शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

थोड़ी प्रसन्नता एवं बहुत-सी खोई हुई संवेदनाओं के साथ, नववर्ष में प्रवेश करता भारत

 

नववर्ष का आगमन किसी सुबह की तरह होता है जो हर रोज़ नई लगती है. कहने को इसमें कुछ भी नया नहीं होता, दिन के वही पहर हैं और समय की सुई भी प्रतिदिन एक ही दिशा में घूमती है. लेकिन फिर भी आँख खुलते ही एक नए उत्साह का संचार होता है, रात के सपने हृदय में कुलबुलाते हैं और उन्हें पूरा करने की चाह से दिन प्रारम्भ होता है. नववर्ष से भी नई उमंगों के साथ, नई चाहतें, नई उम्मीदें जुड़ ही जाती हैं. यद्यपि 2020 में कोरोना की तांडव लीला से त्रस्त जनमानस के लिए प्रसन्नता की बस एक ही बात हो सकती थी कि कोरोना से मुक्ति मिले! 2021 की देहरी पर पग रखते ही यह शुभ समाचार मिला कि न केवल कोविड-19 से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए टीके का निर्माण हो चुका है बल्कि हमारे भारत में 16 जनवरी से टीकाकरण अभियान भी प्रारम्भ हो गया है. विश्व भर में किसी वैक्सीन को लेकर इतनी बेचैनी, ऐसी प्रतीक्षा और उत्सुकता पहले कभी नहीं देखी गई. हमारी पीढ़ी ने पहली बार ही किसी महामारी का प्रकोप झेला है. अतः स्वाभाविक ही था कि इसकी वैक्सीन का जनता के लिए उपलब्ध होना देश भर में उत्सव की तरह मनाया जाए और यही हुआ भी. लेकिन अति उत्साह में भर यह नहीं भूल जाना है कि ख़तरा अभी टला नहीं! प्रत्येक नागरिक तक इसे पहुँचने में और इतनी बड़ी संख्या में टीके के निर्माण में अभी लम्बा समय लगेगा. जिनका टीकाकरण हो चुका है, वे भी इसे लगाते ही कोविड-19 प्रूफ़ नहीं हो गए हैं. यूँ भी दो डोज़ लगनी है. अतः पहला टीका लगते ही हमें मास्क को उछालकर फेंक नहीं देना है. टीका विशेषज्ञ (वैक्सीन एक्सपर्ट) का कहना है कि "हमारे शरीर में एंटीबॉडीज बनने की प्रक्रिया में न्यूनतम तीन सप्ताह लगते हैं यानी यदि आप आज वैक्सीन लेते हैं तब भी आप पर अगले तीन सप्ताह तक संक्रमण का भय मँडराता रहेगा! यह संकट इससे अधिक समय के लिए भी हो सकता है". इसलिए ये बात गाँठ बाँध ही लीजिए कि मास्क, सैनिटाइज़ेशन, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) के तमाम नियमों का पालन अब भी उतना ही आवश्यक है जितना पहले था. जब तक देश के प्रत्येक नागरिक को टीका (दोनों डोज़) नहीं लग जाता, तब तक अपनी और अपनों की पूरी सुरक्षा का दायित्व केवल और केवल हमारा है. इधर कोरोना वैक्सीन के बनते-बनते 'बर्ड फ्लू' देश में पाँव पसार चुका है. पक्षियों की जान साँसत में है लेकिन इससे सबका इतना ही लेना-देना है कि हम अपनी जान कैसे बचा सकें! इन मासूम पक्षियों के ज़िन्दा दफनाए जाने का समाचार, बस एक समाचार मात्र ही बनकर रह गया है क्योंकि भावुकता, संवेदनशीलता और पीड़ा के सारे भाव तो मनुष्य ने स्वयं तक ही सीमित रख छोड़े हैं. कुछ लोग रोते दिखे, तो पल भर को भ्रम हुआ कि संवेदनाएं अभी मरी नहीं! लेकिन फिर देखने पर पता चला कि वे तो व्यापार में घाटे के लिए विलाप कर रहे थे. इन पक्षियों को मौत के घाट तो वे स्वयं ही उतारा करते थे, जिससे उन्हें अच्छे दामों में बेचकर सबकी स्वादेन्द्रियाँ तृप्त करने का पुण्य कमा सकें और साथ-साथ वित्तकोष भी बढ़ता रहे. अब जब ये मुर्गे-मुर्गियाँ बीमारी से मरे तो इनके दुःख की सीमा ही न रही. कर्तव्यनिष्ठ प्रशासन ने अपनी चुस्तता दिखाते हुए स्वस्थ पक्षियों को भी मारने का आदेश दे दिया. कौन इन मासूमों के परीक्षण के