्ताह में इसका निर्माण प्रारम्भ होता है। यानी वैक्सीन लगने के बाद भी दो माह तक आप उतने ही असुरक्षित हैं जितने कि बिना इसके थे। कुल मिलाकर हमें यह मान लेना चाहिए कि मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइज़ेशन अब हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है और अब ये जीवन इसके साथ ही सुरक्षित रूप से आगे बढ़ सकता है। इस तथ्य को भी स्वीकारना ही होगा कि कभी-न-कभी तो हमें बाहर निकलना ही है, अब घर में और बैठना संभव नहीं।
वज़न घटाना, योगाभ्यास करना, सुबह शीघ्र उठना जैसे तमाम संकल्पों को लेने के लिए नए साल के आने का इंतजार मत कीजिए। आज से ही शुरुआत कीजिए, ताकि 2021 आपको तरोताजा रूप में मिले। यह संकल्प सर्वाधिक आवश्यक है कि हम पूरी सुरक्षा अपनाते हुए एक जिम्मेदार नागरिक होने का परिचय भी दें। कोरोना-मुक्ति का उपाय तो अभी निकट में दिखता नहीं, तो क्यों न 'कोरोनो-युक्त समाज' के लिए अपने आपको तैयार करें। मानसिक और शारीरिक रूप से अपने आपको तैयार करके ही इस महामारी को साधारण बीमारी में बदला जा सकता है।
- प्रीति अज्ञात
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'हस्ताक्षर' दिसंबर अंक में प्रकाशित संपादकीय -
https://hastaksher.com/rachna.php?id=2658
सार्थक पोस्ट
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