चक्कर में पड़े! ये कहाँ जाकर अपना रोना रोएंगे! नन्ही सी जान, कुछ देर तड़पकर दम तोड़ देगी. इनकी मृत्यु के लिए कौन आंदोलन करने वाला है! चिड़ियाघरों को कुछ दिनों के लिए बंद करने का आदेश दे दिया गया है और कुछ स्थानों पर वहाँ के पक्षियों को मारने का भी! यानी पहले तो आप मनोरंजन के नाम पर किसी से उसकी स्वतंत्रता छीन लेते हैं और फिर अपनी सुविधानुसार उसका जीवन समाप्त करते हुए भी आपका हृदय एक पल को नहीं पसीजता! बात इतने पर ही नहीं ठहरती, कुछ समय बाद किसी प्रजाति के विलुप्त होने का भीषण विलाप भी किया जाता है. फिर 'इस चिड़िया को बचाओ', 'उस चिड़िया को बचाओ' जैसे स्लोगन से देश की दीवारें पाट दी जाती हैं. ये कैसा विकृत, निर्लज्ज और मलीन रूप है मनुष्य और उसकी तथाकथित मनुष्यता का, कि जिसका जीवन छीन रहा, उसी को बचाने का खोखला आह्वान भी कर बैठता है! कहने को तो देश भर में मकर संक्रांति का त्योहार भी धूमधाम से मनाया गया लेकिन दुख तब हुआ जब अन्नदाताओं से जुड़ा यह पर्व कुछ किसान स्वयं नहीं मना सके. राजधानी दिल्ली की ओर जाने वाली सड़कों पर इस भीषण सर्दी में जमा किसानों को देखना त्योहार का उत्साह फीका कर गया. तीन कृषि कानूनों को लेकर आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच का गतिरोध हल होता तो नहीं दिखता. रूठे रहने की कसम खाए बैठे दोनों पक्ष न जाने क्या बात करते हैं, पता नहीं चलता. आंदोलनकारी अड़े हैं कि कानून वापस लो, और सरकार की जिद है कि इसके अलावा कुछ भी ले लो. अब तो सुप्रीम कोर्ट का दखल भी सवालों के घेरे में आ गया है. पक्ष/विपक्ष की राजनीति जो वैक्सीन में चली, वह यहाँ भी निरंतर जारी है. साथ ही किसानों को बरगलाने की बात भी प्रचारित की जा रही है. हाँ, ये तो माना जा सकता है कि देश की जनता को मूर्ख बनाना, लुभाना और एक तिलिस्म में घेर लेना राजनीतिज्ञों का शगल रहा है. लेकिन किसान आंदोलन के मामले में बात उतनी सरल नहीं है. कई किसान संगठन, कानून के पक्ष में समर्थन देकर खुद को आंदोलन से अलग कर चुके हैं. पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली किसान नेताओं और संगठनों से इतर ये आंदोलन जाता नहीं दिखता. लेकिन, जहां तक सरकार की बात है, तो उसका फ़र्ज़ होना चाहिए कि किसी भी स्तर के आंदोलन को जल्द से जल्द बातचीत से हल कर खत्म करवाए. लेकिन, किसान आंदोलन के मामले में वर्तमान सरकार का रवैया बेहद ढीला और उदासीन नजर आया. मानो परवाह ही नहीं है. इस आंदोलन के सही-गलत और तर्क-कुतर्क की समीक्षा भी होती ही रहेगी पर उससे इतर एक सच यह है कि कृषकों का दुःख, देश का दुःख है. हम सबका जीवन इनका ही ऋणी है और सदैव रहेगा. समस्या का हल अवश्य ही निकाला जा सकता है, काश! दोनों पक्षों को निदा फ़ाज़ली साहब का यह शे'र याद रहे- मुमकिन है सफ़र हो आसाँ, अब साथ भी चल कर देखें कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें टीकाकरण अभियान की प्रसन्नता, बेहाल किसानों की चिंता और मारे गए पक्षियों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए इस वर्ष और आने वाले तमाम वर्षों से आशा रखते हैं कि हम अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करें, देशहित प्रधान रखें और जीव-जंतुओं के प्रति संवेदनशीलता के भाव जागृत कर, उनकी रक्षा हेतु अपने स्वर बुलंद करें. गणतंत्र दिवस की अशेष शुभकामनाएँ! जय हिन्द - प्रीति अज्ञात

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